Newslaundry Hindi
‘जंग तो खुद ही एक मसला है, जंग क्या मसअलों का हल देगी’
भारत और चीन के बीच सीमा-विवाद एक बार फिर सुर्खियों में है. भारत के 20 सिपाहियों की मौत हुई है. चीन और पाकिस्तान हमारे दुश्मन देश हैं- बचपन से हम सब यह पढ़ते-सुनते आए हैं. क्या हमें चीन को मुंहतोड़ जवाब नहीं देना चाहिए? एक ओर सत्ता के गलियारों में पक्ष-विपक्ष की राजनीति की सरगर्मी और आम लोगों में देशभक्ति का उफान दूसरी ओर. जब भी दो देशों में जंग जैसे हालात उभरते हैं, हमेशा यही होता है.
पहले राजा के प्रति नमकहलाली होती थी और अब नक्शे में बनी लकीरों के साथ बचपन से पढ़े नारे- जननी जन्भूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी. देश की सुरक्षा के लिए फौज-लश्कर चाहिए, सरहद पर फौजें तैनात रहती हैं, दोनों ओर से बीच-बीच में कुछ फौजी मारे जाते हैं. हर मुल्क अपने मृत सैनिकों को शहीद और दूसरी ओर मरने वालों को मारे गए दुश्मन कहता है. जो मर जाता है वह लौट कर नहीं आता, बच्चे अनाथ हो जाते हैं.चाहे सरकार कितना भी पैसा परिवार वालों को दे दे, परिवार की तकलीफ कभी कम नहीं होती. मरने के बाद इंसान का कोई मुल्क नहीं होता.
कभी तनाव बढ़ने की वजह एक या दूसरे मुल्क द्वारा सरहद के पास सड़क बनाने जैसी बात होती है. क्या सरहदी इलाकों में रहने वालों को, डोकलाम, लद्दाख या जम्मू-पंजाब से राजस्थान-गुजरात तक की सरहद के पास, सड़कें नहीं चाहिए? वहां अस्पताल, बच्चों के स्कूल नहीं होने चाहिए? धरती के जिन इलाकों में हिन्द-चीन की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ी जंगें लड़ी गई हैं, मसलन फ्रांस-जर्मनी जैसे मुल्कों के बीच सदियों तक जंगें लड़ी गईं और बीसवीं सदी में करोड़ों जानें गई, वहां लोगों ने सरहदें हमेशा के लिए खोल दी हैं.
कोरोना लॉकडाउन के दौरान रोचक कहानियां सामने आईं कि कैसे सरहद के दो ओर रहने वाले परिवारों के क़रीबी लोग सरहद पर मेज लगाकर चाय-पानी पीते रहे. 75 साल पहले करोड़ों का कब्रगाह बने यूरोप में एक मुल्क से दूसरे मुल्क में जाते हुए अक्सर पता नहीं चलता कि हम दूसरे देश में आ गए हैं. फिर हमारे मुल्कों में ऐसा क्यों है, कि बचपन से हर किसी के ज़हन में ज़हर उड़ेला जाता है कि सरहद के उस पार दुश्मन है.
आखिर वह दुश्मन कौन है? क्या एक चीनी यह नहीं जानता कि औसत हिंदुस्तानी भी एक इंसान है, उसका भी अपना घर-परिवार है, वह चाहता है कि उसके बच्चे पढ़-लिख कर सुखी हों. यही सवाल किसी हिंदुस्तानी के बारे में पूछा जा सकता है कि वह औसत पाकिस्तानी और चीनी के बारे में क्या सोचता है. दरअसल दोनों ओर लोग समझते हैं कि इंसान हर जगह एक जैसा है. पर देशभक्ति के नाम पर दोनों ओर ज़हर फैलाया जाता है.चारों ओर जंग का शोर. दुश्मन को मजा चखा दो. एक बार अच्छी तरह उनको सबक सिखाना है. हर जंग में ऐसी ही बातें होती हैं.
एक जंग खत्म होती है, कुछ वर्ष बाद फिर कोई जंग छिड़ती है. तो क्या दुश्मन कभी सबक नहीं सीखता! भारत और पाकिस्तान के हुक्मरानों ने पिछले पचपन बरसों में चार ब़ड़ी जंगें लड़ीं. 1962 में चीन के साथ बड़ी जंग हुई. इन जंगों में कौन मरा? क्या वरिष्ठ अधिकारी मरे? क्या तानाशाह मरे? नहीं, जंगों में मौतें राजनीति और शासन में ऊंची जगहों पर बैठे लोगों की नहीं, बल्कि आम सिपाहियों और साधारण लोगों की होती हैं क्या यह बात हर कोई जानता नहीं है? ऐसा ही है, लोग जानते हैं, फिर भी जंग का जुनून उनके सिर पर चढ़ता है.
लोगों को हाकिमों की बातें ठीक लगती हैं; वे अपने हितों को भूल कर जो भी सत्ताधारी कहते हैं, वह मानने को तैयार हो जाते हैं. ऐसे मुल्कों में लोकतंत्र पर सवाल उठना चाहिए, जहां ऐसी जंगें लड़ी जाती हैं. हिटलर या ओसामा के खिलाफ जंग लड़ना एक बात है और हिंद-पाक या हिंद-चीन की जंग एक और बात है! हिटलर और बिन लादेन के लिए नस्लवाद और धर्मयुद्ध के सिद्धांत सामने थे. हमारे मुल्कों के बीच विवाद सरहद का मसला है.
कम से कम सतही तौर पर भारत, पाकिस्तान और चीन किसी नस्लवादी या धर्मयुद्ध जैसे राह पर नहीं हैं. हालांकि सांप्रदायिक हिंदुत्ववाद, इस्लामी कट्टररपंथ और साम्राज्यवादी सोच से इन देशों के शासक मुक्त हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ दशकों में दुनिया के कई मुल्क टूटे; कई आर्थिक संबंधों में सुधारों के जरिए बहुत करीब हुए. रूस का विभाजन हुआ, चेकोस्लोवाकिया टूटा, दूसरी ओर यूरोपीय संघ बना. यूरोप के क़रीब बीस देशों के बीच संधि के अनुसार उनकी सरहदें खुल गईं.
ऐसे में हमारे मुल्कों की सरहद को लेकर अड़े रहने की रट बेमानी है. आम लोगों को इसकी बेहिसाब कीमत चुकानी पड़ी है. भारत के राष्ट्रीय बजट का एक चौथाई सुरक्षा खाते में जाता है. हजारों वर्ग किलोमीटर की उपजाऊ जमीन अधिकतर बेकार पड़ी रहती है. सीमा पर यातायात, व्यापार, सब कुछ ठप्प है या धीमा है. विश्व-व्यापार की बदलती परिस्थितियों में यह स्थिति सोचनीय है. मानव विकास के आंकड़ों में विश्व के दो-तिहाई देशों से पीछे खड़े ये मुल्क अरबों खर्च कर आयातित तकनीकी से नाभिकीय विस्फोट करते हैं और मारक शस्त्र बनाने वाले मुल्कों को धन भेजते रहते हैं.
सोचा जाए तो विकल्प कई हैं पर क्या ये शासक आपस में बात करेंगे? क्या ये लोगों को समाधान स्वीकार करने के लिए तैयार करेंगे? क्या राजनैतिक पार्टियां सत्ता पाने के लिए आम लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ रोकेंगीं? तकलीफ यह भी है कि हमारे समझदार तरक्कीपसंद लोग भी इन मामलों में या तो संकीर्ण सोच परोसने लगते हैं या चुप्पी साध लेते हैं. होना यह चाहिए कि हर मुल्क के समझदार लोग दूसरे पक्ष की बातों को आम लोगों तक लाएं ताकि आपसी समझ बढ़े.
सोशल मीडिया पर लोग एक दूसरे के साथ अमन की बात करें. पर तनाव के माहौल में हर कोई सीना चौड़ा कर दिखलाने लगता है, जैसे कि यह कोई पवित्र कारनामा हो.भारत-पाकिस्तान-चीन के आम आदमी को देर-सबेर यह समझना होगा कि बड़ी ज़मीन से देश बड़ा नहीं होता है. जंगखोरी किसी भी मुल्क की तबाही की गारंटी है. हमारे संसाधन सीमित हैं. देश की बुनियादी समस्याओं के मद्देनजर दुनिया के और मुल्कों की तरह हमें भी कुछ तकलीफदेह निर्णय लेने होंगे. हमें बातचीत के जरिए झगड़े निपटाने होंगे. इसमें जितनी देर होगी, उसमें हमारी ही हार है.
जहां तक जंग का सवाल है, अनगिनत विचारकों ने यह लिखा है कि `सीमित युद्ध' या `लिमिटेड वार' नाम की कोई चीज अब नहीं है. मुल्कों के पास नाभिकीय शस्त्र हैं. कट्टरपंथ और असहिष्णुता है. अगर जंग छिड़ती है तो करोड़ों लोगों को जानमाल का गंभीर खतरा है और इस बंदरबांट में अरबों रूपयों के शस्त्र और जंगी जहाज बेचनेवाले मुल्कों को लाभ है.
इस लेख का शीर्षक साहिर लुधियानवी की नज़्म की लाइनें हैं, जो उन्होंने जंग के खिलाफ लिखी थीं. प्रसिद्ध अमेरिकी कथाकार रे ब्रेडबरी ने 1949 में नाभिकीय युद्ध के बाद के हालात पर एक कहानी लिखी थी, जिसमें सेरा टीसडेल की ये पंक्तियां शामिल हैं: "हल्की फुहारें आएंगी और जमीं की महक होगी/ और चिंचियाती चकरातीं चिड़ियाएं होंगी...कोई नहीं जानेगा जंग के बारे में कोई नहीं सोचेगा जब जंग खत्म हो चुकी होगी, किसी को फ़र्क नहीं पड़ेगा, न चिड़िया, न पेड़ों को,जब आदम जात तबाह हो चुकी होगी और जब सुबह पौ फटेगी हमारे न होने से अंजान खुद बहार आएगी."
अगस्त 2026 की कल्पना में रची इस कथा में सिर्फ एक कुत्ता ज़िंदा है. इंसान की बची हुई पहचान उसकी छायाएं हैं जो विकिरण से जली हुई दीवारों पर उभर गई हैं. बाकी उस की कृतियां हैं- पिकासो और मातीस की पेंटिंग जिन्हें आखिरकार आग की लपटें भस्म कर देती हैं. अंत में कुत्ते की मौत के साथ इंसान की पहचान भी विलुप्त हो जाती है. नाभिकीय शस्त्रों का इस्तेमाल ऐसी कल्पनाएं पैदा कर सकता है. वास्तविकता कल्पना से कहीं ज्यादा भयावह है.नाभिकीय या ऐटमी युद्ध की जो क्षमता हमारे पास है, उसकी तुलना में हिरोशिमा नागासाकी पर डाले एटम बम पटाखों जैसे हैं.
मौत के सौदागरों पर किसको भरोसा हो सकता है? जो राष्ट्रभक्ति या धर्म के नाम पर दस लोगों की हत्या कर सकते हैं, वे दस लाख लोगों को मारने के पहले कितना सोचेंगे, कहना मुश्किल है. आज सीना चौड़ा कर निर्णायक युद्ध और मुंहतोड़ जवाब की घोषणा करने वालों के कूच करने के बाद की दसों पीढ़ियों तक विनाश की यंत्रणा रहेगी. लिमिटेड वार की जगह हमें आलआउट यानी पूर्णतः नाभिकीय युद्ध ही झेलना पड़ेगा.इसलिए सरहद पर तनाव के बारे में हर समझदार व्यक्ति को गंभीरता से सोचना होगा.
मीडिया की जिम्मेदारी इस बार पहले से कहीं ज्यादा है. आम लोगों को भड़काना आसान है. ब्रैडबरी की अगस्त 2026 की कल्पना को साकार करना भी हमारे हाथों में है, जब हम न होंगे, बहार होगी, फुहारें होंगी. यह एक विकल्प है. जंगखोरों के पास समस्या का यही एक हल है. क्या यही विकल्प हम चाहते हैं? नहीं, सीमा के दोनों ओर लोग शांति चाहते हैं.देश की मिट्टी, हवा पानी से हम सबको प्यार है. वतन के नाम पर हम मर मिटने को तैयार हो जाते हैं. इस भावनात्मक जाल से लोगों को राजनेताओं ने नहीं निकालना. यह काम हर सचेत व्यक्ति को करना है.
हर मुल्क में सभ्य समाज का नारा दे रहे कुछ लोग जंग के विरोध में खड़े हए हैं, वे चीन-पाकिस्तान-हिंदुस्तान हर जगह हैं. हमारी चिंता सारी धरती को लेकर है. आज यह पूरा ग्रह संकट में है. औसत तापमान में बढ़त, ओज़ोन की परत में छेद और कोरोना के बारे में सब जानते हैं. पर इनके साथ ही, कई और संकट हैं. मसलन मिट्टी में नाइट्रोजन और फॉस्फोरस का संतुलन बिगड़ गया है. कई इलाकों में पीने का पानी नहीं मिलता. कई पंछी और दीगर जानवर विलुप्त हो गए हैं, आदि.
धरती पर बस रहे सब को इन संकटों से एक साथ निपटना होगा. अगर मुल्कों में आपसी मतभेद बातचीत से नहीं सुलझते तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को आगे आकर इनका हल ढूंढ़ना होगा. यह धरती नाजुक मोड़ पर है. यह बात हम सब को समझनी है. हम शिक्षा, रोजगार और स्वस्थ जीवन चाहते हैं. इसलिए जंग के खिलाफ हम खड़े होंगे. हमारे लोगों को भी यह हक मिले कि वे सुरक्षित जीवन बिता सकें और अपने बच्चों को पढ़ते-लिखते और खेलते देख सकें- जंग विरोधी मुहिम में यह भी हमें कहना है. जंग नही; जंग नहीं- आइए हाथ उठाएं हम भी! और साहिर के साथ पढ़ें- इसलिए ऐ शरीफ़ इंसानों, जंग टलती रहे तो बेहतर है, आप और हम सभी के आँगन में, शमा जलती रहे तो बेहतर है.
Also Read
-
TV Newsance 305: Sudhir wants unity, Anjana talks jobs – what’s going on in Godi land?
-
What Bihar voter roll row reveals about journalism and India
-
India’s real war with Pak is about an idea. It can’t let trolls drive the narrative
-
Reporters Without Orders Ep 376: A law weaponised to target Gujarat’s Muslims, and a family’s fight against police excess in Mumbai
-
बिहार वोटर लिस्ट रिवीजन: सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और सांसद मनोज झा के साथ विशेष बातचीत