Newslaundry Hindi
स्टीरियोटाइप राष्ट्रवादी एजेंडा के खिलाफ खड़ी है ‘शिकारा’
विधु विनोद चोपड़ा की हालिया रिलीज फिल्म ‘शिकारा’ पहला ट्रेलर आने के बाद से ही दर्शकों और समीक्षकों के बीच चर्चा बटोर रही थी. कश्मीर के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस फिल्म के प्रति उत्सुकता बढ़ गयी थी. कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद से संवाद के सभी तार टूट गए हैं. इस फिल्म को लेकर जागरूक दर्शक अपनी राजनीतिक सोच और समझदारी के तहत कयास लगा रहे थे. हम सभी जानते हैं कि विधु विनोद चोपड़ा कश्मीर के मूल निवासी हैं. फिल्मों की पढ़ाई के बाद उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा. खुद के बलबूते सधे कदमों से आगे बढ़े. वे ‘परिंदा’ से विख्यात हुए. इसी फ़िल्म के प्रीमियर के लिए उन्होंने अपनी मां (शांति देवी) को पहली बार मुंबई बुलाया था.
‘परिंदा’ 3 नवंबर 1989 को रिलीज हुई थी. जाहिर है उस रात या उसके एक रात पहले ‘परिंदा’ का प्रीमियर हुआ होगा. बेटे की खुशी और उपलब्धि में शामिल होने के लिए मां मुंबई तो आयीं, लेकिन फिर लौट नहीं सकीं. मुंबई में ही उनके पड़ोसी का फोन आया कि आतंकवादियों ने उनके पीछे उनका घर लूट लिया है. शांति देवी श्रीनगर लौट नहीं सकीं. लौट न पाने की टीस के साथ वो मुंबई में बेटे के पास रहीं. इस घटना के दस साल के बाद 1999 में ‘मिशन कश्मीर’ की शूटिंग के समय विधु विनोद चोपड़ा को सरकारी सुरक्षा मिली हुई थी. तब शांति देवी अपनी पोती के साथ श्रीनगर लौटी थीं ताकि उसे अपना पुश्तैनी घर दिखा सकें. यह फिल्म विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी मां और पत्नी को समर्पित किया था.
1990 में कश्मीर से विस्थापित हुए चार लाख पंडितों में से कुछ को ही शांति देवी जैसे अवसर मिले. अधिकांश इसी उम्मीद में मर/गुजर गए कि वे एक दिन कश्मीर लौटेंगे. लंबे विस्थापन और अनिश्चय में भी कश्मीर लौटने की तमन्ना बची रही. उनकी इस तड़प को इरशाद कामिल ने ‘शिकारा’ में भावपूर्ण शब्द दिए हैं-
एक दिन तुम से मिलने वापस आऊंगा,
क्या है दिल में सब कुछ तुम्हें बताऊंगा,
कुछ बरसों से टूट गया हूं, खंडित हूं,
वादी तेरा बेटा हूं, मैं पंडित हूं.
इन पंडितों के विस्थापन की पृष्ठभूमि में ‘शिकारा’ कठोर सच्चाई की ठहरी झील में हिलोर मारती एक प्रेम कहानी है. इस प्रेम कहानी के मुख्य पात्र शांति धर और शिवकुमार धर भी विस्थापित पंडित हैं. फिल्म फ्लैशबैक में जाती है और हमें पता चलता है कि कश्मीर में हिंदी फिल्म ‘लव इन कश्मीर’ की शूटिंग में शांति और शिव की अनायास मुलाकात हुई थी. उस पहली मुलाकात में दोनों एक-दूसरे को भा गए थे. चंद मुलाकातों के बाद वे परिणय सूत्र में बंध गए.
इसके आगे की कहानी दो धर्मों में बंटे दो परिवारों की अंतरगुंफित सामाजिकी का बारीक विस्तार है इसे पूरी तरह बयान करना स्पॉयलर की श्रेणी में आएगा इसलिए फिल्म की कहानी को इससे ज्यादा बताना ठीक नहीं. इसके लिए फिल्म देखी जानी चाहिए.
आपस में गुंथे दो अलहदा धर्मों वाले परिवारों के रिश्ते कश्मीर की फिजा बदलने के साथ ही बदलने लगती है. दूधवाला शांति को बताता है कि उनके घर ‘शिकारा’ पर हाजी साहब की नज़र है. और धर परिवार को इंडिया जाना होगा. कुछ दिनों से स्कूल से मुसलमान बच्चे नदारद हैं. शिवकुमार धर हैरान हैं. उसी दिन लतीफ के आदमी उसे अगवा करते हैं और लतीफ के पास ले जाते हैं. लतीफ़ उसे आगाह करता है. ‘मैं अपने अब्बा को बचा नहीं सका. तू अपने अब्बा को बचा ले. इंडिया चला जा.’ घटनाएं तेजी से घटती हैं. धर परिवार भी मजबूर होकर श्रीनगर से निकलता है. यहां से उनकी कहानी शरणार्थी शिविरों के पड़ावों से गुजरती हुई क्लाइमैक्स तक पहुंचती है.
फिल्म के अंत में कश्मीर लौटे शिवकुमार धर से मिलने आये स्कूली बच्चों में से एक कौतूहल से बताता है कि उसके दोस्त ने कभी कश्मीरी पंडित नहीं देखा. यह फिल्म ऐसे ही कश्मीरी पंडितों में से एक की कहानी है. कश्मीर की उथल-पुथल सिर्फ सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य के लिए है.
विधु विनोद चोपड़ा के विरोधियों की शिकायत और लानत-मलामत है कि उन्होंने अपनी फिल्म में कट्टरपंथियों और आतंकवादियों को नहीं दिखाया. पंडितों पर ढाई गई मुसीबतों का विस्तार से चित्रण नहीं किया. उन्होंने आतंकवादी गतिविधियों और हमलों का अधिक हवाला नहीं दिया. चूंकि फिल्म में यह सब ग्राफिक तरीके से नहीं आया है, इसलिए ये आरोप सही लग सकते हैं.
यहां गौर करना चाहिए कि एक फिल्मकार के तौर पर विधु विनोद चोपड़ा की मंशा विद्वेष, दुश्मनी और आतंक के ब्योरे में गए बगैर शिवकुमार और शांति की प्रेम कहानी सुनाने की थी. बिगड़े हालात और मुश्किलों के बीच फंसे किरदारों ने अपने प्रेम को हरा रखा और इसी उम्मीद में सारी तकलीफें झेलते रहे कि एक दिन वे कश्मीर लौटेंगे. यह फिल्म वापसी की आस व विश्वास की डोर से बंधी है. फिल्म के निर्देशक का ध्येय ‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ में हिंदू राष्ट्रवाद की बहती हवा को लहकाने और उसमें गुमराह मुसलमानों को झोंकने का नहीं था.
उन्होंने मुसलमान किरदारों को ब्लैक के बजाय ग्रे रंग दिया है. वे भी हालात के शिकार हैं. बतौर फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा ने संयमित तरीके से उस दौर को प्रतीकों में चित्रित और संवादों में बयां किया है.
विधु चाहते तो बड़ी आसानी से हाथों में एके-47 थामे, पठानी सूट पहने, दाढ़ी-टोपी लगाए मुसलमान किरदारों को दिखाकर कश्मीरी आतंकवादी का चेहरा बतौर खलनायक पेश कर सकते थे. ‘रोजा’ समेत अनेक फिल्मों में कश्मीर के आतंकवादियों को हम देखते रहे हैं. कथित राष्ट्रवादी विचार के फिल्मकार बहुसंख्यक हिंदू दर्शकों को ऐसे ग्राफिक चित्रण से तुष्ट और खुश करते रहे हैं. अभी यह चलन जोरों पर है. सरकार और उसके समर्थकों को यही सुहाता है.
विस्थापित पंडितों के लिए पिछले 30 सालों में देश ने भले ही कुछ नहीं किया हो, लेकिन उनके विस्थापन के लिए जिम्मेदार आतंकवादियों का चेहरा भर दिखाने से दर्शक तालियां बजाकर खुश हो लेते है. पंडितों के दर्द से वे गाफिल ही रहते हैं. विधु विनोद चोपड़ा ‘शिकारा’ के किरदारों के जरिए दायित्व भूल चुके देश को याद दिलाते हैं कि उखड़ने, उजड़ने और विस्थापित रहने के अंतहीन सफर में भी कैसे कुछ जिंदादिल लोग अपनी खुशियां बटोरते और जीते हैं.
शिव और शांति प्रतिनिधि चरित्र हैं. विधु विनोद चोपड़ा ने कश्मीर की विभीषिका के दरम्यान भी उस प्रेम को जिंदा रखा है, जो भविष्य की ‘वापसी’ में यकीन रखता है. ‘शिकारा’ नफरत नहीं पैदा करती. फिल्म के विरोधियों को यही बात नागवार गुजरी है. कश्मीर में आतंकवादी लूट और गतिविधियों के दृश्यों में विधु विनोद चोपड़ा ने सिर्फ चलते-फिरते साए दिखाए हैं. कुछ अस्पष्ट आकृतियां दीवारों पर उभरती हैं. उन्होंने बहुत सावधानी से दर्शकों के मन में घृणा नहीं पनपने दी है.
फिल्म संकेत जरूर देती है कि कैसे अफगानिस्तान में भेजे गए अमेरिकी हथियार कश्मीर घाटी में पहुंच रहे हैं. तत्कालीन सरकार के गलत रवैये से कश्मीर के माहौल में विषैला धुआं फैल रहा है. शिवकुमार धर अमेरिकी राष्ट्रपति को लगातार पत्र लिखता है और बताता रहता है कि उनके (पंडितों) साथ क्या हो रहा है. कश्मीर से चार लाख पंडितों के एक साथ निकलने पर फिल्म का एक किरदार बोलता है कि कल पार्लियामेंट में कश्मीरी पंडितों पर सवाल पूछा जाएगा. नागरिकों को विश्वास है कि उनके नुमाइंदे उनकी परवाह करेंगे, लेकिन संसद मौन रहती है, मुर्दानी छा जाती है. सही वक्त पर राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होने से कश्मीरी पंडितों की पीढ़ियां कराह रही हैं. कश्मीरियों का यह दर्द बहुत बड़ा है कि किसी ने उनके लिए कुछ नहीं किया. कैसी विडंबना है कि उन दिनों सक्रिय एक भाजपाई नेता अभी ‘शिकारा’ देखने के बाद सिसक रहे थे, तब उन्होंने कुछ नहीं किया.
भारतीय और हिंदी सिनेमा में फिल्मकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन, विभाजन, आपातकाल, कश्मीरी पंडितों के विस्थापन, आदिवासियों के निर्मूलन जैसे राष्ट्रीय महत्व की घटनाओं पर ख़ास फिल्में नहीं बनाई हैं. सच्चाई के प्रति फिल्मकारों की उदासीनता नई नहीं है. कहते हैं कि भारतीय और हिंदी सिनेमा का मिजाज जख्मों को दिखाने से परहेज करता है. इस लिहाज से विधु विनोद चोपड़ा की ‘शिकारा’ संतुलित राजनीतिक फिल्म है, जो कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की पृष्ठभूमि में एक प्रेम कहानी रचती है. यह नफरत नहीं फैलाती. यह मोहब्बत संजोती है. देश के पॉपुलर एजेंडा के विलोम के रूप में आती है, इसलिए सत्ताधारी राजनीति से आवेशित दर्शकों का एक हिस्सा फिल्म का विरोध करता है. वह विधु विनोद चोपड़ा से नाराज है और ‘शिकारा’ के बहिष्कार का आह्वान कर रहा है. अभी कुछ हफ्ते पहले ऐसे ही एक समूह ने ‘छपाक’ के बहिष्कार का आह्वान किया था, क्योंकि फिल्म की अभिनेत्री और निर्माता दीपिका पादुकोण ने जेएनयू हिंसा के खिलाफ हो रही सभा में शामिल होकर अपनी एकजुटता और समझदारी जाहिर कर दी थी.
Also Read
-
TV Newsance 305: Sudhir wants unity, Anjana talks jobs – what’s going on in Godi land?
-
What Bihar voter roll row reveals about journalism and India
-
India’s real war with Pak is about an idea. It can’t let trolls drive the narrative
-
Reporters Without Orders Ep 376: A law weaponised to target Gujarat’s Muslims, and a family’s fight against police excess in Mumbai
-
बिहार वोटर लिस्ट रिवीजन: सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और सांसद मनोज झा के साथ विशेष बातचीत