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इज़रायल में फिर त्रिशंकु संसद : नेतन्याहू का डोलता सिंहासन
इज़रायल में इस साल अप्रैल में हुए चुनाव की तरह 17 सितंबर के चुनाव में भी बहुमत वाली सरकार के आसार नहीं हैं. हालांकि आधिकारिक रूप से अभी तक लगभग 65 फ़ीसदी वोटों की गिनती के नतीजे आए हैं, लेकिन इज़रायली मीडिया 91 से 95 फ़ीसदी वोटों के रुझान बता रही है. दोनों ही रुझान एक ही तरह के संकेत दे रहे हैं. माना जा रहा है कि बेनी (बेन्यामिन) गांज की अगुवाई में मुख्य विपक्षी पार्टी ब्लू एंड व्हाइट पार्टी को 33 सीटें और प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू की लिकुड पार्टी को 32 सीटें मिल सकती हैं. पिछले चुनाव में लिकुड को 36 सीटें मिली थीं और गांज की पार्टी एक सीट पीछे रह गयी थी. तब नेतन्याहू के नेतृत्व में सरकार का गठन तो हो गया था, पर वे 120 सीटों की क्नेसेट में बहुमत नहीं जुटा सके थे.
मौजूदा रुझानों से भी यही लगता है कि कुछ महीने बाद इज़रायल में फिर चुनाव हो सकते हैं. इस अनुमान का आधार यह है कि एक ओर जहां नेतन्याहू ‘मजबूत ज़ायोनिस्ट’ सरकार बनाने की जुगत लगाने का ऐलान कर चुके हैं, वहीं बेनी गांज किसी भी ऐसी सरकार का समर्थन करने से बार-बार इनकार कर चुके हैं, जिसके नेता नेतन्याहू हों. प्रधानमंत्री बनने का ऐसा मौक़ा गांज को फिर शायद ही मिल सकेगा, सो उन्होंने भी ऐसी सरकार का दावा किया है, जो ‘जनादेश के अनुकूल’ हो.
नेतन्याहू के कभी क़रीबी और उनकी सरकार में पिछले साल तक मंत्री रहे एविडोर लिबरमैन की पार्टी को भी आठ से नौ सीटें मिलती नज़र आ रही हैं तथा उन्हें मीडिया के बड़े हिस्से में ‘किंगमेकर’ की भूमिका में देखा जा रहा है. लेकिन लिबरमैन इससे भी बड़ी भूमिका की चाहत रखते हैं. इस साल मई में उन्होंने नेतन्याहू को एक ही शर्त पर समर्थन देने की बात कही थी कि उन्हें ऐसा क़ानून लाना होगा, जिसमें इज़रायली सेना में अनिवार्य रूप से सेवा करने से अति-रूढ़िवादी हेरेदी यहूदियों को मिली छूट को वापस लिया जायेगा. इस मांग पर वे अब भी अड़े हुए हैं. इसके अलावा उनकी चाहत है कि एक ‘ज़ायोनिस्ट यूनिटी’ सरकार का गठन हो, जिसमें दोनों मुख्य पार्टियां- लिकुड और ब्लू एंड व्हाइट- के साथ उनकी भागीदारी हो. इस सरकार का मुख्य काम इज़रायल की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था की बेहतरी होगा. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि यूनिटी सरकार का प्रस्ताव मंज़ूर हो, तभी नेतन्याहू और गांज उनसे संपर्क करें.
हालांकि लिबरमैन को कथित तौर पर एक ‘सेकुलर’ नेता के रूप में देखा जाता है, पर फ़िलीस्तीनीयों और उनकी ज़मीनों पर अवैध दख़ल के मामलों पर उनकी राय नेतन्याहू से बहुत अलग नहीं है. यही बात बेनी गांज के बारे में भी कही जा सकती है. अंतर है भी, तो बस इतना कि लिबरमैन फ़िलीस्तीनी इलाक़ों में यहूदियों की अवैध बस्तियों की अदला-बदली इज़रायल के भीतर की अरब बस्तियों से करना चाहते हैं. इसका एक कारण है कि वे ख़ुद वेस्ट बैंक में ऐसी ही एक अवैध बस्ती में रहते हैं. अपने को ‘लिबरल’ और ‘लिबरल-लेफ़्ट’ कहने वाले इज़रायली अख़बार ‘हारेट्ज’ में लिबरमैन के संदर्भ में पत्रकार एलीसन काप्लान सोमर ने बड़ी दिलचस्प टिप्पणी की है. वे लिखती हैं कि ऐसे आक्रामक नेताओं के लिए इज़रायलियों में एक भूख होती है, जो धार्मिक दबाव की स्थिति में सेकुलर लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने को इच्छुक हों. यही बात मुख्य विपक्षी नेता गांज के बारे में भी कही जा सकती है, जिनकी फ़िलीस्तीनी मसले पर राय नेतन्याहू से मेल खाती है, पर वे चाहते हैं कि सिविल मैरिज की छूट हो यानी लोगों को अपनी इच्छा से शादी करने का अधिकार होना चाहिए.
नेतन्याहू के लिए प्रधानमंत्री बने रहना जीवन-मरण का प्रश्न है. वे भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों से घिरे हुए हैं तथा इनके दोषी पाए जाने की बड़ी संभावना है. अक्टूबर के शुरू में ही मामलों की सुनवाई की प्रक्रिया प्रारंभ हो जायेगी. ऐसे में कोई भी गठबंधन उन्हें ढोना नहीं चाहेगा. गांज ने भी कहा है कि यदि लिकुड पार्टी नेतन्याहू को हटा दे, तो साझा सरकार के बारे में बात हो सकती है. इसके अलावा कई इज़रायली नेतन्याहू के उन्मादी अरब विरोध को नापसंद करते हैं. कुछ का यह भी मानना है कि उनके रवैए से इज़रायल और यहूदियों की सुरक्षा में बढ़ोतरी नहीं हुई है. कुछ यह भी मानते हैं कि बार-बार अरबों का डर दिखाकर उन्होंने सालों से सिर्फ़ अपनी सत्ता बचायी है. मीडिया रिपोर्टों में उनके क़रीबी सहयोगियों के हवाले से कहा गया है कि अरबों को निशाना बनाने और उनका डर दिखाने से लिकुड पार्टी और साथी दलों को नुकसान हुआ है. अरब पार्टियों के समूह के प्रमुख ऐमन ओदेह ने भी कहा है कि अरबों के ख़िलाफ़ नेतन्याहू के प्रचार अभियान के विरुद्ध अरब मतदाता खड़े हुए हैं. यह बात पिछली बार से बहुत अधिक हुई वोटिंग से सही भी लगती है. वोटिंग के दौरान ही नेतन्याहू ने तो यहां तक कह दिया था कि फ़िलीस्तीनी चुनावों में असर डालने की कोशिश कर रहे हैं.
इस स्थिति में सबसे बड़ी संभावना आगामी महीनों में एक और संसदीय चुनाव की है. दूसरी संभावना बिना नेतन्याहू के तीन बड़ी ज़ायोनिस्ट पार्टियों की साझा सरकार की है. तीसरी संभावना यह है कि अरब पार्टियों के गठबंधन से गांज प्रधानमंत्री बन जाएं. इस चुनाव में चार अरब पार्टियों के समूह को 12-13 सीटें मिल सकती हैं. पिछली दफ़ा उन्हें 10 सीटें मिली थीं. इज़रायली राजनीति में यह पहला मौक़ा है, जब अरब पार्टियां एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में हैं. एक तो वे क्नेसेट में तीसरा बड़ा समूह होंगी और दूसरी बात यह कि बेनी गांज की पार्टी को बद्दुओं और द्रुज़ों के वोटों से दो सीटों का फ़ायदा हुआ है. इस समूह के नेता ऐमन ओदेह ने कहा है कि वे राष्ट्रपति रूवेन रिवलिन से गांज को सरकार बनाने के लिए बुलाने की सिफ़ारिश करने पर विचार कर रहे हैं, पर उन्होंने यह भी साफ़ किया है कि हमारी कुछ बुनियादी मांगे हैं और उन्हीं के आधार पर फ़ैसला होगा.
इज़रायल की आबादी में 21 फ़ीसदी के आसपास अरबी हैं, जिनमें ज़्यादातर मुस्लिम हैं और ईसाइयों की अच्छी तादाद है. कुछ बद्दू और द्रुज़ भी हैं. इनकी मांग है कि उनके हालात बेहतर करने की कोशिश हो तथा इज़रायल और फ़िलीस्तीनियों के बीच बातचीत फिर से शुरू हो. पिछली बार ओदेह ने किसी भी गठबंधन के समर्थन में सिफ़ारिश नहीं की थी, पर इस बार वे नेतन्याहू को किसी भी तरह हटाना चाहते हैं. हालांकि उन्होंने यह भी कह दिया है कि वे किसी गठबंधन में शामिल नहीं होंगे. उनकी नज़र संसद में विपक्षी नेता के पद पर भी हैं. यदि तीन बड़ी ज़ायोनिस्ट पार्टियों की यूनिटी सरकार बनती है, तो ओदेह को यह पद मिल सकता है. अगर ऐसा होता है, तो उन्हें इज़रायल की सुरक्षा से संबंधित गोपनीय जानकारियां पाने का अधिकार भी मिल जायेगा.
इज़रायल के लिए इस चुनाव का महत्व इस कारण से भी है कि राजनीति में ज़ायोनिस्ट लेफ़्ट-लिबरल पार्टियों का जनाधार लगातार सिकुड़ता जा रहा है. रूझानों की मानें, तो डेमोक्रेटिक समूह और लेबर पार्टी को कुल 11 सीटें मिलती दिख रही हैं. उनके वोटों का प्रतिशत भी लगभग इतना ही है. साल 1948 में इज़रायल के गठन के बाद से तीन दशकों तक देश की राजनीति व सरकार में इन पार्टियों और इनके विचारों का वर्चस्व रहा था, लेकिन सत्तर के दशक के आख़िरी सालों से लगातार गिरावट का दौर है. डेमोक्रेटिक ख़ेमा दो दशकों से किसी गठबंधन सरकार का हिस्सा नहीं है और लेबर की उपस्थिति भी बहुत कम रही है. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इज़रायल की राजनीति में डेमोक्रेटिक, लिबरल, सेंट्रिस्ट, लेफ़्ट आदि होने के मायने इनके आम अर्थों से अलग हैं. भले ही मीडिया या आम बातचीत में इन शब्दों का इस्तेमाल होता रहता है, पर सच यह है कि ये सभी ज़ायोनिस्ट हैं तथा फ़िलीस्तीनियों के अपने घरों में वापसी के एकसुर विरोधी हैं. इनमें से ज़्यादातर यह मानते हैं कि इज़रायल यहूदियों का दैवी या नैसर्गिक अधिकार है. हां, यह भी है कि इनमें से ज़्यादातर बातचीत, अमन-चैन और 1967 से पहले की स्थिति के पैरोकार हैं.
अगर नेतन्याहू की जगह कोई और प्रधानमंत्री बनता है या नया गठबंधन सत्ता में आता है, तब भी इज़रायली दख़ल में रह रहे लगभग 50 लाख फ़िलीस्तीनियों की स्थिति में सुधार की कोई उम्मीद नहीं है. इस चुनाव में फ़िलीस्तीन कोई मुद्दा ही नहीं रहा है. पूर्वी जेरुसलम, वेस्ट बैंक और ग़ाज़ा में हालात बद से बदतर ही होते जायेंगे. अवैध यहूदी बस्तियों को बसाने और फ़िलीस्तीनियों के मानवाधिकारों के हनन पर कोई सवाल उठाने की गुंजाइश इज़रायल में कम होती जा रही है और अरब देशों व दुनिया में फ़िलीस्तीनियों के पक्ष में आवाज़ें कमज़ोर हो रही हैं. उनका नेतृत्व भी हताश और बिखरा हुआ है. यदि इज़रायल की नयी सरकार फ़िलीस्तीनी इलाक़ों में सिर्फ़ पानी, दवाई, पढ़ाई जैसी ज़रूरतों पर ध्यान दे दे, घरों को न ढहाए और ज़ैतून के पेड़ न काटे, तो यह भी बहुत बड़ी नेमत की बात होगी.
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