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कांस्टेबल खुशबू चौहान के बहाने   

विडम्बना देखिये कि जिन दिनों देश महात्मा गाँधी की डेढ़ सौंवी जयंती मनाते हुए राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में उनके सबसे बड़े योगदानों में से एक- अहिंसा को याद कर रहा था, उसी सप्ताह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ओर से नई दिल्ली में अर्द्ध सैनिक बलों के लिए आयोजित एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में सीआरपीएफ की कांस्टेबल खुशबू चौहान का एक उत्तेजक, आपत्तिजनक और ‘हेट स्पीच’ की कगार पर खड़ा भाषण न सिर्फ सोशल मीडिया में वायरल किया जा रहा है बल्कि मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में कई न्यूज चैनलों ने बिना किसी आलोचना और संपादन के उसे प्रशंसा-भाव के साथ और गौरवान्वित करते हुए चलाया है.

यही नहीं, मुख्यधारा के न्यूज मीडिया से जुड़े कई जानेमाने पत्रकारों और सेलिब्रिटीज ने भी इसे अपने सोशल मीडिया हैंडल से मुग्ध और प्रशंसा भाव से शेयर किया है. इसके बाद से सोशल मीडिया और कुछ दूसरे समाचार प्लेटफार्मों पर इसके आपत्तिजनक कंटेंट और उसे न्यूज चैनलों पर महिमामंडित करते हुए प्रसारित करने को लेकर तीखी बहस शुरू हो गई है. आलोचकों का तर्क है कि मानवाधिकारों के समर्थकों के खिलाफ हिंसा की खुलेआम वकालत करनेवाले, आपत्तिजनक और हेट स्पीच के तहत आनेवाले भाषण को बिना किसी आलोचना और सम्पादकीय विवेक का इस्तेमाल किये प्रसारित करके न्यूज चैनलों ने इसे महिमामंडित किया है जो न्यूज मीडिया के एथिक्स के खिलाफ है.

आलोचकों के तर्कों में दम है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि सीआरपीएफ कांस्टेबल को वाद-विवाद प्रतियोगिता में आक्रामक तरीके से ऐसी कई उत्तेजक और आपत्तिजनक बातें कहते हुए सुना जा सकता है जो न सिर्फ हेट स्पीच के दायरे में आता है बल्कि किसी सरकारी, कानून और संविधान से संचालित और मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध पेशेवर अर्द्धसैनिक बल के कांस्टेबल से सार्वजनिक मंच पर ऐसे भाषण अपेक्षा नहीं की जाती है.

उदाहरण के लिए खुशबू चौहान इस भाषण में कहती है कि “जेएनयू में जब एक देशद्रोही द्वारा ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ और ‘अफज़ल हम शर्मिंदा हैं’ जैसे देशद्रोही नारे लगे तो सारे मानवाधिकार के ज्ञाता उसके पक्ष में आकर खड़े हो जाते हैं.” वे इस भाषण में खुद को भारत की बेटी बताते हुए अपनी भारतीय सेना की ओर से एलान करती हैं कि “उस घर में घुसकर मारेंगे जिस घर से अफ़ज़ल निकलेगा, वो कोख़ नहीं पलने देंगे जिस कोख़ से अफ़ज़ल निकलेगा” और सैनिकों का यह कहते हुए आह्वान करती हैं कि “उठो, देश के वीर जवानों तुम सिंह बनकर दहाड़ दो, एक तिरंगा झंडा उस कन्हैया के सीने में गाड़ दो.”

कहने की जरूरत नहीं है कि कांस्टेबल खुशबू चौहान के भाषण की भाषा, विचार और तर्क में ही नहीं, तथ्यों के साथ भी गहरी समस्या है. जेएनयू विवाद में उस समय के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर जो आरोप लगाये गए, वे न सिर्फ विवादास्पद हैं बल्कि उनकी सत्यता की पुष्टि और उसमें कन्हैया कुमार की संलग्नता को कोर्ट में साबित होना बाकी है. दूसरे, वह सेना और अर्द्धसैनिक बलों के जवानों को (तर्क के लिए ही सही) कन्हैया कुमार के सीने में तिरंगा गाड़ने (हत्या करने) के लिए कैसे उकसा सकती हैं? तीसरे यह हेट स्पीच और संवैधानिक-कानूनी प्रावधानों के उल्लंघन के दायरे में आता है जब वह हर घर में घुसकर मारने और उन कोखों को पलने नहीं देने का एलान करती हैं जिनसे कथित तौर पर अफज़ल निकलनेवाला है?

जाहिर है कि कांस्टेबल खुशबू चौहान का यह भाषण किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है- न नैतिक दृष्टि से और न ही कानूनी-संवैधानिक नजरिये से. यह सही है कि कांस्टेबल खुशबू एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में इस विषय (प्रस्ताव) के विपक्ष में बोल रही थीं कि “मानवाधिकारों का अनुपालन करते हुए देश में आतंकवाद और उग्रवाद से निपटा जा सकता है.” यह भी सही है कि वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रतियोगी को पक्ष और विपक्ष में बोलने की छूट होती है और साथ ही,उसे अपने विचार के अनुकूल तर्कों और तथ्यों सहित अपनी बात प्रभावी तरीके से रखने की आज़ादी होती है.

आमतौर पर कॉलेज स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का फार्मेट ऐसा होता है जिसमें अक्सर वक्ता लच्छेदार और जोशीली शैली में शेरो-शायरी के साथ अपनी बात रखते हैं, प्रतिपक्षी के तर्कों की बखिया उधेड़ते हैं और उनपर तर्कों-तथ्यों से हमले करते हैं. लेकिन कॉलेज स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भी प्रतियोगियों से अपेक्षा की जाती है कि वे आपत्तिजनक बातों से बचेंगे, हेट स्पीच से परहेज करेंगे और हिंसा फैलानेवाली या उकसानेवाली बातें नहीं करेंगे.

जाहिर है कि यह सिर्फ भाषण या कविता में रेटार्रिक और तुकबंदी का मामला नहीं है. इसके साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि सीआरपीएफ कांस्टेबल की भाषा, तर्क और ‘तथ्य’ में व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी और सोशल मीडिया के जरिये फैलाई जा रही उसी जहरीली और नफरत फैलानेवाली आक्रामक दक्षिणपंथी-अनुदार-सांप्रदायिक हिन्दुत्ववादी राजनीति की छाप है जिसने आज देश में ‘पब्लिक स्फीयर’ और सार्वजनिक बहसों को इस कदर जहरीला बना दिया है. यह चिंता की बात इसलिए है कि देश के प्रमुख अर्द्धसैनिक बल के जवान भी इस जहरीले सांप्रदायिक प्रचार से प्रभावित हो रहे हैं.

इसी जहरीले सांप्रदायिक रेटार्रिक का नतीजा है कि जेएनयू मामले में एक आरोपी छात्र उमर खालिद पर पिछले साल जानलेवा हमला हुआ और बंगलुरु में पत्रकार-एक्टिविस्ट गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई. इसी जहरीले रेटार्रिक के कारण देश भर में भीड़ की हिंसा (माब लिंचिंग) की घटनाएं बढ़ रही हैं और ऐसा लगता है जैसे देश लगातार साम्प्रदायिकता की एक मद्धम आंच में उबल रहा है.

आश्चर्य नहीं कि खुशबू चौहान के जिस विवादित भाषण का न्यूज चैनल और कई पत्रकार महिमामंडन करने में जुटे हैं उससे खुद सीआरपीएफ ने पल्ला झाड़ लिया है. उसने सफाई देते हुए कहा है कि सीआरपीएफ बिना किसी शर्त मानवाधिकारों का सम्मान करती है. सीआरपीएफ प्रवक्ता के मुताबिक, कांस्टेबल चौहान अपने भाषण के कुछ हिस्सों से बच सकती थीं और उन्हें इस सम्बन्ध में ध्यान रखने की सलाह दी गई है.

लेकिन विडम्बना देखिये कि कांस्टेबल खुशबू चौहान के जिस विवादास्पद भाषण से खुद सीआरपीएफ ने किनारा कर लिया, उसे कई न्यूज चैनलों ने वायरल वीडियो के नामपर मुग्ध-भाव से महिमामंडित करना शुरू कर दिया. इसमें कहीं कोई सम्पादकीय विवेक या पत्रकारीय एथिक्स नहीं था. यहां तक कि न्यूज चैनलों ने खुद की बनाई आचार संहिता और उसके प्रावधानों का ध्यान नहीं रखा जो हिंसा और अपराध के महिमामंडन से बचने की सलाह देती है. इसमें कोई आलोचना या आलोचनात्मक व्याख्या नहीं थी. इसके उलट चैनलों ने इसे सम्पादकीय अनुमोदन के साथ पेश किया.

उदाहरण के लिए इंडिया टीवी पर कुल 7 मिनट लम्बी स्टोरी चली, उसका स्लग था- “टुकड़े-टुकड़े गैंग पर बहादुर बिटिया का प्रहार.” इस स्टोरी का एंकर लिंक देखिये- “बात सीआरपीएफ की लेडी कांस्टेबल खुशबू चौहान की जिनका पूरा देश दीवाना हो गया है. एक डिबेट के दौरान लेडी कांस्टेबल ने इतना जोशीला भाषण दिया कि सुननेवाले बस सुनते रह गए. पिछले 48  घंटे में लाखों लोग इस विडिओ को देख और शेयर कर चुके हैं. आप भी सुनिए खुशबू की बातें और हो जाइए उनके दीवाने”. इसके बाद खुशबू के भाषण के उत्तेजक और आपत्तिजनक टुकड़ों को सुनाते हुए लम्बे वायस ओवर के कुछ टुकड़े देखिये-“..यह वीडियो सोशल मीडिया पर हर ओर छाया हुआ है..हर कोई वाह-वाह कर रहा है..”

दूसरी ओर, अंग्रेजी के न्यूज चैनल इंडिया टुडे टीवी पर एंकर गौरव सावंत अपने शो ‘इंडिया फर्स्ट’ की शुरुआत कुछ इस तरह करते हैं- “कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय- जेएनयू में लगे नारों “अफज़ल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिन्दा हैं’ को अभिव्यक्ति की आज़ादी बताते हैं लेकिन सुनिए एक युवा सीआरपीएफ कांस्टेबल को जो ‘इंडिया फर्स्ट’ में विश्वास करती है और जो ‘इंडिया फर्स्ट’ बोलती हैं..कांस्टेबल खुशबू चौहान उन तथाकथित ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का इस वायरल विडियो में पर्दाफाश कर रही हैं.” इसके बाद रिपोर्ट में बिना किसी आलोचना के सीआरपीएफ कांस्टेबल के भाषण के विवादास्पद हिस्से दिखाए-सुनाए.

ऐसे ही और भी कई चैनलों ने भी इस विवादास्पद भाषण को पूरे उत्साह और उल्लास के साथ दिखाया-सुनाया. गोया न्यूज चैनलों के लिए मानवाधिकार बेमानी हों और संविधान का कोई अर्थ न हो. कहने की जरूरत नहीं है कि अधिकांश चैनलों ने मानवाधिकारों की जैसे सुपारी ले ली है. इन चैनलों ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों को एक तरह से ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का पर्यायवाची बना दिया है. वे दिन-रात मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं को ऐसे पेश करते हैं जैसे वे देश के दुश्मन हों.

न्यूज चैनलों की इस पक्षधरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि उसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में कई जवानों/अफसरों ने मानवाधिकारों के सम्मान के पक्ष में उसी गर्मजोशी और प्रभावी तर्कों के साथ अपनी बात रखी थी जिसे किसी चैनल ने अपने यहां जगह नहीं दी. आखिर उन भाषणों को ‘ब्लैक आउट’ क्यों किया गया? क्या यह निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता के पत्रकारीय सिद्धांत का उल्लंघन नहीं है? आखिर मानवाधिकारों के सम्मान को लेकर कई जवानों/अफसरों के संतुलित विचारों की तुलना में कांस्टेबल खुशबू चौहान के आपत्तिजनक और हेट स्पीच को तरजीह क्यों दी गई?

हालांकि न्यूज चैनलों के इस रवैये में नया कुछ नहीं है और न ही अब हैरानी होती है. अधिकांश न्यूज चैनलों के लिए यह अपवाद नहीं बल्कि एक सुनियोजित पैटर्न बन गया है. वे बिना किसी लाज-शर्म और संकोच के जहरीले दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक एजेंडे के प्रोपेगंडा चैनल बन गए हैं जो 24×7 अहर्निश हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, गो-हत्या, लव जिहाद, भारत-पाकिस्तान के इर्द-गिर्द विभाजनकारी धार्मिक ध्रुवीकरण को आगे बढ़ा रहे हैं. वे खुलेआम इस्लामोफोबिया फैलाने में जुटे हैं.

इसके लिए उन्हें न तो पत्रकारिता के उसूलों और आचार संहिताओं की परवाह है और न ही तथ्यों की. यहां तक कि कई न्यूज चैनल और स्टार एंकर/पत्रकार इस जहरीले दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक प्रोपेगंडा को आगे बढाने के लिए तथ्यों के साथ तोड़मरोड़ करने से लेकर फेक/फर्जी ख़बरें गढ़ने में भी हिचकिचाते नहीं हैं. सच्चाई, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, तथ्यपरकता और संतुलन जैसे पत्रकारीय मूल्यों को ताखे पर रख दिया गया है. आश्चर्य नहीं कि कई प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने इन चैनलों के बहसों के कार्यक्रमों में जाना बंद कर दिया है.  लेकिन इससे बेपरवाह न्यूज चैनलों में जैसे नीचे गिरने की होड़ सी लगी हुई है.

यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि पिछले कुछ सालों में ज्यादातर न्यूज चैनलों का “राष्ट्रवाद और देशभक्ति” की आड़ में साम्प्रदायिकीकरण लगातार गहरा हुआ है और वे खुलेआम हिन्दू बहुसंख्यकवादी-दक्षिणपंथी सांप्रदायिक राजनीति के भोंपू बन गए हैं. यही नहीं,उनके बीच खुद को एक-दूसरे से ज्यादा बड़ा राष्ट्रवादी (जिसका नया अर्थ है-हिंदूवादी) साबित करने की होड़ लगी हुई है. वे राष्ट्रीय राजनीति और समाज में आये दक्षिणपंथी-अनुदार-सांप्रदायिक झुकाव की धारा में उसके साथ बह रहे हैं. इस दौरान उनकी सम्पादकीय लाइन पर न सिर्फ गहरा भगवा रंग चढ़ गया है बल्कि उनका कंटेंट सांप्रदायिक रूप से लगातार जहरीला, नफरत और अविश्वास के साथ धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ानेवाला होता गया है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ सालों में न्यूज चैनलों में स्व-घोषित दक्षिणपंथी-हिंदूवादी “राष्ट्रवादी-हिंदूवादी” एंकरों/पत्रकारों/संपादकों की मांग बढ़ गई है. यही नहीं, इन न्यूज चैनलों के अन्दर सम्पादकीय विभाग और न्यूजरूम में ऐसे एंकरों/संपादकों/पत्रकारों/रिपोर्टरों को न सिर्फ महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी जा रही हैं बल्कि चैनलों पर 90 फीसदी प्राइम टाइम बहसों की एंकरिंग इन्हीं स्व-घोषित “राष्ट्रवादी” एंकरों के जिम्मे है जो बिना किसी संकोच के अपने दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक एजेंडे के साथ एंकरिंग करते और अपना स्टैंड बताते रहते हैं. वे अपने बहस/चर्चा के कार्यक्रमों की फ्रेमिंग ऐसे करते हैं जिसमें उनका पूर्वाग्रह और राजनीतिक रुझान साफ़ दिखाई देता हैं.

उदाहरण के लिए वे पत्रकारिता के उसूलों को अनदेखा करते हुए भड़काऊ शीर्षकों/सुर्ख़ियों के साथ ऐसी बहसें आयोजित करते हैं जिसमें सीधे या परोक्ष रूप न सिर्फ दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीति और उसके एजेंडे को आगे बढ़ाया जाता है बल्कि यह साबित करने की कोशिश होती है कि देश में बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय भेदभाव का शिकार है, उसके हितों की अनदेखी करके मुस्लिम समुदाय का कथित तुष्टीकरण हो रहा है,हिन्दुओं की कहीं सुनवाई नहीं है,उन्हें हर जगह दबाने की कोशिश होती है,हिन्दुओं की भावनाओं का ख्याल नहीं रखा जाता है और सबसे बढ़कर हिन्दू अपने ही देश में खतरे में हैं.

इन चैनलों ने अपना मंच संघ परिवार और विहिप से जुड़े कथित विचारकों, धर्मगुरुओं,साधुओं और धार्मिक नेताओं और उनके सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ और जहरीले प्रोपैगंडा के लिए खोल दिया और उसे बिना किसी आलोचना और संतुलन के लाइव प्रसारित किया जा रहा है. इस दौरान न्यूज चैनलों पर फ्रिंज कहे जानेवाले उग्र सांप्रदायिक हिंदूवादी संगठनों और उनके नेताओं/प्रवक्ताओं को खुलेआम जहर उगलने का मौका दिया जा रहा है.

ऐसा नहीं है कि इन टीवी कार्यक्रमों में मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं होते हैं. लेकिन मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि या प्रवक्ता के बतौर जिन मौलानाओं-मौलवियों या मुस्लिम समुदाय की फ्रिंज पार्टियों के नेताओं/प्रवक्ताओं को बुलाया जाता है,उनके बारे में यह कहना मुश्किल है कि वे किस हद तक अपने समुदाय के वास्तविक प्रतिनिधि या प्रवक्ता हैं? न्यूज चैनल उन्हें इसलिए बुलाते हैं ताकि वे उलटी-सीधी बातें करें या अपने समुदाय का बचाव करें और वे उसे हिन्दू हितों के विरुद्ध या मुस्लिम तुष्टीकरण के बतौर पेश कर सकें. लेकिन उन्हें बुलाने का सबसे बड़ा मकसद हिन्दू-मुस्लिम के द्विचर (बाईनरी) को गढ़ने, उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और एक-दूसरे से लड़ते हुए दिखाने का होता है ताकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को मजबूत करने में मदद मिले.

अफ़सोस यह है कि अधिकांश न्यूज चैनल आज हिन्दू-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक नफरत, घृणा और अविश्वास की खाई को बढ़ाने में जुटे हैं. वे लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं. वे पूरे देश में- हिंदी पट्टी से लेकर दक्षिण में सबरीमाला तक जिस तरह से सांप्रदायिक तनाव और टकराव का माहौल बना रहे हैं,आक्रामक हिंदुत्व को एक तरह की वैधानिकता और सम्मान दे रहे हैं,उससे उन राजनीतिक शक्तियों को हिन्दू ध्रुवीकरण करने का मौका मिल रहा है जो लोगों के दिमाग में नफरत और घृणा का जहर भर रहे हैं. इसके कारण सांप्रदायिक जहर फ़ैलानेवाली फर्जी/झूठी ख़बरों, अफवाहों और प्रोपैगंडा के मामले में सोशल मीडिया (फेसबुक-ट्विटर आदि)-व्हाट्सएप्प और संदिग्ध वेबसाइटों और मुख्यधारा के न्यूज मीडिया खासकर हिंदी-अंग्रेजी के प्रमुख चैनलों के बीच का फर्क खत्म सा होता दिख है.

हालत यह हो गई है कि सांप्रदायिक प्रोपैगंडा के एजेंडे के अनुकूल सी दिखती कोई भी “खबर” या सूचना या खुशबू चौहान जैसे वायरल वीडियो आ जाए तो ये न्यूज चैनल उसे तुरंत लपक लेते हैं और उसे सुर्खी बना देते हैं. उसे हर बुलेटिन में रिपीट करने और उसपर विशेष कार्यक्रम बनाने के अलावा उसपर प्राइम टाइम बहस/चर्चा कराने में भी पीछे नहीं रहते हैं. अक्सर वे उस कथित “खबर” की सत्यता की जांच-पड़ताल की भी जरूरत नहीं समझते हैं. इसके कारण ऐसा लगता है जैसे देश के बड़े हिस्से में खासकर हिंदी पट्टी के कई राज्यों के गांव-क़स्बे-शहर सांप्रदायिक बारूद के ढेर पर बैठे हुए हैं जिसमें कोई अफवाह,झूठी खबर और छोटी-मोटी घटना भी चिंगारी की तरह काम कर रही है.

( लेखक भारतीय जन संचार संस्थान दिल्ली में प्रोफेसर हैं )