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महिलाओं में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सुगबुगाहट 

कुछ दिन से फेसबुक पर भारतीय महिलाएं #mentalhealthawareness हैशटैग लगाकर अपनी एक अकेली तस्वीर पोस्ट कर रही हैं और इसे मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता बढ़ाने और बातचीत शुरू करने के माध्यम के तौर पर बढ़ावा दिया जा रहा है.

अगर भारत में मानसिक स्वास्थ्य ख़ास कर महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य में छायी चुप्पी को देखें तो यह एक अच्छा कदम है. पितृसत्ता स्त्रियों को अपने आप से और दूसरी स्त्रियों से प्यार करने से रोकती है. इस स्त्रीद्वेषी, कुंठित एवं मानसिक स्वास्थ्य जैसे ज्वलंत मुद्दों पर किसी महिला का खुद से और दूसरी महिलाओं से प्रेम और एकजुटता जताना एक ज़रूरी और क्रांतिकारी क़दम है.

प्योली स्वातिजा, जो सुप्रीम कोर्ट में एक वकील हैं, ऐसी ही एक पोस्ट में लिखती हैं:

“भारत में यूं ही मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरुकता न के बराबर है. जहां तक स्त्री के मानसिक स्वास्थ्य की बात है, हालात कहीं ज़्यादा ख़राब हैं. ज़्यादातर स्त्रियां अपनी किसी भी तरह की बीमारी को छुपा कर रखने,कम कर के बताने के लिए कंडीशंड हैं, बताने पर भी परिवार वाले समुचित इलाज करवाएं इसकी सम्भावना कम रहती है..

…मानसिक स्वास्थ्य की तो किसी को परवाह नहीं है. क्वॉलिफ़ायड काउन्सलर्स और सायकायट्रिस्ट बड़े शहरों में ही मिल पाते हैं, और वह भी मोटी फ़ीस अदा करने के बाद. गांवों में जहां किसी स्त्री पर “देवी” आना आम बात है, शहरों में भी “पागल” कहलाए जाने के डर से न जाने कितने लोग अपनी बीमारी से अंदर ही अंदर जूझते रहते हैं. मेंटल हेल्थ की दवाइयां खाने से तो ख़ैर हर जगह लोग हिचकते हैं.

तो दोस्तों, अपने दोस्तों से बात करते रहें, उनका हालचाल लेते रहें. अगर लगता है कि उन्हें काउन्सलर या सायकायट्रिस्ट की ज़रूरत है तो ऐसी मदद लेने में उनकी सहायता करें.

एबी नॉर्मन अपनी मशहूर किताब आस्क मी अबाउट माय यूटेरस: अ क्वेस्ट टू मेक डॉक्टर्स टू बिलीव इन वुमेन्स पेन में लिखती हैं- ‘एक महिला का उसके दर्द से सम्बन्ध उसकी यादों और सामाजिक समीकरणों में बुरी तरह उलझा होता है.’

रिपोर्टों के अनुसार 2014 में भारत में आत्महत्या से मरने वालों में 2,00,000 गृहणियां थीं. ये संख्या हमेशा चर्चा में रहने वाली किसानों के आत्महत्या के आंकड़ों से कहीं ज़्यादा है. हालांकि इस तुलना का मकसद किसानों की मौत के मामलों को कमतर आंकना नहीं है. आंकड़ों की माने तो भारतीय महिलायें जब किसी मानसिक रोग से पीड़ित हो जाती हैं तो परिवार उन्हें सरकारी संस्थानों या फिर सार्वजनिक स्थानों पर परित्यक्त कर देते हैं. राष्ट्रीय महिला आयोग की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को ऐसे हालात होने पर परिवारजन त्याग देते हैं क्योंकि मानसिक रोग से जुड़े सामाजिक तिरस्कार की भावना बहुत प्रबल है. इस तरह से परित्याग करने के और भी कारण हैं- घरों में जगह की कमी, मानसिक रोगी की देखभाल में अक्षमता और महिला मानसिक रोगियों की सुरक्षा की चिंता.

भारत में दो तिहाई महिलाएं घरों में होने वाली हिंसा की शिकार होती हैं और अक्सर ये भी लम्बे अरसे तक उनके मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालता रहता है. लेकिन ये सब बातों पर कभी तवज्जो ही नहीं दी जाती.

वर्तमान का एक आकलन है कि अवसाद (डिप्रेशन) और इससे जुड़े अन्य विकारों से 41.9% महिलायें ग्रस्त हैं. पुरुषों में ये आंकड़ा कम है. उम्रदराज़ जनसंख्या में भी डिप्रेशन और याददाश्त सम्बन्धी रोगों से जूझने वाले रोगियों में अधिकांश महिलाएं हैं.

ऐसे में अक्सर महिलाएं एक ‘रिवर्स वेजिटेटिव’ (Reverse Vegetative) मानसिक स्तिथि में चली जाती हैं, जिसमें उन्हें भोजन-सम्बन्धी विकार घेर लेते हैं. वज़न बढ़ना या अपनी बॉडी इमेज से अत्यधिक जुनून की हद तक जुड़ जाना, मानसिक रूप से बेहद अस्थिर हो जाना आम बात है.

अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में महिलाओं को अनेक चुनौतीपूर्ण मुकाम से भी गुज़ारना पड़ता है.

किशोरावस्था, माहवारी की शुरुआत, असुरक्षित सेक्स संबंध, गर्भावस्था एवं प्रसूति, स्तनपान, संतान का पालन पोषण और अक्सर घर के बड़े बुज़ुर्गों की देखभाल, इसके साथ-साथ अधिकतर महिलायें अब व्यावसायिक काम या नौकरी भी करती हैं. ये सब उनके मानसिक स्वास्थ्य पर तनाव के रूप में बुरा असर डालता दिखाई देता है. इन सब ज़िम्मेदारियों को सिर्फ उन महिलाओं के ऊपर सुपर वुमन कह कर समाज लाद देता है लेकिन उस भार का कुछ भी हिस्सा बांटता नहीं है.

मनीषा सिंह एक शिक्षिका हैं, वो लिखती हैं:

“मानसिक स्वास्थ्य ऐसा विषय है जिस पर बात करना तो दूर अगर आप किसी को कहें की आप मानसिक परामर्श ले रहे हैं तो आपको सीधा ही पागल घोषित किया जा सकता है. कहीं गलती से किसी और को काउंसलिंग लेने की सलाह दें तो वो आप को काउंटर करेंगे, “मुझे पागल समझा है क्या?”

“अरे! दूर रहो उससे बहुत डिप्रेस लेडी है!” डिप्रेशन, तनाव और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बेहद आश्चर्यचकित करने वाले रिएक्शन आपको मिल जाएंगे.”

मानसशास्त्र औषधि सम्बन्धी एक रिसर्च पत्र  के अनुसार- “भारत में पुरुष को परिवार के लिए एक सम्पत्ति या उपयोगी सदस्य माना जाता है, मानसिक और शारीरिक रोग के साथ भी. ऐसे में अधिकतर पत्नियां, माता-पिता, संतान उनका सहयोग और देखभाल करते हैं, लेकिन महिलाओं के लिए परिस्थिति अलग है. विधवा को त्याग दिया जाता है, डाइवोर्स या पति से अलग हो चुकी महिला को दोष दिया जाता है, अकेली महिला से उसकी बीमारी के लिए लगातार सवाल किये जाते हैं और विवाहित महिला यदि मानसिक या शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो जाये तो ज़िम्मेदारी अक्सर पति का परिवार और माता-पिता का परिवार एक दूसरे पर डालते रहते हैं.” 

भारतीय समाज में स्त्री होने और ख़ास कर मातृत्व के महिमामंडन के कारण भी महिलाओं पर अत्यधिक मानसिक दबाव रहता है. अगर कोई महिला मां नहीं बन सकी, या बेटे को जन्म नहीं दे पायी या फिर किसी बीमार बच्चे को जन्म दिया तो यही देवियों को पूजने वाला समाज उन्हें तिरस्कृत भी कर देता है. भारतीय महिलाओं में मानसिक बीमारियों का अधिक कारण अनुवांशिक न होकर सामाजिक है.

रजनी मुरमू कहती हैं- 

“हमारा समाज इस कदर अस्वस्थ रिश्तों, रीतियों, रिवाजों और परम्पराओं से भरा पड़ा है कि कोई भी व्यक्ति खासकर महिलाएं मानसिक रूप से स्वस्थ रह ही नहीं सकतीं. यहां महिलाओं को खुलकर अपनी तकलीफ बताने की मनाही रहती है! उदास महिला को इज्जत दिया जाता है! दर्द में रहकर काम करते जाने वाली को महान माना जाता है! बीमारियों को लोगों से छुपाकर रखने कहा जाता है जैसे बीमार होना कोई अपराध हो! ऐसी स्थिति में मानसिक अवसाद में जाना एक औरत के लिए स्वाभाविक है! मेरा मानना है कि महिलाओं को होने वाली मानसिक समस्याओं का सीधा संबंध समाज में उनके दोयम दर्जे का नतीजा है!”

मानसिक समस्या एक सच्चाई है, उतनी ही बड़ी जितनी कि किसी व्यक्ति को दिल की, फेफड़े की या कोई और आम बीमारी हो सकती है. जितना जल्दी इस समस्या को स्वीकार कर लिया जाय उतना जल्दी एक बेहतर, मानसिक रूप से स्वस्थ समाज की नींव पड़ेगी. और महिलाओं को अपने इस जरूरी अधिकार के लिए सचेत और मुखर होना ही होगा.