Newslaundry Hindi
भाषा का धर्म बताने वालों की उपराष्ट्रवादी मानसिकता को समझिए
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के साहित्य विभाग में एक मुस्लिम अध्यापक फिरोज़ ख़ान की नियुक्ति के बाद से ही बीएचयू में उबाल आ रखा है. कुछ छात्र उनका विरोध कर रहे हैं. विरोध करने वाले छात्रों में मुख्यतः ब्राह्मण और ठाकुर जाति के छात्र हैं. धरने के 12वें दिन सोमवार को इन छात्रों ने कैंपस में रुद्राभिषेक व हनुमान चालीसा का पाठ कर शुद्ध शाकाहारी विरोध दर्ज कराया.
जो आज छात्र धार्मिक शुचिता के नाम पर मुस्लिम अध्यापक का विरोध कर रहे हैं कल वो इसी आधार पर दलितों-आदिवासियों को अछूत बताकर उनका भी विरोध करेंगे, इसकी पूरी आशंका है. और फिर विश्वविद्याल को गुरुकुल घोषित कर उस पर कुछेक सवर्ण जतियों का एकाधिकार घोषित किया जा सकता है.
संस्कृत भाषा का दीवाना रहा है फिरोज़ ख़ान का परिवार
ऐसे समय में जब ख़ुद संस्कृत भाषा अपने अस्तित्व को लेकर संकट में है, उसे बोलने, समझने और पढ़ने वाले लोगों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है. ऐसे वक्त में एक ऐसा मुस्लिम परिवार सामने आता है जिसकी संस्कृत के प्रति दीवनगी इस हद तक है कि उनकी तीन पीढ़ियां संस्कृत में उच्च शिक्षा हासिल करके इसे अपने जीने खाने का अभिन्न अंग बना लेती हैं. लेकिन उनका संस्कृत प्रेम कट्टरपंथियों को फूटी आंख नहीं सुहा रहा.
जयपुर राजस्थान के बगरु कस्बे में रहने वाले फ़िरोज़ ख़ान का परिवार अपने इलाके में संस्कृत सेवक के रूप में जाना-पहचाना जाता है. इस पूरे इलाके में फिरोज़ खान का परिवार गोभक्त और भगवान का भजन गाने वाला परिवार है. इसकी वजह यह है कि है परिवार सुबह अपनी शुरुआत गोशाला में गायों की सेवा के साथ करता है और शाम को दिन भर का अंत भगवत भजन गाकर करता है.
मुन्ना मास्टर के नाम से जाने जाने वाले फिरोज खान के पिता रमज़ान ख़ान ने संस्कृत भाषा में शास्त्री की उपाधि ली है. यही कारण है कि इलाके के हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदाय के लोग उनकी बहुत इज़्ज़त करते हैं.
मंदिरों में कीर्तन भजन करने वाले रमज़ान ख़ान की रुचि शुरुआत से ही संस्कृत के प्रति रही क्योंकि इनके पिता (फिरोज़ ख़ान के बाबा) भी संस्कृत के विद्वान थे और मंदिरों में भजन गाया करते थे. इसलिए उन्होंने अपने तीनों बेटों को भी संस्कृत की शिक्षा दी. यहां तक की बेटी दिवाली के दिन पैदा हुई तो उसका नाम लक्ष्मी रख लिया.
ख़ान कहते हैं, “हमने कभी भी धर्म के आधार पर फर्क़ नहीं किया. मेरे लिए तो विरोध करने वाले विहिप और आरएसएस के लोग भी उतने ही प्रिय हैं. शुरुआत में विरोध हुआ तो बेटा थोड़ा सा घबराया लेकिन हमें भगवान पर भरोसा था कि सब ठीक हो जाएगा.”
सहायक प्रोफेसर बनने के बाद फिरोज़ ख़ान के विरोध को लेकर उनके परिवार के लोग स्तब्ध हैं और चिंतित हैं कि कहीं उन्होंने संस्कृत पढ़कर कोई गलती तो नहीं किया.
संस्कृत नहीं मिली इसलिए हिंदी ले ली- प्रोफेसर अब्दुल बिस्मिल्लाह
‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ के लेखक और जामिया मिलिया में हिंदी के विभाग के अध्यक्ष रहे अब्दुल बिस्मिल्लाह ने एक मुलाकात में बताया कि जब वो नौकरी के इंटरव्यू के लिए किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में जाते तो उनसे एक सवाल हर जगह पूछा जाता था कि “आपने मुस्लिम होकर भी हिंदी विषय क्यों चुना.” अब्दुल बिस्मिल्लाह बताते हैं कि ये एक सवाल हर जगह से सुन-सुन कर उन्हें बहुत कोफ्त होती मानो मुसलमान होकर हिंदी पढ़ना कोई गुनाह हो.
प्रोफेसर अब्दुल बिस्मिल्लाह बताते हैं कि उन्होंने इस सर्वव्यापी सवाल का उत्तर खोजना शुरू किया और एक दिलचस्प जवाब निकाला. आगे से उनसे जब भी किसी इंटरव्यू में ये पूछा गया कि ‘आपने मुसलमान होकर हिंदी में एमए क्यों किया? तो वो दो टूक जवाब देते- “क्योंकि मुझे संस्कृत नहीं मिली.”
प्रोफेसर बिस्मिल्लाह कहते हैं दरअसल भाषा को लेकर समाज में एक सामान्य सी बायनरी बना दी गई है कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की.
इससे पहले वर्ष 2015 में उग्र हिंदू संगठन ‘हनुमान सेना’ के विरोध के बाद मुस्लिम समुदाय के विद्वान एमएम बशीर को मलयालम अख़बार ‘मातृभूमि’ में रामायण पर आधारित कॉलम लिखने पर धमकी दी गई. अख़बार के दफ़्तर के बाहर हिंसक पोस्टर लगाए गए और उन्हें फोन कर करके इतना धमकाया गया कि उन्होंने आगे से अख़बार के लिए लिखने से मना कर दिया. सवाल ये है कि कोई विद्वान किस भाषा में लिखेगा, पढ़ेगा या किस विषय पर लिखेगा, नहीं लिखेगा इसे क्या अब इस देश के कट्टर, सांप्रदायिक लोग तय करेंगे?
ज्ञान की सत्ता पर वर्चस्व की राजनीति
ज्ञान की सत्ता पर किसका आधिपत्य हो? ये प्रश्न जितना सांस्कृतिक है उतना ही राजनीतिक भी. इसे यूं समझिए कि वर्ष 2015 में प्रोफ़ेसर नारायणचार्य ने अपनी किताब ‘वाल्मीकि कौन है’ में यह साबित करने की कोशिश की कि वाल्मीकि ब्राह्मण थे. किताब छपी तो वाल्मीकि, बेडा समुदाय के लोगों ने धारवाड़ के प्रोफ़ेसर नारायणचार्य की लिखी इस क़िताब के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया. इसके बाद कर्नाटक सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया.
लेकिन किताब के प्रकाशक ने हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया तो अदालत ने राज्य सरकार को चेताया कि बग़ैर किसी जांच के प्रतिबंध नहीं थोपा जा सकता और फिर हाईकोर्ट के निर्देश पर वाल्मीकि की जाति का पता लगाने के लिए राज्य सरकार को 14 सदस्यों की एक कमेटी गठित करनी पड़ी.
दरअसल दलित-पिछड़े महापुरुषों को ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने का दावा करना, “साम्प्रदायिक समूहों का छिपा एजेंडा” है. इसी तरह रैदास, कबीर और कनकदास को भी ब्राह्मण साबित करने की कोशिश की गई. दरअसल ज्ञान की सत्ता को ब्राह्मणवाद हर कीमत पर अपने पाले में रखना चाहता है. उसे ये कतई बर्दाश्त नहीं कि कोई दूसरा वर्ग उसे इस क्षेत्र में चुनौती दे. इसीलिए वो घोर विरोधी विचारधारा वाले बुद्ध तक को विष्णु का नौवां अवतार घोषित करके अपने पाले में खींचने का भरसक षडयंत्र करते रहे हैं. इन सब घटनाओं को सांस्कृतिक इतिहास में एक चलन के रूप में देखना चाहिए.
पिछड़े समुदायों से ताल्लुक़ रखने और ब्राह्मणवादी ज्ञान की सत्ता को चुनौती देने वाले महापुरुषों को अपने में मिला लेने का कोशिश का एक साफ एजेंडा दिखाई देता है, यह मुद्दा दक्षिणपंथी दलों के राजनीतिक एजेंडे का एक हिस्सा है.
निशाने पर दलित अध्यापक
‘आरक्षण वाले इंजीनियर के बनाए पुल गिर जाते हैं और आरक्षण वाले डॉक्टर के हाथों इलाज़ पाकर मरीज मर जाते हैं,’ कुछ ऐसी ही कहावतें सवर्ण समाज में दशकों से चलती आई हैं. वो दरअसल इस तरह की कहावतें गढ़कर दलित पिछड़े वर्ग के ज्ञान सामर्थ्य के प्रति संदेह पैदा कर उन्हें हतोत्साहित करते हैं.
हिंदुत्ववादी एजेंडा सेट करने वाले फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने एक फिल्म ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ बनाकर उन्हें ‘अर्बन नक्सली’ घोषित करके दलित आदिवासी अध्यापकों को सांस्कृतिक राजनीतिक चुनौती देने वाली स्थिति से बेदख़ल करने का पूरा षडयंत्र ही कर डाला. अभी हाल ही में रामदेव ने पेरियार को बौद्धिक आंतकवादी बताकर हिंदुत्ववादी षडयंत्र को आगे बढ़ाया है.
पिछले 6 वर्षों में लगातार कई दलित अध्यापक निशाने पर लिए गए हैं. जिस भी दलित प्रोफेसर या विद्वान ने अपने लेखन से ब्राह्मणवादी संस्कृति और सांस्कृतिक राजनीति को चुनौती देने की कोशिश की है उस पर हमला किया गया है.
वर्ष 2016 में जेएनयू के एक दक्षिणपंथी प्रोफेसर अमिता सिंह ने एक वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में कैंपस के दलित और मुस्लिम अध्यापकों को देशद्रोही कहा था. इसका स्वतः संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने जेएनयू के वाइस चांसलर और दिल्ली पुलिस कमिश्नर को नोटिस जारी करके रिपोर्ट मांगा था. आयोग के चेयरमैन पीएल पुनिया ने इस मामले को गंभीर बताते हुए एफआईआर दर्ज करने की बात कही थी.
2019 में लखनऊ यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के असिस्टेंट फ्रोफेसर रविकांत को भाजपा के खिलाफ़ फेसबुक पोस्ट लिखने के चलते यूपी राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान का रमन लाल अग्रवाल पुरस्कार मिलने से पहले ही वापस ले लिया गया था.
इस वर्ष 200 प्वाइंट रोस्टर समेत कई मुद्दे पर अपनी बात रखने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रतनलाल पर ज़ी न्यूज ने 16 जुलाई 2019 को एक कार्यक्रम किया और इस कार्यक्रम में उन्हें टुकड़े टुकड़े गैंग का टोल फ्री एजेंडा चलाने वाला बताकर उन्हें देश की बदनामी का सूत्रधार बताया. इस कार्यक्रम के बाद रतनलाल को कई धमकी भरे कॉल आए और उन्हें घर से उठा लेने की धमकी तक दी गई.
इसी तरह 90 प्रतिशत विकलांग डीयू प्रोफेसर जीएन साईबाबा को माओवादियों से संबंध का आरोप लगाकर 14 महीने तक नागपुर के उस अंडा सेल में रखा गया जहां मुंबई हमलों के अपराधी कसाब को क़ैद करके रखा गया था. ये जेल देश की सबसे ख़तरनाक जेल है. बता दें कि साईंबाबा हमेशा से दलितों और आदिवासियों के हित में आवाज़ उठाते रहे हैं. 1990 में उन्होंने आरक्षण के समर्थन में मुहिम भी चलाई थी. साईंबाबा 2003 में दिल्ली आए थे. बाद में उन्हें गढ़चिरौली की एक अदालत ने उम्रक़ैद दे दिया.
इसी तरह प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े को भी भीमा कोरेगांव मामले में हिरासत में लेकर जेल में डाल दिया गया था. हाल ही में इस मामले में डीयू के प्रो हनी बाबू के नोएडा स्थित आवास पर छापेमारी करके उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया. इसी तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक दलित प्रोफेसर गौतम हरिजन को निशाना बनाया गया.
20 अगस्त, 2019 को गौतम हरिजन का एक पुराना वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो गया. आंबेडकर जयंती के अवसर पर अप्रैल 2017 में गौतम हरिजन ने इलाहाबाद के एक छात्रावास में भाषण दिया था. जोकि तर्कसंगत होने और आलोचनात्मक दृष्टिकोण के महत्व पर था. अंधविश्वास के खिलाफ़ इस बहस बाद 26 अगस्त को आरएसएस के छात्र शाखा एबीवीपी ने विश्वविद्यालय में उनके खिलाफ़ शिकायत दर्ज़ कराई ये आरोप लगाकर कि वीडियो में हरिजन ने जो कहा वह “हिंदू विरोधी” बात थी जिससे उनकी “भावनाएं” आहत हुई हैं.”
अगले दिन, एबीवीपी की शिकायत को आधार बनाकर विश्वविद्यालय प्रशासन ने हरिजन को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया. एबीवीपी की शिकायत के बाद हरिजन को गुमनाम फोन कॉल आने लगे कि उनकी लिंचिंग हो जाएगी. प्रो गौतम हरिजन के अनुसार, उनकी जाति ने छात्रों के बीच भी उनकी अकादमिक साख को कमजोर बनाया है. उच्च जाति के छात्र उनके साथ अपमानजनक व्यवहार करते हैं क्योंकि वह उनके पूर्वाग्रहों को चुनौती देते हैं. जैसे ही छात्र मेरा नाम देखते हैं वह मुझे एक दलित की तरह देखने लगते हैं.
इसी तरह अगस्त 2018 में अपने फेसबुक वॉल पर अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ़ एक आलोचनात्मक पोस्ट लिखने पर बिहार के एक सहायक प्रोफेसर संजय कुमार की मॉब लिंचिंग करके उन्हें जिंदा जलाने की कोशिश की गई थी.
दूसरे वर्ग समुदाय के अध्यापकों के आने से विश्वविद्यालयों की सामाजिक राजनीतिक संरचना बदली है
लखनऊ विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर रविकांत चंदन कहते हैं, “सन 1980 के पहले विश्वविद्यालय पूरी तरह से सवर्णमय थे, जहां सवर्ण शिक्षक और सवर्ण विद्यार्थी होते थे. ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद पिछले बीस साल में विश्वविद्यालयों में ओबीसी और एससी एसटी समुदाय के विद्यार्थियों और शिक्षकों के आने से विश्वविद्यालयों के भीतर की सामाजिक संरचना बदल गई है. इससे अध्यापकों और विद्यार्थियों में एक नई राजनीतिक चेतना पैदा हुई है. फलस्वरूप नए राजनीतिक संगठन खड़ा हुए हैं. कहीं अंबेडकर-पेरियार सर्किल है, कहीं दलित स्टूडेंट्स फेडरेशन है. ये जो नई चीजें आई हैं, इससे नई सामाजिक संरचना और नई राजनीतिक चेतना पैदा हुई है जिससे ब्राह्मणवादी ताकतें डरी हुई हैं.”
अब बहुजन-पिछड़े वर्ग के जो लोग विश्वविद्यालयों में संविदा पर भर्ती किए जाएंगे वो अपने समाज और समुदाय के बच्चों को खुलकर सपोर्ट नहीं कर पाएंगे. दरअसल पिछले कुछ वर्षों में तमाम विश्वविद्यालयों में ओबीसी और बहुजन शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच जो एक राजनीतिक संबंध बना है उसे तोड़ने का एक सुनियोजित षडयंत्र है. आप देखिए पिछले कुछ सालों में तमाम यूनिवर्सिटी ने ही इन्हें चैलेंज किया है. इस नाते पहला हमला आरक्षण पर होता है. आरक्षण के तहत एससी, एसटी, ओबीसी समुदाय के जो लोग नौकरियों में आ सकते हैं उन्हें प्राइवेटाइजेशन के जरिए बाहर कर देंगे.
ठेके पर अध्यापक रखने और भाषाई बाध्यता थोपने की राजनीति
पहले 13 प्वाइंट रोस्टर के जरिए दलित आदिवासी अध्यापकों को विश्वविद्यालयों से दूर रखने की कोशिश की गई. इसके लिए इस साल की शुरुआत में शिक्षकों और छात्रों ने सड़क पर उतरकर संघर्ष किया और चुनाव से ठीक पहले सरकार ने विवश होकर अध्यादेश के जरिए 13 प्वाइंट रोस्टर की जगह 200 प्वाइंट रोस्टर को मान्यता दी.
वहीं इस साल जून-जुलाई में तमाम विश्वविद्यालयों द्वारा रिक्त पदों को भरने के लिए निकाले गए विज्ञापनों में ठेका अध्यापकों के लिए आवेदन मांगे गए और शिक्षकों को ठेके पर रखने का ट्रेंड शुरु किया गया. लखनऊ विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर रविकांत चंदन कहते हैं, “संविदा पर शिक्षक रखने का एक फायदा ये है कि कम वेतन में और बिना नई नियुक्ति के ही काम करने वाले लोग मिल जाएंगे.”
वो आगे कहते हैं, “संविदा पर काम करने वाले लोग हमेशा गुलामों की तरह दबे रहेंगे और अपने अधिकारों को संरक्षित नहीं कर पाएंगे. विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने संविदा शिक्षक बंधुआ की तरह उनकी मेहरबानी पर रहेंगे न कि अपनी योग्यता के बलबूते. दरअसल इस तरह से शिक्षक नहीं गुलाम नियुक्त किए जा रहे हैं.”
इस साल जून-जुलाई में अध्यापकों की भर्ती के लिए निकाले गए अपने विज्ञापन में ‘राष्ट्र संत तुकादोजी महाराज विश्वविद्यालय नागपुर’ ने अध्यापकों के मराठी भाषी होने की शर्त रखी है. नागपुर यूनिवर्सिटी की भाषाई शर्तों पर रविकांत चंदन कहते हैं, “नागपुर यूनिवर्सिटी द्वारा थोपी गई शर्ते बेहद हास्यास्पद है. सभी कैंडीडेट पर मराठी भाषा थोपकर राष्ट्रवाद के भीतर उपराष्ट्रवाद को पैदा किया जा रहा है.”
ये भारतीय संविधान और भारतीयता के मूल्य के विरुद्ध है. जिसे हम यूनिवर्सिटी या विश्वविद्यालय कहते हैं ये उसके पीछे की पूरी अवधारणा के खिलाफ़ जाता है.
(मीडिया विजिल से साभार)
Also Read
-
Hafta 483: Prajwal Revanna controversy, Modi’s speeches, Bihar politics
-
Can Amit Shah win with a margin of 10 lakh votes in Gandhinagar?
-
Know Your Turncoats, Part 10: Kin of MP who died by suicide, Sanskrit activist
-
In Assam, a battered road leads to border Gorkha village with little to survive on
-
TV Newsance 251: TV media’s silence on Revanna ‘sex abuse’ case, Modi’s News18 interview