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द स्काइ इज पिंक: आसमां का रंग गुलाबी ही होता है
जब तक आप हंसते हैं, रुला देती है. जब तक आप रोते हैं, हंसा देती है. जो दृश्य ख़ुशी का है वही ग़म का भी है. जिस पल सब कुछ ख़त्म होने वाला होता है, उसी वक्त कुछ नया शुरू हो रहा होता दिखाई देता है. हंसना और रोना दोनों चीनी और नमक की तरह घुले-मिले हुए हैं. बहुत दिनों बाद आपके शहर में ऐसी ही एक फ़िल्म आई है. द स्काइ इज़ पिंक.
गुलाबी ही तो होता है आसमान. बल्कि सिर्फ गुलाबी नहीं होता. वैसे ही जैसे सिर्फ नीला नहीं होता. पीला भी होता है. सफेद भी और गहरा लाल भी. सुनहरा भी. आसमान को सिर्फ नीले रंग से नहीं समझा जा सकता है. जब तक आप इस धारणा से बाहर नहीं निकलते हैं, इस फिल्म को देखते हुए भी आप नहीं देख पाते हैं. थियेटर में होते हुए भी आप बाहर होते हैं. जहां अरबों बच्चों की तरह आपको भी आसमान को सिर्फ एक ही रंग से देखना सिखाया गया है. जैसा रंग आज अपने आस-पास देखते हैं. कोई फ़िल्म सियासत पर बात न करते हुए, सियासत को समझने की ऐसे ही ताकत देती है. वही फ़िल्म है ये. जिन्होंने ये फ़िल्म देखी है, वो बहुत दिनों तक इससे बाहर नहीं निकल पाएंगे.
हमारी ज़िंदगी काश स्कूलों वाले आसमान के रंग की तरह नीली होती. पुरानी दिल्ली के हिन्दू परिवार की कहानी है. जिसकी छत से जामा मस्जिद दिखती है. जिसके पीछे सिर्फ मुसलमान नहीं रहते. फिल्म यहीं आपकी नज़रों का इम्तहान लेती है. जब तक आप इससे सामान्य होते हैं, मूज़ अपना मज़हब ही बदल देती है. उसके पति का मज़हब कुछ और होता है. उसके दोस्तों का कुछ और. जैसे कि आसमान सिर्फ नीला नहीं होता है. मुझे दुनिया के उस अकेले पति की तारीफ़ अच्छी लगी जो अपनी पत्नी पर कुछ थोपता नहीं है.
उसी तरह जब आइसी की असाध्य बीमारी के लिए लंदन वाले दिल खोल कर दान देते हैं तो उसमें सिर्फ भारतीय नहीं होते. बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान के भी होते हैं. 1 लाख 20 हज़ार पाउंड की जगह ढाई लाख पाउंड देते समय वे मां का मज़हब और पिता का मज़हब नहीं देखते. मज़हब कितना पर्सनल हो सकता है, यह इस फिल्म में दिखाई देता है. ऐसे ही तो होता है हमारी रोज़ की ज़िंदगी में. कहां दिखाई देता है लेकिन सियासत में हर पल दिखाया जाता है. फ़िल्म में सियासत का एक फटा हुआ पोस्टर तक नहीं है. मगर वो याद दिला रही है कि जीवन को जीवन की नज़र से भी देखो.
मृत्यु इतनी स्वाभाविक हो सकती है और मां-बाप इतने तार्किक कि बीमारी के हर स्टेज को अपने बच्चे के साथ शेयर करते हैं. बच्ची उसे वैसे ही समझती है जैसे वही डॉक्टर हो. एक बीमारी मां को क्या बना देती है, पिता को क्या बना देती है, हम सबके आज की ज़िंदगी का संघर्ष है. जन्म से या जन्म के बहुत बाद आने वाली जानलेवा बीमारियां मां-बाप को वाकई कुछ बना देती है, उन मां-बाप से काफी अलग जिनके लिए आसमान का रंग सिर्फ नीला होता है. फिल्म में एक क्लास दिखता है. सब कुछ एक संपन्न बैकग्राउंड में होता हुआ दिखता है लेकिन तभी बीच में दक्षिण दिल्ली वाली लड़की चांदनी चौक वाले ससुराल के छत पर अपने बेटे को ले जाती है. याद दिला देती है कि उनकी कहानी कहां से शुरू होती है. जब पैसा आता है तो एक आवाज़ आती है, जब तक आप नोटिस करते हैं, चली जाती है. “फाड़ के पैसा कमाया.”
पहले से कुछ बेहतर और विनम्र होकर लौटा हूं. बहुत दिनों बाद बासु चटर्जी की सी फिल्म देखी है. शोनाली बोस अपने दर्ज़े की फिल्मकार हैं. उनकी ज़िंदगी में बहुत आस्था है. उनके हर फ्रेम में जीवन है. मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ फ़िल्म भी देखिएगा. आपको निर्देशक की यात्रा समझ आएगी. नाम अंग्रेज़ी का होता है मगर जीवन हिन्दी का होता है. पंजाबी का होता है. बांग्ला का होता है. चांदनी चौक और दक्षिण दिल्ली का होता है. दोनों के घुल-मिल जाने का होता है. यही तो दिल्ली है. कोई एक दूसरे को लेकर जजमेंटल नहीं है. है भी तो भी साथ-साथ है. ऐसे रिश्ते किसी ख़ास वर्ग में बनते होंगे लेकिन ऐसे ही रिश्ते तो बनने चाहिए. जब आप फ़िल्म देखकर निकलें तो किसी दोस्त के कंधे पर हाथ रखिएगा. जीवनसाथी के चश्मे को पोंछ दीजिएगा. और कोई याद आता हो तो फोन कर लीजिएगा.
प्रियंका चोपड़ा और फ़रहान अख़्तर ने कितना डूब कर अभिनय किया है. कितना अच्छा अभिनय किया है. अख़बारों में कामयाबी और शादी की ख़बरों तक सिमट कर रह गईं प्रियंका का अभिनय शानदार हैं. हमने प्रियंका चोपड़ा को स्टार बनाकर उनके अभिनय के साथ नाइंसाफी की है. स्टारडम तो बाई-प्रोडक्ट है. प्रियंका ने कितना जीया है इस किरदार को. इसलिए वह इस फ़िल्म में अभिनय करती नहीं लगती हैं. प्रियंका और फ़रहान दोनों अपने किरदार में रुपांतरित हो गए हैं. लंदन में पांच दिन बात नहीं करती हैं प्रियंका तो फ़रहान चांदनी चौक की गलियों से लंदन आ जाते हैं. फिल्म के अंत में जब प्रियंका को छोड़ फ़रहान चले जाते हैं तो प्रियंका उनके लिए अचानक लौट आती है. ज़िंदगी में अहसासों को बचाकर रखना चाहिए. जब दिमाग़ ठंडा हो जाए. गुस्सा फीका पड़ जाए तो जो प्यार आपको मिला है, वही देने वाले को दे आना चाहिए. फ़रहान ने शानदार काम किया है.
क्या मैं जायरा वसीम को छोड़ रहा हूं? बिल्कुल नहीं. आइसी तुमने बहुत अच्छा काम किया है. लेकिन रुकिए. यह फिल्म की समीक्षा नहीं है. आप इस फिल्म की पूरी समीक्षा कर ही नहीं सकते. सिर्फ फिल्म के आधार पर तो बिल्कुल नहीं.
यह फिल्म निरेन चौधरी और मूज़ की असली ज़िंदगी की असली कहानी है. मगर इस फिल्म में कई और असली कहानियां घूम रही होती हैं. मूज़ के रूप में जो चुनौती एक मां झेल रही होती है, वही चुनौती एक मां झेल कर फिल्म को डायरेक्ट कर रही होती है. कैमरे के सामने हांफती रोती मां को फिल्माते हुए वो मां अपने दृश्यों से गुज़र रही होगी. पर्दे की मां को रोता देख, कैमरे के पीछे रो रही होगी. हम जैसे लोग एक मां को हमेशा रोता हुआ फ्रेम में क्यों देखते हैं? कहीं मैंने भी तो ग़लती नहीं कर दी. याद रखिएगा. आसमान का रंग गुलाबी भी होता है.
डायरेक्टर शोनाली बोस को जाने बग़ैर आप इस फ़िल्म को न तो देख सकते हैं, न इसकी समीक्षा लिख सकते हैं. हमारे आधुनिक समाज की दो माओं की कहानी में हम पुरुष असहाय से खड़े हैं. ज़िंदगी से बाहर कर दिए गए किरदार की तरह. इस फिल्म का दर्शक होना सामान्य नहीं है. वैसे ही जैसे इस फिल्म का निर्देशक होना.
ईशान. आइसी की तरह तारों के जहान में जा चुका एक ख़ूबसूरत लड़का है. मगर इस फिल्म मे वह आईसी के आस-पास है. अपनी मां और बहन के संघर्ष को समझता हुआ. अपना जीवन जीता हुआ. शोनाली के लिए ईशान सिर्फ एक नाम तो नहीं होगा. उस किरदार में उनका बेटा होगा. वो आईसी का भाई बनकर फिर से दुनिया में लौट रहा है. पर्दे की दुनिया में.
आपने चिटगांव देखी होगी. फिल्म के अंत में एक गाना आता है. यू ट्यूब पर इस गाने को सुनिएगा. फिल्म के निर्देशक बेदब्रतो पाईन बेहद क़ाबिल इंसान हैं. उनके नाम से कई पेटेंट हैं. मैं अक्सर लोगों से कहता हूं कि ध्वनि (साउंड) के लिहाज़ से चिटगांव भारत की अद्भुत फ़िल्मों में से एक है. कहानी के हिसाब से तो है ही. राज्यसभा टीवी के लिए इरफ़ान साहब ने बेदब्रतो का अच्छा इंटरव्यू किया है. नासा के इस स्टार वैज्ञानिक की बातचीत ज़रुर सुनिएगा.
इस फ़िल्म में ईशान के पिता ब्रेदब्रतो पाईन अपने बेटे को फिल्म के आख़िर में इस गीत के ज़रिए याद करता है. उसकी ज़िंदगी के बाद के ग़म से उबारते हैं. उसे गाने के ज़रिए ज़िंदगी देते हैं. आप प्रसून जोशी के लिए गाने के इस बोल में ईशान को देख सकते हैं.
खुल गया नया द्वार है. ईशान की झंकार है.
दे सलामी आसमां, हौसलों में धार है.
ईशान है वो निशा, जहां जिंदगी, जहां रौशनी गीत है.
ईशान है वो सुबह जहां ख़्वाब है, उम्मीद है जीत है.
अब आप द स्काइ इज़ पिंक के ईशान को देखिए. मां उस ईशान को अपनी फिल्म में ज़िंदगी देती है. जिसे एक अलग फ़िल्म में पिता ईशान को उम्मीद, रौशनी, गीत और जीत में ढूंढ़ते हैं. द स्काइ इज़ पिंक के आखिर में आइसी के बाद ईशान पाईन का नाम आता है. वहां एक मां अपने बेटे को याद करती है. कवि अपनी कविता में कितना कुछ दर्ज करता हुआ, अपना सब कुछ छिपा लेता है. लेकिन एक अच्छा पाठक वही होता है जो कवि को भी जानता है, कविता को भी.
बेटे की मौत को अपने-अपने कैमरों से दो अलग-अलग फिल्मों में समझने वाले ये दो लाजवाब माता पिता ज़िंदगी के दो छोर पर खड़े हैं. मगर अपने बेटे की स्मृतियों में इतने घुले-मिले हुए हैं जैसे द स्काइ इज़ पिंक में ख़ुशी और ग़म के आसू एक ही बूंद में टपकते हैं. अलग-अलग नहीं. रास्ते अलग हो सकते हैं, आप ज़िंदगी के किस्सों में अलग नहीं हो सकते हैं.
द स्काइ इज़ पिंक देख लीजिएगा. फ़िल्म नहीं देखिएगा. आसमां के अलग-अलग रंग देखिएगा. क्योंकि आसमां का रंग गुलाबी भी होता है. शुक्रिया शोनाली बोस. बस एक चीज़ की कमी रह गई. फ़िल्म देखने के बाद शोनाली बोस को गले लगाना.
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