Newslaundry Hindi
मानसिक स्वास्थ्य व्यवस्था का बुरा हाल
‘‘जिंदगी में कोई खास बदलाव नहीं आया था. मैं एक बेहतर जिंदगी जी रहा था. लेकिन मुझे लगने लगा कि मैं कुछ खो रहा हूं. एक डर मन में बैठ गया, इसकी वजह से काम पर भी असर पड़ने लगा. कुछ भी करता तो लगता कि गलत कर रहा हूं. किसी से दो दिन बात नहीं होती तो लगता वो नाराज़ है. लोग नाराज़ न हो इस वजह से कम बोलने लगा. दिमाग में अजीब-अजीब वाहियात ख्याल आते थे. ये अजीब परेशानी थी जिसका जिक्र भी मैं किसी से करता तो वो मजाक बना देता था. एक दिन मेरी दोस्त मुझे एक मनोचिकित्सक के पास ले गई. चार-पांच मुलाकात के बाद मैं कुछ ठीक महसूस करने लगे. लेकिन वहां हर मुलाकात के दो हज़ार रुपए देने होते थे. लोवर मिडिल क्लास का होने के कारण इतना खर्च करना मेरे बस में नहीं था, इसलिए मैंने वहां जाना छोड़ दिया.’’
यह कहना है दिल्ली के एक मीडिया संस्थान में काम करने वाले युवक का. मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों की परेशानियां इसी तरह की मजबूरियों में घिरी होती हैं. अव्वल तो लोग इस बात को स्वीकार ही नहीं करते कि उन्हें किसी तरह की मानसिक दिक्कत है. और अगर स्वीकार कर भी लिया तो इसके लिए आसानी से और सबकी पहुंच वाले सस्ते इलाज की सुविधा नहीं है. सीमित सैलरी वाले नौकरीशुदा आदमी के लिए महीने में आठ से दस हज़ार रुपए मनोचिकित्सक को देने का भार ही उसके ऊपर एक अतिरिक्त डिप्रेशन का कारण बनने लगता है.
भारत में मानसिक बीमारियों के प्रति जागरूकता की बेहद कमी है और इससे जुड़ी चिकित्सा सुविधाओं की उससे भी ज्यादा कमी है. पिछले दिनों सुविधाओं को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एचएल दत्तू ने इस बात का जिक्र करते हुए कहा था, ‘‘भारत में आज 13,500 मनोरोग चिकित्सकों की आवश्कता है, लेकिन 3,827 ही उपलब्ध हैं. 20,250 क्लीनिकल मनोरोग चिकित्सकों की आवश्कता है जबकि केवल 898 उपलब्ध हैं. इसी तरह पैरामैडिकल स्टाफ की भी भारी कमी है.’’
नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेन्टर में मानसिक स्वास्थ्य पर एनएचआरसी की राष्ट्रीय स्तर की समीक्षा बैठक में न्यायमूर्ति एचएल दत्तू ने बताया था कि देश में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को सुधारने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन अभी भी इस क्षेत्र में आवश्यक सुविधा और उपलब्धता के बीच खाई बनी हुई है.
ये स्थिति तब है जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद मानसिक बीमारी को लेकर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं. मानिसक बीमारी पर चिंता जाहिर करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था का जिक्र किया और कहा था कि भारत संभावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी के मुहाने पर खड़ा है और मानसिक बीमारी से प्रभावित 90 प्रतिशत मरीज चिकित्सा सुविधा से वंचित हैं.
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की चिंता के बावजूद मानसिक परेशानियों की तरफ सरकार ख़ास ध्यान नहीं दे रही है. हालात ये है कि प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो की ही 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार देश में केवल 3,500 मनोचिकित्सक है. और आज 2019 में यह संख्या 3,827 है यानी पिछले पांच सालों में डॉक्टर्स की संख्या में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्लूएचओ) की एक रिपोर्ट भारत में सरकारों की मानसिक बीमारियों के प्रति लचर रवैए को उजागर करती है. रिपोर्ट के अनुसार भारत में मानसिक इलाज के लिए वर्कफ़ोर्स बेहद कम है. एक लाख आबादी पर यहां महज 0.3 मनोचिकित्सक, 0.12 नर्स, 0.07 मनोवैज्ञानिक और 0.07 सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद हैं. हालांकि लोकसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया था कि देश में कितने मनोचिकित्सक, नर्स या सामाजिक कार्यकता है इसके आंकडें केंद्रीय स्तर पर नहीं रखे जाते हैं.
देश में कुल 43 मानसिक अस्पताल
डिप्रेशन की शिकार रही एक मीडिया संस्थान में काम करने वाली पत्रकार सुमन (नाम बदला हुआ) बताती हैं, मैं डिप्रेशन में थी, पर इसे स्वीकार करना भी मुश्किल था. मैं उन दिनों अपने प्रेमी से अलग हुई थी. उसके बाद मैं डिप्रेशन में चली गई. मैं अक्सर रोने लगती थी. बार-बार वाशरूम जाना पड़ता था. वक़्त लगा, लेकिन मैं इससे निकल गई. डिप्रेशन के इलाज में काफी पैसे खर्च होते है. सरकारी सुविधा नहीं होने के कारण प्राइवेट अस्पतालों के ही शरण में जाना पड़ता है. जहां वो लूटने के लिए बैठे हुए है.’’
भारत में मानसिक अस्पतालों और डॉक्टर की बदहाल स्थिति है. इसी साल 26 जुलाई को लोकसभा में दी लिखित जवाब में केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी चौबे ने बताया था कि देश में तीन केंद्रीय और 40 राज्यों द्वारा संचालित मानसिक अस्पताल चलाए जा रहे हैं.
अश्विनी चौबे द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार कुछ राज्यों में एक तो कुछ में तीन से चार मानसिक अस्पताल चल रहे हैं. वहीं कुछ राज्यों में एक भी अस्पताल नहीं है.
जनसंख्या के मामले में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तीन मानसिक अस्पताल है. यूपी की आबादी 228,959,599 है. वहीं महाराष्ट्र जो आबादी के मामले में दूसरे नम्बर पर है वहां की आबादी 120,837,347 हैं, वहां सरकारी आंकडें के अनुसार चार मानसिक अस्पताल है. तीसरे बड़े जनसंख्या वाले राज्य राज्य बिहार में सिर्फ एक मानसिक अस्पताल हैं. बिहार की आबादी जहां 119,461,013 हैं.
पंजाब, ओडिशा, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, असम, नागालैंड, दिल्ली और गोवा वो राज्य हैं जहां एक मानसिक अस्पताल मौजूद है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार तेलंगाना, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, और उत्तराखंड आदि राज्यों में एक भी मानसिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है.
स्वास्थ्य बजट का केवल 0.06 प्रतिशत मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च
सुमन की ही तरह ज्यादातर लोगों को यह स्वीकार करने में ही काफी वक़्त लग जाता है कि वो डिप्रेशन के शिकार हो चुके हैं. जो लोग समझ जाते हैं वो आसपास के लोगों से इसका जिक्र करने से बचते हैं. क्योंकि भारतीय समाज में इसको लेकर अभी जागरुकता की काफी कमी है. कई दफा लोग इसका मजाक भी उड़ाते हैं. जागरुकता की कमी की वजह से भी आज यह एक गंभीर समस्या का रूप ले चुका है.
मेंटल हेल्थ पर लम्बे समय से काम कर रही और लगातर उसको लेकर लिख रही पूजा प्रियवंदा बताती हैं, ‘‘भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सामाजिक भ्रांतियां और विभिन्न प्रकार के अन्धविश्वास तो हैं ही, यहां का स्वास्थ्य तंत्र भी मानसिक रोगों से पीड़ित व्यक्तियों और उनके परिजनों के सहयोग में कुछ अधिक नहीं कर पाता. भारत में मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के प्रति आम रवैया अपमानजनक और नकारात्मक रहता है. मानसिक रोगों को छिपाना भी आम है, क्यूंकि ऐसे व्यक्ति को अक्सर परिवार, समाज और कार्यस्थल पर बहिष्कार और भेदभाव का सामना करना पड़ता है. मानसिक रोग कोई एक अकेला रोग नहीं है, ये ऐसी अनेक चिकित्सकीय स्थितियां का योग है, जिनका गंभीर असर व्यक्ति के व्यवहार, व्यक्तिव, सोच-विचार की क्षमता और आत्मविश्वास पर पड़ता है. ऐसे व्यक्ति का पूरा परिवार और सम्बन्ध प्रभावित हो जाता है. ऐसे में स्वास्थ्य व्यवस्था की कमियों के कारण अधिकतर ऐसे रोगी और उनके परिवार आर्थिक, सामाजिक और मानसिक तनाव से जूझते हैं.’’
भारत में बढ़ती मानसिक बीमारियों को देखते हुए भारत सरकार ने ‘मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम’ 7 अप्रैल, 2017 को पारित किया था जो 7 जुलाई 2018 से लागू हुआ. इसका क्या असर हुआ इस सवाल के जवाब में पूजा बताती हैं, ‘‘भारत सरकार ने 2018 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (एनएमएचपी) की शुरूआत तो की है लेकिन इसके परिणाम आने में अभी समय लगेगा ये कहना मुश्किल है कि ये मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहे लोगों के लिए कितना प्रभावशाली रहेगा. एनएमएचपी के तीनों घटकों- मानसिक रोग से पीड़ित का उपचार, पुनर्वास और मानसिक स्वास्थ्य नियंत्रण एवं प्रोत्साहन के लिए सामाजिक चेतना की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी की कानून और स्वास्थ्य में नए परिवर्तनों की. फिलहाल बीमा कंपनियां तक मानसिक रोगों को स्वास्थ्य बीमा के तहत कवर नहीं करतीं, भारत अपने स्वास्थ्य बजट का केवल 0.06 प्रतिशत हिस्सा ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है. मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता, मानसिक स्वास्थ्य के लिए अस्पतालों की बेहद कमी है. सामाजिक चेतना, सरकार के नीतिगत और व्यवस्थागत परिवर्तनों से ही मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ सुधार होने की उम्मीद है.’’
कॉरपोरेट कंपनियों में स्वस्थ्य बीमा की सुविधा देने वाले साहिल शर्मा बताते हैं, ‘‘समान्यत: लोग मानसिक रोग को बीमा में शामिल नहीं करते हैं. लेकिन अगर कोई चाहता है कि उसे जोड़ा जाए तो हम उसके खर्चे को ध्यान में रखकर उनसे एक्स्ट्रा चार्ज करते हैं.’’
जागरूकता बेहद ज़रूरी
राजधानी दिल्ली स्थित मेंटल हेल्थ फाउंडेशन मानसिक बिमारियों को लेकर लोगों को लम्बे समय से जागरूक कर रहा है. फाउंडेशन हिंदी में मानसिक स्वास्थ्य पत्रिका नाम से ई-पत्रिका भी निकालता है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक मानसिक बीमारियों के बारे में जानकारी पहुंच सके.
ई-पत्रिका के संपादक अभय प्रताप बताते हैं, ‘‘मेंटल हेल्थ की परेशानी से उबरने में काफी वक़्त लगता है. इसमें इलाज काफी लम्बा चलता है. मरीज के देखभाल पर भी काफी खर्च होता है. उसके केयर के लिए लोगों की और सुविधाओं की ज़रूरत होती है. हालांकि सारे मरीज एडमिट नहीं होते जो काफी सीरियस परेशानी से गुजर रहे होते है उन्हें ही एडमिट करना पड़ता है. ऐसे में जिनके पास पैसे हैं वो किसी तरह इलाज करा लेते हैं लेकिन जिनके पास पैसे नहीं हैं वो बेचारे बिना इलाज के रह जाते है. और स्थिति खराब होने पर उन्हें संभालना मुश्किल होता है. इसलिए ज़रूरी है कि सरकार मेंटल हेल्थ की तरफ ध्यान दें.’’
मेंटल हेल्थ को लेकर समाज में फैसली भ्रांति को लेकर अभय प्रताप बताते हैं, ‘‘सबसे पहली बात मेंटल हेल्थ के व्यक्ति को हम मरीज समझें. हमने पत्रिका शुरू की इसके पीछे सबसे बड़ी वजह थी कि आम आदमी में जागरूकता बढ़े. लोगों को मानसिक बीमारी के लक्षण पता चलें. कई दफा परिजन बच्चों के व्यवहार में आए बदलाव को बदमाशी समझते हैं जबकि वो परेशानी से गुजर रहे होते है. किसी ना किसी मानसिक समस्या से परेशान होते हैं और उसे इलाज की ज़रूरत है. अनपढ़ लोगों की बात तो छोड़ दीजिए पढ़े लिखे लोग भी मेंटल हेल्थ को लेकर जागरुक नहीं हैं. मेंटल हेल्थ को समझने में जितनी देरी होगी वो और भी खतरनाक होता जाएगा. सरकारी सुविधाएं देश में अपर्याप्त है, जागरुकता का भी आभाव है लेकिन सरकार को जल्द से जल्द इस तरफ ध्यान देना होगा नहीं तो परेशानी बढ़ती जाएगी.’’
पुनर्वास का हो इंतज़ाम
मेंटल हेल्थ के इलाज में कई बार काफी लम्बा वक़्त लगता है. मरीजों की परेशानी बढ़ती जाती है जिसके कारण वो परिवार के लिए बोझ बन जाते हैं. कई मामलों में ऐसा भी देखने को मिलता है कि परिवार के लोग ऐसे लोगों को छोड़ देते है. ऐसे मरीजों के लिए पुनर्वास का इंतजाम नहीं के बराबर है.
लखनऊ स्थित केजीएमयू मेडिकल कॉलेज के मानसिक रोग विभाग से रिटायर प्रोफेसर एसी तिवारी बताते हैं, ‘‘पिछले कुछ सालों में लोगों में मेंटल हेल्थ को लेकर जागरुकता बढ़ी है लेकिन सरकारी सुविधाओं की कमी को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं. आज ज़रूरत है कि हर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर मनोचिकित्सक रखे जाएं. यूपी के लगभग चालीस जिला अस्पतालों में मनोचिकित्सक हैं लेकिन प्राथमिक स्तर पर अगर सुविधाएं दी जाएं तो काफी मरीज शुरुआती स्टेज में ही ठीक हो सकते है.’’
एसी तिवारी आगे कहते हैं, ‘‘सरकार इलाज का इंतजाम तो करें ही लेकिन सबसे ज़रूरी है मेंटल हेल्थ के मरीजों के पुनर्वास का इंतजाम करना. आज पुनर्वास का कोई खास इंतजाम नहीं है. जागरुकता और इलाज मिलने के कारण ज्यादातर मरीज कुछ दिनों में ठीक हो जाते हैं लेकिन लगभग 10 प्रतिशत मरीज परिजनों पर बोझ बन जाते हैं. ऐसे मरीजों के लिए सरकार पुनर्वास का इंतजाम करे. ताकि वो किसी पर बोझ ना बने. ऐसा भी देखा गया है कि पुनर्वास के दौरान बहुत सारे मरीज धीरे-धीरे ठीक भी हो जाते हैं.’’
Also Read
-
Can Amit Shah win with a margin of 10 lakh votes in Gandhinagar?
-
Know Your Turncoats, Part 10: Kin of MP who died by suicide, Sanskrit activist
-
In Assam, a battered road leads to border Gorkha village with little to survive on
-
‘Well left, Rahul’: In Amethi vs Raebareli, the Congress is carefully picking its battles
-
Reporters Without Orders Ep 320: What it’s like to be ‘blacklisted’ by India