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महात्मा से माफी 

अब रही सही कसर भी निकल गई-संघ परिवार के अधिपति मोहन भागवत ने कह दिया कि महात्मा गांधी दिव्य महापुरुष थे. लगता है कि गांधी के अच्छे दिन लौट रहे हैं.

संघ परिवार के स्वंयसेवकों की बात करें तो सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांधी की महानता को पहचाना और प्रधानमंत्री की हैसियत से दुनिया भर में मंचों पर गांधी का नाम लेते घूमते रहे. “युद्ध-बुद्ध” जैसी कितनी ही उनकी तुकबंदियां सामने आती रही हैं. उन्होंने ही गांधी की आंख छोड़ कर, गांधी का चश्मा प्रतीकस्वरूप लिया और स्मार्ट सिटी के अपने काल्पनिक देश में उन्होंने ही गांधी को सड़क सफाई का जमादार बना कर दूर-दूर तक पहुंचाया. उन्होंने इतनी सावधानी जरूर बरती कि उनकी पार्टी व सरकार का कोई सदस्य गांधी-द्वेष से पीड़ित होकर, कुछ अनाप-शनाप बके तो वे उसे अनसुना कर दें. आखिर हम भी तो यह मानते ही हैं कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने की आजादी है.

लेकिन मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री से आगे की बात कही: महात्मा गांधी को उनकी 150वीं जयंती के अवसर पर याद करते हुए हमें यह संकल्प लेना ही चाहिए कि हम उनके पवित्र, समर्पित और पारदर्शी जीवन तथा स्व-केंद्रित जीवन-दर्शन का अनुपालन करेंगे, और इसी रास्ते हम भी अपने जीवन में इन्हीं गुणों का बीजारोपण करते हुए भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए स्वंय को समर्पित करेंगे. उन्होंने महात्मा गांधी की सामाजिक समता और सुसंवादिता के सिद्धांत की अनुशंसा की.

संघ परिवार के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने महात्मा गांधी और स्वराज्य का दर्शन शीर्षक से एक विशेष अंक ही प्रकाशित किया है जिसमें ऐसा कहा गया है कि स्वतंत्रता के बाद महात्मा गांधी के संदेश पर अमल किए बिना उनके नाम व ‘गांधी’ उपनाम का उपयोग, दुरुपयोग और बदनीयति से इस्तेमाल होता रहा है. लेकिन अब हम इस हैसियत में हैं कि भारतमाता के नि:संदेह ही इस सबसे प्रभावी संतान व संदेशवाहक को फिर से समझें और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक चुनौतियों का जवाब दें.

यह महात्मा गांधी का पुनर्मूल्यांकन है या संघ की विचारधारा का, कहना मुश्किल है. संघ परिवार का इतिहास हमें सावधान करता है कि हम ऐसे शब्दजालों में न फंसें, क्योंकि यह परिवार सत्य में नहीं, रणनीति में विश्वास करता है. लेकिन हम विचार-परिवर्तन और हृदय-परिवर्तन को भी मानते हैं, तो किसी को भी, कभी भी सत्य को समझने की दृष्टि मिल सकती है, इसमें हमारा भरोसा है. मोहन भागवत राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को एक नई पहचान देने की कसरत करते दिखाई देते हैं. उन्होंने कई स्तरों पर शाब्दिक बदलाव के संकेत दिए हैं और यह भी कहा कि आरएसएस किसी एक विचार या विचारक से बंधा हुआ नहीं है. इसी क्रम में उन्होंने गुरु गोलवलकर की उस आधारभूत किताब का भी जिक्र किया जिससे आरएसएस आज तक अपनी प्रतिबद्धता घोषित करता आया है. भागवत कहते हैं कि गोलवलकर की वह किताब भी संघ के लिए अंतिम नहीं है. यह खुलापन संघ के अब तक के चरित्र से मेल नहीं खाता है.

परिवर्तन की यह संभावना कहां से पैदा हुई है? संघ भारतीय समाज की जिस कल्पना में विश्वास करता आया है और उसके लिए जैसी संरचना वह चाहता रहा है, वह दिनोदिन कालवाह्य होती जा रही है. आजादी के बाद के 70 से अधिक सालों में भारतीय समाज की जैसी संरचना बन रही है, उसमें किसी जाति या धर्म के वर्चस्व की बात सोचना गलत है. यह सोचना भी गलत है कि संचार-संवाद की जैसी क्रांति हुई है उसके बाद किसी उन्माद या संकीर्णता के ईंधन से भारतीय समाज चलाया जा सकता है.

ऐसा लग सकता है कि हिंदुत्व या किसी दूसरे का नाम उछाल कर सफलता पाई जा सकती है, कि कोई गाय या कोई सूअर जैसा जीव समाज को गोलबंद कर सकता है, कि कोई एक नेता या नारा सारे देश को बांध या भरमा सकता है लेकिन यह सब क्षणजीवी सुख से ज्यादा नहीं है. सत्ता पाने में ये हथियार सफलता दिला भी दें शायद लेकिन वह बहुत क्षणिक होगा. समाज पहले से कहीं अधिक तार्किक, सचेत और परिणाम की चाह व पहचान करने वाला हो गया है.

समाज इसी दिशा में आगे बढ़ता जाएगा, उत्तरोत्तर विकसित ही होता जाएगा. समाज का यह विकास ही कारण है कि महात्मा गांधी वक्त के साथ चलते हुए लगातार नये होते जाते हैं जबकि दूसरी विचारधाराएं  समाज को अपने सांचे में ढालने या अपनी हद में बांधने की कोशिश करती हुई काल के गाल में समाती जाती हैं. क्या गांधी का यह स्वरूप  संघ-परिवार की समझ में आता है?

गांधी की कैसी भी प्रशंसा या पूजा निरर्थक व आत्मघाती होगी यदि उसके पीछे उनके जीवन व दर्शन से सहमति न हो. कांग्रेस का वर्तमान राजनीतिक हश्र इसी का उदाहरण है. भारत में समाजवादी दलों के पराभव की जड़ भी यहीं है. गांधी-विचार के संगठनों ने भी यहीं आकर मुंह की खाई है. गांधी के साथ क्षद्म नहीं चल सकता है, क्योंकि असत्य या बनावटीपन के साथ गांधी को पचाना संभव नहीं है.

‘ऑर्गनाइजर’ के उसी अंक में संघ के वरिष्ठ नेता मनमोहन वैद्य का लेख ऐसे ही क्षद्म का उत्तम उदाहरण है. वे महात्मा गांधी की प्रशंसा कर रहे हैं या उन्हें खारिज कर रहे हैं याकि यह रहस्य खोल रहे हैं उन्हें गांधी की बुनियादी बातों की समझ ही नहीं है, यह मोहन भागवत ही हमें बता सकते हैं.

मनमोहन वैद्य लिखते हैं कि हम गांधीजी की हमेशा सराहना करते रहे हैं हालांकि हमारी उनसे असहमति रही है. मुस्लिम समाज के जिहादी और अतिवादी तत्वों के समक्ष उन्होंने जिस तरह आत्मसमर्पण कर दिया था, उसके बावजूद हम चरखा तथा सत्याग्रह जैसे सरल व सर्वस्वीकृत तरीकों से भारत के स्वतंत्रता संग्राम को व्यापक जनाधार देने की उनकी कोशिशों को उनकी महानता के रूप में देखते रहे हैं.

अब अगर संघ के एक धड़े का यह विश्लेषण हो कि गांधीजी ने मुस्लिम समाज के अतिवादी तत्वों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था और चरखा व सत्याग्रह सरल व सर्वस्वीकृत रास्ते थे, तो सोचना पड़ता है कि मोहन भागवत या मनमोहन वैद्य- संघ का असली चेहरा कौन-सा है? मोहन भागवत गांधी को समझते लगते हैं तो मनमोहन छद्म करते.

अब मोहन भागवत को संघ का असली चेहरा साफ करने के लिए एक कदम और चलना होगा: अगर गांधी की महानता और पवित्रता का उनका मूल्यांकन पक्का है तो उनकी हत्या से लेकर अब तक उनकी चारित्र-हत्या तक की तमाम कोशिशों की उन्हें माफी मांग लेनी चाहिए. इतिहास का चक्र पीछे तो नहीं लाया जा सकता है, इतिहास से माफी मांगी जाती है. इतिहास में ऐतिहासिक गलतियों का अध्याय बहुत बड़ा है. उससे खुद को बाहर निकालने का एक ही तरीका है कि आप इतिहास से माफी मांग लें. अगर ब्रिटिश आर्चबिशप अभी-अभी जालियांवालाबाग में मत्था टेक कर उन ज्यादतियों की माफी मांगता है जो गुलाम रखने के दर्प में ब्रितानी हुकूमत ने उस दौर में किए थे. लिहाजा कोई कारण नहीं है कि संघ परिवार महात्मा गांधी की हत्या और उनके प्रति चलाए गए घृणा अभियान की माफी न मांग लें. इस माफी के साथ वह अध्याय बंद हो जाएगा और संघ परिवार को आगे निकलने का मौका मिल जाएगा. फिर आगे संघ परिवार कैसे और कौन-सी दिशा पकड़ता है, उस पर ही हमारी नजर रहेगी.

क्या माफी का ऐसा विनय और माफी की ऐसी वीरता संघ परिवार के पास है?