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इलेक्टोरल बॉन्ड पर चुनाव आयोग के विरोध को झूठ पर झूठ बोलकर दबाया गया

पहले हिस्से में आपने पढ़ा कि किस तरह से मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए गुमनाम तरीके से राजनीतिक दलों की तिजोरी भरने के लिए आरबीआई की आपत्तियों को बार-बार नजरअंदाज किया. इस हिस्से में मोदी सरकार के उस कारनामे का खुलासा है जिसमें इलेक्टोरल बॉन्ड के खिलाफ खड़ी एक और संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग के कड़े विरोध को पूरी तरह से ख़ारिज किया गया. इसके लिए सरकार ने संसद में झूठ बोला और जब सरकार के बयान पर सवाल उठने लगे तो उसने इस पर पर्दा डालने के लिए झूठ दर झूठ बोले.

हमारी पिछली स्टोरी में आपने पढ़ा कि साल 2017 के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा जारी किए गए एक विवादास्पद बेयरर इंस्ट्रूमेंट के जरिए कारपोरेशन, ट्रस्ट अथवा एनजीओ के जरिए भारत के राजनीतिक दलों को गोपनीय रहते हुए असीमित चंदा देने का दरवाजा खोल दिया गया. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि इस बॉन्ड की पहली किस्त जारी होने के बाद इसका 95 प्रतिशत हिस्सा सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को मिला.

(अरुण जेटली के बजट भाषण से दो दिन पहले ही आरबीआई ने इलेक्टोरल बॉन्ड का विरोध किया था) 

इलेक्टोरल बॉन्ड की वैधता को चुनौती देने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल लंबित है. सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता का अभियान चलाने वाले  कार्यकर्ता कमोडोर लोकेश बत्रा (सेवानिवृत), जिन्होंने ये सारी जानकारी सूचना के अधिकार कानून के तहत प्राप्त किया, कहते हैं- इस मामले पर सरकार की कथनी और करनी पर भरोसा नहीं किया जा सकता चाहे वो भरोसा भारत की संसद में ही क्यों न दिया गया हो.

हमको मिले दस्तावेजों में शामिल एक गोपनीय नोट से यह बात साबित होती है कि वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने जानबूझकर कर चुनाव आयोग के अधिकारियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में गुमराह किया जो अंतत: असफल सिद्ध हुआ और चुनाव आयोग ने इसका विरोध किया.

इस मामले में चुनाव आयोग इकलौता नहीं था जिसके सुझावों को एक झटके में खारिज कर दिया गया. हमारे पास मौजूद दस्तावेज बताते हैं कि सरकार ने इस मसले पर विपक्षी दलों से भी सलाह मशविरे का सिर्फ ढोंग किया. एक तरफ वो इसका दिखावा कर रही थी दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय उनका सुझाव सुने बिना, उनके सवालों का जवाब दिए बिना इस योजना को अंतिम रूप देने की दिशा में आगे बढ़ता रहा.

2018 के संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा सदस्य मोहम्मद नदीमुल हक़ ने सरकार से एक सीधा सा सवाल पूछा: क्या भारतीय चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड के प्रति किसी तरह का विरोध दर्ज किया है?

तत्कालीन वित्त राज्य मंत्री पी राधाकृष्णन ने जवाब दिया- “सरकार को इलेक्टोरल बियरर बॉन्ड के मुद्दे पर चुनाव आयोग की तरफ से किसी भी तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है.”

यह बयान सरासर गलत था जो जल्द ही सरकार के बीच हुए आतंरिक पत्राचार से साबित हो गया. कमोडोर बत्रा ने भी इसका खुलासा कर दिया था. हक़ ने संसद में झूठ बोलने के खिलाफ वित्त राज्यमंत्री के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का मामला दर्ज करवाया. यह ख़बर मीडिया में भी छायी रही.

अब हम ये बात साबित कर सकते हैं कि सरकार ने किस तरह से राधाकृष्णन की गलतबयानी पर लीपापोती की. यहां तक कि विशेषाधिकार हनन की शिकायत पर भी सरकार की प्रतिक्रिया में झूठ-फरेब का सहारा लिया गया. इन तमाम पत्राचारों में सिर्फ एक सवाल उठता है कि सरकार को चुनाव आयोग के इलेक्टोरल बॉन्ड पर विरोध को दबाने की इतनी बेचैनी क्यों थी?

चुनाव आयोग के विरोध पर लीपापोती

मई 2017 में भारतीय चुनाव आयोग ने केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय को लिखित चेतावनी दी कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक दलों को विदेशी स्रोतों से संभावित अवैध चंदे को छिपाने में मदद मिलेगी. संदिग्ध चंदादाता फर्जी (शेल) कंपनियां स्थापित करके राजनेताओं के पास काला धन पहुंचा देंगे और पैसे का सही स्रोत कभी सामने नहीं आएगा.

आयोग चाहता था कि सरकार द्वारा जारी किये गए इलेक्टोरल बॉन्ड और अन्य कानूनी बदलाव, जिनसे राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे में पारदर्शिता कम हुई है, को वापस लिया जाए.

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3 जुलाई, 2017 को कानून मंत्रालय ने चुनाव आयोग द्वारा दर्ज की गई आपत्तियां वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग के पास भेज दिया, लेकिन वित्त मंत्रालय ने ऐसा दिखावा किया कि मानो उसके पास चुनाव आयोग की तरफ से कभी कुछ आया ही नहीं.

कानून मंत्रालय से की गई आयोग की बुनियादी आपत्तियों पर लिखित जवाब देने के बजाय तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक आदेश दिया कि “इलेक्टोरल बॉन्ड की संरचना को मूर्त रूप देने के लिए” एक बैठक बुलाई जाए जिसमें आरबीआई और चुनाव आयोग, दोनों शामिल हों. इस दौरान सरकार लगातार राजनीतिक दलों के लिए गुप्त चंदा जुटाने की अपनी अनूठी योजना पर आगे बढ़ती रही, वह इस पर पुनर्विचार करने के मूड में नहीं थी.

वित्त मंत्री के साथ यह बैठक 19 जुलाई, 2017 को हुई और इसमें चुनाव आयोग के दो अधिकारियों ने भाग लिया. तत्कालीन वित्त सचिव एससी गर्ग ने बाद में अपनी फाइलों में दर्ज किया कि उन्होंने दोनों अधिकारियों को इस योजना के बारे में समझा दिया था और इस बात पर जोर दिया कि यह योजना सबको समान अवसर देती है और राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता को भी बढ़ाती है.

कानून और न्याय मंत्रालय के रिकॉर्ड बताते हैं कि इसके बाद भी चुनाव आयोग इस फैसले से सहमत नहीं हुआ.

एससी गर्ग द्वारा 22 सितंबर, 2017 को वित्त मंत्री को लिखा गया एक ‘गोपनीय’ नोट एक अन्य बैठक के बारे में बताता है जो उन्होंने 28 जुलाई, 2017 को तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार और दो अन्य चुनाव आयुक्तों ओमप्रकाश रावत एवं सुनील अरोड़ा के साथ की थी.

गर्ग ने अपने नोट में लिखा है कि उन्होंने आयुक्तों को यह बताया था कि जो कंपनियां इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदेंगी वे उसका हिसाब अपने बहीखाते में दर्ज करेंगी जो “चुनावी बॉन्ड खरीदने के लिए उपयोग किए जाने वाले धन के स्रोत” के साथ-साथ “राजनीतिक चंदे की रकम” को भी दिखाएगी जिससे “पूर्ण पारदर्शिता” सुनिश्चित होगी.

ये सही नहीं है. चंदा देने वाली कंपनियों को अपने बहीखाते में इलेक्टोरल बॉन्ड का ब्यौरा दर्ज करना जरूरी नहीं है. सिर्फ वित्त वर्ष के अंत में सरकार को दी जाने वाली बैलेंस शीट में लाभ और हानि का जिक्र होता है. आम जनता के लिए सिर्फ यही उपलब्ध होता है.

गर्ग ने कहा कि उन्होंने आयुक्तों को “इलेक्टोरल बॉन्ड में चंदादाताओं की पहचान गुप्त रखने के औचित्य और इसकी विशेषता के बारे में अच्छी तरह से समझा दिया था. नई व्यवस्था चंदादाताओं को अधिक से अधिक आज़ादी और राजनीतिक दलों के लिए समान अवसर मुहैया करवाने में मददगार है.

गर्ग के गोपनीय नोट में उन आपत्तियों का भी जिक्र है जो इस बैठक में व्यक्तिगत रूप से चुनाव आयुक्तों ने उनके सामने रखा था. उसमें यह आपत्ति भी शामिल है कि इन बॉन्ड का इस्तेमाल शेल कंपनियों के जरिए  राजनीतिक दल मनी लॉन्ड्रिंग करने में कर सकते हैं. इसमें इस बात का भी जिक्र है कि चुनाव आयोग फिर भी चाहता था कि सरकार अधिक पारदर्शिता प्रदान करने के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड के कुछ प्रावधानों को बदल दे.

इसके बावजूद गर्ग ने अपने नोट में लिखा, “मैं समझता हूं कि आयोग इलेक्टोरल बॉन्ड को राजनीतिक चंदे के लिए एक निष्पक्ष और अधिक पारदर्शी प्रणाली के तौर पर स्वीकार करता है और यथोचित रूप से इससे संतुष्ट है.”

यह एक और झूठा बयान था.

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कानून एवं न्याय मंत्रालय के रिकॉर्ड बताते हैं कि इसके बाद भी अक्टूबर 2018 के अंत तक चुनाव आयोग इलेक्टोरल बॉन्ड और पारदर्शिता विरोधी सरकार के प्रावधानों को वापस लेने के लिए दबाव डालता रहा. मंत्रालय के रिकॉर्ड से यह भी पता चलता है कि आयोग ने औपचारिक रूप से पेश किये गए अपने पत्र का जवाब पाने के लिए कई रिमाइंडर भी भेजे लेकिन वित्त मंत्रालय उनकी अनदेखी करता रहा.

वित्त मंत्रालय और चुनाव आयोग के अधिकारियों के बीच आमने सामने की बैठकों और उपरोक्त सभी पत्राचार के रिकॉर्ड स्पष्ट करते हैं कि वित्त मंत्रालय चुनाव आयोग की इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर दर्ज आपत्तियों से अच्छी तरह वाकिफ था.

लिहाजा यह बात हैरान करती है कि सबकुछ जानते हुए भी वित्त राज्यमंत्री राधाकृष्णन ने 2018 के शीतकालीन सत्र में हक़ के सवाल का जवाब देते हुए संसद को पूरे भरोसे से बताया कि सरकार को “इलेक्टोरल बियरर बॉन्ड के मुद्दे पर चुनाव आयोग की तरफ से कोई आपत्ति नहीं मिली थी.”

कार्यकर्ता बत्रा के खुलासे से भी यह बात मीडिया में आई थी कि चुनाव आयोग ने कानून एवं न्याय मंत्रालय को अपनी आपत्तियों से अवगत कराया था. इसी के आधार पर, हक ने विशेषाधिकार हनन के लिए एक नोटिस भेजा, जिसे राज्य सभा सचिवालय ने 28 दिसंबर, 2018 को वित्त मंत्रालय की प्रतिक्रिया के लिए भेजा था.

यानि राधाकृष्णन संसद को गुमराह करते हुए पकड़े गए, और वित्त मंत्रालय इसके बावजूद उन्हें बचाने की कोशिश करता रहा.

इस झूठ को छिपाने के लिए एक के बाद एक कई झूठ बोले गए और सभी पहले की तुलना में कहीं ज्यादा हास्यास्पद और जटिल थी.

वित्त मंत्रालय के उप निदेशक विजय कुमार, जो इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के अगुआ हैं, ने 1 जनवरी, 2019 को सलाह दी कि चूंकि वित्त सचिव गर्ग इस मसले पर व्यक्तिगत रूप से चुनाव आयोग के अधिकारियों से मिल चुके हैं इसलिए उनका अभी भी यही मानना है कि चुनाव आयोग ने उनसे लिखित रूप में अपनी आपत्ति दर्ज नहीं करवाई थी. इसलिए, उन्होंने अपने वरिष्ठों को यह सलाह दी कि वित्त राज्यमंत्री, राधाकृष्णन ने संसद में झूठ नहीं बोला था.

वित्त सचिव गर्ग के पास मंत्री के बचाव में कहीं ज्यादा व्यवस्थित और जटिल तर्क था जो नौकरशाही की चाशनी में तरबतर था.

पहले उन्होंने स्वीकार किया कि राधाकृष्णन ने संसद को गलत बयान दिया था. 2 जनवरी, 2019 को, उन्होंने कहा, “दिए गए उत्तर में एक गलती है. इसमें कहा गया है कि सरकार को चुनाव आयोग से कोई आपत्ति नहीं मिली थी. यदि यह कहा गया होता कि वित्त मंत्रालय को कोई आपत्ति नहीं मिली है तो यह उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में सही होता.”

इसके बाद उन्होंने दो विकल्पों का सुझाव दिया:

उन्होंने लिखा, “या तो ये स्पष्ट करें कि भाग (डी) और (ई) के जवाब में ‘सरकार’ से उनका आशय वित्त मंत्रालय से है या फिर सदन में तथ्यों को सुधारते हुए एक स्पष्टीकरण बयान दें. कृपया इसकी जांच करें और हमें वित्त मंत्री से इस पर चर्चा करने दें.”

गर्ग से मिले सुझावों के आधार पर उनके मातहत बजट डिवीजन में काम करने वाले संयुक्त सचिव तीन नए बहाने लेकर हाजिर हुए. उन्होंने इसके आधार पर दावा किया कि वित्त राज्यमंत्री ने झूठ नहीं बोला था.

इनमें से दो तो नौकरशाही शब्दजाल में बुने गए थे और तीसरा सच के विरोधाभास में खड़ा था.

उन्होंने कहा, “भारतीय चुनाव आयोग और वित्त मंत्रालय के बीच इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर आपत्ति के संबंध में वित्त मंत्रालय से कोई आधिकारिक संवाद नहीं हुआ है. अख़बार की खबरों में चुनाव आयोग की तरफ से लिखे 26 मई, 2017 के एक पत्र का जिक्र है. यह पत्र वित्त मंत्रालय को प्राप्त ही नहीं हुआ था. लिहाजा वित्त मंत्रालय के पास अखबारों में जिक्र किये गए पत्र की जांच करने का कोई मौका नहीं था.”

यह सरासर झूठ था. जैसा कि मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि चुनाव आयोग का पत्र वित्त मंत्रालय के साथ साथ उस विभाग को भी प्राप्त हुआ जो इस झूठ का ढोल पीट रहा था और राजस्व विभाग को भी जहां से सरकारी रिकॉर्ड में इलेक्टोरल बॉन्ड की उत्पत्ति हुई. इन सबसे ऊपर, जैसा कि हमने पहले ही खुलासा कर दिया है कि आर्थिक मामलों के सचिव गर्ग ने खुद ही चुनाव आयुक्तों से 28 जुलाई, 2018 को उनकी इलेक्टोरल बॉन्ड पर आपत्तियों पर चर्चा करने और उनको समझाने के लिए मिले थे.

इसके बावजूद गर्ग इस बात से सहमत थे कि सरकार को हर हाल में लागू कर देना चाहिए. कुछ ऐशा ही विचार तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली का भी था.

लिहाजा 12 जनवरी, 2019 को वित्त राज्यमंत्री राधाकृष्णन ने हक़ को जवाब दिया, “वित्त मंत्रालय को इलेक्टोरल बॉन्ड योजना पर आपत्ति जताते हुए चुनाव आयोग से कोई भी औपचारिक सन्देश नहीं मिला है. इसलिए जवाब में, सरकार का मतलब वित्त मंत्रालय से था. मैं आपको विश्वास दिला सकता हूं कि गरिमापूर्ण संसद को गुमराह करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है और इलेक्टोरल बॉन्ड योजना अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पूरी तरह से पारदर्शी है.”

सामाजिक कार्यकर्ता बत्रा ने इस लीपापोती में भी एक झोल पकड़ लिया. उन्होंने आरटीआई के माध्यम से प्राप्त सबूतों को सार्वजानिक कर दिया कि वित्त मंत्रालय को भी 3 जुलाई, 2017 को कानून एवं न्याय मंत्रालय के माध्यम से चुनाव आयोग की आपत्तियों वाला पत्र मिला था. वो पत्र चुनाव आयोग द्वारा उन सभी विभागों और प्रभागों को भेजा गया था जो इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े हुए थे. उनमें से एक आर्थिक मामलों के विभाग के तहत आने वाला वित्त क्षेत्र सुधार और विधान मंडल विभाग भी था जिसके पास इलेक्टोरल बॉन्ड के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी थी. और वह तो चुनाव आयोग के विचारों से सहमत भी था. लेकिन वित्त मंत्रालय की तरफ से इस पर कोई लिखित जवाब नहीं दिया गया क्योंकि जवाब देने का मतलब होता कि उसे चुनाव आयोग की आपत्तियों के बारे में जानकारी थी. आयोग को सिर्फ इलेक्टोरल बॉन्ड के तौर तरीके से ही दिक्कत नहीं थी बल्कि उसको इससे बुनियादी और वैचारिक आपत्ति भी थी.

न्यूज़लॉन्ड्री के पास उपलब्ध दस्तावेज ये साबित करते हैं कि दोनों चुनाव आयुक्त, वित्त सचिव के साथ व्यक्तिगत रूप से मिलने के बाद भी लगातार बॉन्ड के खिलाफ उन्हें आगाह करते रहे.

आयोग द्वारा दर्ज कराई गई आपत्तियां तब सार्वजनिक हो गईं जब मार्च 2019 में उसने सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामा दाखिल करके इलेक्टोरल बॉन्ड के खिलाफ अपने विरोध को दोहराया. लेकिन इस समय तक विभिन्न कंपनियों और संस्थां द्वारा 1,400 करोड़ से अधिक के इलेक्टोरल बॉन्ड पहले ही खरीद लिए गए थे और राजनीतिक दलों को दान भी कर दिए गए थे.

अगस्त 2019 में, वर्तमान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने विवाद को शांत करने की कोशिश की. उन्होंने संसद में हक के सवाल का ‘सही जवाब’ दिया.

उस सही जवाब में, जो अब संसदीय रिकॉर्ड का हिस्सा बन गया है, यह स्वीकार किया गया है कि चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी. इस बार, वित्त मंत्रालय ने जवाब देने के लिए नौकरशाही के तकनीकी दांवपेंच का इस्तेमाल नहीं किया.

फिर भी, चतुराई से, सीतारमण अन्य महत्वपूर्ण सवाल का जवाब देने से बचती रहीं जो कि हक ने मूल रूप से पूछा था: चुनाव आयोग की आपत्तियों को दूर करने के लिए सरकार ने क्या-क्या किया?

इस सवाल के जवाब में मंत्री महोदया ने एक सपाट सा जवाब दिया जिसमें लगभग दो सालों से सरकार द्वारा चलाई जा रही इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की विशेषताएं गिनाई गईं.

कौन सुनता है?

सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को लागू करने के दौरान सिर्फ चुनाव आयोग या आरबीआई से परामर्श करने का ढोंग ही नहीं रचा बल्कि दस्तावेज यह भी बताते हैं कि सरकार ने राजनीतिक दलों के साथ भी ऐसा ही किया.

2 मई, 2017 को, तत्कालीन वित्त मंत्री जेटली ने भारत की विपक्षी पार्टियों को पत्र लिख कर उनसे सुझाव मांगे कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को किस तरह से बेहतर बना कर उसे लागू किया जा सकता है.

कुछ लोगों ने सुझाव भेजे भी.

कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष मोती लाल बोरा ने लिखा, “मैं समझता हूं कि सरकार राजनीतिक दलों की चुनावी फंडिंग पर पारदर्शिता के मुद्दे से चिंतित है. पारदर्शिता का तात्पर्य है कि मतदाता को तीन बातें पता होनी चाहिए. एक,  चंदा देने वाला कौन है और दो, किस राजनीतिक पार्टी को चंदा दिया जा रहा है और तीन, चंदे की राशि क्या है.”

प्रस्तावित योजना की किसी रूपरेखा के अभाव में बोरा ने कहा कि वित्त मंत्री के भाषण और सार्वजनिक टिप्पणियों से एक बात समझ में आती है कि “चंदा देने वाले का नाम केवल बॉन्ड जारी करने वाले बैंक को पता होगा और प्राप्तकर्ता का नाम केवल आयकर विभाग को पता होगा. यानि असल में चंदा देने वाले का नाम और प्राप्तकर्ता का नाम सिर्फ सरकार को ही पता होगा, आम जनता को नहीं.”

उन्होंने कहा, “सरकार द्वारा प्रस्तावित योजना का अध्ययन करने के बाद ही हम कोई टिप्पणी कर पाएंगे.”

बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने भी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “यह वाकई में सराहनीय होगा और मददगार भी यदि सरकार योजना का प्रस्तावित मसौदा सार्वजनिक कर सके, जिससे यह पता चले कि सरकार द्वारा इस योजना को किस तरह से बनाया गया है.”

सीपीआई के महासचिव सुधाकर रेड्डी ने विस्तार में बताया कि उनकी पार्टी इस योजना के जरिए पारदर्शिता के दावे पर क्यों भरोसा नहीं करती है. उन्होंने कहा कि विभिन्न कानूनों में किए गए संशोधन मूलरूप से राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले कारपोरेट दानदाताओं को गोपनीयता प्रदान करते हैं.

उन्होंने लिखा, “हम गुप्त राजनीतिक बॉन्ड योजना और राजनीतिक फंडिंग में कारपोरेट अधिनियम के संशोधन का विरोध कर रहे हैं. हमारी मांग है कि कंपनी एक्ट में संशोधन को वापस लिया जाए और राजनीतिक दलों को फंडिंग करने वाले कॉरपोरेट की सीमा तय की जाए.”

भाजपा के कम से कम एक राजनीतिक सहयोगी शिरोमणि अकाली दल ने राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के लिए सरकार द्वारा उठाये गए इस ‘ऐतिहासिक कदम’ के लिए सरकार को बधाई दी. लेकिन उसने यह भी कहा कि “इसमें अधिक नैतिकता लाने के लिए अच्छा होगा यदि केवल लाभ कमाने वाली कंपनियों को ही अपने लाभ का कुछ प्रतिशत किसी राजनीतिक पार्टी को इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप में दान करने की अनुमति दी जाए.”

हालांकि भाजपा ने बजट भाषण में शिरोमणि अकाली दल के सुझाव के बिल्कुल विपरीत कदम उठाया. उसने उस प्रावधान को ही हटा दिया जो कंपनियों को तीन साल के औसत मुनाफे का 7.5% तक ही चंदे के रूप में देने की बात करता था.

राजनीतिक दलों से सुझाव मिलने के बाद, जिनमें कुछ इलेक्टोरल बॉन्ड के बारे में गंभीर कमियां निकाल रहे थे और कुछ अधिक जानकारी मांग रहे थे, वित्त मंत्रालय के दिग्गज तेजी के साथ अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए योजना का मसौदा तैयार करने में जुट गए. मसौदा तैयार होने के बाद, उन्होंने तत्कालीन वित्त मंत्री से पूछा कि क्या इलेक्टोरल बॉन्ड की प्रारूप संरचना और योजना सभी राजनीतिक दलों के साथ साझा की जानी चाहिए. जेटली ने इस सवाल पर चुप्पी साधे रखी, जिसका अर्थ था कि इस योजना के विवरण को अन्य राजनीतिक दलों के साथ साझा नहीं किया जाना चाहिए.

विपक्ष के साथ इस तरीके से संवाद के बाद सरकार यह दावा करने को स्वतंत्र है कि उसने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना सबसे विचार-विमर्श करने के बाद बनाई, बिल्कुल उसी तरह जैसे उसने आरबीआई और चुनाव आयोग के साथ करने की कोशिश की.

इस श्रृंखला के तीसरे हिस्से में पढ़िए किस तरह से फंड के लिए बेसब्र मोदी सरकार ने अवैध तरीके से इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री का आदेश दिया.

(इस रिपोर्ट का अंग्रेजी संस्करण हफिंगटन पोस्ट इंडिया पर पढ़ा जा सकता है)