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किन वजहों से हुई राणा कपूर और यस बैंक की तबाही
प्रवर्तन निदेशालय ने इतवार सुबह यस बैंक के पूर्व चेयरमैन और संस्थापक राणा कपूर को गिरफ़्तार कर लिया. कुछ दिन पहले ही रिज़र्व बैंक ने ग्राहकों को 50,000 रुपये की निकासी राशि की शर्त लगा दिया. ईडी ने राणा कपूर पर मनी लॉन्ड्रिंग के अंदेशे पर पकड़ा है.
बात आगे बढ़ाने से पहले ये बता देना ज़रूरी है कि पिछले साल आरबीआई ने राणा कपूर के कार्यकाल को आगे बढ़ाने से मना कर दिया था, मजबूरन उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. शायद राणा को पहले ही अंदेशा हो गया था, इसलिए उन्होंने बैंक में अपनी पूरी हिस्सेदारी बेचकर महज़ टोकन स्वरुप 600 शेयर्स रखे हैं.
इसके पहले ये समझें कि यस बैंक में क्या संकट है और राणा कपूर ने किसके साथ मिलकर मनी लॉन्ड्रिंग की है, ये जानते हैं कि आख़िर मनी लॉन्ड्रिंग क्या है और ये किस किस्म का अपराध है?
मनी लॉन्ड्रिंग
मनी यानी धन. लांड्री माने सफ़ाई. यानी, पैसे की सफ़ाई. यानी काले धन को साफ़ करके सफ़ेद धन बनाना मनी लॉन्ड्रिंग कहलाता है. इसकी शुरुआत अमेरिका के ड्रग माफ़ियाओं ने की थी जब उन्होंने अवैध तरीक़ों से कमाये गए अकूत धन को जायज़ बनाने की ज़रूरत पड़ी.
ये कैसे होता है? सरल भाषा में समझें तो काले धन को बैंकिंग प्रणाली में इस प्रकार घुमाकर वैध बनाया जाता कि उसके सोर्स का पता नहीं चलता. पैसा सिस्टम में आ जाता है और फिर उसे जायज़ तरीकों से निवेश कर दिया जाता है. मिसाल के तौर पर नोटबंदी के दौरान कई कंपनियों ने अपने काले धन को लोगों के अकाउंट में जमाकर सफ़ेद किया था और सरकार सिर पीटती रह गई.
किस श्रेणी का अपराध है
इसे वित्तीय श्रेणी का अपराध माना जाता है. भारत में मनी-लॉन्ड्रिंग कानून, 2002 में अधिनियमित किया गया था. लेकिन इसमें 3 बार संशोधन (2005, 2009 और 2012) हुए हैं. 2012 के आखिरी संशोधन को जनवरी 3, 2013 को राष्ट्रपति की अनुमति मिली थी और यह कानून प्रिवेंशन ऑफ़ मनी- लॉन्ड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) 15 फरवरी से लागू हुआ. पीएमएलए (संशोधन) अधिनियम, 2012 ने अपराधों की सूची में धन को छुपाना, अधिग्रहण, कब्ज़ा और धन का क्रिमिनल कामों में उपयोग इत्यादि को शामिल किया है.
राणा कपूर और यस बैंक
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की पैदाइश राणा कपूर ख़ुद एक बैंकर थे. उन्होंने बैंक ऑफ़ अमेरिका से नौकरी की शुरुआत की और उस बैंक की कॉरपोरेट बैंकिंग का हेड बने. कॉरपोरेट बैंकिंग बैंक की वो शाखा होती है जिसमें कंपनियों के एकाउंट्स हैंडल किये जाते हैं. 1995 में कपूर एएनज़ेड ग्रिंडलेज़ बैंक के इंडियन ऑपरेशन्स का हेड बने.
इसी दौरान नीदरलैंड का रैबोबैंक भारत में अवसर तलाश कर रहा था. राणा कपूर, उनके साढ़ू (पत्नी की बहन का पति) अशोक कपूर (एबीएन अमरो बैंक के पूर्व इंडिया हेड) और दोस्त हरकीरत सिंह (डॉयचे बैंक के पूर्व इंडिया हेड) ने रैबोबैंक के साथ मिलकर एक ग़ैर वित्तीय संस्था की स्थपना की.
2003 में तीनों ने अपनी हिस्सेदारी बेचकर यस बैंक की स्थापना की. इसी साल हरकीरत सिंह पार्टनरशिप से बाहर हो गए. अशोक कपूर बैंक के चेयरमैन बने, राणा कपूर मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ नियुक्त हो गए.
राणा कपूर का तजुर्बा कॉरपोरेट बैंकिंग में था और ये यस बैंक की स्थापना का आधार बना. सब कुछ ठीक चल रहा था, बड़े विदेशी बैंकों से यस बैंक को लोन मिल रहा था, बैंक देश में बड़ी कंपनियों को लोन दे रहा था, ऑनलाइन पेमेंट के क्षेत्र में यस बैंक यूनिफाईड पेमेंट इंटरफ़ेस देता था. चंद सालों में यस बैंक देश के चुनिंदा निजी बैंकों की गिनती में आ गया, पर 26/11 के बाद परिस्थितियां बदलने लगीं और यहां तक पंहुच गईं कि राणा कपूर गिरफ़्तार करना पड़ा. आईये, अब जानते हैं वो क्या मुख्य कारण रहे जिनकी वजह से हालात ऐसे बन गए.
कपूर बनाम कपूर
2008 में मुंबई में हुए 26/11 के आतंकी हमले में बैंक के सह-संस्थापक अशोक कपूर की मृत्यु हो गई. वो उस वक़्त मुंबई के ट्राईडेंट होटल में थे. 2009 में अशोक कपूर की पत्नी मधु कपूर चाहती थीं कि उनकी बेटी शगुन कपूर गोगिया को बैंक के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल किया जाए. उस वक़्त आरबीआई के नियमों का हवाला देकर राणा ने मना कर दिया.
मार्च 2010 तक शेयरहोल्डिंग पैटर्न के मुताबिक़ राणा के पास 14.8% और मधु कपूर के पास 12.68% शेयर्स थे. लिहाज़ा शगुन की दावेदारी बनती थी. 2011 में एक बार फिर राणा ने शगुन को बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल नहीं किया.
मर चुके रिश्ते के ताबूत में आख़िरी कील 2012 में लगी. हुआ ये, कि राणा ने यस बैंक पर एक किताब का विमोचन किया जिसमें अशोक कपूर के योगदान का ज़िक्र भी नहीं किया. ज़ाहिर है मधु कपूर को ये बात बहुत नागवार गुज़री, पर क्या किया जा सकता था? वो मौके के इंतज़ार में थीं. वो और वो अवसर उन्हें अगले साल मिल गया.
2013 में राणा ने शगुन (अशोक की बेटी) को दरकिनार कर अपने पसंदीदा लोगों को बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल करने का फ़ैसला लिया, तो मधु कपूर मुंबई हाईकोर्ट चली गईं और राणा के चयन पर स्टे हासिल कर लिया. उन्होंने कोर्ट में राणा पर इल्ज़ाम पर लगाया कि उन्होंने रैबोबैंक के साथ मिलकर उनके पति को धोखा दिया था.
2015 में कोर्ट ने मधु कपूर के हक़ में फ़ैसला सुनाया. बाद में दोनों कपूर परिवारों में सुलह हो गई, पर बात बिगड़ चुकी थी. बाज़ार में बैंक के ऊपर ग़ैर-पेशेवर होने का तमगा लग गया. ये भी इल्ज़ाम लगा कि बैंक की हालत लगातार ख़राब हो रही थी और कपूर परिवार के झगड़े के बीच बैंक को बचाने के लिए अहम फ़ैसले नहीं लिए गए.
गिरती हुई अर्थव्यवस्था में कॉरपोरेट बैंकिंग ले डूबी
जैसा ऊपर लिखा गया था कि यस बैंक का आधार कॉरपोरेट बैंकिंग था. नोटबंदी, जीएसटी, बिगड़े हुए वैश्विक आर्थिक समीकरण और मंदी से गुज़र रही भारतीय अर्थव्यवस्था की वजह से जिन बड़े औद्योगिक समूहों को यस बैंक ने लोन दिया था, वो समय पर भुगतान नहीं कर पाए.
इनमें टेलिकॉम, रियल एस्टेट, जेम्स एंड ज्वेलरी, आयरन एंड स्टील की कंपनियां थीं. इन सेक्टर्स पर मंदी का बहुत बुरा असर पड़ा. ये भी कह सकते हैं कि राणा कपूर ने उन कंपनियों को लोन दिया जो घाटे में चल रही थीं. उनके द्वारा लोन न चुका पाने के चलते बैंक का एनपीए बढ़ गया. जिन कंपनियों की यस बैंक पर देनदारी है उनमें- रिलायंस कम्युनिकेशन, ज़ी एंटरटेनमेंट, डीएचएफएल आदि कुछ नाम है. इन सभी कंपनियों की खस्ताहालत सबके सामने है. डीएचएफएल की कहानी आगे है.
बैंकों द्वारा ग़लत रिपोर्टिंग करने की बानगी देखिये कि मार्च 2016 को यस बैंक ने सालाना रिपोर्ट में सिर्फ़ 836 करोड़ रुपये का नुकसान दिखाया. जब आरबीआई ने सख्ती की, तो बैंक ने क़ुबूल किया कि उसका कुल एनपीए 4,662 करोड़ रुपये का है. राणा कपूर सरेआम झूठ बोल रहे थे. बात यहीं नहीं रुकी, अगले साल एनपीए बढ़कर 7,562 करोड़ हो गया.
अब तक कपूर आरबीआई के शक़ के घेरे में आ चुके थे. आरबीआई ने उन्हें अपने पद से हट जाने का हुक्म सुनाया और एक डिप्टी गवर्नर को बैंक का डायरेक्टर नियुक्त किया.
दिवालिया डीएचएफएल और राणा कपूर की साठगांठ
इसको ध्यान से पढ़िए. प्रवर्तन निदेशालय ने राणा को डीएचएफ़एल के साथ मिलकर मनी-लॉन्ड्रिंग करने के चलते गिरफ़्तार किया है.
दीवान हाउसिंग फाइनेंस कंपनी (डीएचएफ़एल) एक ग़ैर वित्तीय संस्थान है. डीएचएफ़एल के मालिक धीरज वधावन ओर कपिल वधावन की एक कंपनी है- आरकेडब्लू डेवलपर्स. इसी प्रकार दोनों ने लगभग 79 शेल (फ़र्ज़ी) कंपनियां खोल रखी हैं. वधावनों पर इलज़ाम है कि उन्होंने लगभग 13,000 करोड़ रूपये अपनी कंपनियों में डालकर गबन कर लिया. डीएचएफ़एल पहले से ही जांच के घेरे में है. हाल ही में ये कंपनी दिवालिया घोषित हो चुकी है.
देखने वाली बात ये है कि हर बड़ी कंपनी के मालिक और सीईओ की कई निजी कंपनियां भी होती हैं जो बड़ी कंपनी से लेनदेन करती रहती हैं. अब आप समझ ही रहे हैं कि ये किस प्रकार का लेनदेन होता है. इसी प्रकार राणा की एक कंपनी है- डूईट वेंचर्स.
आगे बढ़ते हैं. बात ये है कि यस बैंक ने डीएचएफ़एल को 3,700 करोड़ रुपये का लोन दिया था. कहा जाता है कि इस राशि से डीएचएफ़एल के मालिक वधावन परिवार ने अंडरवर्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहिम की संपत्ति ख़रीदी थी. बाद में, वधावन परिवार ने यस बैंक का पैसा नहीं चुकाया.
जब यस बैंक ने तागादे किये तो कपिल वधावन और धीरज वधावन ने राणा कपूर द्वारा संचालित डूईट वेंचर्स को 600 करोड़ का लोन दे दिया. हैरत की बात ये है कि यस बैंक ने भी वधावन की आरकेडब्लू डेवलपर्स को 750 करोड़ का लोन दे रखा है!
एक तरफ़ तो डीएचएफ़एल बैंक का क़र्ज नहीं चुका रहा था, दूसरी तरफ़ कंपनियों के मालिकों के बीच लेनदेन हो रहा था और बैंक के 3,700 करोड़ नहीं चुकाए.
यस बैंक पर नकदी का संकट
कॉरपोरेट बैंकिंग के अलावा, यस बैंक, अन्य किसी बैंक की तरह, रिटेल बैंकिंग में भी करता है. उपरोक्त कारणों के चलते जब यस बैंक घाटे में गया, तो उस पर संकट के बादल गहरा गए. अब अगर निजी बैंक घाटे में है; तो जिन आम ग्राहकों ने उसमें राशि जमा कर रखी है, वो निकालने लगे.
सितम्बर 2019 में ये बात धीरे-धीरे फैलने लगी कि बैंक का हाल ख़राब होती जा रही है. लोगों ने अपनी जमा राशि निकालनी शुरू कर दी. हालात ये हो गए कि 7 महीने में बैंक से लगभग 2 करोड़ रुपये का बहिर्गमन तो हुआ, उस अनुपात में बैंक की जमा पूँजी नहीं बढ़ी, लिहाज़ा संकट पैदा हो गया. तब आरबीआई ने धन निकासी की लिमिट 50,000 तय कर दी.
सरकार की किरकिरी होने लगी तो निर्मला सीतारमण को लोकसभा में बयान देना पड़ा. तिलमिला कर सरकारी एजेंसियां हरकत में आईं तो राणा साहब धर लिए गए. अब सारे पत्ते खुल गए, जब डीएचएफएल के मालिकों की जांच हो रही थी तब ये सांठगांठ सामने क्यूं नहीं आई?
अंततः
कह सकते हैं कि निजी स्वार्थ, ग़ैर-पेशेवराना मैनेजमेंट, ज़रूरत से अधिक जोख़िम लेने और वन मैन शो के चलते यस बैंक आज मुश्किल में आ गया है. आख़िर ऐसा क्यूं होता है? इसका जवाब शायद रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन की किताब ‘फाल्ट लाइन्स’ में मिलता है. वो लिखते हैं कि 2007-2008 के वैश्विक मंदी के माहौल में विभिन्न बैंकों के इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स अत्यधिक जोखिम वाले वित्तीय उत्पादों में काम कर रहे थे. क्यूंकि इनमें सफल होने पर उन्हें ज़्यादा इंसेंटिव दिया जाता और असफलता पर कोई सवाल नहीं खड़ा कर रहा था. लिहाज़ा, बैंकों का पैसा उन सेक्टर्स में चला गया जहां हाई रिस्क था. राजन एक बात और लिखते हैं कि लगभग हर वित्तीय संकट के पीछे कोई न कोई राजनैतिक कारण होता ही है. देखा जाए तो यस बैंक के साथ यही हुआ है.
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