Newslaundry Hindi
बीएसएफ-सीआरपीएफ के जवान अपने मेडल क्यों उतार रहे हैं?
पिछले महीने मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के सौ दिन पूरे किए. इस मौक़े पर तमाम केंद्रीय मंत्रालयों ने अपनी-अपनी उपलब्धियां गिनवाईं. इसी क्रम में गृह मंत्रालय ने भी एक पोस्टर जारी किया जिसमें बताया गया था कि सरकार ने केंद्रीय सुरक्षा बलों की वर्षों पुरानी मांग स्वीकार ली है और उन्हें ‘ऑर्गनाइज़्ड ग्रूप ए सर्विसेज़’ का दर्जा देने के साथ ही तमाम वित्तीय लाभ दे दिए गए हैं.
इस घटना के लगभग एक महीने बाद अब यही पोस्टर सरकार के गले की हड्डी बन गया है. विपक्षी नेताओं के साथ ही सैन्य बलों के कई सेवानिवृत्त अधिकारी इस पोस्टर के ज़रिए सरकार पर निशाना साध रहे हैं और खुलेआम झूठ बोलने का आरोप लगा रहे हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि इस पोस्टर में सैन्य बलों को जो लाभ देने का दावा सरकार ने किया था, वह लाभ आज तक उन्हें नहीं मिले हैं.
सुप्रीम कोर्ट के अदेशानुसार ये ताम लाभ बीते सितंबर से पहले-पहले ही अर्धसैनिक बलों को मिल जाने चाहिए थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इसके चलते अर्धसैनिक बलों के तमाम अधिकारियों में रोष है. सीआरपीएफ के एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “सालों के इंतज़ार और दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में केस जीतने के बाद भी हमें अपने अधिकार नहीं मिल रहे. धैर्य की भी आख़िर एक सीमा होती है. हम लोग इस क़दर परेशान हो चुके हैं कि कई अफ़सर तो विरोध में अपने गैलंट्री मेडल तक लौटाने की बातें करने लगे हैं. बीएसएफ के कई साथियों ने तो अपने डेकोरेशन और मेडल लगाने भी छोड़ दिए हैं.”
कश्मीर से लेकर दंतेवाड़ा तक आतंक प्रभावित इलाक़ों में तैनात रहने वाले अर्धसैनिक बलों में यह हताशा और रोष क्यों है, इसे समझने की शुरुआत कुछ ऐसे तकनीकी पहलुओं को समझने से करते हैं जिनका ज़िक्र इस रिपोर्ट में बार-बार आने वाला है.
सबसे पहले जानते हैं सीएपीएफ के बारे में. सीएपीएफ यानी ‘सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फ़ॉर्सेज़’ या ‘केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल’ देश के गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले सैन्य बलों को कहा जाता है. सीएपीएफ में कुल सात सुरक्षा बल शामिल होते हैं: बीएसएफ यानी सीमा सुरक्षा बल, सीआरपीएफ यानी केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल, आईटीबीपी यानी भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, सीआईएसएफ यानी केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल, एनएसजी यानी राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड, सशस्त्र सीमा बल और असम राइफ़ल्ज़.
इन्हीं सातों सुरक्षा बलों को संयुक्त रूप से सीएपीएफ कहा जाता है. अनौपचारिक तौर पर इन्हें ‘पैरा-मिलिटेरी’ या ‘अर्धसैनिक बल’ भी कहते हैं. मौजूदा व्यवस्था में सीएपीएफ की संयुक्त कमान गृह मंत्रालय के गृह सचिव के हाथों में होती है जो कि एक आईएएस अधिकारी होता है. जबकि सीएपीएफ के अंतर्गत आने वाले प्रत्येक सुरक्षा बल की कमान इसके महानिदेशक (डीजी) के हाथ होती है. वर्तमान व्यवस्था में इन सभी सातों सुरक्षा बलों में महानिदेशक के पद पूरी तरह से आईपीएस अधिकारियों के लिए सुरक्षित हैं. ये आईपीएस अधिकारी प्रतिनियुक्ति (डेप्युटेशन) पर इन सुरक्षा बलों में आते हैं.
इसका दूसरा तकनीकी पहलू भी जान लेते हैं. ये है एनएफएफयू यानी ‘नॉन फ़ंक्शनल फ़ाइनेन्शल अपग्रेडेशन.’ साल 2006 में जब देश में छठां वेतन आयोग आया तो इसके साथ ही एनएफएफयू की अवधारणा भी लाई गई. इसका मूल उद्देश्य यह था कि पदों की कमी के चलते जिन अधिकारियों को पदोन्नति नहीं मिल पाती, उन्हें कम-से-कम वित्तीय लाभों से वंचित न रखा जाए. यानी अगर कोई अधिकारी पदोन्नत होने का न्यूनतम अनुभव हासिल कर लेता है तो वह बढ़े हुए वेतन का हक़दार होगा फिर चाहे असल में उसे पदोन्नति मिले या नहीं.
साल 2006 में जब एनएफएफयू आया तो इसे सिर्फ़ ‘ऑर्गनाइज़्ड ग्रुप ए सर्विसेज़’ यानी ओजीएएस के लिए लागू किया गया. यहीं से सीएपीएफ के अंतर्गत आने वाले सुरक्षा बलों की समस्या की शुरुआत हुई. सरकार ने तर्क दिया कि ये तमाम अर्धसैनिक बल ओजीएएस के अंतर्गत नहीं आते लिहाज़ा इन्हें एनएफएफयू का लाभ नहीं दिया जा सकता.
सीएपीएफ को जब ये लाभ नहीं मिले तो ये मामला दिल्ली हाईकोर्ट पहुंचा. सीएपीएफ ने कोर्ट को बताया कि आज से ही नहीं बल्कि साल 1986 से ही ‘कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग’ (डीओपीटी) के तमाम दस्तावेज़ों में सीएपीएफ को ग्रुप ए सर्विस दर्शाया जाता रहा है. लेकिन जब इन्हें इसके लाभ देने की बात आई है तो सरकार मुकर रही है. हाईकोर्ट ने सीएपीएफ की इस दलील को सही पाया और उनके पक्ष में आदेश देते हुए कहा कि सीएपीएफ को ओजीएएस का दर्जा मिलने के साथ ही तमाम वित्तीय लाभ दिए जाएं.
साल 2015 में आए दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश के ख़िलाफ़ केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. इसके क़रीब चार साल बाद फ़रवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सीएपीएफ के पक्ष में ही फ़ैसला सुनाया और दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले पर मुहर लगा दी. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिए कि 30 सितम्बर से पहले-पहले सीएपीएफ को एनएफएफयू के तमाम लाभ दे दिए जाएं. इन आदेशों के बाद मौजूदा सरकार ने मंत्रिमंडल की एक बैठक की जिसमें यह घोषणा की गई कि सरकार सीएपीएफ को ये तमाम वित्तीय लाभ देने जा रही है.
कोर्ट में भले ही मोदी सरकार सीएपीएफ को एनएफएफयू का लाभ दिए जाने का लगातार विरोध करती रही थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने इसे अपनी उपलब्धि की तरह पेश किया. इस सरकार के सौ दिन पूरे होने पर भी गृह मंत्रालय ने इस क़दम को यह कहते हुए दर्शाया कि सरकार अर्धसैनिक बलों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है. लेकिन ये सब करने बाद और 30 सितंबर की समय-सीमा बीत जाने के बाद भी सीएपीएफ को ये तमाम लाभ अब नहीं मिले हैं.
इस बारे में सीआरपीएफ के पूर्व डीजी वीपीएस पंवार कहते हैं, “ये पूरा मामला असल में आईपीएस लॉबी के कारण लटका हुआ है. वो कभी नहीं चाहते कि हमें एनएफएफयू के लाभ दिए जाएं. उन्हें डर है कि हमें अगर अपने अधिकार मिलने लगेंगे तो ये तमाम सुरक्षा बल जो उनके लिए ऐशगाह बने हुए हैं, उसका रास्ता बंद होने लगेगा. कोर्ट के आदेशों के बाद भी ये लागू इसलिए नहीं हो पा रहा क्योंकि जिन्हें लागू करना है उन तमाम पदों पर आईपीएस लॉबी क़ब्ज़ा जमाए बैठी है.”
वीपीएस पंवार जिस ओर इशारा कर रहे हैं, वह इस पूरे मुद्दे का सबसे दिलचस्प और जटिल पहलू है. असल में सीएपीएफ के सर्वोच्च पदों पर शुरुआत से ही आईपीएस लॉबी का क़ब्ज़ा रहा है. यही कारण है सुप्रीम कोर्ट में गृह मंत्रालय के साथ ही आईपीएस एसोसिएशन ने भी सीएपीएफ को ग्रुप ए सर्विस का दर्जा और एनएफएफयू के लाभ दिए जाने का विरोध किया था. इनका एक तर्क ये भी था कि अगर ये लाभ अर्धसैनिक बलों को दिए जाते हैं तो इससे उनके अनुशासन में फ़र्क़ पड़ेगा क्योंकि अगर एक ‘सेकंड इन कमांड’ अफ़सर को भी ‘कामंडैंट’ के बराबर वेतन मिलने लगेगा तो वह उसके आदेशों का गम्भीरता से पालन नहीं करेगा. लेकिन कोर्ट ने इस तर्क को आधारहीन माना और सीएपीएफ के तर्क को स्वीकार किया कि सुरक्षा बलों में आदेशों का पालन पद के अनुसार होता है, वेतन के अनुसार नहीं.
बीते एक दशक से सीआरपीएफ में सेवा दे रहे एक अधिकारी बताते हैं, “सीएपीएफ में आईपीएस अधिकारियों के लिए पद रिज़र्व हैं. सर्वोच्च पदों पर तो सौ फ़ीसदी इन्हीं लोगों का क़ब्ज़ा है. आप एक नज़र आंकड़ों पर डाल लीजिए आप समझ जाएंगे कि आईपीएस लॉबी इन सुरक्षा बलों में सेवा के लिए आती है या ऐश करने.” ये अधिकारी आगे कहते हैं, “सीएपीएफ में डीआईजी स्तर तक के जो पद हैं, उनमें कोई भी आईपीएस नहीं आना चाहता. लिहाज़ा ये पद ख़ाली पड़े हैं. अगस्त 2019 का ही आंकड़ा बताऊं तो बीएसएफ में 55 प्रतिशत, सीआईएसएफ में 65 प्रतिशत, सीआरपीएफ में 84 प्रतिशत, आईटीबीपी में 92 प्रतिशत और एसएसबी में तो 95 प्रतिशत डीआईजी स्तर के पद जो इनके लिए आरक्षित हैं, ख़ाली पड़े हैं. जबकि इन्हीं सुरक्षा बलों के आईजी स्तर से ऊपर के पद ख़ाली नहीं हैं क्योंकि वहां आराम फ़रमाने आईपीएस वाले तुरंत आ जाते हैं.”
वीपीएस पंवार बताते हैं, “सीएपीएफ के कैडर अधिकारी दोहरी मार झेल रहे हैं. एक तो डीआईजी स्तर के तमाम पद ख़ाली होने के बावजूद भी वे पदोन्नत नहीं हो पा रहे क्योंकि वो पद आईपीएस के लिए आरक्षित हैं. दूसरा, एनएफएफयू न मिलने के कारण उन्हें वित्तीय लाभों से भी वंचित किया जा रहा है. हम ये नहीं मांग रहे कि आईपीएस का इन सुरक्षा बलों में आना पूरी तरह से बंद कर दिया जाए. हमें ओजीएएस के लाभ मिलेंगे तो भी हमारे सर्वोच्च पद तो फ़िलहाल आईपीएस के पास ही रहने वाले हैं. लेकिन आईपीएस लॉबी को डर है कि इससे उनके रास्ते बंद होने लगेंगे. क्योंकि ओजीएएस के नियमों के तहत फिर कम-से-कम आईजी स्तर तक तो पूरी तरह सीएपीएफ के कैडर अधिकारियों को ही पदोन्नति मिलने लगेगी. लिहाज़ा इन्हें डर है कि कल हम अपने सर्वोच्च पदों पर भी अपने ही अधिकारियों की मांग करेंगे.”
वैसे 2018 में एक संसदीय बोर्ड भी ये संस्तुति कर चुका है कि सीएपीएफ के सर्वोच्च पदों में आईपीएस का एकाधिकार ख़त्म होना चाहिए और इन सुरक्षा बलों के डीजी पद तक भी कैडर अधिकारियों के पहुंचने की व्यवस्था होनी चाहिए. जबकि मौजूदा व्यवस्था ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. बल्कि कई अधिकारी तो ऐसे हैं जो 70-80 के दशक में नियुक्त होने के बाद भी बीते कुछ सालों में जब रिटायर हुए तो बमुश्किल आईजी ही बन पाए थे और वो भी महज़ एक-दो साल के लिए.
राँची में तैनात सीआरपीएफ के एक अधिकारी कहते हैं, “एक आईपीएस अधिकारी लगभग 14 साल की सर्विस के बाद हमारे उन अफ़सरों से भी ऊपर आ बैठता है जो 25 से 27 साल सर्विस कर चुके हैं. इससे हमारे मनोबल पर क्या असर पड़ता होगा आप समझ सकते हैं. बात सिर्फ़ आत्मसम्मान की नहीं है बल्कि फ़ील्ड के अनुभव की भी है. हम लोग लगातार जंगलों में लड़ रहे हैं. पूर्वोत्तर राज्यों से लेकर दंडकारण्य और कश्मीर तक कई-कई साल हम लोग आतंकियों से लड़ते हुए जो अनुभव हासिल करते हैं वो धरा का धरा रह जाता है जब कोई ऐसा आईपीएस हमारे ऊपर बैठा दिया जाता है जिसे ‘कॉन्फ़्लिक्ट’ (संघर्ष) का कोई अनुभव ही नहीं होता.”
सीएपीएफ अधिकारियों का तर्क है कि उनका चयन भी केंद्रीय लोक सेवा आयोग द्वारा ही किया जाता है और आईपीएस की तुलना में उनकी ट्रेनिंग कहीं ज़्यादा कठिन होती है. लिहाज़ा फ़ील्ड पर अपनी टीम का नेतृत्व और उनके फ़ैसले लेने के की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कैडर अधिकारियों के पास होनी चाहिए. दूसरी तरफ़ आईपीएस अधिकारियों का तर्क है कि चूंकि ये तमाम अर्धसैनिक बल अमूमन ऐसे इलाक़ों में तैनात होते हैं जहां आम नागरिक भी रहते हैं लिहाज़ा इनकी कमान आईपीएस के हाथों ही होनी चाहिए ताकि स्थानीय पुलिस और अन्य सैन्य बलों से तालमेल आसान रहे और सब मिलकर काम कर सकें.
बहरहाल, सीएपीएफ में आईपीएस अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति पर कोर्ट ने भी फ़िलहाल कोई स्पष्ट फ़ैसला नहीं दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में एक लाइन में लिखा है कि ‘सीएपीएफ को एनएफएफयू का लाभ दिए जाने से आरपीएफ में होने वाली आईपीएस अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.’
ये एक लाइन भी अब सीएपीएफ और आईपीएस के बीच तनातनी का कारण बन रही है. आईपीएस अधिकारियों का कहना है कि कोर्ट ने ग़लती से ‘सीएपीएफ’ की जगह ‘आरपीएफ’ लिख दिया है लिहाज़ा प्रतिनियुक्ति पहले जैसे ही बनी रहें. जबकि सीएपीएफ अधिकारियों का तर्क है कि कोर्ट ने सिर्फ़ आरपीएफ में प्रतिनियुक्ति को जायज़ ठहराया है पूरे सीएपीएफ में नहीं.
प्रतिनियुक्तियों का मुद्दा तो फ़िलहाल भविष्य के गर्भ में है लेकिन जिन वित्तीय लाभों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिए हैं और जिन्हें मंज़ूर करने को मोदी सरकार पहले ही अपनी उपलब्धि बता चुकी है, वह भी फ़िलहाल सीएपीएफ को नहीं मिल रहे. इस मामले में याचिकाकर्ता रहे पंवार कहते हैं, “हमने सुप्रीम कोर्ट में सरकार के ख़िलाफ़ कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट का मामला दाख़िल कर दिया है. दूसरी तरफ़ सरकार ने अब और दो महीनों का समय कोर्ट से मांगा है. लिहाज़ा एक बार फिर से मामला कोर्ट में पहुंच गया है.”
सीआरपीएफ के एक डेप्युटी कमांडेंट कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद भी अगर सरकार हमें हमारे अधिकार नहीं दे रही तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इन आदेशों को लागू करने वालों की कितनी मज़बूत पकड़ है. भले ही इस सरकार ने मंत्रिमंडल की बैठक में ये कहा कि हमें सारे लाभ दिए जाएंगे लेकिन उस आदेश को अगर आप बारीकी से पढ़ें तो आप समझ सकते हैं कि उसमें किसी की भी ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई.”
ये अधिकारी आगे कहते हैं, “देश भर में 450 से भी ज़्यादा जगह हैं जहां आईपीएस अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर जा सकते हैं. लेकिन उन्हें सिर्फ़ सीएपीएफ में ही आना है क्योंकि यहां वो सर्वोच्च पदों पर ऐश करने आते हैं. हमारे चीफ़ का रुतबा लगभग आर्मी चीफ़ जैसा है इसलिए कोई आईपीएस इसे क्यों छोड़ना चाहेगा. लेकिन इस व्यवस्था के चलते देश की आंतरिक सुरक्षा से समझौता हो रहा है. इसीलिए हम अपने मेडल और अवार्ड तक उतार कर इसका विरोध कर रहे हैं. ये मेडल और अवार्ड किसी भी सैनिक की शान होते हैं. हम अगर अपनी शान उतार रहे हैं तो स्थिति कितनी गम्भीर है ये समझा जा सकता है.”
Also Read
-
Kutch: Struggle for water in ‘har ghar jal’ Gujarat, salt workers fight for livelihoods
-
Hafta 483: Prajwal Revanna controversy, Modi’s speeches, Bihar politics
-
Can Amit Shah win with a margin of 10 lakh votes in Gandhinagar?
-
उत्तराखंड के जंगलों में आग: आदेशों और चेतावनी की अनदेखी कर वनकर्मियों को लगाया इलेक्शन ड्यूटी पर
-
If Prajwal Revanna isn’t punished, he will do this again: Rape survivor’s sister speaks up