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तापसी पन्नू: ‘मुझे एहसास है कि आज जिन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ रही हूं, कल उन्हीं से उतरना भी है’
अभिनेत्री तापसी पन्नू ‘सांड़ की आंख’ में निशाना साधने को तैयार हैं. लेकिन उसके पहले ही वह खुद निशाने पर आकर तूफ़ान की आंख में आ गयी हैं. पहले ‘मिशन मंगल’ और अभी ‘सांड़ की आंख’ के समय उन पर तीर चले. उन्होंने समय रहते अपना पक्ष रखा और दलील दी. वह धीरे-धीरे केंद्र की तरफ बढ़ती दिख रही है. एक के बाद एक फिल्मों के लिए मिल रही तारीफ और उनकी कामयाबी से उनके हौसले भी बुलंद हैं. वह अपनी धीमी प्रगति से खुश हैं और उन्हें विश्वास है कि उनकी फ़िल्में ही उन्हें लगातार बेहतरीन फ़िल्में दिलवायेंगी. इस बातचीत के दिन उन्हें कई कामों में से एक भागकर सरोज खां से मिलना था. क्योंकि अनुभव सिन्हा की अगली फिल्म ‘थप्पड़’ में उन्हें क्लासिकल नृत्य के कुछ दृश्य करने हैं.
उन्होंने बैठते ही बताया, “अनुभव सर की फिल्म ‘थप्पड़’ में मुझे एक क्लासिकल पीस करना है. उसके लिए सरोज खान से मिलने जाना है.” इसी जानकारी से बातचीत के लंबे सिलसिले की शुरुआत होती है.
अनुभव की ताजा फिल्म ‘थप्पड़’ है. ‘मुल्क’ के साथ आप दोनों की संगत बनी और इस फिल्म की काफी चर्चा रही…
हमारी मुलाकातें चल रही थीं. हम लोग एक फिल्म पर बात भी कर रहे थे. फिर अचानक उनके दिमाग में ‘मुल्क’ की कहानी आई. फिल्म आई और दर्शकों को भी पसंद आई. उसी फिल्म के प्रमोशन के समय वे ‘थप्पड़’ के बारे में भी बता रहे थे. तब यह नहीं पता था कि वह इतनी जल्दी स्क्रिप्ट लिख लेंगे. आजकल उनकी स्पीड बहुत तेज हो गई. ‘आर्टिकल 15’ के दौरान भी हम लोग लगातार संपर्क में थे. उन्होंने कहा था कि इस फिल्म के रिलीज होते ही मैं ‘थप्पड़’ लिख लूंगा और सचमुच उन्होंने उसका ढांचा तैयार कर मुझे पढ़ने के लिए बुलाया. तब मैंने स्क्रिप्ट सुनाने से मना कर दिया था, क्योंकि अगर अलग-अलग चरणों में मैं स्क्रिप्ट पढ़ या सुन लेती हूं तो मैं ढंग से निर्णय नहीं ले पाती.
क्या यह सही है कि आपने उन्हें ‘आर्टिकल 15’ के मुख्य किरदार के लिए अपना नाम सुझाया था? कहा था कि लीड रोल में आपको रख लें?
हां, मैं तो अपने हर डायरेक्टर को ऐसा सुझाव देती हूं. अभी शुजीत सरकार से मैंने पूछा कि क्या ‘उधम सिंह’ का किरदार मैं नहीं निभा सकती? मैंने ‘आर्टिकल 15’ देखने के बाद भी उनसे कहा कि मैं इसे निभा सकती थी. उन्होंने मुझे आश्वासन दिया है कि जल्दी ही मुझे पुलिस अधिकारी के रूप में पेश करेंगे. देखते हैं ऐसा कब होता है.
जब कोई डायरेक्टर आपको अप्रोच करता है तो क्या उसकी पुरानी फिल्में आपके जहन में आती हैं? अनुभव सिन्हा का ही उदाहरण ले तो ‘मुल्क’ के पहले उनकी फिल्में अलग जमीन की होती थीं. ऐसे में कैसे विश्वास हुआ कि वे ‘मुल्क’ जैसी फिल्म के साथ न्याय कर पाएंगे?
हम लोग पहले एक कॉमर्शियल फिल्म पर ही बात कर रहे थे. उसकी स्क्रिप्टिंग के दौरान हमारी खूब बातें होती थीं. उन बातों में बिल्कुल अलग अनुभव सिन्हा सुनाई पड़ते थे जबकि वे फिल्में कुछ और कर रहे थे. फिर जब वह ‘मुल्क’ लेकर आए तो मैंने उनसे कहा आप तो इस तरह की बातें रोज करते हैं और मुझे लगता है कि यही आपकी जमीन है. ‘मुल्क’ उनका मिजाज और घर है. मुझे पूरा यकीन था कि वे उसे अच्छी तरह पेश करेंगे.
फिल्म में आपके किरदार को हिंदू दिखाया गया था. अगर वह मुसलमान ही रहती तो क्या फर्क पड़ता?
उसमें एक सुविधा बन जाती. उसके लड़ने या वकालत पर लोग गौर नहीं करते, क्योंकि वह स्वाभाविक तौर पर ऐसा करती. हमें एक न्यूट्रल नजरिया दिखाना था, जिसका एक पैर इधर भी है और एक पैर उधर भी है. आरती मोहम्मद उस भारत का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे हम सभी जानते हैं. इस किरदार का नाम सुनते ही मेरी आंखें चमक उठी थीं. हमने आरती मोहम्मद के नाम और उसकी पृष्ठभूमि पर कभी ज्यादा चर्चा नहीं की. हम दोनों जानते थे कि वह कौन है? फिल्म के आखिर में बेटे के नाम को लेकर उसकी दुविधा भी जाहिर होती है.
‘मिशन मंगल’ के पोस्टर पर पांच अभिनेत्रियों के साथ सबसे बड़ा चेहरा अक्षय कुमार का दिखा तो सोशल मीडिया पर कई तरह के सवाल उठे?
ऐसे सवालों के जवाब में सोनाक्षी ने सटीक कहा था कि जो दिखता है, वही बिकता है या यूं कहें कि जो बिकता है, वही दिखता है. मैं सवाल पूछने वालों से यह पूछना चाहती हूं कि क्या वे हीरोइनों की फिल्म पहले दिन पहले शो में देखने जाते हैं? वह भी बगैर रिव्यू पढ़े या देखे? सच्चाई यही है की आम दर्शक अक्षय कुमार की फिल्म बगैर रिव्यू पढ़े देखने जाता है और हमारी (हीरोइनों की) फिल्म देखने के पहले दस लोगों की राय जानना चाहता है. जिस दिन हमारी फिल्मों की ओपनिंग अक्षय कुमार की फिल्मों की तरह होने लगेगी, उस दिन पोस्टर पर हमारा चेहरा बड़ा हो जाएगा. अभी ‘सांड़ की आंख’ आ रही है. देखती हूं कितने दर्शक इसे पहले दिन देखते हैं? मुझे यकीन है कि सवाल करने वाले ज़रूर आयेंगे. हम तो परिवर्तन लाने की कोशिश कर रही हैं. जरूरत है कि दर्शक भी इस कोशिश में हिस्सेदार बनें.
अभी खुद को कहां देख रही हैं? धीरे-धीरे आप केंद्र की ओर बढ़ रही हैं…
कछुआ और खरगोश की कहानी की कछुआ हूं मैं. धीरे-धीरे चलती रहूंगी. मैं खुश हूं कछुए की अपनी रफ्तार से. कुछ फिल्मों से पता चल जाएगा कि मैं लंबी रेस में हूं या नहीं? ये छोटे कदम मेरे अपने हैं, इसलिए आत्मविश्वास भी ज्यादा है. मुझे जो अवसर मिले, मैंने उनका बेहतरीन उपयोग किया और आगे बढ़ती गई. एकदम से उड़ने वाला एकदम से गिरता है… ऐसा अक्षय कुमार ने मुझे कहा था. अगर मैं गिरी भी तो मुझे संभलने के काफी मौके मिलेंगे. मैं धीरे-धीरे ऊपर जा रही हूं, इसलिए धीरे-धीरे नीचे उतरूंगी. अभी तो लगता है कि साल में 365 से ज्यादा दिन होते तो कितना अच्छा होता है. मैं अच्छी स्क्रिप्ट छोड़ती नहीं हूं और समय की दिक्कत हो जाती है. अच्छी स्क्रिप्ट जाने भी नहीं देना चाहती, क्योंकि मैंने वह दौर भी देखा है जब कई दफा अच्छी स्क्रिप्ट मुझसे छीन ली गई. उस दुख को मैं नहीं जीना चाहती. मैं तो साल में चार-पांच की जगह आठ-नौ फिल्में करना चाहती हूं, लेकिन आज की तारीख में यह संभव नहीं है.
इतना काम करने से चूकने या ‘बर्न आउट’ हो जाने का खतरा तो रहता है?
मेरे साथ ऐसा नहीं होगा. मैं अपने काम से बहुत प्यार करती हूं और बहुत तल्लीनता के साथ अपना काम करती हूं. मनपसंद काम हो तो मैं दिन में 20 घंटे भी लगी रह सकती हूं. अगर कोई फिल्म करते हुए मजा ना आए तो फिर चूकना और ‘बर्न आउट’ होना मुमकिन है. शूटिंग और प्रमोशन दोनों ही काम मैं दिल से करती हूं. मेरी अपनी एक पर्सनल लाइफ भी है. मैं छुट्टियां लेती हूं और खूब मज़े करती हूं परिवार के साथ. मेरी जिंदगी अभी तक उतनी ही नियमित है, जितनी कुछ सालों पहले तक थी. मेरे करीबियों का फिल्म इंडस्ट्री से कोई नाता नहीं है.
मध्यवर्गीय लड़की तापसी पन्नू फिल्मों में सफल होने के बाद अब कैसा महसूस करती हैं? उसका क्लास तो बदल रहा होगा?
बाहरी और ऊपरी तौर पर यह बदलाव हुआ है, लेकिन अंदर से मैं उसी मिडिल क्लास की लड़की हूं. मैं अभी तक उसी मानसिकता में रहती हूं. जरूरत होने पर भी मैं घर में ऐसी काम करने वाली को नहीं रख पा रही हूं, जो 24 घंटे घर में रहे. अभी सुबह निकलने से पहले मुझे अपने कुक और बाकी घरेलू सहायकों का इंतजार करना पड़ता है. मैं किसी सामान्य वर्किंग विमेन की तरह ही उन पर निर्भर करती हूं. अगर कभी उनके आने में देर हो गई तो मुझे भी रिपोर्ट करने में देर हो जाती है. अगर सही कारण बता दो तो इंडस्ट्री के लोग चौंकते हैं. उन्हें लगता है कि मैं बहाने बना रही हूं. मेरी बहन भी काम करती है. मैं भी काम करती हूं. अभी तक मैं वह मन नहीं बना पा रही हूं कि अपने अपार्टमेंट में किसी अपरिचित को 24 घंटे के लिए रखूं. भरोसे का एहसास नहीं बन पा रहा है और घर में हर चीज ताले में तो नहीं रखी जा सकती?
ऐसा क्यों है?
21 सालों तक तो ऐसी ही रही. उसकी आदत पड़ गई है. परिवर्तन भी होना है तो थोड़ा समय लगेगा. घर आकर भी मैं उन्हीं मिडिल क्लास वालों से मिलती हूं. मेरे दोस्त भी उसी क्लास के हैं. आप जानते हैं कि मैं फिल्मी पार्टियों में बहुत कम आती-जाती हूं. ऊंची क्लास के हाई-फाई लोगों से मिलना जुलना कम होता है. मैं जानती हूं कि जिन सीढ़ियों से आज चढ़ रही हूं, उन्हीं सीढ़ियों से मुझे उतरना भी है. मैं अपने उतरने को अधिक मुश्किल नहीं बनाना चाहती. मैं किसी भी भ्रम में नहीं रहना चाहती. एयरपोर्ट पर मैं प्रोटोकॉल का इस्तेमाल नहीं करती. घर दिल्ली जा रही होती हूं तो मैं लाइन में खड़ी रहती हूं आम पैसेंजर की तरह. कुछ लोग तो देख कर भी नजरअंदाज कर देते हैं. उन्हें लगता है कि भला तापसी लाइन में क्यों खड़ी रहेगी? कई दफा पीछे से आवाज सुनी है… क्या रे यह तो तापसी नहीं हो सकती. वह भला क्यों लाइन में खड़ी रहती? उन्हें यकीन ही नहीं होता.
परिवार के लोग और दोस्त कितना नार्मल रहने देते हैं? उनके लिए भी तो तापसी पन्नू एक सफल अभिनेत्री हैं?
मेरे दोस्तों ऐसे हैं कि उनसे अपनी फिल्में देखने के लिए मिन्नत करनी पड़ती है. अभी पिछले दिनों एक दोस्त का फोन आया कि बता आज फ्रेंडशिप डे पर तुम्हारी कौन सी फिल्म देखूं? मैंने पांच फिल्मों के नाम बताए. उसने उनमें से कोई भी फिल्म नहीं देखी थी. मेरे कई दोस्त मुझसे मुझे बताते हैं कि उनके सहकर्मियों को यकीन ही नहीं होता कि तू मेरी दोस्त है. नियमित संपर्क के मेरे दोस्त मेरी खुलेआम आलोचना कर सकते हैं. अच्छा है कि वे मुझे किसी भ्रामक दुनिया में नहीं रखते.
कामयाबी के साथ तनिक जिम्मेदारी आ जाती है? कई तरह के पारिवारिक अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं…
मेरे परिवार के लोग तो जानते हैं. वे किसी प्रकार का दबाव नहीं डालते. दरअसल, उन्होंने तो कहा था अगर काम मिले तो रहना, नहीं तो लौट आना. इसकी वजह से मुझे कभी मजबूरी वाले फैसले नहीं लेने पड़े. मुझे हमेशा कहा गया कि अगर कुछ नापसंद लगे तो वापस आ जाना. कुछ भी ऐसा मत करना, जिससे बाद में पछतावा हो. मेरे सीमित खर्चे हैं और उतना मैं कमा लेती हूं. पड़ोसी और रिश्तेदारों की मांग मिलती रहती है. उनके प्रस्ताव भी आते रहते हैं. कोई अपने बेटे-बेटी के लिए काम चाहता है तो मना कर देती हूं सीधे. कह देती हूं कि मैं तो खुद के लिए ही काम खोज रही हूं और आप चाहते हो कि आपके बच्चों के लिए भी काम खोजूं? मैं साफ कह देती हूं कि मेरे हाथ में नहीं है. हां, यह सलाह दे देती हूं कि क्या करें? मैं तरीके बता सकती हूं, जिससे आप वहां तक पहुंच सकते हैं.
मेरे मां-बाप कभी ऐसी बात नहीं करते. दिल्ली जाने पर मिलने-जुलने और साथ में फोटो खिंचवाने का दबाव रहता है. मम्मी बताती हैं कि कई रिश्तेदारों ने कह रखा है कि तू आएगी तो उन्हें बताना. मैं मना कर देती हूं. वे क्या समझते हैं कि तू आएगी… और मैं सबको फोन करती रहूंगी की आ गई है… आ गई है. मुश्किल से तो हमें तेरा समय मिलता है और उस समय को भी मैं बांट दूं? उन्होंने मेरे आसपास एक कवच सा बना दिया है और मैं बची रहती हूं. दिल्ली में तो कई बार बारह बजे रात तक घंटी बजी बजती रहती है. मैं तो पापा से कह देती हूं कि दरवाजा ही नहीं खोलना. अचानक आने वालों से डर लगता है. कई बार पापा कहते हैं, क्या रे… एक तस्वीर चलती है. कई बार पड़ोसी आकर बैठ जाते हैं. मेरी शक्ल देखते रहते हैं. अजीब सी स्थिति बन जाती है.
(दूसरा हिस्सा अगले हफ्ते)
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