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इमरान ख़ान : बिखरते देश का भटकता प्रधानमंत्री
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी अब इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि परंपरागत युद्ध में भारत से जीतना पाकिस्तान के बस का नहीं है. फिर वे कौन–सा युद्ध भारत से जीत सकते हैं? वे परमाणु युद्ध की तरफ इशारा करते हैं. उन्हें मालूम नहीं है शायद कि बाउंसर फेंकने और बम फेंकने में फर्क होता है. क्रिकेट के मैदान में बाउंसर फेंकने के लिए बॉलर जितना आजाद होता है, दुनिया का कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बम फेंकने के लिए उतना भी आजाद नहीं है.
बमों का बड़ा–से–बड़ा जखीरा जमा करने की होड़ में पड़ी दुनिया में हिरोशिमा–नागासाकी के बाद कभी, कहीं परमाणु बम नहीं गिराया गया है, तो इसका कारण यह नहीं है कि दुनिया के सारे राष्ट्राध्यक्ष बुद्ध और गांधी के अनुयायी हो गये हैं. हिरोशिमा–नागासाकी पर हुआ परमाणु बम का प्रयोग अब तक का पहला व आखिरी उदाहरण है, तो इसलिए कि दुनिया दिनोदिन कहीं ज्यादा जटिल व खतरनाक होती गई है.
कश्मीर में भारत सरकार ने जैसी मूढ़ता की है वैसी ही किसी बड़ी मूढ़ता से इमरान उसका जवाब देना चाहते हैं जबकि वे जानते हैं कि उनके अपने घर में आग लगी हुई है. लेकिन वे पाकिस्तान के निरीह, पामाल और असहाय लोगों को उन्मादित करने में लगे हैं ताकि सारी दुनिया के मुसलमान कश्मीर का बदला लेने के लिए भारत पर टूट पड़ें. लेकिन लगता नहीं है कि कोई भी मुल्क, इस्लामी या गैर–इस्लामी, आज पाकिस्तान के साथ खुद को जोड़ना चाहता है.
कभी परमाणु बम अमेरिका और सोवियत संघ के एकाधिकार में था. हमें समझाया गया था कि चूंकि दोनों के पास परमाणु बम हैं, इसलिए दोनों शक्ति–ध्रुवों के बीच शांति बनी रहने की गारंटी भी है. कहा जाता रहा कि युद्ध से बचने का या युद्ध टालने का एक रास्ता विनाश का भय पैदा करना भी है. भारतीय संस्कृति के तथाकथित ज्ञाताओं ने रामायण को अपने समर्थन में ला खड़ा किया था– तुलसीदास ने कहा है : भय बिनु होहिं ना प्रीति !
फिर वह बम दो मुल्कों की मुट्ठी से निकल कर पांच की मुट्ठी में पहुंच गया. ये सभी अपने वक्त के सबसे जंगखोर मुल्क थे; औपनिवेशिक शोषण का खून जिनके मुंह लगा था. इस बार फिर हमें समझाया गया – चोरों को दरबान की नौकरी पर रख लेना चोरी से छुटकारा पाने का एक गारंटीशुदा उपाय है. हमने यह सीख भी पचा ली. फिर पांचों ने यह साजिश रची कि दुनिया में दूसरा कोई मुल्क बम न बना सके, तो बाकायदा एक संधि–पत्र बना– आण्विक विस्तार निरोधक संधि. और दुनिया से कहा गया कि सभी इस पर दस्तखत करें.
दस्तखत करने वालों को लाभ का लालच और न करने वालों को प्रत्यक्ष या प्रछन्न धमकी भी दी गई. हमने इस संधि–पत्र पर दस्तखत नहीं किया. हमने कहा कि शांति के पैरोकारों में हमारा नाम सबसे ऊपर है और हमें उसका गर्व भी है. हम बम बनाने भी नहीं जा रहे हैं लेकिन निर्णय करने की अपनी स्वतंत्रता हम किसी दूसरे के पास बंधक रखने को तैयार नहीं हैं.
निर्णय की आजादी की इस टेक का हमने भी समर्थन किया हालांकि हमें आशंका थी कि इस नैतिक टेक के पीछे कोई बेईमानी भी छिपी हो सकती है. वही हुआ. अटल बिहारी वाजपेयी के हिंदुस्तान ने भी और नवाज शरीफ के पाकिस्तान ने भी, नहले पर दहला मारते हुए बम फोड़ दिया.
तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हमें समझाया कि यह काम तो इंदिरा गांधी भी करना चाहती थीं, नरसिंह राव भी इसी कोशिश में थे. लेकिन अमेरिकी दवाब के कारण वे पीछे हट जाते थे. अटलजी बोले : मैंने अटल रह कर वह कर दिया ! और फिर उन्होंने यह भी कहा कि हम परमाणु ऊर्जा का शांतिमय इस्तेमाल करेंगे, कि पहला आणविक आक्रमण हम कभी नहीं करेंगे. ऐसी कोई संधि भी पाकिस्तान के साथ हुई शायद.
इसके बाद जब भी हमारे दो मुल्कों के बीच तनातनी बनी, कभी इधर से तो कभी उधर से याद दिलाया जाता रहा कि हम दोनों के हाथ में परमाणु बम है, यह भूलने जैसी बात नहीं है. बम का डर मन की शांति भले न रच सके, लाचारी की शांति तो बना ही सकता है, ऐसा लगा. पाकिस्तान की तमाम मूर्खताओं व कुटिलताओं, संसद पर आक्रमण, मुंबई पर हमला जैसी उत्तेजनात्मक कार्रवाई के बावजूद हमने बम का धमाका तो नहीं ही किया, बम की धमकी भी नहीं दी.
उत्तेजना के पल में ऐसी धीरता कायरता या अनिर्णय का नहीं, दायित्व–बोध से पैदा विवेक का परिचय देती है. क्यूबा के संकट के वक्त, अक्तूबर 1962 में, जब सारी मानवता का विनाश बस दो पल की दूरी पर खड़ा था और अमेरिकी सैन्य सलाहकार अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी पर दवाब डाल रहे थे कि यही सबसे मुफीद पल है कि हम क्यूबा की रूसी मिसाइलों पर हमला बोल दें, केनेडी ने बम की तरफ नहीं, फोन की तरफ कदम बढ़ाया था.
केनेडी ने रूसी प्रधानमंत्री ख्रुश्चेव से कहा था : सारे संसार की भावी पीढ़ी को सामने रख कर हमें पीछे हट जाना चाहिए! अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का वह सबसे सौंदर्यवान पल था. अमेरिका सागर में पीछे हटा, रूस क्यूबा से निकल गया. किसी ने शेखी नहीं बघारी कि हमारे पास बम है और मानवता की किस्मत मेरी मुट्ठी में बंद है.
आज एक प्रधानमंत्री महज एक चुनाव जीतने के जुनून में भीड़ के उन्माद को उकसाता है कि हमने बम दीवाली के लिए रखे हैं क्या? जवाब में कोई पाकिस्तान की ओर से कहता है कि हमने भी ईद के लिए तो बम नहीं रखे हैं! मतलब बम न हुआ, दीवाली या ईद की मिठाई हो गई कि जिसके बंटवारे का मालिकाना हक किसी दूसरे के पास है.
क्या वक्ती तौर पर जिन्हें देश चलाने की जिम्मेवारी मिलती है उन्हें यह अधिकार भी मिल जाता है कि वे चाहें तो सारे देश का विनाश कर दें? यह लोकतंत्र की गलत समझ का ही नहीं, नेतृत्व कर सकने की आपकी अक्षमता का भी प्रमाण है. जो कूटनीति में फिसड्डी साबित होते हैं, जो पड़ोसियों के बीच अकेले पड़ जाते हैं, जो भीतर से बेहद असुरक्षित व कायरता से भरे होते हैं वे ही बम के विनाश की धमकी को खिलौना बनाने की भद्दी कोशिश करते हैं. इमरान खान आज ऐसा ही कर रहे हैं. हमारी तरफ से भी जवाब उतना ही कुरूप है.
लेकिन यह भी हुआ है कि यह सच्चाई विश्व–मान्य हो गई है कि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है. अब तक हम कहते थे, अब सभी मान रहे हैं. अब जो गांठ है वह भारत, भारत सरकार, कश्मीर और कश्मीर सरकार के बीच है. अब तक का इतिहास बताता है कि हम अपने आंतरिक मामलों को हल करने में बेहद नाकारा व गैर–ईमानदार साबित हुए हैं. आगे भी ऐसा ही रहा तो कश्मीर हमारे लिए बहुत टेढ़ी खीर साबित होगा.
लेकिन पाकिस्तान के इमरान खानों को अब हिंदुस्तान की तरफ नहीं, अपने पाकिस्तान की तरफ देखना चाहिए. उनका पूरा मुल्क दर्द की अकथनीय कहानी बन गया है. ऐसे में दुनिया भर के मुसलमानों को कश्मीर के संदर्भ में एकजुट होने का आह्वान करना पाकिस्तान की हत्या करने के बराबर है. यहां–वहां के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का सवाल इमरान जिस तरह उठा व उठवा रहे हैं, उससे पाकिस्तान का माखौल भी बन रहा है और आम पाकिस्तानी का मनोबल भी टूट रहा है.
फौज के चंगुल में फंसी अपनी गर्दन की फिक्र करें इमरान यह तो समझ में आता है लेकिन पाकिस्तानी जम्हूरियत को मजबूत करना छोड़ कर, इमरान फौज की सांठगांठ से अपनी कुर्सी मजबूत करने में लग जाएं, तो वे वही खेल खेल रहे हैं जो उनसे पहले के कई हुक्मरानों ने खेला है और फौज के हाथों तमाम हुए हैं.
ऐसा कर के इमरान न संसार का समर्थन पा सकेंगे, न सहानुभूति! अमेरिकी डॉलर के बल पर खड़ा पाकिस्तान अब भले चीनी यूआन के बल पर खड़ा होने की करामात करे, इससे पाकिस्तान तो कभी खड़ा नहीं हो सकेगा. पाकिस्तान भारत से सीधे युद्ध में दो–दो बार हार चुका है, वह दो टुकड़ों में टूट भी चुका है. उसका राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक जीवन तहस–नहस हो चुका है. ऐसा पड़ोसी हमारे लिए भी पुरअमन नहीं है.
यह बात कम ही रेखांकित की गई है कि पाकिस्तान का राजनीतिक नेतृत्व चाहे जितना कायर व भ्रष्ट रहा हो, अवाम हर मौके पर बाहर आ कर जम्हूरियत की ताकतों को मजबूती देती रही है. उसके इस जज्बे को सलाम कर, इमरान इसे मजबूत बनाएं; पक्ष–विपक्ष भूल कर सारे पाकिस्तान में खुले संवाद का माहौल बनाएं. इससे ही उन्हें भी ताकत मिलेगी. इस कोशिश में उनकी गद्दी जाती हो तो वे ज्यादा ताकत से वापसी कर सकेंगे. पाकिस्तान की आर्थिक ताकत इसके पारंपरिक उद्योग–धंधों में छिपी है. उसे सहारे व प्रोत्साहन की सख्त जरूरत है.
एक बिखरते देश का भटकता प्रधानमंत्री इतना कर सकेगा?
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