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‘मानसिक बीमारी ठीक करने में सरकार से ज्यादा समाज की भूमिका’

भारत में मानसिक बीमारी दिन-ब-दिन गंभीर रूप ले रहा है. जिसको लेकर भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी चिंता जाहिर कर चुके हैं.

राष्ट्रपति ने साल 2017 के दिसम्बर में कहा था कि भारत संभावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी के मुहाने पर खड़ा है और मानसिक बीमारी प्रभावित 90 प्रतिशत मरीज चिकित्सा सुविधा से वंचित हैं.

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार राष्ट्रपति ने चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि हमारे राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2016 में यह पाया गया है कि भारत की आबादी के करीब 14 प्रतिशत लोगों को सक्रिय मानसिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप की जरूरत है. करीब दो प्रतिशत लोग गंभीर मानसिक विकार से ग्रस्त हैं.

यही नहीं हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एचएल दत्तू ने भी चिंता जाहिर करते हुए कहा था, ‘‘भारत में आज 13,500 मनोरोग चिकित्सकों की आवश्कता है, लेकिन 3,827 ही उपलब्ध हैं. 20,250 क्लीनिकल मनोरोग चिकित्सकों की आवश्कता है जबकि केवल 898 उपलब्ध हैं. इसी तरह पैरामैडिकल स्टाफ की भी भारी कमी है.’’

भारत में बढ़ते मानसिक रोगों के कारणों और इलाज के लिए उपलब्ध डॉक्टरों की स्थिति को लेकर न्यूज़लॉन्ड्री ने भारत के आगरा स्थित मानसिक स्वस्थ्य संस्थान के चिकित्सा अधीक्षक डा. दिनेश राठौर से बातचीत की.

आपके यहां किस तरह के मरीज आते हैं?

समाज में मानसिक बीमारी को लेकर जागरुकता का बेहद आभाव है. जो कम गंभीर मानसिक रोग है उनको अक्सर लोग पहचान नहीं पाते हैं. उसी के साथ में जीते रहते हैं. उनके संबंध खराब हो जाते हैं. जब बीमारी गंभीर हो जाती है, तब लोग अस्पतालों का रुख करते हैं. ज्यादातर लोग पहले किसी प्राइवेट संस्थान या मेडिकल कॉलेज में जाते है. जब हर जगह से लोग मायूस हो जाते है तब हमारे यहां आते हैं.

डॉ. दिनेश राठौर

अभी यहां कितने मरीज हैं?

अभी हमारे यहां करीब 550 मरीज भर्ती हैं. यहां मरीजों के लिए दो तरह की व्यवस्थाएं हैं. एक परिवार वार्ड है, जहां परिवार के लोग साथ रहकर अपने परिजनों का इलाज करा सकते हैं वहीं दूसरा वार्ड वो है जहां सिर्फ मरीज को ही रखा जाता है. वहीं ओपीडी में रोजाना लगभग दो सौ से तीन सौ मरीज इलाज के लिए आते हैं.

मानसिक रूप से बीमार मरीजों के सही होने का औसत क्या है?

हमारे यहां तो लगभग 90 प्रतिशत मरीज बिलकुल सही हो जाते हैं. जो समाज में जाकर सामान्य जीवन जीना शुरू कर देते है. 10 प्रतिशत ऐसे होते हैं जिनमें सुधार तो होता है, लेकिन उनकी स्थिति ऐसी नहीं होती की वे अपना काम कर सकें. इनकी बीमारियों की पुनरावृति होने की संभावना होती है.

भारत में मानसिक रोगियों के इलाज के लिए डॉक्टर्स की कमी हैं. आपको क्या लगता है?

इसके लिए हमें इतिहास में जाना पड़ेगा. पहले कोई भी डॉक्टर मानसिक स्वास्थ्य में विशेषज्ञता हासिल नहीं करना चाहता था. वो मेडिसन में या सर्जरी में जाता था. इस वजह से मेंटल डॉक्टर्स के लिए जो सीटें होती थी वो खाली रह जाती थी. जब डॉक्टर नहीं मिले तो हमें उस विषय के शिक्षक भी नहीं मिले. इसलिए डॉक्टर्स की काफी कमी है साथ ही शिक्षकों की भी. लेकिन जब सरकार ने इसकी गंभीरता को समझा तो उनके द्वारा साल 2002 में सेंटर फॉर एक्सीलेंस इन मेडिकल हेल्थ नाम की स्कीम चालू की. इस स्कीम के जरिए मानसिक बीमारियों के लिए डॉक्टर तैयार करने की शुरुआत की गई. पहले ये था कि कोई मानसिक बीमारियों में विशेषज्ञता हासिल करता था तो लोग उसका मज़ाक उड़ाते थे, लेकिन अब बदलाव नजर आ रहा है. इसके अलावा सरकार द्वारा पीएसी और जिला अस्पताल के डॉक्टरों को मेंटल हेल्थ को लेकर ट्रेनिंग देने का प्रोग्राम शुरू किया गया. ये डॉक्टर ट्रेनिंग लेकर जाते हैं और वहां आशा वर्कर को ट्रेनिंग देते हैं. इससे फायदा ये हुआ कि लोग बीमारी को शुरुआत में ही पहचान लगे. क्योंकि मानसिक बिमारियों को आप जितनी जल्द पहचान लेंगे नुकसान उतना ही कम होगा. सरकार कोशिश कर रही है.

मानसिक रोगियों के साथ काम करना कितना मुश्किल होता है?

मानसिक रोगियों के साथ काम करना मेकैनिकल नहीं होता है. हम उनकी सिर्फ बीमारी को ठीक नहीं कर रहे होते है. हम एक व्यक्ति के पूरी जिंदगी को समझकर उसे ठीक करने का प्रयास करते है. मानसिक रोग की वजह से उसके संबंध भी खराब होते हैं. वो भावनात्मक रूप से भी काफी कष्ट में होता है. उसके परिवार के लोगों की उससे कुछ उम्मीदें और आलोचना होती है. तो हमारा एक काम मरीज तक ही सीमित न होकर के उसके परिवार, उसके संबंध और यहां से उसके जाने के बाद किस तरह उसे समाज में रहने के लायक बनाया जाय, ये सब भी होता है. ये काम थोड़ा व्यापक है क्योंकि डॉक्टरों की कमी है. हमें मरीजों का विश्वास जीतने के लिए उनको समय देना होता है क्योंकि भरोसा होने के बाद ही वे अपनी जिंदगी की गोपनीय बाते हमसे शेयर करते हैं.

अभी हमारी समस्या ये है कि जितना वक़्त देना चाहिए हम उन्हें नहीं दे पाते है. यूरोपियन देशों और अमेरिका में नियम है कि कोई भी साइकेट्रिस्ट एक दिन में पांच से सात मरीज देखेगा उससे ज्यादा नहीं देख सकता है. एक मरीज को कम से कम 20 मिनट का समय देगा. इससे कम समय देने और तय मरीजों की संख्या से ज्यादा मरीज देखने पर कार्रवाई का प्रावधान है. वर्तमान में भारत में डॉक्टर की कमी और मरीजों की ज्यादा संख्या के कारण यहां हर डॉक्टर को रोजाना 40 से 50 मरीज देखना पड़ता है. जिस कारण हम मरीजों को वक़्त नहीं दे पाते हैं. हमारे यहां ओपीडी में 200 से 300 लोग आते हैं. जिसे देखने के लिए सिर्फ चार से पांच डॉक्टर होते हैं.

मानसिक रोगियों के ठीक होने में समाज की क्या भुमिका है?

समाज में लोग मानसिक बीमार लोगों का मजाक उड़ाते है. क्योंकि उनमें जागरुकता की कमी होती है. और जब मजाक उड़ाने वाले व्यक्ति को मानसिक रोग होगा तो वही व्यक्ति सबसे आखिरी में उपचार के लिए जाएगा. और सबसे ज्यादा पीड़ा झेलेगा. तो समाज को किसी दूसरे के लिए जागरूक नहीं होना है बल्कि अपने लिए और अपने परिवार सदस्यों के बारे में सोचना है. कोई मानसिक बीमार हो तो उसकी जगह खुद को या अपने परिजनों को रखकर देखें और फिर सोचे कि मुझे किन चीजों का ध्यान रखना है. इस तरह से अगर हमारा समाज सोचेगा तभी फायदा होगा. बहुत लोग मानते हैं कि हम पैसे वाले हैं हमें मानसिक रोग नहीं होगा. लेकिन वो गलत सोचते हैं. मानसिक बीमारी का पैसे से कोई संबंध नहीं होता है. मेरा मानना है कि मानसिक बीमारी को कम करने में सरकार से ज्यादा समाज की भूमिका है. सरकार कई स्कीम चला रही है, लेकिन समाज में बदलाव व्यक्ति के जागरुक होने से ही आएगा. अगर समाज जागरुक होगा तो मानसिक बीमारी बड़ा रूप नहीं ले पाएगी.

भारत में मानसिक रूप से बीमार लोगों के लिए पुनर्वास का इंतजाम न करे बराबर है. इससे क्या नुकसान होता है?

हमारे यहां अभी मानसिक बीमार लोगों के इलाज का मकसद उन्हें बस ठीक करना है. हमें मानसिक रोगियों के इलाज के दूरगामी उद्देश्य भी ध्यान में रखने होंगे. उस व्यक्ति के ठीक होने के बाद समाज में उसका पुर्नवास किस तरह हो इसका कोई ख़ास इंतजाम भारत में नहीं है. एक बार हमने उसे ठीक तो कर दिया लेकिन भविष्य में भी तनाव के दौरान वो फिर उस बिमारी के चपेट में आ सकता है. हमें उसके पुनर्वास पर भी काम करना होगा इससे भविष्य में बीमारी की पुनरावृति की संभावना कम हो जाती है. अभी भारत में इस तरह के अप्रोच कम है चाहे सरकारी सेंटर हो या प्राइवेट सेंटर हो.

मेंटल हेल्थ के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा बनाए गए नए कानून में ये नियम है कि अगर किसी मरीज के परिजन उसे रखने में असमर्थ हैं तो उसे रखने के लिए सरकार द्वारा इंतजाम करना होगा. हमारे यहां समाज कल्याण विभाग की जिम्मेदारी है कि वो मरीजों को रखे. लेकिन समाज कल्याण विभाग के ऐसे कितने केंद्र है जो ऐसे मरीजों को रखकर उनका ख्याल रख सकते है. संयुक्त राष्ट्र संघ में बना नियम विकसित देशों को देखकर बनाया गया है. उनके यहां इंतजाम है लेकिन हमें इस नए नियम को लागू करने के लिए दूर तक जाना बाकी है.