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लॉकडाउन: खाली पेट ऑटो से 1400 किलोमीटर का सफ़र

तीसरी बार लॉकडाउन बढ़ाने के बाद गृह मंत्रालय ने मजदूरों को शहर से उनके घरों तक जाने का आदेश दे दिया है. जिसके बाद कई राज्य सरकारें मजदूरों को बसों और ट्रेनों के जरिए अपने राज्य में वापस बुला रही हैं, लेकिन सरकार द्वारा देरी से लिए गए इस फैसले ने मजदूरों को ऐसे हाल में पहुंचा दिया जिसे वे कभी याद करना नहीं चाहेंगे और भूल भी नहीं सकते.

लॉकडाउन के बाद काम बंद होने और पैसे खत्म होने की स्थिति में मजदूरों को जैसे ही मौका मिला वे अपने घरों तक पहुंचने के लिए निकल पड़े.

कोई पैदल, कोई सीमेंट मिक्सर मशीन के अंदर बैठकर तो कोई सब्जी से लदे ट्रक के ऊपर छुपकर अपने घरों के लिए निकला. लोग किसी भी हाल में अपने घर पहुंच जाना चाहते हैं. उन्हें डर है कि कोरोना से पहले भूख से उनकी मौत हो जाएगी.

राज्य सरकारें अपने यहां मजदूरों के लिए बेहतर इंतज़ाम के दावे कर रही हैं लेकिन आए दिन मजदूरों का सड़कों पर उतर जाना उन सरकारों की पोल खोलने के लिए काफी है. गुजरात के सूरत में लॉकडाउन के बाद कई दफा मजदूर सड़कों पर उतर चुके हैं. उधर मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर मजदूरों की भीड़ को रोकने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा. मजदूरों के लगातार पलायन और नाराजगी को देखते हुए केंद्र सरकार ने उनके घर वापसी का फैसला लिया.

जब तमाम राज्य सरकारें अपने राज्य के मजदूरों को लाने की बात कर रही हैं और ला भी रही हैं ऐसे में बिहार की नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बीजेपी-जदयू की सरकार टालमटोल करते हुए दिख रही है. इस टालमटोल के बीच लाखों लोग देश के अलग-अलग राज्यों से बिहार पहुंचने के लिए निकल गए. कुछ पहले ही निकल गए थे. ऐसे ही कटिहार जिले के आजमनगर थाने के रहने वाले सद्दाम हुसैन और उनके आठ साथी भी हैं जो ऑटो से अपने घर जाने को मजबूर हुए.

कटिहार और दिल्ली के बीच की दूरी 1,400 किलोमीटर है. इस दूरी को ऑटो से तय करने में तीन दिन लगे. इस सफर में 72 घंटे ऑटो चलाते रहे और सिर्फ एक बार खाना नसीब हुआ. ये तमाम लोग कटिहार के एक सरकारी स्कूल में क्वारंटीन किए गए हैं और वहां 14 दिन रहने के बाद 2 मई को अपने घर पहुंच गए हैं.

21 दिन रह लिए लेकिन उसके बाद रहना मुश्किल था

पहली बार जब भारत सरकार ने 24 मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की तो काफी संख्या में मजदूर घर के लिए निकल गए लेकिन कुछ ने रुकने का फैसला किया. उन्हें उम्मीद थी कि लॉकडाउन खत्म होगा तो उनका काम शुरू हो जाएगा लेकिन कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए सरकार ने लॉकडाउन को बढ़ा दिया जिसके बाद मजदूर घर जाने को मजबूर हो गए. सद्दाम और इनके साथी ऐसे ही लोगों में से हैं.

आगरा एक्सप्रेसवे पर अपने साथियों के साथ सद्दाम

दिल्ली में बीते छह सालों से ऑटों चलाने वाले 24 वर्षीय सद्दाम हुसैन कहते हैं, ‘‘जब मोदीजी ने 21 दिनों का लॉकडाउन किया तो हम घर नहीं लौटे. हमारे पास कुछ पैसे थे और कुछ घर से मंगाकर हमने खर्च चलाया लेकिन जब 14 अप्रैल को दोबारा लॉकडाउन की घोषणा की गई तो हमें लगा कि अगर और रुकते हैं तो भूखे मरने की नौबत आ जाएगी. मेरे गांव के आसपास के कई लोग एक ही साथ रहते हैं उसमें से कुछ ऑटो चलाते हैं तो कुछ मजदूरी करते हैं. हम सबने बैठकर प्लान बनाया कि आज रात (14 अप्रैल) हमलोग ऑटो से घर के लिए निकलते हैं. प्लान बनने के बाद हमलोग निकल गए और तीन दिन बाद 17 अप्रैल की देर रात कठिहार पहुंचे हैं. इस दौरान दिन-रात ऑटो चलाते रहे. लगभग सभी ड्राइवर थे तो परेशानी नहीं आई. एक आराम करता था तो एक चलाता था.’’

सद्दाम के साथ कटिहार के ही रहने वाले तनवीर अंसारी भी घर गए हैं. 26 वर्षीय तनवीर जब चार साल के थे तो उनका बायां पैर काम करना बंद कर दिया. सात साल पहले रोजगार की तलाश में दिल्ली आए और यहां जब कोई काम नहीं मिला तो ऑटो चलाने लगे.

न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए तनवीर कहते हैं, ‘‘जब मेरे गांव के लड़कों ने घर जाने के प्लान के बारे में बताया तो मैं भी साथ आने के लिए तैयार हो गया. मैं जो ऑटो चलाता हूं वो किराये का है तो अपना ऑटो लेकर आ नहीं सकता था. मैं सद्दाम के साथ हो गया. दो ऑटो में हम नौ लोग जैसे-तैसे बैठ गए और गांव के लिए निकल गए.’’

सफर किस तरह रहा है? इस सवाल के जवाब में तनवीर कहते हैं, ‘‘इतना डरावना और कठिन था कि मैं कभी उसे याद नहीं करना चाहता. बस मन में यह था कि जैसे भी हो घर पहुंच जाए. रास्ता बेहद कठिन था. कई जगहों पर पुलिस पूछताछ कर रही थी. रास्ते में कहीं खाने को नहीं मिल रहा था. सोने के लिए भी कुछ नहीं था. जो पीछे बैठते थे वे सो लेते थे.’’

30 साल के सफीरुल अंसारी भी इनके साथ थे. वे बताते हैं, ‘‘हमें आगरा तक गैस मिला उसके बाद हम पेट्रोल भरकर आए. इस पूरे सफर में दोनों ऑटों में लगभग 5,500 रुपए पेट्रोल पर खर्च हुआ है. सबने घर जाने से पहले पैसे जमा किया था. जिसके पास पैसे नहीं थे उन्होंने कहा कि हम गांव में चलकर दे देंगे. हम मज़बूरी में थे तो क्या करते लाना ही था.’’

दिल्ली से कैसे गए गांव?

दिल्ली में 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद धारा 144 लगा दी गई उसके बावजूद भी लाखों की संख्या में लोग सड़कों से होते हुए यूपी और बिहार के अपने गांवों के लिए निकल गए. रास्ते में उन्हें पुलिस से मार भी खानी पड़ी थी. 29 मार्च को सरकार ने मजदूरों के जाने पर पूरी तरह रोक लगा दी. पुलिस जगह-जगह बल प्रयोग करने के साथ-साथ घर जाने के लिए निकले लोगों को समझाकर किराये के कमरे पर भेजने लगी थी.

आराम करते दिव्यांग तनवीर और उसके साथी

ऐसे में 14 अप्रैल को दिल्ली से कैसे निकले इस सवाल के जवाब में सद्दाम बताते हैं, ‘‘हम लोग ईस्ट ऑफ़ कैलाश में रहते हैं. 14 अप्रैल की देर रात 12 बजे हम दो ऑटों पर नौ लोग बैठे और निकल गए. रास्ते में पुलिस वालों ने रोका. हमने उन्हें अपनी मज़बूरी बताई तो उन्होंने कहा ठीक है भूखे मरने से बेहतर है अपने जिला निकल जाओ. उन्होंने हमारी जांच की और छोड़ दिए. उस दिन तो दिल्ली की सड़कों पर काफी भीड़ थी. हम बदरपुर बॉर्डर से दिल्ली से बाहर निकले फिर आगरा गए. आगरा से लखनऊ आए. लखनऊ से गोरखपुर जा रहे थे तो पुलिस वालों ने नहीं जाने दिया फिर मुज्जफरपुर आए वहां से बरौनी और पटना होते हुए कटिहार पहुंचे.’’

सद्दाम आगे कहते हैं, ‘‘रास्ते में हम लोग सिर्फ ऑटो का इंजन गरम होकर खराब न हो जाए इसके लिए ही रुकते थे. तीन दिन तक लगातार ऑटों चलाते रहे. बिना खाए-पीए कटिहार पहुंच गए. रास्ते में किसी होटल में जाते थे तो वे लोग खाना देने से मना कर देते थे. वे कहते थे तुम लोग कोरोना वायरस लेकर आए हो. जबकि हमारा दिल्ली में टेस्ट हुआ था.’’

दिल्ली सरकार लगातार दावा करती रही कि मजदूरों के लिए बेहतर इंतज़ाम किए गए है फिर भी दिल्ली से मजदूरों का पलायन लगातर जारी रहा.

क्या सरकार द्वारा पहुंचाया जाने वाला राशन या पक्का खाना आप लोगों तक नहीं पहुंचा इस सवाल के जवाब में सद्दाम कहते हैं, ‘‘सरकार से राशन या खाना हमें एक भी दिन नहीं मिला है. हम जितने दिन रहे वहां उतने दिन अपने पैसे से खाए. जब मेरे पास के पैसे खत्म हो गए तो मैंने गांव से मंगवाया. सरकार से हमें कोई मदद नहीं मिली है. अगर ऐसा होता तो हम घर आने को मजबूर नहीं होते.’’

सद्दाम और उनके साथी दिल्ली से निकले इसके पीछे एक बड़ा कारण काम बंद होना और राशन की कमी तो था ही इसके अलावा भी सद्दाम कहते हैं कि एक ही कमरे में रहते-रहते हम उब गए थे. बाहर पुलिसवाले जाने ही नहीं देते थे. अगर गलती से निकल गए तो मारते थे. ऐसे में हमने सोचा कि घर चल लेते हैं. मरना होगा तो उधर ही मरेंगे. गांव में कम से कम अपने खेत या बगीचे की तरफ जा सकते हैं.’’

क्वारंटाइन में सुविधाओं का आभाव

दिल्ली से अपने गांव के लिए निकले तमाम लोग 17 अप्रैल को कटिहार पहुंचे. वे बताते हैं रास्ते में कई जगहों पर पुलिस ने हमें रोका, पूछताछ किया. हम जैसे-तैसे माफ़ी मांगते हुए, पैर पकड़ते हुए कटिहार तक पहुंच गए. यहां हमें एक सरकारी स्कूल में क्वारंटाइन कर दिया गया. जहां 2 मई तक रहने के बाद सारे लोग अपने-अपने गांव चले गए हैं.

बस में चढ़ते मजदूर

देश के अलग-अलग जगहों से क्वारंटाइन की बदहाल स्थिति की ख़बरें सामने आती रहती हैं. हाल ही में एक वीडियो वायरल हुआ जो बिहार के कटिहार जिले का ही बताया गया. इस वीडियो में क्वारंटाइन सेंटर में रह रहे लोग भागते नजर आ रहे हैं.

हमने जब सद्दाम से पूछा कि आप जहां क्वारंटाइन रहे हैं वहां कि क्या स्थिति है तो वे कहते हैं, ‘‘यहां की स्थिति ठीक नहीं है. बस जैसे-तैसे हमने दिन काटा. कटिहार जिला में घुसते ही हमें लाकर यहां रख दिया गया. यहां खाने में परेशानी हुई. रोजाना खाने के लिए एक ही तरह का चीज मिलती है. सुबह में मुड़ी और चिउरा दिया जाता है. दोपहर में चावल और आलू की सब्जी और रात में भी यहीं मिलता था. रोटी तो चौदह दिन तक खाने को नहीं मिला. यहां सोने के लिए एक कम्बल और एक गद्दा दिया था. मच्छर बहुत काटते थे. हमने मच्छरदानी की मांग की तो उन्होंने कहा खुद खरीद लो. जैसे तैसे करके हमने मच्छरदानी का इंतजाम किया.’’

सद्दाम आगे बताते हैं कि जब हम क्वारंटाइन सेंटर पहुंचे तो लगभग सौ लोग थे. धीरे-धीरे वहां लोगों की संख्या बढ़ती गई और दो सौ तक लोग हो गए. हर रोज वहां कई लोग आते थे और उन्हें वहां रखा जा रहा था. इंतजाम तो बेहतर नहीं था लेकिन वहां काफी भीड़ थी. लोग अलग-अलग राज्यों से आ रहे थे. मज़बूरी में हम रहे.

घर पर क्या करेंगे?

अब सद्दाम और उनके साथी क्वारंटाइन सेंटर में चौदह दिन रहने के बाद अपने घर लौट चुके हैं. इस पूरे सफर के बारे में वो कहते हैं, ‘‘यह जिंदगी में भूलने वाली बात नहीं है. बहुत कष्ट हुआ. घर आ गए. याद रहेगा उम्र भर. मेरे बच्चे भी बोलेंगे कि पिताजी ऑटो से दिल्ली से आए थे.’’

अपने परिवार के साथ बस का इंतजार करते मजदूर

गांव लौटने पर क्या हुआ इस सवाल के जवाब में सद्दाम कहते हैं कि हमें कोई बीमारी नहीं थी तो किसी ने कुछ नहीं बोला. अभी हम अपने घर पर ठीक से हैं.

बिहार सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार वहां के करीब 17 लाख लोग देश के अलग-अलग हिस्सों से राज्य में वापस लौट सकते हैं. ऐसे में सरकार पर दबाव बढ़ेगा जिस कारण वो अपने नागरिकों को लाने से बचने की कोशिश कर रही है.

बिहार सरकार ने जहां पहले क्वारंटाइन सेंटर में रखने की अवधि 14 दिन रखी थी वहीं अब उसे बढ़ाकर 21 दिन कर दिया है. कुछ लोग इस बढ़ी हुई अवधि को वापस आने वाले लोगों में एक डर पैदा करने की कोशिश मान रहे हैं. इससे ज्यादातर लोग डरकर वापस लौटने का इरादा छोड़ देंगे.

इतनी संख्या में प्रवासियों के लौटने के बाद बिहार सरकार उनके रहने और खाने का इंतज़ाम कैसे कर पाएगी. इसके अलावा जो लोग बाहर रहते थे वो हर महीने पैसे भेजते थे जिससे बिहार को काफी आर्थिक फायदा होता है. ऐसे में बिहार सरकार के लिए आने वाला समय काफी मुश्किल भरा होने वाला है. जिस वजह से सरकार उन्हें वापस लाने से आनाकानी कर रही है.

सद्दाम भी यहां काम करते थे और हर महीने अपने घर खर्च के लिए पैसे भेजते थे. ऐसे में जब घर लौटना पड़ा है तो वे घर पर क्या करेंगे. इस सवाल के जवाब में सद्दाम कहते हैं, ‘‘वहां मैं रह रहा था तो कमा ही नहीं रहा था. घर से ही पैसे मंगाकर खा रहा था. तो अब घर पर रहेंगे. कुछ तो बचत करके रखा है, इसके अलावा खेती करेंगे. गांव में थोड़ा बहुत खेत हैं. सब बेहतर हुआ तो मजदूरी कर लेंगे. दिल्ली अब जल्द वापस नहीं जाएंगे.’’

इसी सवाल के जवाब में सफीरुल अंसारी कहते हैं, ‘‘जिंदगी बचाने के लिए तीन दिनों तक बिना नहाए और खाए रह कर घर वापस लौटे हैं. घर पर तो भूखे नहीं मरेंगे. खेतों में काम कर लेंगे. सब ठीक होगा तभी वापस दिल्ली जाएंगे.’’

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