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इरफ़ान ख़ान: एक फैनबॉय की यादों में
ठीक से याद नहीं कि साल कौन सा था, लेकिन शायद 2008 की बात है मैं कुछ दोस्तों के साथ मुंबई के गोरेगाव (पूर्व) के गोकुलधाम मंदिर के सामने से गुज़र रहा था कि वहीं बगल की गली में रहने वाले एक दोस्त ने कहा "यह वीडियो लाइब्रेरी (विजय वीडियो लाइब्रेरी) देख रहा है यहां किसी ज़माने में इरफ़ान खान दिन-दिन भर बैठा रहता था, एक खटारा सी स्कूटर हुआ करती थी उसके पास, सिगरेट और चाय तक पीने के पैसे नहीं होते थे लेकिन मिज़ाज़ बहुत दोस्ताना था. गुप्ता की सिगरेट की दुकान से सिगरेट लेकर बगल के कट्टे पर बैठ कर पिया करता था और फिल्मों के डायलॉग सुना साथ वालों का मनोरंजन करता था.
मेरा दोस्त लगभग साल 1988-89 की बातें बता रहा था जब इरफ़ान खान अपने फ़िल्मी करियर को बनाने की जद्दोजहद कर रहे थे. वह गोकुलधाम मंदिर के बगल के एक बाज़ार में ग्राउंड फ्लोर की विजय वीडियों लाइब्रेरी में वक़्त गुज़ारा करते थे और ऊपर गुप्ता की दुकान पर सिगरेट पीया करते थे. जब मेरा दोस्त इरफ़ान खान के संघर्ष के दिनों के बारे में बता रहा था तब मैं सोच रहा था कि काफी कुछ झेला होगा इरफ़ान खान ने तब जाकर आज वह इस मुकाम पर हैं. साल 2008 तक मैं और शायद हिन्दुस्तान की एक बहुत बड़ी आबादी उनकी एक्टिंग की कायल हो चुकी थी.
आज इरफ़ान हमारे बीच नहीं रहे हैं और उनके चाहने वाले उनकी असमय चले जाने के गम में हैं. फिल्म इंडस्ट्री में उनको जानने पहचानने वाले न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया के ज़रिये उनसे जुड़ी यादें साझा कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं. मैं ना ही उनका करीबी हूं और ना ही वो मुझे जानते थे, इसलिए उनके करीबी दोस्तों की तरह उनके निजी जीवन के बारे में तो मैं ज़्यादा नहीं जानता लेकिन फ़िल्में एक ऐसा जरिया जिससे मैंने इरफ़ान खान को पहचाना है और उनका प्रशंसक बना हूं.
साल 2000 में मनोज वाजपेयी की घात नाम की एक फिल्म आई थी जिसमें इरफ़ान खान ने मामू नाम के खलनायक का रोल निभाया था. मैंने फिल्म देखी थी लेकिन कभी इरफ़ान खान का नाम नहीं सुना था, बस उनके किरदार का नाम याद रह गया था. उसके बाद साल 2001 में इरफान खान का नाम पहली बार तब सुना जब उनकी फिल्म वॉरियर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रदर्शित होने के बाद मशहूर हो गई थी. लेकिन साल 2003 में जब इरफ़ान हासिल फिल्म में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र नेता रणविजय सिंह के किरदार में आये तब से उनकी अदाकारी का जलवा लोगों को समझ में आने लगा. फिल्म में इरफ़ान ने डायलॉग बोलने के अपने अलग अंदाज़ से अपने अभिनय की एक अलग छाप छोड़ दी थी. उनका फिल्म में एक बिगड़ैल और दिलेर छात्र नेता का किरदार बहुत पसंद आया था. सिनेमा हॉल में बैठ कर अपने साथियों को ‘गुरिल्ला वॉर किया जाएगा’ वाला डायलॉग हो या एक दुकान में फिल्म के अन्य किरदार गौरीशंकर पांडे (आशुतोष राणा) को मारने की कसम खाने वाला दृश्य हो, ‘या जान से मार देना बेटा, हम रह गए ना मारने में देर नहीं लगाएंगे भगवान कसम’ वाला डायलॉग हो, उनके ऊपर फिल्माए गए हर दृश्य में उन्होंने शानदार अभिनय की झड़ी सी लगा दी थी.
हासिल फिल्म के बाद इरफ़ान खान के अभिनय की दीवानगी का यह आलम हो गया था कि फिल्म कोई सी भी हो अगर उसमे इरफ़ान खान हैं तो इतना समझ में आ जाता था कि फिल्म देखी जा सकती हैं. फिल्म भले ही पसंद ना आये लेकिन फिल्म में इरफ़ान खान का किरदार ज़रूर पसंद आता था. 2004 में रिलीज हुई फिल्म चरस भले ही इतनी अच्छी ना लगी हो लेकिन उसमें इरफ़ान का निभाया पुलिसमैन का किरदार ज़रूर बहुत पसंद आया था. साल 2003 के बाद से सिर्फ उनके नाम से मैं फ़िल्में देख लिया करता था. एक यकीन रहता कि चाहे फिल्म कैसी भी निकल जाए इरफ़ान का अभिनय ज़रूर शानदार होगा और यह यकीन कभी टूटा नहीं.
हासिल की कामयाबी के बाद इरफ़ान खान ने अपनी बेहतरीन अदाकारी से कई फिल्मों को नवाज़ा हैं. सभी फिल्मों में उनका किरदार ताकतवर रहा लेकिन उनकी पहली फिल्म सलाम बॉम्बे थी जिसमे उनका किरदार चिट्ठी लिखने वाला के था. 1990 में उन्होंने पंकज कपूर और शबाना आजमी पर फिल्मायी गयी फिल्म एक डॉक्टर की मौत में भी काम किया था. साल 2000 तक इरफ़ान ने बनेगी अपनी बात, चाणक्य, चंद्रकांता, कहकशां, डर, भारत एक खोज, द ग्रेट मराठा, जय हनुमान, स्टार बेस्ट सेलर्स आदि धारावाहिकों और कमला की मौत, दृष्टि, पुरुष, बड़ा दिन, द गोल, घात जैसी फिल्मों में किरदार निभाए लेकिन तब तक उनको वह नाम नहीं मिल पाया था जिसके वो हकदार थे. फिर साल 2001 में द वॉरियर से उनका नाम और काम सामने आया लेकिन देश भर में ख्याति प्राप्त उनको हासिल से मिली. जिसके बाद उनकी फिल्में और उनकी अदाकारी का जलवा पूरी दुनिया में होने लगा.
फिर चाहे मकबूल का किरदार हो, पान सिंह तोमर का पान सिंह हो, आन-मेंन एट वर्क का युसफ पठान हो, किस्सा का उमबेर सिंह हो , साहेब बीवी गैंगस्टर् रिटर्न्स का इंद्रजीत सिंह हो, सात खून माफ़ का मुसाफिर हो, यह साली ज़िन्दगी का चार्टर्ड अकाउंटेंट अरुण हो, हैदर का रुहदार हो या फिर अंग्रेजी मीडियम का चम्पक बंसल हो, इरफ़ान खान ने हर फिल्म में अपने काम को बखूबी अंजाम दिया है. उन्होंने हॉलीवुड की कई बड़ी फिल्में जैसी इन्फर्नो, माइटी हार्ट, जुरेसिक वर्ल्ड, अमेजिंग स्पाइडर मैन में महत्वपूर्ण किरदार निभाएं हैं.
यूं तो इरफ़ान खान ने अपने हर किरदार को यादगार बनाया है लेकिन उनका सबसे ख़ास किरदार जो मुझे पसंद है, वह पान सिंह तोमर है. उस फिल्म में एक दृश्य है जब पान सिंह तोमर फ़ौज छोड़ कर जाने वाले होते हैं और फ़ौज के अपने जूनियर खिलाड़ियों से मैदान में बातें कर रहे होते हैं. तब एक जवान आता है और पान सिंह से कहता है "सूबेदार साहब कर्नल मसंद साहब का फ़ोन है ग्वालियर से, जिसके बाद पान सिंह भाग कर फोन के पास पहुंचते है और पान सिंह और कर्नल मसंद में बातचीत शुरू हो जाती है. फोन उठा कर पान सिंह कहते हैं साहब जी मैं रिटायर हो गया, प्रीमेच्योर ले ली मैंने, फ़ोन के दूसरी ओर से कर्नल मसंद कहते हैं, क्या रिटायरमेंट के बाद गेम तो नहीं छोड़ दोगे, तो पान सिंह जवाब में कहता है अब वो घर गृहस्थी-खेती बाड़ी के खेल कम जानलेवा नहीं है साहब जी. आगे कर्नल मसंद कहते है, "वैसे जिस दिन चाहो फ़ौज में कोचिंग का ऑफर है, तुम्हें कुछ देना है, जिसके जवाब में पान सिंह कहता हैं, हमारे बेटे को नौकरी दे दी जे का काम है साहब जी.
तभी एक दूसरा जवान आता है और पान सिंह के पास आकर कहता कि "कर्नल मसंद साहब ने आपको यह देने के लिए कहा है, फोन पर कर्नल मसंद, पान सिंह से कहते हैं "आइसक्रीम है, कुछ याद आया, देखते हैं तुम्हारे घर पहुंचने तक यह पिघलती है या नही. जिसके बाद पान सिंह आइसक्रीम हाथ में लेकर मुस्कराते हैं और आंखों के आंसू पोछते हुए बोलते " जे हमारा सबसे बड़ा मैडल है साहब". यह इस फिल्म का ऐसा दृश्य है जिसमे इरफ़ान एक बार है कर, अपने एकबार आंसू पोंछ कर फिल्म देखने वाले के मन को भावुक कर देते हैं. यह उनकी अदाकारी का ही फन था जो एक सामान्य से दिखने वाला दृश्य बहुत कुछ कह जाता है.
आज इरफ़ान हमारे बीच में नहीं हैं. जिंदगी के बीहड़ को जीत के चला गया परदे का पान सिंह तोमर. वो चले गए हैं लेकिन उनके प्रशंसकों के दिल में और उनकी जुबां पर उनका नाम सदा रहेगा.
इरफ़ान आपने सालों पहले जो भरोसा दिया वो कभी टूटा नहीं. वैसे आपके अभिनय में इतनी स्थिरता थी पर हमलोगों से दूर जाने की इतनी जल्दी क्यों थी? अभी तो और हंसाना था, रुलाना था. सालों के स्ट्रगल का मेहनताना अभी मिलना शुरू हुआ था. अभी बहुत कुछ आना बाकी था.
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