Newslaundry Hindi
कोरोना: अप्रत्याशित संकट में दुनिया
अप्रैल के महीने तक कोरोनावायरस (कोविड-19) महामारी एक ऐसी समस्या बन चुकी थी जिससे दुनिया का कोई देश अछूता नहीं रहा. इस बीमारी की शुरुआत चीन से हुई और बाद में यूरोप एवं अमेरिका कहीं अधिक घातक हॉटस्पॉट बनकर उभरे. इससे यह धारणा और भी पुष्ट हुई कि कोविड-19 धनी एवं सम्पन्न लोगों का रोग है.
मार्च के मध्य तक इस बीमारी ने पूरी दुनिया में तबाही मचा दी और विश्व के कामकाज को पूरी तरह से बाधित कर दिया. 29 अप्रैल 2020 तक 31.48 लाख से अधिक लोग इसके संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं और उनमें से 2.18 लाख से अधिक की मृत्यु हो चुकी है. वायरस संक्रमितों और मौत का यह आंकड़ा प्रतिदिन बढ़ रहा है.
वर्तमान में कोविड-19 के फैलने के पीछे की सबसे बड़ी वजह हमारी वैश्विक अर्थव्यवस्था है और यह 1919-20 के स्पैनिश फ्लू की तरह नहीं है जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ड्यूटी पर तैनात सैनिकों द्वारा फैलाया गया था. यही कारण है कि यह बीमारी स्वास्थ्य के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के लिए भी एक अत्यंत खतरनाक चुनौती बनकर उभरी है.
मानवजाति के इतिहास में कभी भी हमारे आवागमन पर ऐसी रोक नहीं लगी थी. जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के अनुसार, लगभग 3.1 बिलियन लोग लॉकडाउन में हैं या यूं कह लें कि धरती के हर दूसरे निवासी की रोजमर्रा की जिंदगी पर रोक लग गई है.
सेंटर फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी रिसर्च के अर्थशास्त्रियों के एक नेटवर्क का अनुमान है कि ग्रह के उत्पादन और आय के दो-तिहाई से अधिक हिस्से के लिए जिम्मेदार देश इस बीमारी को रोकने के लिए ऐसे कदम उठा रहे हैं जो सामान्य स्थिति में कभी संभव नहीं थे.
अंतरराष्ट्रीय प्रवासन संगठन ने इस महामारी को “गतिशीलता का अभूतपूर्व संकट” कहा है. आधुनिक अर्थव्यवस्था में, हर कोई किसी न किसी का आर्थिक हित या निवेश है. और ऐसे में अगर गतिशीलता न रहे तो अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है.
वर्तमान में भारत में 40 दिनों का लॉकडाउन चालू है जिसकी वजह से श्रमिकों को काम नहीं मिल पाया है और बाजार भी ठप्प पड़े हैं. इसने प्रभावी रूप से मांग और आपूर्ति को भी ठप्प कर दिया. इसका अर्थव्यवस्था पर बहुत ही बुरा असर पड़ा है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के मुताबिक, विश्व एक अनिश्चितकालीन मंदी की चपेट में आ चुका है. हालांकि यह सब सोच समझकर किया गया है.
कोविड-19 को रोकने की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसके प्रसार को रोकना या इस महामारी के वक्र को समतल करना है. ऐसा करना हर एक देश के लिए जरूरी है और ऐसी स्थिति में लॉकडाउन का लंबा चलना लाजिमी है.
अतः हम व्यापक प्रतिबंधों के माध्यम से इस बीमारी को रोकने के लिए जितनी तेजी करेंगे उसी तेजी से हमारी अर्थव्यवस्था भी शिथिल पड़ती जाएगी. दूसरे शब्दों में, हमें वायरस के प्रसार को रोकने के लिए, आर्थिक स्थिरता का खतरा उठाना होगा. जैसा कि प्रिंसटन विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर, पियरे-ओलिवियर गौरिन्चास ने कहा, “संक्रमण वक्र को समतल करना अनिवार्यतः आर्थिक मंदी को बढ़ावा देगा.” लेकिन सवाल यह है कि उपचार का यह दुष्प्रभाव किसे सर्वाधिक प्रभावित करेगा.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के प्रशासक अकिम स्टेनर के अनुसार, “यह महामारी सिर्फ एक स्वास्थ्य संकट नहीं है और इसके प्रतिकूल प्रभाव विश्व के बड़े हिस्से में दिखेंगे.”
स्टेनर आगे कहते हैं, “हमने पिछले दो दशकों में जो भी प्रगति की है, यह बीमारी उसे मिट्टी में मिलाकर रख सकती है. हम एक पूरी पीढ़ी को खो सकते हैं. अगर हम मरीजों को मरने से बचा लें फिर भी मानवाधिकारों, रोजगार के अवसरों एवं मानवीय गरिमा को भारी क्षति पहुंचने का खतरा है.”
भारत में लागू किए गए देशव्यापी लॉकडाउन के बाद हमें शहरी केंद्रों से प्रवासी श्रमिकों के बड़े पैमाने पर पलायन की तस्वीरें देखने को मिलीं. लाखों श्रमिकों ने केरल से बिहार, दिल्ली से कश्मीर और आंध्र प्रदेश से ओडिशा का रुख किया. यह कोविड-19 का डर नहीं था बल्कि आजीविका के साधनों के बिना जीवित रहने का असहनीय बोझ था.
गौरतलब है कि भारत का लगभग 87 प्रतिशत कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र में है. हमारे द्वारा की गई गणना से पता चला कि कुछ 125 शहरों/ कस्बों से प्रवासन की सूचना आई है. सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर और गाड़ियों में सामान की तरह भरकर अपने घरों तक पहुंचे ये लोग एक अनिश्चित भविष्य का सामना करने को मजबूर हैं. वे जीवित रहने के लिए क्या करेंगे?
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुमानों के अनुसार, 2.5 करोड़ तक लोगों के बेरोजगार होने की आशंका है. यही नहीं, श्रमिकों की कुल आय में 3.4 ट्रिलियन डॉलर तक गिरावट हो सकती है.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) स्वीकार करता है कि असली आंकड़े और भी भयावह हो सकते हैं. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने अनुमान लगाया कि केवल विकासशील देशों में आय का नुकसान 220 बिलियन डॉलर से अधिक होने की आशंका है. अनुमानों के अनुसार विश्व की कुल आबादी का 55 प्रतिशत हिस्सा सामाजिक सुरक्षा से वंचित है और इस वजह से आर्थिक नुकसान का संकट और गहरा सकता है.
गतिशीलता प्रतिबंधों के कारण हो रहा आर्थिक नुकसान “ऐबसोल्यूट” है या इसे पुनप्राप्त नहीं किया जा सकता है? व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीटीएडी) के अनुसार, 2020 में वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर घटकर 2 प्रतिशत से नीचे आ जाएगी. इसका मतलब विश्व अर्थव्यवस्था के लिए 1 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान है.
अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) के अनुसार एक प्रतिशत वैश्विक आर्थिक मंदी का मतलब है कि गरीबी का स्तर 2 प्रतिशत बढ़ जाएगा. इसका मतलब है कि दुनिया भर में गरीबों की संख्या में 1.4 करोड़ का इजाफा होगा.
आईएफपीआरआई के अनुसार, श्रम बाजारों में व्यवधानों के कारण 2020 में श्रम उत्पादकता में 1.4 प्रतिशत की गिरावट होगी. इसके अलावा श्रम आपूर्ति में 1.4 प्रतिशत की गिरावट आने की संभावना है. विश्व बैंक ने अनुमान लगाया है कि स्वास्थ्य पर हुए अप्रत्याशित व्यय के कारण प्रत्येक वर्ष 10 करोड़ लोग दोबारा चरम गरीबी की चपेट में आ जाते हैं. कोविड-19 के कारण यह संख्या बढ़ने की आशंका है.
सामान्य परिस्थितियों में, दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है या राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच नहीं है. ये लोग हर साल अपने परिवार के बजट का करीब 10 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं. भारत में, 68 प्रतिशत के करीब परिवार निजी स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर निर्भर हैं और वे स्वास्थ्य के लिए अपनी जेब से खर्च करने पर मजबूर हैं. अगर राज्यों को सामुदायिक ट्रांसमिशन स्थितियों का सामना करना पड़ता है, तो स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा चरमरा जाएगा.
सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की अनुपस्थिति में लोग बेरोजगार होने के बावजूद, खर्च के बोझ तले दबे रहेंगे. भारत में सबसे ज्यादा कोविड-19 मामलों वाले राज्य- महाराष्ट्र में प्रति सरकारी अस्पताल पर औसत 1,70,000 लोग हैं.
खाद्य असुरक्षा और भुखमरी
दुनियाभर में खाद्य असुरक्षा के और बढ़ने की आशंका है. लगभग 82 करोड़ आबादी या तो भुखमरी का शिकार है या सामान्य जीवन के लिए अनुशंसित पर्याप्त कैलोरी उन्हें उपलब्ध नहीं है. लगभग 11.3 करोड़ लोग इतने खाद्य असुरक्षित हैं कि बाहरी सहायता उपलब्ध नहीं कराने पर उनका जीवन तत्काल खतरे में पड़ सकता है. यदि इस परिदृश्य में महामारी आजीविका श्रृंखला और वैश्विक समर्थन प्रणाली को बाधित करती है, तो भोजन की कमी से बड़े पैमाने पर मौतों की आशंका है.
विकासशील देशों में संकट ऐसा गहरा है कि यूएनसीटीएडी ने उन्हें गंभीर वित्तीय संकट से बचाने के लिए 2.5 ट्रिलियन डॉलर के बचाव पैकेज की मांग की है. इस पैकेज में विकासशील देशों के 1 ट्रिलियन डॉलर के ऋण की माफी शामिल है.
अफ्रीका में महामारी के झटके से राजस्व का भारी नुकसान होगा और आर्थिक विकास धीमा हो जाएगा. महामारी से निपटने के लिए अफ्रीकी महाद्वीप को 100 बिलियन डॉलर के तत्काल आपातकालीन वित्तपोषण की आवश्यकता होगी. सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की प्रगति भी, खासकर विकासशील देशों में अब शंका के घेरे में है.
यूएनसीटीएडी के अनुसार, अगले दो वर्षों के लिए विकासशील देशों के सामने वित्तपोषण में 2-3 ट्रिलियन डॉलर की कमी का संकट होगा. कोविड-19 के हॉटस्पॉट बन चुके कई देशों में प्रसार के चरम पर पहुंचने के संकेत हैं. हालांकि और कई देश इस वक्त घातीय अथवा एक्सपोनेनशियल प्रसार के चरण में पहुंच चुके हैं.
महामारियां बार-बार आने के लिए कुख्यात हैं. उदाहरण के तौर पर स्पैनिश फ्लू को ले सकते हैं जिसने कुल तीन बार वापस आकार विश्व की आबादी के 2 प्रतिशत हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया था. लाखों गरीबों की मौत के अलावा इस फ्लू ने अमीरों को भी अपनी चपेट में लिया था. कोविड-19 भी कुछ इसी राह पर है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दादा की मौत स्पैनिश फ्लू से ही हुई थी. अत: हम कह सकते हैं कि आज हमारी धरती एक अत्यंत ही अप्रत्याशित संकट में फंस चुकी है.
( डाउन टू अर्थ से साभार )
Also Read: कोविड-19: प्रकृति के बदले का सबसे भयावह रूप
Also Read
-
TV Newsance 250: Fact-checking Modi’s speech, Godi media’s Modi bhakti at Surya Tilak ceremony
-
What’s Your Ism? Ep 8 feat. Sumeet Mhasker on caste, reservation, Hindutva
-
‘1 lakh suicides; both state, central govts neglect farmers’: TN farmers protest in Delhi
-
Reporters Without Orders Ep 319: The state of the BSP, BJP-RSS links to Sainik schools
-
सूरत का सूरत-ए-हाल: नामांकन के दिन ही ‘फिक्स’ था चुनाव