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एशिया की सबसे बड़ी फल और सब्जी मंडी का सूरते हाल
सुबह के आठ बजे हैं, 2020 के मार्च की 27 तारीख है. नोवेल कोविड-19 का भय है. बारिश का महीना नहीं है फिर भी इस महीने हुई यह चौथी बारिश है. हम राष्ट्रीय राजधानी के पूर्वी हिस्से में हैं और करीब 27 किलोमीटर का सफर तय करके एशिया की सबसे बड़ी मंडी आजादपुर जाने वाले हैं. एक गाड़ी में कुल तीन लोग बड़ी सावधानी और सतर्कता से बैठे हैं. अपने आस-पास की हर चीज को बहुत सोच-समझकर छू रहे हैं. अपने भीतर का डर हरकतों से जाहिर कर रहे हैं.
हमारे हाथों में सर्जिकल दास्ताने हैं. मुंह पर नकाब है. मंजिल की तरफ बढ़ती हुई गाड़ी में कैमरे तैयार हो रहे हैं. गाड़ी की खिड़कियों से हमारी नजरें एक थके और रुके हुए शहर को निहार रही हैं. किसी चित्र-विचित्र को कैमरे में कैद करना है. ऊंचे भवनों से झांकने वाला कोई नहीं है. जब समूचे देश को 21 दिनों के लिए लॉक डाउन किया गया, यह शहर हांफते-हांफते अचानक रुक गया.
बीते डेढ़ दशक में सड़कों पर भीड़ को बढ़ते देखना ही राष्ट्रीय राजधानी की नियति रही है. लिहाजा यूं सड़कों का वीराना होना हमारे डर को गाढ़ा करता रहा. हम करीब 45 मिनट का सफर करके आजादपुर फल और सब्जी मंडी पहुंच गए.
नजरों के आगे अचानक दुनिया और दृश्य दोनों बदल गए. नोवेल कोविड-19 से बचाव करने वाले लॉक डाउन के सारे नियम आंखों के सामने धवस्त थे. मंडी की सड़कों पर पानी और कीचड़ जमा है. चहल-पहल जारी है. द्वार पर ही मास्क बेचते नौजवान हैं. गेट पास चेक करने वाला नाका है. रिक्शे और कंधों पर सब्जी व फल लेकर लौटते मजदूर हैं. बेचे और खरीदे जाने की हजारों आवाजें हैं. लोग एक दूसरे के बेहद नजदीक हैं. बहुत कम लोगों के चेहरे पर मॉस्क है. हिसाब-किताब की डायरी में सिवाए दुखों के सब दर्ज हो रहा.
हमारे ही साथ मंडी में एक खाली गाड़ी दाखिल हुई. उसे गेट के जांच नाके पर ही रोक लिया गया है. सभी गाड़ियों के साथ यही सलूक है. नियम से गाड़ी नंबर दर्ज कराना है. गाड़ी चालक ने लड़के को भेज दिया है. गाड़ी नंबर बताकर चालक ने रसीद लिया और वह खाली गाड़ी मंडी के भीतर आगे बढ़ गई.
हम सब्जी मंडी के सी ब्लॉक में पहुंचे. स्टॉक के फलों की ढुलाई हो रही. ट्रेडर दो से चार दिनों में फल और सब्जी का स्टॉक खत्म हो जाने की बात करते हैं. सी ब्लॉक में ट्रेडर प्रेम कुमार के पास एक व्यक्ति काम मांगने आया है. ट्रेडर हमारी तरफ इशारा करके बताते हैं कि देखिए इन्होंने हाल ही में गाड़ी खरीदी थी अब इन्हें कोई काम नहीं मिल रहा है. हमारे पास भी कोई काम नहीं है. कहते हैं कि मैं इस महीने गाड़ी का किस्त कैसे भरूंगा. लॉकडाउन के चलते काम मिलना ही बंद हो गया है. ऐसे ही बदहवास कई आदमी मंडी में घूम रहे हैं.
हम मंडी में डी ब्लॉक की तरफ बढ़ते हैं. कीचड़ में ही कुछ सब्जी वाले बैठे हैं. मजदूरों (पल्लेदारों) ने हमें घेर लिया. मजदूरों के तन पर फटे और मैले कपड़े हैं. सवाल पूछने पर सब एक साथ बोल पड़े हमारा ख्याल करने के लिए कोई नहीं है. हम घर जाना चाहते हैं. यहां कोई काम नहीं है, राशन महंगा है, गैस मिल नहीं रहा. कमरे का किराया देना है. बहुत आफत है. यहां रहते हुए हमारी हालत खराब हो रही है. इसी गंदगी और बदबू में तमाम मजदूर लोगों को मंडी के अंदर ही सोना पड़ता है. कोरोना वायरस यहां नहीं फैलेगा तो कहां फैलेगा? सवालों की फेहरिस्त लंबी है और वे लौट जाने के लिए किसी तरह के इंतजाम का आश्वासन चाहते हैं. मंडी को बंद करने की मांग कर रहे हैं.
इस बड़ी मंडी में 40 हजार असगंठित मजदूर काम करते हैं. कुल 55 यूनियन हैं. इनमें 35 रजिस्टर्ड यूनियन हैं. आम दिनों में इस मंडी में भारी और खाली करीब 2 से 3 हजार गाड़ियों का आवागमन होता है. सालाना करीब 45 लाख टन सब्जी और फल बिक जाता है. इस साल कितना बिकेगा पता नहीं है. डी ब्लॉक में एक कमीशन एजेंट है जिनके मुनीम एक केले से भरे ट्रक के पास बैठे हैं. यह ट्रक कोलाकाता से रविवार को मंडी में आया था. इस ट्रक में करीब 36 टन माल है. अभी तक 10 कुंतल ही बिक पाया है. खरीद से भी सस्ता केला 17 से 18 रुपये में बेचना पड़ रहा है. लॉक डाउन की वजह से खरीददार नहीं मिल रहे हैं.
कोरोना के इस दौर में मंडी में मजदूर और बाहर खेतों में खड़ा किसान बड़ा दंश झेल रहे हैं. यही सप्लाई चेन लोगों का इम्यून सिस्टम ठीक रखने के लिए जरूरी विटामिन और पोषण का इंतजाम करती है. यह सिर्फ मंडी नहीं है, किसी का घर भी है. बदबू में जीवन और बेअदबी यहां सामान्य बात है. एक लाख की संख्या वाली इस एशिया की मंडी से देशभर में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कई लाख लोग जुड़े हैं.
लॉकडाउन के बाद 50 फीसदी की गिरावट आई है. मंडी फीकी पड़ गई है और स्थानीय राजनीतिक व यूनियन नेता घर पर हैं. मुनीम और हजारों पल्लेदार मौजूद हैं. इन पल्लेदारों में से ज्यादातर कभी किसान मजदूर थे, जो गांवों के विफल होने पर शहरों में काम की तलाश में आए. यहां आकर पल्लेदार यानी शहर की मंडी के मजदूर बन गए. अब शहर विफल हो रहे हैं तो यही तमाम मजदूर फिर से अपने गांव पलायन करना चाहते हैं. इनके भीतर पहले किसान होने का स्वाभिमान था शायद इसीलिए हाथ फैलाकर कुछ मांग नहीं सके और चुपचाप अपने घरों से शहर की ओर चल दिए थे. अब यह दिल्ली मजदूरों से खाली हो रही है. फिर जब बाजार गुलजार होंगे तब ये मजदूर उसका हिस्सा होंगे, ये कहना अभी बहुत मुश्किल है.
कोरोना कहकर नस्लीय टिप्पणी सिर्फ उत्तर-पूर्व के लोगों पर नहीं की गई. हजारों की तादाद में पलायन कर रहे मजदूर भी यह टिप्पणी सुनने को अभिशप्त हैं. इन्हें अपने गांव-कस्बों में भी लौटकर स्वागत के बजाए शायद उपेक्षा ही मिलनी है. गांव से शहर आकर और गरीब बन चुके यह मजदूर कहते हैं कि वह खुद इस तरह बिना आश्वस्त हुए नहीं जाना चाहते. हम भी जांच कराना चाहते हैं. लेकिन हमें तो यहां कोई खाना-पीना तक नहीं पूछ रहा है. हम कहां जाकर जांच कराएं कि हम ठीक हैं या नहीं. यह दौर है जहां हम मानवीय और अमानवीय होने के चरम घटनाओं को देख रहे हैं.
मंडी में मजदूर परेशान होकर अपना दुख बताते-बताते हताशा में गाली दे देते हैं. अनियंत्रित हैं. ऐसा नहीं है कि कोरोना संक्रमण में वे अपना बचाव ही नहीं करना चाहते. दो जून की रोटी का संकट उनके सामने है. बहस चली है कि यह लाखों की तादाद में मजदूर नहीं कोरोना हैं जो चारो तरफ फैल जाएंगे.
हमें ध्यान रखना चाहिए कि दिल्ली हर वर्ष गंभीर वायु प्रदूषण के दौरान सर्दियों में खुद लॉकडाउन हो जाती है. उस वक्त भी दिल्ली की सरहदों पर ट्रकों का जाम होता है और निर्माण गतिविधि रुकने के कारण शहर से मजदूरों का पलायन हमने देखा है. यह सब चरण दर चरण आपातकालीन उपायों से थमा है.
किसी भी तरह की महामारी के दौरान लॉकडाउन लागू करने की गाइडलाइन क्या है? क्या ऐसी कोई तैयारी हो पाई थी. लगता है भारत इसका ककहरा सीख रहा है. क्या किसी तरह का पूर्वाभ्यास किया गया. आम लोगों के साथ कैसा सलूक किया जाएगा, उन्हें कहां स्थिर किया जाएगा. यह सब पहले का अभ्यास होता है. क्या हम वाकई ऐसी स्थिति में पहुंच गए थे कि इस अभ्यास का वक्त ही नहीं मिला. शायद ऐसा नहीं था. तमाम किसान और मजदूर संगठनों ने सरकार को खत लिखकर उनके खिलाफ पुलसिया हिंसा रोकने और सहूलियतों को बढ़ाने की मांग की है.
भारत पर समुदायिक स्तर के कोरोना फैलाव वाले चरण में शामिल होने का खतरा है. शायद ही अब हमारे पास किसी तरह के अभ्यास का वक्त हो. अब भी दिल्ली और आस-पास हजारों मजदूर हैं जो जोखिम में भी हमारे देश की अर्थव्यवस्था में गुमनाम होकर अपना श्रम दे रहे हैं. वह भी अपना स्वास्थ्य चाहते हैं लेकिन हम इस मजबूरी पर खड़े हैं कि शायद अर्थ की भट्ठी को पूरी तरह बुझा नहीं सकते.
दिल्ली आजादपुर मंडी में मजदूरों का हाल लेने न ही उनके स्थानीय नेता गए और न ही सरकारी जांच और सहायता के लिए कोई नुमाइंदा उन तक पहुंचा. दोपहर का वक्त था जब हम वापस पूर्वी दिल्ली की ओर लौट रहे थे.
दिल्ली के हजारों बेघरों की कतार थी. सड़कों पर बच्चे, महिलाएं और आदमियों का छोटा-छोटा जत्था हजारों किलोमीटर पैदल जाने के लिए निकल पड़ा था. मजनू के टीला पर एयरपोर्ट से लौटे 55 तिब्बती लोगों को उनके घरों में क्वारेंटीन कर दिया गया था. एमसीडी के लोग घरों को सैनिटाइज कर रहे थे.
कई मजदूरों की तरह आजादपुर मंडी से उत्तर प्रदेश में बलिया के बेल्थरा जाने के लिए 32 वर्षीय शहनवाज भी 27 मार्च को आनंद विहार पहुंच गए. पूरे 24 घंटे हजारों की भीड़ में हजारों की तरह वे भी बसों के आने का इंतजार करते रहे. एक ऐसी बस जो उन्हें उनके घर तक छोड़ आए.
जांच व्यवस्थाओं और स्वास्थ्य केंद्रों के अभाव में एक वायरस को लेकर हमारी धारणाएं अपने-अपने हिसाब से काम कर रही हैं. तमाम मजदूरों की तरह शहनवाज ने भी यकीन दिलाया कि- साहब मैं मजदूर हूं, कोरोना नहीं हूं.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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