Newslaundry Hindi
महामारियों का इतिहास एवं उपनिवेशवाद
महामारियों का अपना एक अनूठा इतिहास रहा है. वर्तमान में कोरोना जनित विश्वव्यापी महामारी ने मानव इतिहास की कुछ कुख्यात महामारियों पर फिर से चर्चा की शुरुआत कर दी है. इनमें से जिस एक महामारी पर सबसे अधिक चर्चा हो रही है वह है चौदहवीं शताब्दी में यूरोप में फैले प्लेग महामारी की जिसे ‘ब्लैक डेथ‘ के नाम से भी जाना जाता है.
कई इतिहासकारों के अनुसार सामंतवाद से पूंजीवाद की तरफ संक्रमण में ‘ब्लैक डेथ‘ की एक बड़ी भूमिका थी. ‘ब्लैक डेथ‘ के चलते यूरोप की तकरीबन आधी जनसंख्या का सफाया हो गया था, जिससे वहां पर खेतों में काम करने वाले ‘सर्फ‘ अथवा बंधुआ मजदूरों की अत्यधिक कमी हो गई. ऐसे में यूरोप में सामंतवादी व्यवस्था का बने रहना लगभग असंभव हो गया. परिणामतः वहां पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था की नींव पड़ी. यह स्वतंत्र किसानों एवं कृषक मजदूरों पर आधारित व्यवस्था थी.
एक महामारी की पृष्ठभूमि में जन्मी इस पूंजीवादी व्यवस्था ने कालांतर में उपनिवेशवाद को भी जन्म दिया. जैसा कि लेनिन का मानना था उपनिवेशवाद पूंजीवाद का ही चरम स्वरुप था. पूंजीवाद जनित उपनिवेशवाद ने जहां एक तरफ विश्व के आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक ताने-बाने पर गहरी छाप छोड़ी, वहीं दूसरी तरफ इसने महामारियों के पूरे स्वरुप को भी बदल कर रख दिया.
उपनिवेशवाद एवं महामारियों के मध्य इस अनन्य संबंध के कई दिलचस्प किन्तु भयावह पहलू हैं. उदाहरण स्वरूप, सोलहवीं शताब्दी में स्पेनिश एवं पुर्तगाली विजेताओं द्वारा अमेरिकी महाद्वीपों में उपनिवेश स्थापित करने से पूर्व वहां के मूल निवासियों का चेचक जैसी बीमारी से कभी भी आमना-सामना नहीं हुआ था.
1520 के आस-पास स्पेनिश विजेता पैनफिलो डि नारवेज की सेना के चेचक से संक्रमित एक सिपाही के माध्यम से इस बीमारी ने मेक्सिको में सर्वप्रथम अपनी जड़ें जमाई. इस बीमारी से अनजान अमेरिकी मूल निवासियों के बीच जब इसने महामारी का रूप धारण किया वे बड़ी संख्या में मारे गए.
मेक्सिको में मौजूद तत्कालीन स्पेनिश पादरी मोटोलोनिया ने अपनी पुस्तक ‘हिस्टोरिया’ में अमेरिकी मूल निवासियों के मध्य चेचक महामारी के इस प्रसार का काफी मार्मिक विवरण दिया है. वे लिखते हैंः ‘चूंकि इंडियंस (अमेरिकी महाद्वीप के मूल निवासियों) के लिए ये बीमारी बिल्कुल नई थी तथा उन्हें इसके उपचार के बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी. चेचक से पीड़ित होने के बावजूद वे आदतन दिन में कई-कई बार नहाते रहते थे. इससे वे थोकभाव में खटमलों की भांति मर रहे थे. साथ ही चूंकि सभी एक साथ बीमार पड़ गए, एक-दूसरे का ख्याल रखने वाला भी कोई न था. इससे कई पीड़ित तथा बच्चे भूख से मर गए.
यह गौरतलब है कि मोटोलोनिया जैसे औपनिवेशिक पादरियों के लिए मूल निवासियों का एक बड़ी संख्या में इस तरह मारा जाना पृथ्वी को बर्बर जातियों से मुक्त करने का एक ‘दैवीय‘ तरीका था. वस्तुतः, इतिहासकार फ्रांसिस पार्कमैन ने अमेरिकी महाद्वीप में महामारियों, विशेष तौर से चेचक के प्रसार को मूल निवासियों के विरुद्ध एक औपनिवेशिक जैविक हथियार के तौर पर भी देखा है.
उपनिवेशवाद एवं महामारियों के मध्य संबंध का एक दूसरा पहलू हमें भारतीय उपमहाद्वीप में महामारी अधिनियम (एपिडेमिक डिजिजेज एक्ट)-1897 के रूप में देखने को मिलता है. यद्यपि इस अधिनियम का घोषित उद्देश्य भारत में महामारियों की रोकथाम था, परन्तु इतिहासकार इसे औपनिवेशिक बायोपॉलिटिक्स का एक हिस्सा मानते हैं. उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में भारत में फैले ब्यूबोनिक प्लेग की महामारी ने इस अधिनियम की पृष्ठभूमि तैयार की थी.
महारानी विक्टोरिया ने 19 जनवरी,1897 को ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने अभिभाषण में भारत में ब्यूबोनिक प्लेग की रोकथाम हेतु सरकार को कठोर कदम उठाने का निर्देश दिया. इसका संज्ञान लेते हुए औपनिवेशिक भारतीय सरकार ने एक हफ्ते के अंदर-अंदर महामारी अधिनियम का मसौदा तैयार कर गवर्नर जनरल की कौंसिल में विचारार्थ प्रस्तुत किया.
इसे प्रस्तुत करते समय यह कहा गया कि यद्यपि इस अधिनियम में अत्यधिक कठोर प्रावधानों की व्यवस्था की गई है परन्तु भारतीय जनता को स्वयं के हित के लिए इसका स्वागत करना चाहिए. मुख्य रूप से इस अधिनियम में महामारी की स्थिति में औपनिवेशिक अधिकारियों को इसके रोकथाम हेतु कोई भी कदम उठाने की खुली छूट प्रदान की गई है.
इस अधिनियम के अंतर्गत औपनिवेशिक अधिकारियों को महामारी रोकने के लिए उठाये गए अपने किसी भी कार्यकारी कदम के लिए दंडित नहीं किया जा सकता था. एक प्रकार से महामारी के दौरान इस अधिनियम के तहत कार्यकारी ज्यादतियों को वैधानिक छूट मिल गई. ऐसे में प्रशासनिक एवं स्वास्थ्य अधिकारी प्लेग का संदेह होने पर मनमाने तरीके से किसी भी व्यक्तिकी जांच और घरों की तलाशी ले सकते थे तथा संक्रमण की स्थिति में वे उस व्यक्ति को नजरबंद एवं संपत्ति का विनाश कर सकते थे. साथ ही वे महामारी की रोकथाम हेतु किसी भी सामूहिक सभा या मेले को स्थगित कर सकते थे.
उपरोक्त संदर्भ में इतिहासकार डेविड अर्नाल्ड अपनी किताब ‘कॉलोनाइजिंग द बॉडी’ (1993) में यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार महामारी के रोकथाम के नाम पर इस अधिनियम का इस्तेमाल भारतीयों की गतिशीलता एवं राजनीतिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए किया गया. इसी तर्ज पर एक अन्य इतिहासकार अनिल कुमार अपनी पुस्तक ‘मेडिसिन एंड द राज’ (1998) में यह तर्क देते हैं कि प्लेग के विरुद्ध औपनिवेशिक मुहिम प्लेग फैलाने वाले रोगाणु की तुलना में भारतीयों के विरुद्ध ज्यादा नजर आती है.
इसका स्पष्ट उदाहरण तब देखने मिलता है जब महामारी अधिनियम के तहत प्लेग के रोकथाम हेतु सरकारी ज्यादतियों के विरोध में लिखने पर 1897 में राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक पर न सिर्फ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, बल्कि उन्हें 18 महीने के कठोर कारावास की सजा भी सुनाई गई.
इसी प्रकार इस दौरान औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर भारतीय महिलाओं की जांच एवं बदसलूकी के चलते जगह-जगह दंगे भी भड़के. वस्तुतः कई मायनों में महामारियों का जो विश्वव्यापी स्वरुप हम आज देख रहे हैं उसका आरंभ उपनिवेशवाद के साथ होता है. उपनिवेशवाद ने विभिन्न महाद्वीपों एवं क्षेत्रों को अनूठे ढंग से एक-दूसरे के करीब ला दिया था. साथ ही औपनिवेशिक गतिशीलता के साधनों तथा गतिविधियों ने महामारियों की यात्रा को मानो पंख प्रदान कर दिए. पहले जो बीमारी किसी खास क्षेत्र तक ही सीमित हुआ करती थी, अब वो दूसरे क्षेत्रों तक आसानी से फैलने लग गई. यह फैलाव मूलतः औपनिवेशिक सैनिकों, व्यापारियों एवं संक्रमित क्षेत्र से लाये गए दासों एवं मजदूरों के माध्यम से होता था. चाहे वो सोलहवीं शताब्दी का अमेरिकन प्लेग हो, या सिफलिस का विश्वव्यापी प्रसार, या अठारहवीं सदी में ऑस्ट्रेलिया में चेचक महामारी का कहर, या फिर उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में हैजा एवं ब्यूबोनिक प्लेग जैसी महामारियों का प्रसार, ये सभी कहीं-न-कहीं औपनिवेशिक गतिविधियों से ही जुड़े हुए थे. अतः, हम ये देख सकते हैं कि महामारियों के इतिहास एवं उपनिवेशवाद के मध्य सदैव एक अनन्य संबंध रहा है जिसके कई पहलुओं की पड़ताल होनी अभी भी बाकी है.
(लेखक वरिष्ठ शोध सहायक, नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय, नई दिल्ली)
Also Read: ‘क’ से कोरोना नहीं, ‘क’ से करुणा
Also Read
-
Forget the chaos of 2026. What if we dared to dream of 2036?
-
Dec 24, 2025: Delhi breathes easier, but its green shield is at risk
-
Sansad Watch 2025 special: Did our MPs do their jobs this year?
-
संसद वॉच स्पेशल: एक साल, तीन सत्र का हिसाब-किताब
-
विनोद कुमार शुक्ल: कि कवि अब भी लिख रहा है...