Newslaundry Hindi
मामी फिल्म फेस्टिवल : ज़िन्दगी के कठोर धरातल पर उगी चंद फ़िल्में
मुंबई में आयोजित मामी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल देश भर के फिल्मप्रेमियों की डायरी में दर्ज रहता है. मायानगरी मुंबई के फ़िल्मकर्मी तो छुट्टी लेकर इसमें शामिल होते हैं. पांच साल पहले इसके ट्रस्ट में नए-नए सदस्य जुड़े और उन्होंने जोश और विजन के साथ फेस्टिवल को एकदम नया रूप-रंग दे दिया.
ट्रस्टी के सदस्यों के रूप में नए और युवा कलाकार, फ़िल्मकार, निर्माता, निर्देशक जुड़े. फिलहाल मामी की चेयरपर्सन दीपिका पादुकोण हैं. उनके साथ नीता अंबानी और अजय बिजली को-चेयरपर्सन हैं. ट्रस्ट के सदस्यों में आनंद महिंद्रा, अनुपमा चोपड़ा, फरहान अख्तर, ईशा अंबानी, कबीर खान, करण जौहर, कौस्तुभ धावसे, किरण राव, मनीष मुंद्रा, राना डग्गुबाती, रितेश देशमुख, रोहन सिप्पी, सिद्धार्थ राय कपूर, विक्रमादित्य मोटवानी, विशाल भारद्वाज, जोया अख्तर जैसे सक्रिय कलाकार और फ़िल्मकार हैं. पिछले पांच सालों में मामी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का स्वरूप देश में अग्रणी और नेतृत्वकारी हो गया है. चूंकि भारतीय परिवेश में सीजन का पहला फेस्टिवल यही होता है, इसलिए देश-विदेश की चुनिंदा फिल्में यहां आ जाती हैं.
इस साल दीप्ति नवल और फर्नांडो मेईरेलीस को ‘एक्सलेंस इन सिनेमा’ का अवार्ड दिया गया. मामी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में आठ श्रेणियों में अच्छी रकम के पुरस्कार दिए जाते हैं. जिनमें इंडिया गोल्ड, डिस्कवरी इंडिया अवार्ड, डाइमेंशंस मुंबई, मनीष आचार्य अवार्ड, हाफ टिकट, स्क्रीन टू वर्ड, इंटरनेशनल कंपटीशन और फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड अवार्ड जैसे महत्वपूर्ण अवार्ड हैं. दूसरे फिल्म फेस्टिवल की तरह यहां भी विदेशी फिल्मों के प्रति आकर्षण रहता है, लेकिन पिछले कुछ सालों से इंडिया गोल्ड, मनीष आचार्य अवार्ड, इंडिया स्टोरी और स्पॉटलाइट के अंतर्गत लगभग दो दर्जन से अधिक भारतीय फिल्में देखने का मौका भी मिल जाता है.
इन फिल्मों को देखते हुए एहसास होता है कि भारतीय युवा फिल्मकार विषयों की विविधता के साथ अनछुए देसी कंटेंट पर बहुत ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. शैली और शिल्प में भले ही कच्चापन दिखे, लेकिन यथार्थ के धरातल पर उगी इन कहानियों से देश को समझा जा सकता है. बहुप्रचलित हिंदी और अन्य राष्ट्रीय भाषाओं के साथ-साथ दूसरी कथित छोटी भाषाओं में भी धारदार फिल्में बन रही हैं. इन फिल्मों में वर्तमान भारतीय समाज की विषमताओं और विसंगतियों को भांपा जा सकता है.
अमूमन फेस्टिवल रिपोर्ट में ज्यादातर विदेशी फिल्मों की चर्चा होती है. उनके प्रति अतिरिक्त लगाव और आकर्षण रहता है. यूं लगता है कि उनकी तारीफ के पीछे कहीं न कहीं अपनी कमजोरी और हीनता का एहसास रहता है. हम अपनी कमियों की भरपाई कर रहे होते हैं. उत्साह और जोश में तारीफ के बहाने हम अपनी ग्रंथि भी उजागर कर रहे होते हैं. विदेशों में बनी अच्छी फिल्मों की जानकारी तमाम पत्र-पत्रिकाओं और दूसरे माध्यमों से फिल्मप्रेमियों तक पहुंच जाती हैं.
दूसरी तरफ भारतीय फिल्मों के कॉमर्शियल बाजार के दबाव में हम छोटे और समानांतर स्तर पर बन रही कंटेंट प्रधान फिल्मों की कम चर्चा करते हैं. उनके प्रति उदासीनता बरतते हैं. नतीजतन उनके बारे में दर्शक भी कम जानते हैं और उन्हें देख पाने का अवसर तो निहायत ही दुर्लभ होता है. इस बार मामी फिल्म फेस्टिवल में मैंने जानबूझकर भारत में बनी फिल्में देखने की कोशिश की. उनमें से कुछ फिल्मों के बारे में यहां लिख रहा हूं. मुझे लगता है कि ये फिल्में इसलिए भी देखी जानी चाहिए कि हम अपने कलात्मक और सिनेमाई वैविध्य को पहचान सकें.
कॉमर्शियल फिल्मों की अधिकाई इन ज़रूरी फिल्मों को मैदान में आने ही नहीं देती. उन्हें मेनस्ट्रीम में लाने के लिए प्रयास होना चाहिए. हम उनकी चर्चा आम करें. उनका उल्लेख करें, उन पर विमर्श करें और उन्हें खोज कर देखें. उनके प्रदर्शन की सहूलियतें पैदा करें.
अखोनी
निर्देशक निकोलस खारकोंगोर की यह फिल्म देश के उत्तर-पूर्व इलाके के नागरिकों के प्रति दिल्ली जैसे शहरों के स्थायी पूर्वाग्रह को रोचक प्रसंगों और घटनाओं के माध्यम से जाहिर करती है. उत्तर-पूर्व राज्यों के दिल्ली स्थित युवा मित्र और एक नेपाली दोस्त मिलकर एक खास व्यंजन पकाना चाहते हैं. वे अपनी दोस्त की शादी सेलिब्रेट करने के साथ ट्रीट देना चाहते हैं. वे इस बात से भी वाकिफ हैं कि उनके व्यंजन की तेज महक स्थानीय लोगों के लिए असहनीय होगी. अखोनी पोर्क बनाने के लिए सुरक्षित स्थान की खोज में यह फिल्म कई स्तरों पर पूर्वाग्रहों को उजागर कर देती है.
मूथोन
रोमांचक शैली में बनी ‘मूथोन’ लक्षदीप और मुंबई को जोड़ती है. लक्षदीप से एक किशोर अपने भाई की तलाश में मुंबई पहुंचता है. इस तलाश में उसकी मुठभेड़ अनेक किस्म के असामाजिक तत्वों से होती है. खुद को किसी तरह बचाते हुए वह भाई की तलाश जारी रखता है और फिर एक दिन जब भाई को उसके बारे में पता चलता है तो जिंदगी के कठोर पहलू दोनों का हैरत में डाल देते हैं. गीतू मोहनदास ने यह फिल्म लिखी और निर्देशित की है.
रामप्रसाद की तेरहवीं
अभिनेत्री सीमा पाहवा निर्देशित ‘रामप्रसाद की तेरहवीं’ उत्तर भारतीय समाज के संयुक्त परिवार के रिश्तो में उम्मीदों और स्वार्थ के पहलुओं को तेरहवीं के तेरह दिनों में प्रकट करती है. परिवार के सदस्यों के आग्रह, असुरक्षा और आखेट जाहिर होने लगते हैं. 21वीं सदी में चरमरा रहे संयुक्त परिवार के रिश्तो में पुरानी गरमाहट और समझदारी की अनुपस्थिति नए समीकरण बना रही है. अभिनेत्री सीमा पाहवा ने निर्देशन में भी अपनी योग्यता जाहिर की है.
आमिस
भास्कर हजारिका की फिल्म ‘आमिस’ प्रेम और यौन आकांक्षा को बिल्कुल नए धरातल पर ले जाती हैं. शाकाहारी दर्शकों को यह फिल्म देखते समय उबकाई आ सकती है, लेकिन निर्देशक ने रसहीन जिंदगी जी रही डॉक्टर निर्मली और शोध छात्र सुमन के प्रेम को अनोखा टर्न दिया है. उत्तर-पूर्व भारत में मांस भक्षण पर शोध कर रहे सुमन के लिए कोई भी व्यंजन असामान्य नहीं होता, लेकिन उसकी प्रयोगशीलता बिल्कुल नए पक्ष खोलती है. भास्कर हजारिका ने इस असामान्य विषय को पूरी संवेदना और सहानुभूति के साथ विकसित किया है. वितृष्णा के करीब पहुंच रही यह फिल्म आखिरकार मुख्य पात्रों के प्रति संवेदना पैदा करती हैं.
गामक घर
मैथिली में बनी अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ बिहार के दरभंगा जिले में छूटते और टूटते घर की गमगीन दास्तान है. पिछले दो दशकों में ऐसे अनेक घर खाली और वीरान हुए हैं. नवजात शिशु की छठी के अवसर पर हुई जुटान के बाद एक-एक कर सभी निकलते हैं. और फिर घर की धुरी के घर छोड़ते ही यादों के साथ घर भी भहरा जाता है. जो बचता है, वह वही घर नहीं है. अचल मिश्र ने उत्तर भारत के अनेक गांवों में घट रही इस प्रक्रिया को बगैर नाटकीय और नॉस्टैल्जिक हुए चित्रित किया है. मैथिली जैसी भाषाओं में बेहतरीन फिल्मों की कमी का रोना रोने वालों के लिए ‘गामक घर’ एक सबक है.
सांड़ की आंख
यह फिल्म पूरे देश में रिलीज हो चुकी है. मामी फिल्म फेस्टिवल में यह क्लोजिंग फिल्म थी. तुषार हीरानंदानी की यह फिल्म बागपत जिले के जौहरी गांव की चंद्रो और प्रकाशी तोमर की साधना, लक्ष्यभेद और सशक्तिकरण की अनोखी कहानी है. बगैर नारेबाजी और हंगामे के दोनों औरतें पुरुष प्रधान समाज में खुद के लिए खड़ी होती हैं और भावी पीढ़ी के लिए राह बनाती हैं. भूमि पेडणेकर और तापसी पन्नू ने उम्रदराज किरदारों को सलीके से निभाया है.
इब ऐलो ऊ
प्रतीक वत्स की यह फिल्म दिल्ली में ‘बंदर भगाओ’ की नौकरी के लिए आए एक बिहारी अंजनी की कहानी है. अंजनी को मुंह से इब ऐलो ऊ की आवाज इस तरह निकालनी है कि उसे सुनकर बंदर भाग जायें. बहनोई की लगाई इस नौकरी में अंजनी का मन बिल्कुल नहीं लगता. वह बंदरों को भगाने के शॉर्टकट तरीके अपनाता रहता है और पकड़े जाने पर डांट-फटकार सुनता है. अंजनी की जिंदगी की विसंगतियों को यह फिल्म दिल्ली के दायरे में दारुण कथा में तब्दील कर देती है, जिसमें दुख का राग है लेकिन वह अवसाद से ग्रस्त नहीं है. ‘बंदर भगाओ’ के उस्ताद महिंदरनाथ और बंदरों की संगति से यह फिल्म अनोखी और खास हो गई है. अनेक फेस्टिवल घूम चुकी है यह फिल्म संभव है आम थिएटर में भी जल्दी रिलीज हो.
आंटी सुधा आंटी राधा
तनुजा चंद्रा की पर्सनल स्टोरी प्रेरक है. लंबे अंतराल के बाद वह अपनी बुआओं से मिलने जाती हैं. दोनों विधवा हैं और साथ ही रहती हैं. 93 और 86 वर्ष की सुधा बुआ और राधा बुआ के बीच अद्भुत प्रेम है, लेकिन उनमें नोकझोंक और तकरार भी होती रहती है. परस्पर निर्भरता और लगाव् ने उन्हें जोड़ रखा है. घरेलू सहायकों के साथ जीवनयापन कर रही सुधा और राधा के पास बातों के लिए यादें हैं, साड़ियां हैं, समय बिताने के लिए टीवी है, छोटे शहर में रहने की सुख-सुविधा और भरोसे के मददगार सहायक… उनके भरपूर सुखी जीवन की झलक देती है यह फिल्म. हां, सूत्रधार तनूजा चन्द्रा पर पड़े प्रभाव या उनकी प्रतिक्रिया नहीं दिखाती. यह केवल सुधा और राधा के दिनचर्या में दिखाती है.
अ डॉग एंड हिज मैन
सिद्धार्थ त्रिपाठी की ‘अ डॉग एंड हिज मैन’ उड़ीसा-छत्तीसगढ़ के बॉर्डर पर उजाड़ी गई बस्ती के बाशिंदे शौकी के बारे में बताती है. इस बस्ती को किसी ने खरीद लिया है. उसने बाकी घर ढहा दिये हैं. अब केवल शौकी का घर बचा है. शौकी और उसका कुत्ता अपना घर नहीं छोड़ना चाहते हैं. सच्ची घटना पर आधारित इस फिल्म में निर्देशक के चाचा ने नायक की भूमिका निभाई है. विस्थापन और भूमि अधिग्रहण की यह फिल्म ‘न्यू इंडिया’ के यथार्थ की परतें खोलती है.
बाम्बे रोज
एनिमेशन में बनी यह फिल्म गीतांजलि राव ने सोची और निर्देशित की है. उन्होंने मुंबई की पृष्ठभूमि में हाशिये के कुछ किरदारों को लेकर यह कहानी बुनी है. अनोखे प्रयोग और रोचक शैली में बनी यह एनिमेशन फिल्म वर्तमान मुंबई की विसंगतियों के साथ साथ पांचवें-छठे दशक की हिंदी फिल्मों को भी याद करती है.
फ़िल्में और भी थीं. निश्चित ही डायरेक्टर अनुपमा चोपड़ा और क्रिएटिव डायरेक्टर स्मृति किरण की सूझ-बूझ और फिल्मों के जानकार सुधि जूरी और सलाहकारों से यह फेस्टिवल सफल रहा. बस, एक ही कमी खलती है कि अब फेस्टिवल में संपर्क और विमर्श की भाषा हिंदी या कोई अन्य भारतीय भाषा नहीं रह गयी है. सब कुछ अंग्रेजीमय हो गया है. कहीं कोई कोना हिंदी समेत भारतीय भाषाओं का भी होना चाहिए.
Also Read
-
‘They call us Bangladeshi’: Assam’s citizenship crisis and neglected villages
-
Why one of India’s biggest electoral bond donors is a touchy topic in Bhiwandi
-
‘Govt can’t do anything about court case’: Jindal on graft charges, his embrace of BJP and Hindutva
-
Reporter’s diary: Assam is better off than 2014, but can’t say the same for its citizens
-
‘INDIA coalition set to come to power’: RJD’s Tejashwi Yadav on polls, campaign and ECI