Newslaundry Hindi
अश्वेतों के प्रदर्शन में गांधी की प्रतिमा क्षतिग्रस्त होने के मायने
अमेरिका का अश्वेत समाज खौल रहा है; और इस खौलते अशांत मन के कुछ छींटे महात्मा गांधी पर भी पड़े हैं. वाशिंग्टन स्थित भारतीय दूतावास के प्रवेश-द्वार पर लगी गांधीजी की मूर्ति कुछ क्षतिग्रस्त भी कर दी गई है, उस पर कोई रंग या रसायन भी पोत दिया गया है, अगल-बगल कुछ नारे वगैरह भी लिख दिए गये हैं. जैसी नकाब पहन कर आज सारी दुनिया घूम रही है वैसा ही एक लंबा नकाब - कहिए कि एक खोल - गांधी-प्रतिमा को भी पहना दिया गया है. खंडित प्रतिमा अच्छी नहीं मानी जाती है इसलिए.
अश्वेतों का क्षोभ अमरीका पार कर दुनिया के उन दूसरे मुल्कों में भी पहुंच रहा है जहां अश्वेत बड़ी संख्या में रहते हैं. यह प्रदर्शन लंदन में भी हो रहा है और वहां भी गांधीजी की प्रतिमा को निशाने पर लिया गया है. भीड़ का गुस्सा ऐसा ही होता है बल्कि कहूं तो भीड़ उसे ही कहते हैं कि जिसके पास सर बहुत होते हैं, दिल नहीं होता है.लेकिन हम न भूलें कि दिलजलों की भीड़ भी होती है. अभी वैसी ही भीड़ के सामने हम खड़े हैं.
लंदन में भीड़ ने एडवर्ड कॉल्स्टन की मूर्ति उखाड़ फेंकी है. कॉल्स्टन इतिहास के उस दौर का प्रतिनिधि था जब यूरोप-अमरीका में दासोंका व्यापार हुआ करता था. कॉल्स्टन भी ऐसा ही एक व्यापारी था. अश्वेतों को दास बना कर खरीदना-बेचना और उनके कंधों पर अपने विकास की इमारतें खड़ी करना, यही चलन था तब. हम भी तो उस दौर से गुजरे ही हैं जब अछूत कह कर समाज के एक बड़े हिस्से को अपमानित कर, गुलाम बना कर उनसे जबरन सेवा ली जाती थी. आज भी उसके अवशेष समाज में मिलते ही हैं.
लंदन के मेयर ने बहुत सही कहा है कि इंग्लैंड की सड़कों पर से औपनिवेशिक दौर के प्रतीकों की प्रतिमाएं हटानी चाहिए. उन्होंने कहा कि यह सत्य बहुत विचलित करने वाला है कि हमारा देश और यह लंदन शहर दास-व्यापार की दौलत से बना व सजा है. इसने उन बहुतेरों के अवदान को दर्ज ही नहीं किया है जिन्होंने भी इसे शक्ल-ए-जमील दी है.
यह सब चल रहा है तो एक दूसरा नाटक भी सामने आ रहा है. गांधी-प्रतिमा के अनादर के लिए भारत में अमरीका के राजदूत ने भारत सरकार से माफी मांगी है और यह आश्वासन भी दिया है कि जल्दी ही हम उस प्रतिमा को सादर अवस्थित कर देंगे. इंग्लैंड की सरकार भी कुछ ऐसा ही कर देगी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी मूर्ति को नुकसान पहुंचाने को अपमानजनक बताया है. फिर भारत सरकार भला पीछे कैसे रहती. उसने अमरीका के राज्य विभाग, शहरी पुलिस और नेशनल पार्क सर्विस के पास अपनी आपत्ति दर्ज कराई है.
ट्रंप को जो अपमानजनक लगा, राजदूत को जिसके लिए माफी मांगनी पड़ी और भारत सरकार को जो आपत्तिजनक लगा, वह क्या है? गांधी-प्रतिमा का अपमान याकि अपनी नंग छिपाने की असफल कोशिश? महात्मा गांधी होते तो क्या कहते? कहते कि मेरी गूंगी मूर्ति को देखते हो लेकिन मैं जो कहता रहा वह सुनते नहीं हो, तो ऐसे सम्मान का फायदा क्या?
हम क्या कहें जो गांधी का सम्मान भर नहीं करते हैं बल्कि कमजोर कदमों से ही सही, उनकी दिशा में चलने की कोशिश करते हैं? हम कहते हैं कि अश्वेतों का यह विश्व्यापी प्रदर्शन ही गांधी का सबसे बड़ा सम्मान है. दुनिया भर से महात्मा गांधी की तमाम मूर्तियां हटा दी जाएं और दुनिया भर में अश्वेतों, श्रमिकों, मजलूमों को अधिकार व सम्मान दिया जाए तो यह सौदा हमें सहर्ष मंजूर है. और अमरीका को माफी मांगनी ही हो तो अपनी अश्वेत आबादी से मांगनी चाहिए जिसके जान-माल की रक्षा में वह असमर्थ साबित होता आया है.
मुझे याद आता है कि जब भारत के महान समाजवादी नेता अश्वेत डॉ. राममनोहर लोहिया को अमरीका के उस होटल में प्रवेश से रोक दिया गया था जो श्वेतों के लिए आरक्षित था तो उन्होंने इसे वहीं सत्याग्रह का मुद्दा बनाया था और इसलिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. गिरफ्तारी हुई तो हंगामा हुआ. अमेरिकी सरकार ने जल्दी ही समझ लिया कि यह कोई आम अश्वेत नहीं है. फिर तो वहीं-के-वहीं उनकी रिहाई भी हुई और अमरीकी सरकार ने उनसे माफी भी मांगी. तब भी डॉक्टर साहब ने यही कहा था: मुझसे नहीं, उन अश्वेतों से माफी मांगो जिनका अपमान करते तुम्हें शर्म नहीं आती है.
अमरीका इस कदर कभी लुटा-पिटा नहीं था जैसा वह आज दिखाई दे रहा है. कोरोना की आंधी में उसका छप्पर ही सबसे पहले और सबसे अधिक उड़ा. वह अपने 1.25 लाख से अधिक नागरिकों को खो चुका है और लाखों संक्रमित नागरिक कतार में लगे हैं. लेकिन ऐसे आंकड़े तो सभी मुल्कों के पास हैं जो बताते हैं कि इस वायरस या विषाणु का कोई इलाज अब तक दुनिया के पास नहीं है.
जो दुनिया के पास नहीं है वह अमरीका के पास हो, यह न तो संभव है, न अपेक्षित, इसलिए बात इन आंकड़ों की नहीं है.बात इसकी भी नहीं है कि वहां राष्ट्रपति का चुनाव आसन्न है और राष्ट्रपति ट्रंप अपने दोबारा चुने जाने की तिकड़म में लगे हैं. जिनके पेट में देश-सेवा का दर्द रह-रह कर उठता ही रहता है वैसे सारे सेवक, सारे संसार में ऐसी ही तिकड़म करने में लगे हैं, तो अकेले राष्ट्रपति ट्रंप को क्या कहें!
तो बात तिकड़म की भी नहीं है. बात है आग में धू-धू कर जलते-लुटते अमरीका की. 25 मई 2020 को एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने, 46 साल के एक अश्वेत जॉर्ज फ्लायड की बेरहम, अकारण हत्या कर दी-खुलेआम सड़क पर गला दबा कर. वह गुहार लगाता रहा कि ‘मुझे छोड़ो, मेरा दम घुट रहा है’ लेकिन उस पुलिस अधिकारी ने उसे खुली सड़क पर गिरा कर, अपने घुटनों से उसका गला करीब 9 मिनटों तक दबाए रखा- तब तक, जब तक वह दम तोड़ नहीं गया.
अश्वेतों के दमन-दलन का न यह पहला मामला था, न आखिरी है. एक आंकड़े को देखें हम तो पता चलता है कि अमरीका में हर साल श्वेत पुलिस के हाथों 100 अश्वेत मारे जाते हैं. अमरीकी पुलिस को अमरीका की सर्वोच्च अदालत ने यह छूट-सी दे रखी है कि वह नागरिकों को काबू में रखने के लिए कुछ भी कर सकती है, यहां तक कि उनकी जान भी ले सकती है. पुलिस की ऐसी काररवाइयां अदालती समीक्षा से बाहर रहती हैं. लेकिन इस बार अमरीका इस हत्या को चुपचाप सह नहीं सका. वह चीखा भी, चिल्लाया भी और फिर आगजनी और लूट-पाट के रास्ते पर चल पड़ा. उसने बता दिया है कि श्वेत अमरीका बदले, अदालती रवैया बदले, पुलिस बदले और समाज नई करवट ले. यह सब हो नहीं तो अब सहना संभव नहीं है.
60 के दशक में गांधी की अहिंसा की दृष्टि ले कर जब मार्टिन लूथर किंग अमरीका की सड़कों पर लाखों-लाख अश्वेतों के साथ उतरे थे तब भी ऐसा ही जलजला हुआ था. लेकिन तब गांधी थे, सो न आग लगी थी, न लूटपाट हुई थी. उसके बाद यह पहला मौका है जब अश्वेत अमरीका इस तरह उबला है. यह हिंसक तो जरूर है लेकिन गहरी पीड़ा में से पैदा हुआ है.
हम यह भी देख रहे हैं कि शनै-शनै प्रदर्शन शांतिपूर्ण होते जा रहे हैं. यह भी हमारी नजरों से ओझल नहीं होना चाहिए कि इस बार बड़ी संख्या में श्वेत अमरीकी, एशियाई मूल के लोग भी इसमें शरीक हैं. हर तरह के लोग इनके साथ अपनी सहानुभूति जोड़ रहे हैं. हम हिंसा की इस ज्वाला के आगे घुटने टेक कर माफी मांगते अमरीकी पुलिस अधिकारियों को भी देख रहे हैं और यह भी देख रहे हैं कि जब व्हाइट हाउस के सामने अश्वेत क्रोध फूटा तोबड़बोले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति भवन के भीतर बने तहखाने में जा छिपे.
गांधी होते तो क्या कहते?कहते कि पीड़ा सच्ची है, रास्ता गलत है. रास्ता यह है कि वह नया अमरीका सामने आए जो श्वेत-अश्वेत में विभाजित नहीं है भले अब तक कुछ दूर-दूर रहा है. वह नया अमरीका जोर से बोले, तेज कदमों से चले और समाज-प्रशासन में अपनी पक्की जगह बनाए.
पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ऐसी कुछ शुरुआत की थी. उन सूत्रों को पकड़ने और आगे ले जाने की जरूरत है. कोरोना ने भी एक मौका बना दिया है कि अब पुरानी दुनिया नहीं चलेगी. तो नई दुनिया को कोरोना-मुक्ति भी चाहिए और मानसिक कोरोना से भी मुक्ति चाहिए. और तब यह भी याद रखें हम कि ऐसी मुक्ति सिर्फ अमरीका को नहीं, हम सबको चाहिए.
Also Read
-
Hafta 483: Prajwal Revanna controversy, Modi’s speeches, Bihar politics
-
Can Amit Shah win with a margin of 10 lakh votes in Gandhinagar?
-
Know Your Turncoats, Part 10: Kin of MP who died by suicide, Sanskrit activist
-
In Assam, a battered road leads to border Gorkha village with little to survive on
-
TV Newsance 251: TV media’s silence on Revanna ‘sex abuse’ case, Modi’s News18 interview