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‘एक छात्र जेएनयू से निकल कर अपने जीवन में कई गुना ज्यादा टैक्स सरकार को वापस देता है’

‘‘जेएनयू नहीं होता तो मैं बिहार के जमुई जिले में अपने गांव में बेबस ज़िन्दगी जी रहा होता. मेरे पिता के पास खेत भी नहीं है और अगर खेत होता भी तो मैं विकलांग हूं. खेत में काम भी नहीं कर पाता. जेएनयू में कम फीस होने के कारण ही मास्टर से पीएचडी तक की पढ़ाई कर पाया और आज दिल्ली यूनिवर्सिटी के दयालसिंह कॉलेज में हिंदी का सहायक प्रोफेसर हूं.’’ यह कहना हैं, डॉक्टर केदार कुमार मंडल का.

बीते कुछ सालों से विवादों का केंद्र में रहा जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी एक बार फिर विवादों में है. फीस बढ़ोतरी के खिलाफ यहां के छात्र सड़कों पर उतर कर उसे वापस लेने की मांग कर रहे हैं. हालांकि सरकार ने बढ़ते विरोध को देखते हुए बढ़ी फीस में कुछ कटौती की है, लेकिन अभी भी छात्रों का प्रदर्शन खत्म नहीं हुआ है. छात्रों की मांग है कि जो फीस पहले ली जाती थी उसमें कोई वृद्धि न की जाए.

गुरुवार दोपहर के एक बज रहे हैं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 और जेएनयू में फीस वृद्धि समेत कई मामलों को लेकर दिल्ली के मंडी हाउस से जंतर मंतर तक सैकड़ों की संख्या में प्रोफेसर और छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं. प्रदर्शन में सबसे आगे बड़े बैनर के साथ चल रहे लोगों के साथ डॉक्टर केदार कुमार मंडल अपने व्हीलचेयर पर चलते हुए, ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019’ हो बर्बाद के नारे लगाते नज़र आते हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए वे कहते हैं, ‘‘अगर जेएनयू में पढ़ने का मौका नहीं मिलता तो मैं आज जिस पद पर हूं, वहां नहीं होता. मेरे पिताजी बेहद ही गरीब थे. कोई बड़ी आमदनी नहीं थी उनकी. रेलवे में फोर्थ ग्रेड कर्मचारी थे. 1999-2000 के दौरान उनकी सैलरी महज तीन हज़ार महीना होती थी. पढ़ने वाले हम दो भाई थे. इसके अलावा पूरे परिवार का खर्च भी उन पर था. उस समय जेएनयू के मेस की फीस 6-700 रुपए सालाना होती थी. मैं अपना महीने भर का खर्च बारह सौ से चौदह सौ में चला लेता था. चार से पांच कपड़ों में अपनी पूरी पढ़ाई की है मैंने.’’

केदार कुमार मंडल

हर महीने घर से पैसे नहीं मिल पाने के कारण दो से तीन महीने तक मेस फीस जमा नहीं कर पाता था जिस वजह से कई बार हॉस्टल से नोटिस भी दिया गया. पर कभी दोस्तों ने मदद की तो कभी खुद बच्चों को पढ़ाया और पढ़ाई जारी रखा. इस वजह से पैर नहीं होने के बावजूद मैं अपनी पैरों पर खड़ा हो पाया. मतलब आत्मनिर्भर बन पाया.’’

तीन महीने तक हॉस्टल में बचा खाना खाई: प्रियंका भारती

जेएनयू छात्र संघ चुनाव में बतौर उम्मीदवार जब मैं मैदान में उतरी तो उन्हें भी कई दिनों तक इसका भरोसा नहीं हो रहा था. पटना से चालीस किलोमीटर दूर एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली प्रियंका के पिता का पैर टूट गया हैं जिसके कारण वे कोई काम नहीं कर पाते हैं. एक छोटे बाज़ार में इनका घर हैं जहां कुछ कमरे किराये पर दिए गए है. उसी किराये से घर भी चलता हैं और प्रियंका और उनके भाई-बहनों की पढ़ाई भी होती है.

जेएनयू में जर्मन भाषा से मास्टर की पढ़ाई कर रही प्रियंका न्यूज़लॉन्ड्री से बताती हैं, ‘‘जेएनयू में एडमिशन से पहले मैं इस संस्थान को जानती तक नहीं थी. 2016 में हुए विवाद को टीवी पर देखा था. जब एडमिशन हो गया तो मेरे पास यहां आने तक के पैसे नहीं थे. पापा ने कर्ज लेकर पढ़ने के लिए भेजा. पटना से मगध एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे से दिल्ली पहुंची. दिल्ली रेलवे स्टेशन से जेएनयू आने में ऑटो वाले ने दो सौ रुपए ले लिए. यहां आकर जब पता चला कि वहीं से बस चलती है जो पन्द्रह रुपए लेती हैं तो मैं बैठकर खूब रोई. एडमिशन लेने के बाद जब घर गई और दोबारा वापस आई तो बस से ही कैम्पस गई. पिताजी ने एक हज़ार रुपए दिए थे. हॉस्टल नहीं मिला था तब तक तो एक दोस्त ने चोरी से कुछ दिन अपने कमरे में रखा.’’

प्रियंका भारती

प्रियंका आगे कहती हैं, ‘‘मेरे पास खाने तक के पैसे नहीं थे. हॉस्टल मिला नहीं था कि मेस में खाना खा लेती. यहां के मेस में एक समय के बाद जब खाना बच जाता है तो बचे खाने को बांटा जाता है. उन बचे खानों को खाकर मैंने तीन-चार महीने दिल्ली में बिताया. निजी कमरा लेने की मेरी हैसियत नहीं थी. बाद में हॉस्टल मिल गया तो राहत मिली. सरकार उसमें में इजाफा कर रही है, इससे काफी डर बैठ गया है.”

प्रियंका आगे कहती है, “कुछ लोग कह रहे हैं कि दस रुपए किराया नहीं दे सकते है, लेकिन सवाल यह होना चाहिए कि शिक्षा मौलिक अधिकार है और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि अपने नागरिकों को मुफ्त में सबको दे. अगर जेएनयू नहीं होता तो मेरे जैसे किसी लड़की को पढ़ने को और दुनिया देखने का मौका नहीं मिल पाता. बिहार में तो अभी भी लड़कियों को पढ़ाने का कल्चर नहीं है. मेरी सरकार से बस यही मांग है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा तभी सच हो पाएगा जब शिक्षा मुफ्त में सबको मुहैया होगी.’’

रेस्टोरेंट में खा नहीं सकता

पश्चिम बंगाल के रहने वाले दिलबर खान जेएनयू में भूगोल से पीएचडी प्रथम वर्ष के छात्र हैं. उनकी भी कहानी प्रियंका जैसी ही है. दिलबर के परिवार की मासिक आमदनी 12-13 हज़ार है. वहीं परिवार में आठ लोग हैं. अगर यह कैंपस नहीं होता तो उनके लिए पीएचडी संभव नहीं था. दिलबर की अभी तक की पढ़ाई छात्रवृति के जरिए हुई है.

दिलबर कहते हैं, ‘‘इधर फीस बेहद कम है. मैंने जब एडमिशन लिया था तब 280 रुपए लगे थे. हॉस्टल के लिए छह हज़ार रुपए दिया था. अभी जो नया बदलाव हुआ है उसके अनुसार यह लगभग बारह हज़ार हो गया है. हालांकि सरकार ने इसमें कुछ कमी की है, लेकिन अभी बढ़ी हुई फीस के बाद महीने में एक छात्र को लगभग 5500 से 6000 रुपए देना होगा.”

खान बताते हैं, “एक पीएचडी छात्र होने के नाते हमें कैंपस से हर महीने खर्च के लिए पांच हज़ार रुपए मिलते हैं. पिताजी किसान है तो आमदनी भी बहुत नहीं है. और अब उम्र भी हो गई है कि हमें घर वालों की मदद करनी चाहिए लेकिन उच्च शिक्षा की चाह के कारण हम अभी उनकी मदद नहीं कर सकते. अगर सरकार फीस बढ़ाती है तो मेरे जैसे छात्रों को पढ़ाई छोड़ना पड़ेगा.’’

दिलबर खान

दिलबर अपनी बात कहते-कहते बेहद भावुक हो जाते हैं. वे कहते हैं, ‘‘अभी फेलोशिप नहीं आ रही है, तो पैसे नहीं रहते हैं. बाहर कुछ खाने का मन होता भी है तो मन मसोस कर रह जाता है. बाहर हमारा विरोध कर रहे लोगों को लगता है कि हम यहां ऐश करते हैं. हम आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से ताल्लुक रखने वाले लोग है. हमें हर कदम सोच समझकर चलना पड़ता है.”

खान के मुताबिक सरकार को समझना होगा कि मेरे जैसे परिवार के लड़के जिनकी पहली पीढ़ी शिक्षा के क्षेत्र में आई है उन्हें अगर सस्ती शिक्षा नहीं मिली तो शायद ही कोई और आने की हिम्मत कर पाए. प्राइवेट संस्थाओं में जाकर देखिए कितने गरीब और पिछड़े वर्ग से बच्चे वहां पढ़ रहे हैं. एक भी नहीं मिलेगा.’’

जेएनयू ने एक मजदूर की बेटी को बनाया प्रोफेसर: चिंटू कुमारी

चिंटू बिहार के भोजपुर जिले की रहने वाली हैं. दलित परिवार से ताल्लुक रखने वाली चिंटू की मां और पिताजी दोनों खेतिहर मजदूर हैं. साल 2015 में हुए छात्र संघ के चुनाव में चिंटू सचिव के पद पर चुनाव लड़ी और जीत गईं. चिंटू जेएनयू से पढ़ाई करने के बाद बिहार में प्रोफेसर के रूप में ज्वाइन कर चुकी हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए चिंटू बताती हैं, ‘‘मेरे मां-बाप दोनों मजदूर थे और जमींदारों के खेतों में मजदूरी करते थे. बहुत ही गरीब परिवार से होने के कारण मेरे लिए कहीं और पढ़ना मुमकिन नहीं था. एमए से पीएचडी तक की पढ़ाई मैंने जेएनयू से की है. अगर जेएनयू की फीस ज्यादा होती तो मेरे मजदूर मां-बाप मुझे कभी नहीं पढ़ा पाते और आज मैं अपके सामने बतौर प्रोफेसर खड़ी हूं, यह कभी संभव नहीं होता.’’

चिंटू जेएनयू में हो रही फीस वृद्धि पर चिंता जाहिर करते हुए कहती हैं, ‘‘सरकार के इस फैसले से सबसे ज्यादा नुकसान वंचित तबके के छात्रों को होगा. वंचित तबकों का दरवाजा बंद हो जाएगा. उच्च शिक्षा में वंचित तबका पहले ही कम था इसके बाद और ज्यादा कम हो जाएगा. यह बहुत गलत होगा. सरकार को शिक्षा मुफ्त करनी चाहिए.’’

टैक्स का ताना

जब जेएनयू के छात्र फीस बढ़ोतरी के खिलाफ सड़कों पर उतरे तो सोशल मीडिया और कुछ टीवी चैनलों पर कहा जाने लगा कि टैक्सपेयर के पैसों का गलत इस्तेमाल हो रहा है. हैरान करने वाली बात यह देखने को मिली की कुछ न्यूज़ चैनलों ने फीस वृद्धि का खुलकर समर्थन किया. हालांकि कैंपस में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जो आरएसएस का संगठन है वो भी फीस वृद्धि को लेकर प्रदर्शन कर रहा हैं.

सोशल मीडिया पर चलाए जा रहे इस एजेंडे पर केदार कहते हैं, ‘‘जेएनयू एक कैंपस नहीं है, वह एक विचार है. लोग ऐसा सोच रहे हैं कि जेएनयू में सिर्फ लेफ्ट के लोग होते है ऐसा सोचकर वे भूल करते हैं. वहां हर तरह की सोच वाले छात्र हैं. आप यह कहकर उसे बदनाम नहीं कर सकते कि वहां देशद्रोही पढ़ते हैं. नक्सल पलते हैं. बल्कि वहां पर सामाजिक न्याय के पैरोकार भी पढ़ते हैं. कई लोग कहते मिल जाते हैं कि टैक्सपेयर के पैसे पर जेएनयू में लड़के मौज कर रहे हैं. मैंने वहां लगभग बारह साल तक अपनी पढ़ाई की है. कम फीस होने के कारण ही पढ़ पाया, लेकिन आज मैं हर साल सरकार को लगभग तीन लाख रुपए टैक्स के रूप में देता हूं. सरकार ने जितना मुझ पर खर्च किया उसका कई गुना मैं उसे लौटा दूंगा. इसीलिए सरकार को सबसे पहले समाज के निर्माण के लिए सोचना चाहिए. बच्चों को मुफ्त शिक्षा देनी चाहिए. यही बच्चे आगे चलकर सरकार को टैक्स देंगे. जो सरकार द्वारा यूनिवर्सिटी पर खर्च किए गए रुपए से कही ज्यादा होगा.’’

प्रेमचंद

ऐसा ही कुछ कहना है दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर एसोसिएशन के जॉइंट सेकेट्री प्रेमचंद का. अपनी पूरी पढ़ाई जेएनयू से करने वाले प्रेमचंद कहते हैं, ‘‘यह एक तरह की गलतफहमी फैलाई जा रही है कि टैक्सपेयर के पैसों का इस्तेमाल होता है. इससे बेहतर क्या होगा कि टैक्सपेयर का पैसा शिक्षा पर व्यय हो रहा है. दूसरी बात जेएनयू में टैक्सपेयर के पैसों पर पढ़ने वाले लड़के आगे चलकर खुद टैक्स देते हैं. मुझे ही देख लीजिए. मैं जब तक जिंदा रहूंगा सरकार को टैक्स देता रहूंगा.’’

जेएनयू में सैकड़ों की संख्या में ऐसे छात्र अभी भी पढ़ रहे हैं और यहां से पढ़कर जा चुके हैं. जो किसी और संस्थान में शायद ही पढ़ पाते. लेकिन अब इनकी चिंता बढ़ गई कि अगर सरकार इसी तरह फीस वृद्धि करती रही तो आने वाले समय में गरीब-पिछड़े परिवारों से ताल्लुक रखने वाले लोगों के लिए उच्च शिक्षा के दरवाजे बंद हो जाएंगे. जो जेएनयू अब तक वंचित और गरीब तबकों की पढ़ाई के लिए सबसे मुफीद जगह मानी जाती थी, वह नई फीस की दरें लागू होने के बाद केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सबसे महंगा हो जाएगा.