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एलआईसी का विनिवेश इसकी स्थापना के वक़्त लिखी गई मूल प्रस्तावना पर चोट है

इंश्योरेंस का मतलब होता है जोखिम से सुरक्षा. भविष्य के संभावित खतरों से निपटने के लिए ही तो हम बीमा कराते हैं. हम ये भी मानते हैं कि चाहे लागत पर रिटर्न कम मिले पर सुरक्षित मिले. 1 फ़रवरी, 2020 को निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में भारतीय जीवन बीमा निगम के निजीकरण की बात कहकर भूचाल ला दिया है.

सरकार ने इस वित्त वर्ष में 2.1 लाख करोड़ का विनिवेश का लक्ष्य रखा है. सरकार की मंशा है एलआईसी इसमें सबसे बड़ी भूमिका निभाए. आइये देखते हैं कि क्या एलआईसी का निजीकरण किया जा सकता है. क्या इसके पहलु हैं और क्या इसके आयाम?

एलआईसी की स्थापना

आजादी के आसपास कुल मिलाकर 245 छोटी-बड़ी कंपनियां बीमा के क्षेत्र में कार्यरत थीं. इनमें से कुछ कंपनियां अक्सर छोटी-मोटी वित्तीय गड़बड़ियां करती रहती थीं. इसके मद्देनज़र और देश के नागरिकों के लिए बीमा की गारंटी देने के विचार से, 1956 में भारतीय संसद ने बीमा विधेयक पारित किया.

इसके साथ, उन सभी 245 कंपनियों का विलय करके एक सरकारी संस्था का गठन हुआ जिसका नाम था भारतीय जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी. शुरुआत में सरकार ने पांच करोड़ रुपये की पूंजी इसमें लगायी थी. इसके ज़रिये भारत सरकार कंपनियों में निवेश करती थी. ये एक तरीक़े से समाजवादी व्यवस्था का व्यापारिक दृष्टिकोण था.

फ़िलहाल की स्थिति

सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 31.12 लाख करोड़ रुपये की चल और अचल संपत्ति के साथ एलआईसी देश की सबसे बड़ी बीमा कंपनी है. इसके पास लगभग 77.61% बीमा का मार्केट शेयर है. कुल प्रीमियम आय में इसकी भागीदारी 70.02% है. लगभग 3.40 लाख करोड़ इसे सालाना आय होती है. ख़ास बात यह है कि इसमें ज़्यादातर पैसा आम बीमा धारकों का है. अब ऐसे में समझना ये है कि इसका विनिवेश कैसे होगा?

क़ानूनी अधिकार

क्या सरकार इसे बेच सकती है? मौजूदा क़ानूनी आधार पर तो कतई नहीं. इसलिए कि जैसा ऊपर कहा गया सरकार ने महज़ 5 करोड़ रूपये इसमें लगाएं थे. जब बीमा नियामक ने प्रत्येक बीमा कंपनी को 100 करोड़ रुपये जमा करने का निर्णय सुनाया था, तब भी सरकार ने इसमें पैसे नहीं जमा कराएं थे. एलआईसी ने अपनी ही आय में से ये धन जमा कराया था. जब सरकार की पूंजी ही इसमें नहीं है तो सरकार इसे बेच कैसे सकती है? यह एक तकनीकी सवाल है.

दूसरा कारण ये कि यह सारा पैसा जनता का है. एलआईसी की स्थापना के वक़्त इसके घोषणा पत्र का 28वां पैराग्राफ़ साफ़ शब्दों में कहता है कि इसे सिर्फ़ लाभांश का 5% ही सरकार को देना होगा शेष सारा 95% लाभांश पॉलिसी धारकों में बांटा जाएगा.

तीसरी बात, इसकी प्रस्तावना में कहीं भी ज़िक्र नहीं है कि इसका विनिवेश किया जा सकता है. ज़ाहिर है कि एलआईसी का विनिवेश से पहले इस नियम को बदलना होगा और ये संसद के द्वारा ही पारित होगा.

नैतिक अधिकार

भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) का जो निशान (लोगो) आप और हम देखते हैं उसके नीचे संस्कृत में लिखा हुआ है- ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’. दरअसल, ये भगवत गीता के 9वें अध्याय का बाईसवां श्लोक है- ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते, तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्’. भावार्थ कुछ इस प्रकार है: कृष्ण कहते हैं जो लोग अनन्य भाव से मेरे दिव्य स्वरूप को पूजते हैं, मैं उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता हूं, और जो कुछ भी उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूं.

तो साफ़ है कि सरकार नैतिकता के आधार पर इसे अक्षुण्ण रखने को पाबंद है. चूंकि, निगम ने आम पालिसी धारकों की पूंजी जमा और सुरक्षित रखने का वचन दिया है; तो सरकार कैसे सुनिश्चित करेगी कि विनिवेश के बाद, जब ये निजी हाथों में होगी, तो जनता की पूंजी सुरक्षित रहेगी?

सामाजिक अधिकार

एलआईसी के पास लगभग 42 करोड़ पालिसी धारक हैं जिसमें अनुमानित 30 करोड़ एकल पालिसी धारक हैं तथा अन्य ग्रुप पालिसी धारक हैं. यानी लगभग देश की एक-तिहाई जनता इसमें बीमा के ज़रिये निवेश करती है. आम निवेशक बीमा का ‘उद्देश्य जिंदगी के साथ और ज़िंदगी के बाद भी’ का मतलब जानता है.

वो एलआईसी में मुनाफ़ा कमाने के लिए निवेश नहीं करता, बल्कि सुरक्षा के भाव को ध्यान में रखकर इसका बीमा ख़रीदता है. एलआईसी का उद्देश्य भी यही है. लिहाज़ा, वो ब्लू चिप कंपनियों में ही निवेश करती है जहां बेशक मुनाफ़ा चाहे कम हो पर सुनिश्चित हो. तो सवाल मुनाफे से ज़्यादा भरोसे का है.

दूसरी तरफ़ इसमें लगभग एक लाख नियमित कर्मचारी और तकरीबन 11.79 लाख एजेंट्स हैं. निजीकरण के अनुभवों और ज्ञात इतिहास को देखकर कहा जा सकता है कि इन लोगों का रोज़गार ख़तरे में पड़ने वाला है.

अनियमिताएं फिर भी होंगी

ये मुगालते से ज़्यादा कुछ नहीं है कि निजीकरण से भ्रष्टाचार कम होता है. बस रास्ता और तरीका बदल जाता है. वित्तीय संस्था होने के नाते इसे पहले भी प्रभावित किया जाता रहा है, और निजीकरण के बाद भी होगा. देश का सबसे पहला वित्तीय घोटाला एलआईसी की स्थापना के दूसरे वर्ष, यानी 1958 में ही हो गया था. तब हरीदास मूंदड़ा नामक व्यापारी ने कुछ अफ़सरों और नेताओं के साथ मिलकर उसकी ही कंपनियों के शेयर्स ख़रीदने के लिए एलआईसी को मजबूर किया था. यानी एक निजी और सरकारी तंत्र की साठ-गांठ थी.

निजी क्षेत्र में भरपूर घोटाले होते हैं. आपको आईसीआईसीआई बैंक की मैनेजिंग डायरेक्टर चंदा कोचर पर कथित वित्तीय गड़बड़ी की ख़बर का अंदाजा होगा ही. सरकारी तंत्र में हुए घोटाले तो ज़ाहिर भी हो जाते हैं, अक्सर निजी क्षेत्र वाले दबे रह जाते हैं. नोटबंदी के दौरान देश की एक टेलिकॉम कंपनी, जो अब बंद हो चुकी है, ने अपनी सहायक कंपनियों के साथ मिलकर फंड्स को इधर-उधर किया था. ऐसे कई क़िस्से हैं पर कभी आपने सुने हैं?

2008 के वक़्त आई वैश्विक मंदी का सबसे बड़ा कारण नामी-गिरामी बैंकों का डूब जाना था. जानते हैं वो क्यों डूबे थे? उन बैंकों के अफ़सरों ने ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए अत्यधिक जोखिम भरे वित्तीय उत्पादों में निवेश कर दिया था और वांछित मुनाफ़ा नहीं हुआ.

क्या सरकार इस बात की गारंटी दे सकती है कि इसके निजीकरण के बाद भी उस पर उसका कोई नियंत्रण रहेगा जो इस प्रकार के हादसों को रोक सके? इसका जवाब नकारात्मक है.

पुनश्च:

विनिवेश को आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि किसी घर की आमदनी कम हो गई है और अब महीने का ख़र्च उठाना भी मुश्किल है. ऐसे में परिवार अपनी अचल संपति जैसे ज़मीन, ज़ेवर आदि बेचता है. चलिए, ये यहां तक भी ठीक है कि आखिर अचल संपत्तियां किस दिन काम आएंगी? पर सवाल इस बात का है कि संपत्ति बेचकर इकट्ठा हुए पैसे का होगा क्या? अगर परिवार उसे व्यापार में लगाता है तो फिर एक रिस्क है, जिसका परिणाम अनुकूल या प्रतिकूल हो सकता है. अगर परिवार उस पैसे से महीने का ख़र्च चलाता है तो फिर बहुत बड़ी समस्या है. क्यूंकि एक न एक दिन, ये पैसा तो ख़त्म हो जाएगा. आगे परिवार क्या करेगा?

भारत सरकार एलआईसी के विनिवेश से प्राप्त राशि का इस्तेमाल किस प्रकार करती है? ये देखना भी बहुत ज़रूरी है. इन तमाम परिपेक्ष्यों में एलआईसी के विनिवेश को समझना होगा. ये कोई आम वित्तीय कंपनी नहीं है. आश्चर्यजनक बात ये भी है कि इसके जैसी दूसरी मिसाल पूरी दुनिया में कहीं नहीं है. ये एक निगम है जिसकी मूलभावना में संभावित नुकसानों से सुरक्षा है और उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता. निजीकरण से जोखिम बढ़ता है. ख़ुद एलआईसी के चेयरमैन एमआर कुमार कह चुके हैं कि भारत में लोग कर बचाने के लिए नहीं बीमा ख़रीदते. ज़ाहिर है कि उद्देश्य ही दूसरा है और वहीं निशाने पर आ गया है.