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ट्रंप-तालिबान: रास्ते अलग होने के बाद का रास्ता क्या है?

तालिबान और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के साथ होने वाली ‘गुप्त बैठक’ को रद्द करने का अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का निर्णय आश्चर्यजनक है. ख़ुद को ‘स्मार्ट डीलमेकर’ कहने वाले राष्ट्रपति ट्रंप बीते कई महीनों से तालिबान से चल रही बातचीत को लेकर उत्साहित थे और इस प्रक्रिया को अपनी बड़ी उपलब्धि बता रहे थे. इस प्रक्रिया में रूस, चीन और पाकिस्तान की भी बड़ी सक्रियता रही है.

अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने निर्णय के पीछे काबुल में अमेरिकी दूतावास के बाहर हुए तालिबानी हमले का हवाला दिया है तथा विदेश सचिव माइक पॉम्पियो ने कहा है कि जब तक अमेरिकी हितों और सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया जाता है और हिंसा में कमी नहीं होती है, तब तक शांति वार्ता की बहाली नहीं होगी. लेकिन पॉम्पियो ने यह भी भरोसा जताया है कि राष्ट्रपति ट्रंप इस प्रक्रिया को बरक़रार रखेंगे. इससे साफ़ इंगित होता है कि कैम्प डेविड की बैठक के रद्द होने की वजह यह है कि समझौते पर सहमति नहीं बन पायी थी.

तालिबान की मांग है कि इस महीने होने वाले अफ़ग़ान चुनाव को स्थगित किया जाए, पर अफ़ग़ान राष्ट्रपति और सरकार इससे सहमत नहीं हैं. इसका एक मतलब यह भी है कि चुनाव रोकने की अमेरिका की सलाह भी नहीं मानी गयी है. तालिबान यह भी चाहता है कि अमेरिका देश से बाहर निकलने की योजना की स्पष्ट जानकारी दे, जिस पर अमेरिका तैयार नहीं हो पा रहा है. ऐसे में राष्ट्रपति ट्रंप किसी असफल बातचीत का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे. वे यह भी नहीं चाहते हैं कि अगले साल राष्ट्रपति चुनाव के समय अफगानिस्तान में तालिबान का भयावह तमाशा खड़ा हो जाए और इसका ठीकरा उनके सर फोड़ा जाए.

यह भी समझा जाना चाहिए कि उत्तर कोरिया के चेयरमैन से उनकी बैठकें या फिर रूसी राष्ट्रपति से मुलाक़ातें या ईरान से बातचीत की पेशकश जैसे मामलों से तालिबानी नेतृत्व से बैठक करने का मामला अलग है. अमेरिका में और दुनिया के बड़े हिस्से में तालिबान की छवि बर्बर आतंकी गिरोह की है. ‘गुप्त बैठक’ रद्द करने के राष्ट्रपति ट्रंप के ट्वीट के बाद उनकी पार्टी के ही कुछ नेताओं ने इस पर आपत्ति जतायी है. तालिबान से समझौता कर अफगानिस्तान से बाहर निकलने की रणनीति की भी आलोचना होती रही है.

जिस तरह से इस प्रक्रिया से अफगानिस्तान सरकार को बाहर रखा गया है, उससे अफगानिस्तान में भी अमेरिकी रवैए के प्रति क्षोभ है. इसका एक पहलू पाकिस्तान का बढ़ता हस्तक्षेप भी है. इस नई स्थिति से अशरफ़ ग़नी को कुछ संतोष ज़रूर हुआ होगा और अनेक अफ़ग़ानियों ने भी ख़ुशी जतायी है. पर, जैसा कि ऊपर कहा गया है, यह एक अस्थायी मोड़ है.

पिछले हफ़्ते ही अमेरिकी वार्ताकार ने कहा था कि नौ चरणों की बातचीत के बाद सैद्धांतिक सहमति हो चुकी है. विदेश सचिव ने भी बातचीत जारी रहने की उम्मीद जतायी है. इसलिए, भारत को भी बहुत सावधानी से घटनाओं को देखना होगा तथा इस बैठक के रद्द होने से ज़्यादा ख़ुश नहीं होना चाहिए.

तालिबान के सत्ता में आने की स्थिति निश्चित रूप से भारत के लिए चिंताजनक है क्योंकि पाकिस्तान और तालिबान मिलकर भारत को अस्थिर करने की कोशिश कर सकते हैं. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय हितों तथा समर्थकों को परेशानी हो सकती है. अब जब यह बातचीत फिर से कभी शुरू होगी, तो भारत को अपनी भूमिका के बारे सोच-विचार कर लेना चाहिए. अफ़ग़ानिस्तान में विकास कार्यों में सहयोग करने तथा सरकार के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने के बावजूद शांति बहाली की प्रक्रिया में भारत की प्रत्यक्ष या परोक्ष भागीदारी नहीं होना ठीक बात नहीं है. इससे पता चलता है कि हमारी सरकार के पास इस संबंध में कोई ठोस नीति नहीं है तथा हम अमेरिका, रूस और चीन के भरोसे अपने हितों को साधना चाहते हैं.

राष्ट्रपति ट्रंप के ट्वीट पर तालिबानी प्रतिक्रिया को भी ध्यान से देखा जाना चाहिए. उसकी ओर से कहा गया है कि इसमें अमेरिका का ही नुकसान ज़्यादा है. अपने ’18 साल के संघर्ष’ का हवाला देते हुए तालिबान ने कहा है कि ‘विदेशी दख़ल’ के ख़ात्मे तक यह जारी रहेगा. हालांकि तालिबान ने भी अमेरिकी विदेश सचिव की तरह अब तक की प्रक्रिया पर संतोष जताया है.

भले ही अफ़ग़ान सरकार की ओर से यह कहा जा रहा हो कि तालिबान को कूटनीति की समझ नहीं है और वह अपने आतंकी रवैए की तरह ही समझौता करना चाहता है, पर इस मामले का एक पहलू यह भी है कि शायद बिना कुछ ठोस हासिल किए कैम्प डेविड जाकर तालिबान राष्ट्रपति ट्रंप के तमाशे का हिस्सा नहीं बनना चाहता था.

इस ‘गुप्त बैठक’ की जानकारी दुनिया को देकर राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने पार्टी के कुछ नेताओं के साथ विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी और उदारवादी मीडिया के लिए आलोचना का अवसर भी मुहैया करा दिया है. अब उन पर भी दबाव बढ़ जाएगा कि अगले साल चुनाव तक अफगानिस्तान से सेना हटाकर अपने विजय की घोषणा कर चुनावी वादा पूरा करें.

जैसा कि ऊपर कहा गया है, इसमें तालिबान के क़हर का नुकसान भी हो सकता है. या, फिर आख़िरी समझौते को साल भर के लिए टाल दिया जाए. ऐसे में ट्रंप के ‘स्मार्ट डीलमेकर’ के बड़बोलेपन को बड़ा झटका लगेगा. बहरहाल, सभी पक्षों के बयानों के साथ उनके पीछे के मतलब को भी समझा जाना चाहिए और यह प्रार्थना करनी चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान में ख़ून-ख़राबा बंद हो, हालांकि इसकी उम्मीद न के बराबर ही है.