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दिल्ली और दलदल
दिल्ली के चुनाव परिणाम ने भारतीय राजनीति में ऐसा एक दलदल बना दिया है कि जिसमें अब किसी भी राजनीतिक दल व राजनीतिज्ञ के पांव धंस और फंस सकते हैं. यह दलदल हमारी राजनीति के लिए वरदान हो सकता है. राजनीति के लिए वरदान हो सकता है यानि कि लोकतंत्र को प्रभावी बना सकता है.
इस चुनाव में कौन जीता और कौन हारा, अगर कुल कहानी इतनी ही है तब तो इसके लिए किसी लेख की जरूरत नहीं है. मेरे अभी लिखने और आपके अभी पढ़ने से पहले सारी दुनिया यह रहस्य जान चुकी है. इसलिए किसी की हार या जीत की भाषा में इस परिणाम को न मैं समझ रहा हूं, न समझाना चाहता हूं. मैं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह यह भी नहीं कह सकता कि दिल्ली पर यह हनुमानजी की कृपा की बारिश हुई है; और न भारतीय जनता पार्टी के लोगों के उस मेढकी- बोल में अपनी बोल मिला सकता हूं जो लगातार यही कहने में लगे हैं कि चुनाव में हार-जीत तो होती ही है ! यह सब अर्थहीन सियासत की वह भाषा है जो लोक को भीड़ में बदल कर संतोष पाती है.
यह खेल पिछले वर्षों में खूब खेला गया है और लोकतंत्र का, मतदाता का उपहास किया गया है. मैं किससे पूछूं कि हनुमानजी को अपनी कृपा बरसाने के लिए किसी चुनाव की जरूरत है क्या ? फिर तो हनुमानजी नहीं हुए, अरविंद केजरीवाल की कठपुतली हो गये! तो फिर चुनावों में भक्तों को क्यों, भगवान ही क्यों न खड़े किए जाएं? और मैं किससे पूछूं कि अगर चुनाव में जीत या हार वैसी ही है जैसे खेल में होती है तब किसी अमित शाह के उस जहरीले बयान का क्या औचित्य है कि बटन यहां दबे इस तरह कि वहां शाहीनबाग में करेंट लगे? अगर करेंट लगाने की ही हसरत थी तो कह सकते थे अमित शाह कि बटन यहां ऐसा दाबें आप कि वहां जनपथ में करेंट लगे.
वे ऐसा कहते तब बात राजनीतिक होती लेकिन बात जहर से भी ज्यादा जहरीली हो गई जब उन्होंने करेंट शाहीनबाग पहुंचाने की बात कही. तब यह बयान राजनीतिक नहीं रहा, भारतीय समाज के टुकड़े करने वाला बन गया. उस बयान से दिल्ली के सामान्य मतदाता ने ‘ टुकड़े-टुकड़े गैंग’ को ठीक से पहचान लिया - कपड़ों से नहीं, चेहरे से ! दिल्ली के चुनाव परिणाम की यह सबसे बड़ी घोषणा है. नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भारतीय राजनीति में अब हिंदुत्ववादी ताकतें बेअसर हो गई हैं. कह रहा हूं तो इतना ही कि दिल्ली चुनाव के बाद सांप्रदायिकता को अपना नया चेहरा व नई भाषा गढ़नी होगी. उसका मुलम्मा छूटता जा रहा है. वह किसी हद तक बेपर्दा हो गई है. इस चुनाव परिणाम ने जो कहा है वह कहीं दूर तक जाने वाली बातें हैं.
पहली बात यह कि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी वह अतिरिक्त चमक खोनी शुरू कर दी है जो 2014 से नरेंद्र मोदी के नाम से दमकती थी. वह दमक न नरेंद्र मोदी की थी, न भारतीय जनता पार्टी की थी. वह दमक अतिशय लापरवाह और बेपरवाह और बाकायदा भ्रष्ट मनमोहन सिंह की केंद्र सरकार से हताश व निराश देश की घुटन व किंकर्तव्यविमूढ़ता का परिणाम थी. उससे मनमोहन सिंह का कुछ खास नुकसान नहीं हुआ, क्योंकि वे तो कुर्सी पर ला कर बिठाए गये थे. सबसे ज्यादा व दूरगामी नुकसान नेहरू-परिवार का व कांग्रेस पार्टी का हुआ है. वह इस कदर जन-मन से उतरी है कि खुद की पहचान ही भूल गई है.
इस भयावह शून्य को भुनाने के लिए नरेंद्र मोदी की अवतारी छवि गढ़ी गई. किसी तारणहार के भरोसे रहने-जीने की सामंती मानसिकता के अवशेष आज भी हमारे मन में इतने गहरे बैठे हैं कि चमत्कारी छवि या नारे उस सांचे में माकूल बैठ जाते हैं. जो होता नहीं है बल्कि गढ़ा जाता है उसकी उम्र ज्यादा नहीं होती है. वह बिखर जाता है. यह सच हम जानते थे, लेकिन इतनी जल्दी, ऐसा बिखराव ? ऐसा अंदेशा तो किसी को नहीं था -उनको भी नहीं जिन्होंने नरेंद्र मोदी की ऐसी छवि गढ़ने में बहुत कुछ निवेश किया था. छवि का यह बिखराव इस बात का संकेत है कि भारतीय मतदाता प्रौढ़ हो रहा है. उसे विमूढ़ बनाए रखने में जिनका निहित स्वार्थ है वे तरह-तरह के जाल बुनते हैं, बुनते भी रहेंगे लेकिन समय के साथ-साथ प्रौढ़ होता जाता हमारा मतदाता हर जाल को काटना सीख रहा है. दिल्ली का चुनाव परिणाम इसका एक और प्रमाण है.
कभी विनोबा भावे ने भारतीय चुनाव का चारित्रिक विश्लेषण करते हुए कहा था कि यह आत्म-प्रशंसा, परनिंदा व मिथ्या-भाषण का विराट आयोजन होता है. ऐसा कहते हुए क्या उन्हें इसका अंदाजा था कि सत्ता फिसलने का अंदेशा हमारे शासकों को कितना क्रूर व शातिर बन दे सकता है ? अगर वे आज होते तो अवाक रह जाते.
दिल्ली के चुनाव प्रचार के दौरान हमने प्रतिदिन भारतीय राजनीतिक वर्ग का नया पतन देखा. भारतीय जनता पार्टी को जब ऐसा लगने लगा कि हिंदुत्व की सामान्य अपील, सांप्रदायिकता और मंदिर और पाकिस्तान का खतरा आदि पत्ते काम नहीं कर रहे हैं तो उसके शीर्ष नेतृत्व ने घृणा फैलाने के हर संभव उपाय किए. चुनाव जीतने के लिए कभी, किसी दल ने सार्वजनिक जीवन में कभी इतना जहर नहीं घोला होगा जितना इस बार घोला गया. गंदी भाषा, गंदे इरादे और गंदे संकेत सब इस्तेमाल किए गये. हमने शर्म व क्षोभ से देखा कि यह सब ऊपर से परोसा जा रहा था, नीचे से तो बस उसकी भद्दी नकल की जा रही थी.
अपनी राजनीतिक पार्टी का, राष्ट्रीय चुनाव प्रक्रिया का, चुनाव आयोग का इतना सारा पतन आयोजित कराने बाद भी जनता पार्टी के हाथ क्या लगा ? जैसे तेवर दिखाए जा रहे हैं कि पिछली बार से इस बार दूनी से ज्यादा सीटें हमें मिलीं हैं, उसमें यह राजनतिक सच्चाई छुपाई जा रही है कि 62 के सामने 3 भी और 8 भी समान रूप से निरर्थक हैं. ठीक वैसे ही जैसे लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के 303 सांसदों के सामने कांग्रेस के 52 सांसद अर्थहीन हो जाते हैं. आखिर तो “ जम्हूरियत वो तर्जे-हुकूमत है कि जिसमें / बंदों को गिनते हैं तौला नहीं करते !” मतलब यह कि भारतीय जनता पार्टी समेत विपक्ष अब तक जैसी भूमिका अदा करता आया है वैसी ही करता रहेगा तो वह और भी तेजी से संदर्भहीन होता जाएगा. संकट सिर्फ कांग्रेस का ही नहीं, समस्त लोकतांत्रिक विपक्ष का है. उसे चाल, चेहरा और चरित्र तीनों बदलने की अत्यांतिक जरूरत है.
भारतीय जनता पार्टी के इस और ऐसे अभियान का मुकाबला करने में आम आदमी पार्टी ने ज्यादा राजनीतिक चतुराई व ज्यादा राजनीतिक संयम दिखलाया. न हमें, न आम आदमी पार्टी को इस मुगालते में रहना चाहिए कि वह राजनीति का कोई नया चेहरा गढ़ रही है. यह नया मुखौटा है जो काम आ गया. मुखौटा चेहरा नहीं होता है, और इसलिए असली नहीं होता है.
हमने एक मुखौटा 2014 में देखा जो 2019 आते-आते काफी बदरंग हो चुका है. यह दूसरा भी तो चेहरा नहीं, मुखौटा ही है ! और जब मैं यह लिख रहा हूं तब मुझे यह भी लिखना चाहिए कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने भी चाह-अनचाहे एक मुखौटा गढ़ा है जो इस बार काम कर गया! यह अच्छी व ईमानदार राजनीति होती कि आप व कांग्रेस किसी गठबंधन का स्वरूप तैयार करते और एक-दूसरे को मजबूत करते हुए चुनाव में उतरते. ऐसा हुआ होता तो भारतीय जनता पार्टी की राह और भी कठिन हो जाती.
लेकिन ऐसी राजनीतिक दूरदर्शिता और नये प्रयोगों का खतरा उठाने का साहस रखने वाला नेतृत्व कांग्रेस के पास नहीं है. कांग्रेस ने नाहक ही अपना बहुत सारा धन व जन बर्बाद किया. लेकिन उसने कहीं यह राजनीतिक सावधानी रखी कि जो लड़ाई उससे सध नहीं पा रही है, उसे ज्यादा सुनियोजित ढंग से लड़ने में आप की मदद हो जाए. पिछली बार भी कांग्रेस अपना खाता नहीं खोल पाई थी, इस बार भी नहीं खोल पाई. लेकिन शून्य में से उसने कुछ ऐसा रचा जरूर है जो आगे की राजनीति में उसके काम आएगा. लोकतंत्र में यह समझदारी बहुत जरूरी है कि आप दोस्त व दुश्मन, दो ही चश्मे से संसार को न देखें.
आप ने अपने आपको मुश्किल में डाल लिया है. वह चाहे कि न चाहे, आज की जीत कल की पराजय में न बदल जाए, इसके लिए उसे आज और अभी से जाग जाना होगा. गाल बजाने से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है काम करना! काम दीखता भी है और बोलता भी है. वह बोला भी है. लेकिन वह यह खतरा भी रच गया है कि काम रुका तो आप भी रुका ! यह आसान नहीं होगा अरविंद केजरीवालआर उनकी टीम के लिए कि आप का आपा बनाए रखा जाए.
आप की सबसे बड़ी ताकत यह रही कि वह जरूरतमंद तबकों तक अपना काम लेकर पहुंची और अधूरी सत्ता व केंद्र की तमाम अड़चनों को पार करती हुई काम करती रही. इसने ही उसके लिए वोट जुटाया. वह तेवर और वह समर्पण बनाए रखना पहली और अंतिम चुनौती है. और यह सभी सत्ताधारी पार्टियों के लिए 2020 का, दिल्ली का संदेश है : काम करो, वह बोलेगा! आप ने काम का वह दलदल बनाया है जो किसी को भी, कभी भी, कहीं भी निगल लेगा!
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