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असमंजस के मध्य में मध्य प्रदेश

ज्योतिरादित्य सिंधिया औपचारिक रूप से भारतीय जनता पार्टी के सदस्य बन गए हैं, और उनका राज्यसभा का नामांकन भी भाजपा की ओर से हो चुका है. आम धारणा है, कि यह कदम जितना सिंधिया के राजनैतिक अस्तित्व के लिए फ़ायदेमंद है उससे कहीं ज्यादा कांग्रेस के लिए नुक़सानदायक साबित होगा.

राजनैतिक रंगमंच पर जारी इस नाट्य के नेपथ्य में कई महत्वपूर्ण अवस्थाएं हैं जो काफी समय से ऐसी ही किसी परिस्थिति के आने का संकेत दे रही थीं. अगर कांग्रेस का प्रादेशिक या राष्ट्रीय नेतृत्व चाहता तो अपने दल को एक और हिन्दी भाषी प्रदेश में अप्रासंगिक होने की राह पर आगे बढ़ने से रोक सकता था. कांग्रेस का भारतीय जनता पार्टी पर उनकी पार्टी में फूट डालने का आरोप भी इसी राजनैतिक काहिली का सबूत है. यह अपेक्षा कि भाजपा जैसी घोर अवसरवादी पार्टी, कांग्रेस में बढ़ते परस्पर अंतर्विरोध का फायदा नहीं उठाएगी, यह जनता के सामने किया जाने वाला ढोंग है.

2018 के विधानसभा चुनावों के बाद से ही यह खींचातानी कांग्रेस के अंदर शुरू हो गई थी. ग्वालियर क्षेत्र की 9 विधानसभा सीटों श्योपुर, सुमावली, ग्वालियर दक्षिण, लहार, सेंवढ़ा, पिछोर, चंदेरी, राघोगढ़, चांचौड़ा पर दिग्विजय सिंह खेमे के विधायकों की जीत ने ये साबित कर दिया था कि आज भी जनमानस में लोकप्रिय ना होने के बावजूद, दिग्विजय सिंह ही मध्य प्रदेश में कांग्रेस के इकलौते नेता हैं जिनकी राजनीतिक ज़मीन बची हुई है.

चुनाव में संगठन पर काम करने के बाद भी सरकार और पार्टी में खुद के लिए और अपने लोगों के लिए कुछ खास जगह नहीं बना पाए थे और उसके बाद लोकसभा चुनाव में अपने ही सांसद प्रतिनिधि से एक लाख से अधिक वोटों से हार ने, उनके राजनैतिक वजन को हल्का कर दिया था. जहां दिग्विजय गुट द्वारा सिंधिया और उनके लोगों पर सार्वजनिक रूप से हमले होते रहे. वहीं दूसरी तरफ सिंधिया समर्थकों की ओर से उनके प्रदेश अध्यक्ष बनाने की लगातार मांग को भी मुख्यमंत्री कमलनाथ ने साकार नहीं होने दिया. जहां दिग्विजय और कमलनाथ अपने-अपने बेटों को राजनीति में सबल करने में जुटे हैं, वहीं ज्योतिरादित्य को अपने पैरों के नीचे से सत्ता की ज़मीन खिसकती नज़र आ रही थी.

सोनिया गांधी के पुन: कार्यकारी अध्यक्ष बनने से कमलनाथ और बाकी पुराने कांग्रेसी चावलों की ताक़त यों भी बढ़ गई है, जिसने केंद्रीय नेतृत्व से उपेक्षित सिंधिया की कुंठाग्नि में घी का काम किया होगा.

कहते हैं राजनीति में एक हफ्ता, बहुत लंबा समय होता है और ज्योतिरादित्य तो पिछले सवा साल से अपने कद के अनुसार सत्ता में भागीदारी चाह रहे थे. ये बात अलग है कि उनका नाम भले ही बड़ा हो पर राजनैतिक कद उतना नहीं है जितना वे या बाकी लोग शायद समझते हैं. यह सामंती दंभ भारत के खर्च हो चुके रजवाड़ों और राजनेताओं में आम है.

परन्तु इस सामंती संस्कृति के अलावा सिंधिया का मशहूर नाम उनके लिए भाजपा में एक गुणात्मक लाभ पहुंचाएगा. इसकी वजह ये है कि जहां कांग्रेस अभी भी चेहरों की राजनीति में मशगूल है, भाजपा का ज़मीनी कार्य और संपर्क उनके चेहरे को ज़मीन से वांछित जुड़ाव देने में सक्षम है.

सिंधिया के पूर्व लोकसभा क्षेत्र की दयनीय स्थिति भी उनकी कार्यशैली और क्षमता का कोई अच्छा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करती, पर कदाचित उसकी आवश्यकता उन्हें अभी नहीं पड़ेगी. सिंधिया परिवार के सदस्य भारत की दोनों बड़ी पार्टियों में राजनैतिक रूप से सक्रिय रहे हैं, इस लिहाज से देखा जाय तो ज्योतिरादित्य के लिए नई वाली भाजपा में अपनी जगह बनाना वरुण गांधी की तरह मुश्किल नहीं होगा. चाटुकारिता का संस्कार शायद एकलौता संस्कार हो जिसके प्रणेता भाजपा से ज़्यादा कांग्रेसी हैं और इसी चाटुकारिता के चलते आज उसका अस्तित्व खतरे में आ गया है.

कांग्रेसी जमात के बुद्धिजीवियों द्वारा ज्योतिरादित्य सिंधिया को दोष देना, उनपर विचारधारा से विश्वासघात का आरोप लगाना यह इंगित करता है की वे या तो परिस्तिथियों को किसी कारणवश ईमानदारी से परखना नहीं चाहते या उसका सामना नहीं करना चाहते. अन्यथा वे इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं कि एक पेशेवर राजनेता अपने व्यक्तिगत सपनों और प्रगति को तिलांजलि दे कर शून्य में अपनी राजनीति नहीं चला सकता.

ये मानना कि कोई राजनेता एक “भक्त” की तरह अपने दल के शीर्ष नेतृत्व को नमन करे और जो रूखा-सूखा मिल जाये उसी से सुखी हो जाय, अपने जीवन की सभी आकांक्षाओं को एक परिवार के हितों के लिए शहीद कर दे वरना वो फासीवाद से समझौता कर रहा है, यह असंभव है. परोपकार भी एक इंसान तभी करता है जब परिवार का पेट भरा हो और ज़िंदगी में कोई बड़ी परेशानी न हो, यहां तो फिर भी राजनीति की बात हो रही है.

व्यक्ति जब नौकरी या व्यवसाय में अपनी प्रगति के लिए मेहनत करता है, तब उसके साथ उसकी संस्था या व्यवसाय की भी उन्नति जुड़ी होती है. अर्थव्यवस्था हो या राजनीति, हर इंसान की अपनी-अपनी बढ़त ही पूरे तंत्र और समाज को आगे बढ़ाती है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए अपनी नेतागिरी की दुकान को चलने के लिए जो एक रास्ता बचा था, वह उन्होंने पकड़ लिया.

वैसे भी आज की भारतीय जनता पार्टी और कुछ समय पहले वाली कांग्रेस में कोई अंतर शेष नहीं बचा है. यहां घरवाले पहले से ही हैं राह दिखाने को और यह तो सर्वविदित है कि आखिर में चलेगी किसकी. जब दूसरी तरफ उन्हें अथक परिश्रम, मशहूर नाम, राहुल गांधी से दोस्ती और भरसक प्रयासों के बावजूद केंद्रीय नेतृत्व का साथ नहीं मिल पाया तो और किस नई सुबह की आस में वो इस पिटी हुई मंडली की ढोलक बजाते. अब तो हालात ये थे की घर की ढोलक भी छिनती हुई लग रही थी, ये तो वही बात हुई की “एक तो कोढ़, ऊपर से खाज.”

अब फिर से, उनकी राजनीतिक दुकान सज गई है और उसपर बिकने वाला नेता लोकप्रिय है और समर्थक विधायकों के इस्तीफे के बाद मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार का भविष्य अंधकारमय लगने लगा है. इस राजनैतिक उलटफेर को होली और अपने पिता के जन्मदिन के समानांतर रखकर ज्योतिरादित्य ने इस निश्चय में अपनी दृढ़ता का परिचय दिया है. इस खेल में उसका और प्रदेश का क्या होगा यह मूकदर्शक बनी जनता देख रही है, और सोच रही है कि ये ऊंट अब किस करवट बैठेगा?