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अमेरिकी मीडिया में ‘हाउडी, मोदी!’

सितंबर, 2014 में न्यूयॉर्क के मेडिसन स्कवायर गार्डेन में हुए आयोजन की तरह सितंबर, 2019 के एनआरजी स्टेडियम, ह्यूस्टन की ‘हाउडी, मोदी!’ रैली पर भी अमेरिकी मीडिया में अनेक विश्लेषण हुए हैं, पर पांच साल में इनके फ़ोकस में अंतर भी आया है.

वर्ष 2014 के आयोजन से पहले ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अमेरिका में रह रहे भारतीयों में एक सर्वेक्षण कराया था. जिन 17 सौ के लगभग भारतीयों ने इसमें हिस्सा लिया था, उनमें से अधिकतर ने आशा जतायी थी कि मोदी उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में भारत की छवि को फिर से स्थापित करेंगे और दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत बनायेंगे. इस सर्वेक्षण और मेडिसन स्कवायर गार्डेन के आयोजन के बारे में बहुत सकारात्मकता के साथ इस अख़बार ने रिपोर्टिंग की थी. लेकिन अमेरिकी मीडिया की ऐसी रिपोर्टों में मूलत: मोदी की चुनावी जीत और भारतीय-अमेरिकी समुदाय में उनकी लोकप्रियता पर चर्चा थी.

इस बार अमेरिकी मीडिया ह्यूस्टन रैली को अमेरिकी चुनाव के साथ भी जोड़कर देख रहा है. अब वह भारतीय प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दक्षिणपंथी पॉप्युलिस्ट राजनीति की समानता को रेखांकित कर रहा है. इसके साथ दोनों नेताओं के बीच वाणिज्यिक मसलों पर संभावित सुलह पर भी चर्चा हो रही है.

इस संबंध में दो प्रतिनिधि रिपोर्टों को देखा जाना चाहिए. ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में माइकल डी शीयर और ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ में फ़िलीप रकर ने लगभग एक जैसी बातें लिखी हैं. ये दोनों व्हाइट हाउस में वरिष्ठ संवाददाता हैं. रकर ने प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का हवाला देते हुए लिखा है कि यह अमेरिका के साथ तनाव में कमी लाने के लिए राष्ट्रपति ट्रंप के अहम को सहलाने की विदेशी रणनीति की झलक था.

वे कहते हैं कि भारतीय इस्पात और एल्मुनियम के आयात पर शुल्क लगाने के बाद से भारत ट्रंप प्रशासन के साथ वाणिज्यिक तनातनी घटाने और नए निवेश हासिल करने की कोशिशों में लगा है. शीयर ने लिखा है कि भारत ने इस आयोजन के माध्यम से चीन और अन्य देशों के साथ अमेरिका के बढ़ते व्यापार युद्ध से बढ़ती निराशा के बीच ट्रंप को जन संपर्क का एक बड़ा अवसर मुहैया कराया है. इन दोनों लेखों में मोदी और ट्रंप के समान व्यक्तित्व और विचारधारा को रेखांकित किया है. शीयर ने लिखा है कि दोनों ही अपने को वर्चस्ववादी सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध जनता का योद्धा होने का दावा करते हुए दक्षिणपंथी पॉप्युलिज़्म के सहारे अपने पदों तक पहुंचे हैं. दोनों ही मतदाताओं के सामने अपने देशों को ‘फिर से महान बनाने’ की बात करते हैं और दोनों ने ही धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक विभाजनों को हवा दी है.

शीयर और रकर के साथ अन्य कई रिपोर्टों और लेखों में इस बात को प्रमुखता से रेखांकित किया गया था कि ह्यूस्टन की रैली राष्ट्रपति ट्रंप के लिए भारतीय-अमेरिकी मतदाताओं के बीच पहुंचने का एक अवसर था. अपने संबोधन में ट्रंप ने लगभग 40 लाख जनसंख्या के इस समुदाय का उल्लेख बार-बार किया था. इस समुदाय में से केवल 14 प्रतिशत मतदाताओं ने ही 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में उनके पक्ष में मतदान किया था. अगले साल के चुनाव में वे फिर से दावेदार हैं. घटती लोकप्रियता और विभाजित मतदाताओं के माहौल में भारतीय-अमेरिकी समुदाय का मत ट्रंप को बहुत लाभ पहुंचा सकता है. रैली में मौजूद टेक्सास के रिपब्लिकन सीनेटर जॉन कॉर्निन को रकर की रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है. वे कहते हैं कि ट्रंप ने इस रैली में आकर बहुत समझदारी दिखायी और मोदी को देखने आयी भीड़ का लाभ उठाया. उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रपति का आना कोई ऐसे ही अचानक किया गया निर्णय नहीं है.

शीयर ने लिखा है कि मोदी के साथ के बाद भी भारतीय मतदाताओं का समर्थन ले पाना ट्रंप के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि राष्ट्रपति की आर्थिक नीतियों से कई लोगों को लाभ होने के बावजूद इस समुदाय में आप्रवासन पर ट्रंप के कड़े रूख से निराशा है. ‘सीएनएन’ के लिए रिपोर्ट करते हुए जेरेमी डायमंड, केट सुलीवान और स्वाति गुप्ता ने इस बात पर बल दिया है कि औपचारिक रूप से व्हाइट हाउस में मिलने की परंपरा से अलग हटकर ट्रंप रैली में मोदी के साथ शामिल हुए. सभी रिपोर्टों की तरह इसमें भी मोदी के ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ कहने का उल्लेख हुआ है.

ह्यूस्टन रैली के बाद ट्रंप ओहायो में ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के साथ एक कार्डबोर्ड फ़ैक्टरी में गए, जिसे ऑस्ट्रेलियाई कारोबारी ने स्थापित किया है. दोनों आयोजनों का हवाला देते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ये आयोजन मोदी और मॉरिसन के लिए यह दिखाने का अवसर था कि वे ट्रंप की पसंद के अनुरूप मददगार हो सकते हैं. इसमें यह रेखांकित किया गया है कि राजनीतिक रूप से ओहायो एक अनिश्चित राज्य है और इसमें जीत हासिल करना ट्रंप के लिए निर्णायक होगा.

‘एसोसिएटेड प्रेस’ के डेब रीचमैन ने ह्यूस्टन रैली की तुलना चुनावी रैली से करते हुए लिखा है कि ट्रंप अपनी उपलब्धियां गिनाकर एक ऐसे राज्य में रैली में वोट पाने की कोशिश कर रहे थे, जहां परंपरागत रूप से रिपब्लिकन पार्टी की जीत होती है, पर डेमोक्रेटिक पार्टी आगामी चुनाव में इसे पाना चाहती है. ह्यूस्टन में दक्षिण एशियाई समुदाय की सक्रिय कार्यकर्ता 21 वर्षीया सारा फ़िलिप्स का आलोचनात्मक लेख भी ‘सीएनएन’ ने प्रकाशित किया है, जिसमें दोनों नेताओं को ‘एक ही सिक्के के दो पहलू’ बताया गया है. इसमें उन्होंने बताया है कि ह्यूस्टन और टेक्सास में बहुत सामुदायिक विविधता है और दक्षिण एशियाई लोग इस इस विविधता का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. फ़िलिप्स ने भारत में हो रहे व्यापक मानवाधिकार उल्लंघन का उल्लेख किया है.

उन्होंने कश्मीर और असम की विस्तार से चर्चा की है. इस लेख में मोदी के दौरे के विरोधों का भी हवाला दिया गया है. ह्यूस्टन और अन्य कई अमेरिकी शहरों में भारतीय-अमेरिकी और अमेरिकी लोगों ने विभिन्न प्रदर्शनों में भाग लिया है. यहां रेखांकित करना आवश्यक है कि अमेरिकी मीडिया ने कमोबेश इन विरोधों का संज्ञान लिया है और इनके बारे में कई रिपोर्ट लिखी जा चुकी हैं. फ़िलिप्स ने लिखा है कि वे एक ऐसे दौर में बड़ी हो रही हैं, जब फ़ासीवाद और जातीयता पर आधारित राष्ट्रवाद पूरी दुनिया में उभार पर है.

सीएनएन’ में एक लेख स्वाति नारायण और मनप्रीत के सिंह का भी है. ये दोनों टेक्सास में सामाजिक कार्यकर्ता हैं तथा मनप्रीत वकालत भी करती हैं. इन्होंने ह्यूस्टन में मोदी और ट्रंप की रैली का विरोध किया है. इस विरोध के कारणों को बताते हुए लिखा है कि भले ही इस रैली को अमेरिकी राजनीति में भारतीय-अमेरिकी समुदाय की उभरती शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा हो, लेकिन इस सच को नहीं भूला जा सकता है कि ट्रंप के शब्दों व नीतियों ने आप्रवासियों और गैर-श्वेत समुदायों पर किस हद तक नकारात्मक प्रभाव डाला है. इस लेख में दक्षिण एशियाई समुदायों की सफलता को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि जब टेक्सास राज्य में ही कई तरह के अन्याय हो रहे हों, तो ये समुदाय चुप नहीं बैठ सकते हैं. यह दौर उन लोगों के साथ खड़े होने का है, जिनके साथ अन्याय हो रहा है. नारायण और सिंह ने कश्मीर में हो रहे मानवाधिकार हनन और भारत में अन्यत्र मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध बढ़ते हमलों पर भी विस्तार से लिखा है.

‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ के एडिटोरियल बोर्ड ने ह्यूस्टन रैली दुनिया के दो बड़े लोकतंत्रों के बीच प्रगाढ़ होते सामरिक संबंध का प्रतीक माना है और लिखा है कि ये दोनों देश एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन की महत्वाकांक्षा पर महत्वपूर्ण अंकुश हैं. इस अवसर को इस टिप्पणी में भारतीय-अमेरिकियों का उत्सव कहा गया है. रैली से पहले इसी अख़बार में सदानंद धूमे का आलोचनात्मक लेख भी प्रकाशित हुआ था. धूमे भारतीय मूल के अमेरिकी लेखक और पत्रकार हैं. इसमें वे कहते हैं कि मोदी ने पांच सालों में अमेरिका में चार रैलियां की हैं, पर वे अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि स्वतंत्रता किस तरह समृद्धि का पोषण करती है. इस लेख का शीर्षक है- ‘हाउडी मोदी एंड गुडबाय ग्रोथ.’

‘फ़ॉक्स बिज़नेस’ और ‘सीबीएस न्यूज़’ ने जहां अमेरिका और भारत के बढ़ते परस्पर संबंध व निवेश के बारे में ट्रंप के बयान को प्रमुखता दिया है, वहीं ‘द अटलांटिक’ में सोनिया पॉल ने ह्यूस्टन रैली को भारतीय-अमेरिकी समुदाय के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव के सूचक के रूप में प्रस्तुत किया है. पॉल ने कश्मीर और असम की स्थिति का उल्लेख किया है और लिखा है कि रैली में आये कुछ मोदी समर्थक सरकार की कोशिशों को विकास के लिए आवश्यक मानते हैं, तो कुछ का कहना है कि हिंसा की ख़बरें निराधार एवं ‘हिंदू-विरोधी’ हैं. इस लंबी रिपोर्ट में न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर राधा हेगड़े कहती हैं कि यह रैली मतदाताओं के ऐसे समूह को सामने लाने की है, जिन्हें अधिकतर अमेरिकी कोई महत्व नहीं देते हैं. वे बताती हैं कि हिंदू राष्ट्रवाद के इस दौर में इस समूह को हिंदू मतदाता के रूप में जागृत किया जा रहा है.

इसमें उल्लिखित ‘द ओवरसीज़ फ़्रेंड्स ऑफ़ बीजेपी’ संगठन के उपाध्यक्ष अदापा प्रसाद का बयान भी ध्यान देने योग्य है. वर्ष 2016 में अधिकतर भारतीयों द्वारा हिलेरी क्लिंटन के पक्ष में मतदान करने की बात को याद दिलाते हुए वे कहते हैं कि आधे भारतीय-अमेरिकी और अमेरिकी हिंदू ट्रंप के बारे में अच्छी राय नहीं रखते हैं, भले ही बहुत सारे लोग खुलकर मोदी के प्रति अपने समर्थन को जाहिर करते हैं. पर उनका कहना है कि डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा कश्मीर में भारत सरकार की कार्रवाई के विरोध तथा धनी अमेरिकियों पर कर बढ़ाने की उनकी मांग से भारतीयों में रोष है. प्रसाद ने यह भी कहा है कि डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति की उम्मीदवारी की कोशिश कर रहे सीनेटर बर्नी सांडर्स को कश्मीर के बारे में कोई जानकारी नहीं है.

‘हाउडी, मोदी!’ रैली से एक दिन पहले बर्नी सांडर्स ने भी ह्यूस्टन में रैली की थी. उस रैली में उन्होंने कश्मीर की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि अमेरिकी सरकार को संयुक्त राष्ट्र के तहत शांतिपूर्ण समाधान के पक्ष में खुलकर बोलना चाहिए. सांडर्स ने ‘ह्यूस्टन क्रॉनिकल’ में एक लेख भी लिखा है. इसमें भी इन्होंने कश्मीर का उल्लेख करते हुए ट्रंप से मानवाधिकार को अमेरिकी विदेश नीति के केंद्र में लाने का आह्वान किया है.

दुनियाभर में असहिष्णु एकाधिकारवादी नेताओं के उभार को रेखांकित करते हुए उन्होंने ट्रंप को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि वे नस्लभेद और भेदभाव को बढ़ावा दे रहे हैं. ‘ह्यूस्टन क्रॉनिकल’ ने अपने संपादकीय शीर्षक में भारतीय प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए लिखा है- ‘हाउडी, मोदी! नाउ अबाउट कश्मीर…’ इसी अख़बार में उद्योगपति पीटर हंट्समैन ने एक लेख में भारत की प्रगति में ह्यूस्टन के योगदान का रेखांकन किया है.

कुल मिलाकर, इन रिपोर्टों और आकलनों से यही साबित होता है कि मोदी की इस रैली का उद्देश्य भारत की सुस्त होती अर्थव्यवस्था के लिए अमेरिका से राहत हासिल करना और इसके बदले अमेरिकी राष्ट्रपति के अहम को तुष्ट करना व उन्हें राजनीतिक लाभ पहुंचाने की कोशिश करना था. अब इन उद्देश्यों के परिणाम तो बाद में दिखेंगे, पर भारत को अपने प्राकृतिक गैस भंडार का बड़ा ग्राहक बनाकर तथा कुछ दिन बाद घोषित होनेवाली ‘मिनी ट्रेड डील’ पर सहमति बनाकर ट्रंप ने विभिन्न देशों से चल रहे वाणिज्यिक तनातनी के घाटे को कुछ हद तक पूरा करने का इंतज़ाम तो कर ही लिया है. यह भी संभव है कि उन्हें कुछ और भारतीय-अमेरिकी वोट भी मिल जाएं. लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी को भारतीय अख़बारों में बड़ी-बड़ी तस्वीरों और सुर्ख़ियों के अलावा क्या हासिल हुआ, इसका हिसाब अभी नहीं लगाना बहुत मुश्किल है.