Newslaundry Hindi
PUBG से लेकर FAU-G तक: आभासी वीडियो गेम में लड़ा जा रहा हैं असली युद्ध
2014 का वही साल, जब सृष्टि का आरम्भ हुआ. आयरलैंड के महज आठ हज़ार की आबादी वाले किल्डेयर कस्बे में बेरोजगारों को मिलने वाले सरकारी भत्ते पर गुजारा करने वाले ब्रेंडन ग्रीन तब 38 साल के थे और अपना सारा समय अपने पसंदीदा कम्प्यूटर गेम पर खर्च कर देते थे. उन्हें तब कहां अंदाजा रहा होगा कि कुछ ही वर्षों में उनके बनाये गेम पर हज़ारों किलोमीटर दूर भारत और चीन के बीच असली रस्साकशी छिड़ जाएगी. वैसे, ब्रेंडन को तब तो यह भी नहीं पता था कि वे सचमुच एक वीडियो गेम बनाएंगे जो दुनिया में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय और सर्वाधिक पैसा कमाने वाले गेमों में से एक बन जाएगा. ब्रेंडन को गेम बनाने की तकनीक तब ठीक से नहीं आती थी, बस वीडियो गेम खेलने का पैशन था. उन्हें कम्प्यूटर कोडिंग मालूम थी, वे वेब डिज़ाइनर और फ़ोटोग्राफ़र थे और पबों-पार्टियों में डीजे का काम भी किया करते थे.
उस वक्त शुरू हुई पब-जी की यह कहानी, एक खास वीडियो गेम के पॉपुलर होने और फिर कई देशों में बैन होने भर की कहानी नहीं है. यह पिछले एक दशक में कम्प्यूटर तकनीकी और सोशल मीडिया की अकल्पनीय तेज-रफ़्तार प्रगति और उससे लोगों की जिंदगियों, सामाजिक-आर्थिक ढाँचे और राजनीतिक ताने-बाने में हुए उन बदलावों की कहानी है जिसका सरोकार हम सबसे है. यह ग्लोबलाइजेशन के उत्तरार्द्ध का हमारे सामने घट रहा इतिहास है जहां दुनिया अब नब्बे के दशक की तरह सपाट नहीं है बल्कि विभिन्न राष्ट्र-राज्यों व उनके आईने में पूरी तरह फिट न हो पाने वाले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, टेक्नोलॉजी और ऑनलाइन मीडिया के बीच प्रभुसत्ता की नये तरह की जद्दोजहद है.
यह कहानी विज्ञान और तकनीक के द्वारा पेश सार्वभौम संभावनाओं तथा सामाजिक व राष्ट्रीय जीवन में मौजूद उन पहचानों की टकराहटों की भी है, जिन्हें अलग-अलग राजनीतिक ताकतें अपने सन्दर्भों में ढालने में जुटी हैं. यह हाइपर-रियलिटी के दौर में अलग-अलग सन्दर्भों वाले सांस्कृतिक पाठों के तकनीकी पुनरुत्पादन से पैदा हुई बोधात्मक अस्थिरता (fluidity) का भी दिलचस्प किस्सा है.
मिलिटरी गोलीबारी पर आधारित ‘आर्मा-2’ नाम के गेम में ब्रेंडन ग्रीन ने अपना ट्विस्ट मिलाया, व्यक्तिगत जीवट और सर्वाइवल पर केन्द्रित एक उपकथा तैयार की जिसके लिए अलग से एक बैटलग्राउण्ड भी डिज़ाइन किया. कॉपीराइट उल्लंघन के जंजाल से बचने के लिए उन्होंने अपने जानकारों और ऑनलाइन दोस्तों को मुफ्त में ही यह ‘मॉड’ (शौकिया गेम कोडर अपने इन मॉडिफाइड गेमों को मॉड बुलाते हैं) उपलब्ध कराया जिसके चर्चे जल्दी ही उनके अपने दायरे के बाहर जा पहुंचे. ब्रेंडन ने इस मॉड का मूल आइडिया साल 2000 में रिलीज़ हुई जापानी फिल्म ‘बैटल रोयाल’ से लिया था जिसमें नवीं कक्षा के 42 विद्यार्थी सीमित संसाधनों के साथ एक टापू पर पहुंचते हैं और अपनी जान बचाने के लिए अधिनायकवादी सरकार और एक-दूसरे से लड़ते हुए किसी कीमत पर ज़िंदा बचने की कोशिश करते हैं. इसी कॉन्सेप्ट पर हालांकि हॉलीवुड ने बाद में ‘हंगर गेम्स’ नाम की बेहद लोकप्रिय फिल्म-सीरीज़ बनायी, लेकिन क्वेंटिन टैरेंटीनो जैसे नामचीन फिल्मकार जापानी फिल्म को ही इस शैली के लिए मील का पत्थर मानते हैं.
बैटल रोयाल’ फिल्म खुद इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी, जिसे 1999 में कोशुन ताकामी ने लिखा था. ‘बैटल रोयाल’ को यह बात इससे पहले के युद्ध-केन्द्रित कथानकों से अलग करती है कि इसमें लड़ाई का मकसद किसी राष्ट्र या विचारधारा की विजय नहीं, विशुद्ध रूप से खुद को ज़िंदा बचाये रखना है और इसके लिए हर रणनीति के इस्तेमाल की छूट है. इस अर्थ में, एक तरफ जहां यह गेम सुदूर अतीत के ग्लेडिएटरों और प्राकृतिक शक्तियों से खुद को बचाये रखने की आदिम स्मृतियों और मनोभावों से जुड़ता है, वहीं अपने सारे काल्पनिक वेशभूषा व हथियारों और एनिमेटेड तामझाम के बावजूद पब-जी का प्लेयर नव-उदारवादी व्यवस्था में जी रहा वह इंसान है जिसके लिए बेलगाम बाज़ार के आर्थिक थपेड़ों से जूझने के लिए सिर्फ अपनी जिजीविषा का ही सहारा है, सरकार और समाज से मिलने वाली सुरक्षाएं काफूर हो चुकी हैं.
पब-जी की चौतरफा लोकप्रियता का कारण कई गंभीर सांस्कृतिक विश्लेषकों ने असल ज़िंदगी की इन्हीं असुरक्षाओं में ढूंढा है. स्लावोय ज़िज़ेक इन गेमों को एक नये तरह के कर्ताभाव (subjectivity) के पैदा होने के रूप में देखते हैं – आप गेमों में मर कर बार-बार फिर से ज़िंदा हो सकते हैं और नये रूप अपना सकते हैं. वैसे ही, जैसे अब वास्तविक ज़िंदगी में नई नौकरियों और कैरियरों का आना-जाना लगा रहता है. सरकारी नीतियों और सामाजिक संस्थाओं के भी अब वर्जन 1.0 और 2.0 होने लगे हैं. फिल्मों या अन्य किसी भी मास-प्रोड्यूस्ड सांस्कृतिक उत्पाद के बजाय गेम सबसे अधिक इंटरऐक्टिव होते हैं, इसलिए इनके अन्दर प्लेयर्स को अपनी सक्रिय मौजूदगी का अहसास मिलता है जो प्रायः गेमों की लत पड़ जाने का कारण बनता है.
निरंतर जारी जीवनयुद्ध का यह कथासूत्र गेम उद्योग के अपने तर्कों के भी अनुरूप साबित हुआ जिसकी ख्वाहिश हरेक इंसान को वीडियो गेम के स्वायत्त उपभोक्ता में तब्दील कर देने की थी और भारी-भरकम रणनीतिक दांवपेंच वाले पुराने कथानक इस काम के लिए मुफ़ीद नहीं थे. बैटल रोयाल जल्दी ही वीडियो गेमों के लिए एक लोकप्रिय शैली (genre) साबित हुआ और पब-जी के अलावा फोर्टनाइट, एपेक्स, कॉल ऑफ ड्यूटी सरीखे गेमों के माध्यम से सोनी, टेनसेंट, वार्नर ब्रदर्स, निन्तेंदो, एप्पल, इलेक्ट्रोनिक्स आर्ट्स और माइक्रोसॉफ्ट जैसी विशाल कंपनियों ने भी इस ट्रेंड को भुनाया है. इस शैली के गेम का मूल लॉजिक बहुत सरल है इसलिए इसने कम्प्यूटर गेम को पारंपरिक सुविधा-संपन्न गेम-प्रेमियों के दायरे से निकाल कर सबके लिए सुलभ बना दिया है. इसके पहले इतनी सहजता कैंडी क्रश, लेगो, टेम्पल रन और मारियो जैसे गेमों को ही हासिल हुई थी.
गेम इंडस्ट्री की यह चौतरफा वृद्धि इस दौर में इंटरनेट की पहुंच और रफ़्तार में आयी अभूतपूर्व तेजी के बिना संभव नहीं थी. ऑनलाइन गेमों और सोशल मीडिया के एक साथ आने से इस शगल को एक पर्सनल टच भी मिला है, जिसमें प्लेयर अपने फेसबुक दोस्तों के साथ पब-जी जैसे गेम खेल सकते हैं या फिर एक साथ गेम खेलने वालों से व्यक्तिगत मित्रता भी कायम कर सकते हैं. पब-जी का भारत से जुड़ा पूरा मामला ही सस्ते में उपलब्ध मोबाइल फ़ोनों, 4G इंटरनेट और तेजी से फैलते सोशल मीडिया जगत पर राजनीति की नयी करवटों का नतीजा है.
ब्रेंडन ग्रीन खुद के बनाये मॉड में अपने लिए आभासी नाम ‘PlayerUnknown’ रखते थे और इसी से बाद में चलकर उनके गेम का नाम ‘PUBG’ पड़ा – Player Unknown’s Battle Grounds. इस मॉड में सबसे पहले दक्षिण कोरिया की कंपनी ब्लूहोल ने रुचि दिखायी और 2016 में ग्रीन को अपने मुख्यालय में बुलाकर उन्हें इसके विस्तार के लिए अपनी तकनीकी और मार्केटिंग का नेटवर्क मुहैया कराया. ब्लूहोल ने पब-जी कॉर्पोरेशन नाम की एक अलग सब्सिडियरी कंपनी स्थापित की और पब-जी देखते-देखते इतना लोकप्रिय हुआ कि उसे 2017 में ‘गेम ऑफ़ द इयर’ का ग्लोबल ख़िताब मिला. यह पब-जी का कम्प्यूटर युग था, जब सोनी के प्ले-स्टेशन, माइक्रोसॉफ्ट के एक्स-बॉक्स और पीसी-आधारित स्टीम प्लेटफॉर्म पर पब-जी खूब खेला गया.
पूरी दुनिया में धूम मचाने के बाद भी इस गेम को चीन में दाखिला मिलने में बहुत दिक्कत हुई क्योंकि चीन की सरकार ने इसे साम्यवादी उसूलों के प्रतिकूल घोषित किया. तर्क यह था कि इस गेम में खून-खराबा और व्यक्तिवाद बहुत है. पब-जी पर चीन की यह सेंसरशिप 2017 के आखिर में तब ख़त्म हुई जब पब-जी ने चीन की भीमकाय गेम कंपनी टेनसेंट से पार्टनरशिप करने और अपने गेम में कई बदलाव करने की शर्तें मान लीं. एक समय में चीन से बेदखल रहा यह गेम आज भारत के मौजूदा निजाम के लिए चीन से बदला लेने का सबब बन गया है, यह भी कम दिलचस्प नहीं है.
असल में चीन ने इस खेल में मार्च 2018 में दखल बनायी, जब पब-जी का मोबाइल संस्करण लॉन्च हुआ. ‘पब-जी मोबाइल’ के सारे अधिकार चीनी कंपनी टेनसेंट के हिस्से में आते हैं, जिसके वर्ष 2020 तक दुनिया में कुल 73.4 करोड़ डाउनलोड हो चुके हैं जिसमें से 24% या 17.5 करोड़ सिर्फ भारत में हैं. इसमें जुलाई 2019 में रिलीज़ हुआ पब-जी मोबाइल का ‘लाइट’ संस्करण भी शामिल है जिसे 4-5 हज़ार रुपये कीमत वाले कम प्रोसेसिंग क्षमता वाले मोबाइल फ़ोनों पर भी चलाया जा सकता है. पब-जी मोबाइल के भारत में चढ़ते जूनून का यह वही दौर था जब ‘परीक्षा पर चर्चा’ के दौरान एक चिंतित माँ से नरेंद्र मोदी ने पूछा था, “ये पब-जी वाला है क्या?”
इस दौरान हिन्दुस्तान के कई शहरों में पब-जी की थीम वाले रेस्टोरेंट खुले, पब-जी की टीमों के करोड़ों रुपये के पुरस्कारों वाले मैच इंडिया टुडे जैसे समूहों ने कराये, लोगों ने शादियों में पब-जी वाली सजावट इस्तेमाल की, स्कूलों-कॉलेजों के छात्रों ने पब-जी से पैसे भी कमाये और सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी फिल्म ‘उरी’ के लिए भी पब-जी गेमिंग का सहारा लिया गया. जल्दी ही पब-जी मोबाइल दुनिया में सबसे ज़्यादा पैसे कमाने वाला मोबाइल गेम बन गया.
इस गेम का कम्प्यूटर संस्करण अब भी कोरिया की कंपनी बनाती है, जिस पर आज भी भारत में बैन नहीं है. ये बात अलग है कि वह पब-जी गेम ज़्यादातर भारतीयों की पहुंच से बाहर है क्योंकि उसका सॉफ्टवेयर खरीदने के लिए हज़ार रुपये खर्च करने पड़ते हैं. साथ ही, चूंकि पीसी वर्जन में ग्राफिक्स इत्यादि उच्च क्वालिटी के हैं, आपको अपने कम्प्यूटर पर पब-जी खेलने के लिए कम-से-कम आठ जीबी रैम वाला गेमिंग लैपटॉप लेना पड़ेगा जिसकी कीमत भारत में अस्सी हज़ार रुपये के आसपास है. पब-जी को लेकर भारत में चल रहे आख्यान का एक आयाम यह भी है कि देश में आइटी क्रान्ति के तमाम दावों के बावजूद अधिकांश भारतीय इंटरनेट की दुनिया में दोयम दर्जे की उपस्थिति रखते हैं.
बहरहाल, अब भारत में पब-जी पर लगे बैन और देश में गेमिंग को लेकर चल रहे राजनीतिक खेल के मुद्दे पर आते हैं. देश की संप्रभुता और सुरक्षा का हवाला देकर मोदी सरकार ने 118 दूसरे चीनी मोबाइल ऐपों के साथ-साथ पिछले हफ्ते पब-जी को भी प्रतिबंधित कर दिया है. इससे टेनसेंट कंपनी को 42 बिलियन डॉलर का तत्काल नुकसान हुआ बताया जा रहा है और इसके शेयर 2% गिरे हैं. इतना धन यह कंपनी पब-जी खेलने वालों से गेम के अन्दर कवच, हथियार और लाइफ-लाइन जैसी चीजें बेच कर कमाती थी, हालांकि रिटेल और इंश्योरेंस से लेकर आइपीएल तक भारत में टेनसेंट कंपनी के अन्य कई बड़े निवेशों से भारत सरकार को फिलहाल कोई परहेज़ नहीं दिखता.
चीनी ऐपों पर लगे इन प्रतिबंधों से देश की सुरक्षा कितनी मजबूत होती है, यह अभी देखना बाकी है क्योंकि भारत साइबर सिक्योरिटी के मामले में दुनिया में सबसे पिछड़े मुल्कों में शामिल है. रिलायंस के भरोसे डिजिटल इंडिया में आइटी सेवाओं के हो रहे विस्तार में चीन से आयातित हार्डवेयर और तकनीक की केन्द्रीय भूमिका है. दूसरी तरफ, एक कूटनीतिक सन्देश के रूप में चीनी गेम और ऐप बंद करने का कदम कितना कारगर होगा यह बता पाना भी अभी जल्दीबाजी होगी.
एक माध्यम के बतौर भारत में मोबाइल गेमिंग के उभार को गंभीरता से लेते हुए और पॉपुलर संस्कृति के सवालों पर मौजूदा निजाम के रुझान को ध्यान में रखते हुए इस घटनाक्रम के बारे में सोचें, तो इस चर्चा में कुछ रोचक आयाम जुड़ते हैं और कई आशंकाएं उपस्थित होती हैं. यह प्रस्थान बिंदु पिछले एक हफ्ते में भारत में गेमिंग से जुड़ी तीन घटनाओं को एक साथ रखकर विचार करने की मांग करता है– 30 अगस्त को प्रधानसेवक द्वारा ‘मन की बात’ में भारतीय इतिहास से प्रेरित स्वदेशी कम्प्यूटर गेमिंग और खिलौनों की वकालत करना, उसके तीन दिन बाद पब-जी पर पाबन्दी लगना और फिर तुरंत अक्षय कुमार का FAU-G नाम के गेम के जल्दी ही मार्केट में आने की घोषणा करना.
अक्षय कुमार ने उक्त ऐलान आइटी क्षेत्र के अपने एक उद्यमी दोस्त विशाल गोंडल की कंपनी nCore गेम्स की तरफ से किया. अक्षय कुमार इसके पहले विशाल गोंडल से सेहत और फिटनेस की ट्रेकिंग करने वाले गोकी (GoQii) नाम के डिजिटल कलाईबंद या ‘फिटनेस बैंड’ के ब्रांड अम्बैसेडर के बतौर जुड़े रहे हैं. इस ब्रांड को भी नरेंद्र मोदी ने अपने ‘फिट इंडिया’ आह्वान के तहत प्रोमोट किया था और गोकी ने प्रधानमंत्री को भारत के शीर्ष ‘हेल्थ आइकॉन’ में शुमार किया था. GoQii कंपनी अपने ग्राहकों के स्वास्थ्य से जुड़ी संवेदनशील सूचनाओं को लेकर लापरवाही बरतने, अपने ऐप पर चुनिन्दा हेल्थ प्रोडक्ट्स को आगे बढ़ाने और अपने सेहत काउंसिलरों सहित अन्य कर्मचारियों का शोषण करने के लिए विवादों के घेरे में आ चुकी है. विशाल गोंडल ने इसके पहले ‘इंडिया गेम्स’ नाम की एक गेम कंपनी बनाई थी जिसका बड़ा हिस्सा उन्होंने चीनी कंपनी टॉम ऑनलाइन को बेच दिया था.
अपनी शुरुआती घोषणा में अक्षय कुमार ने यह भी बताया कि अक्टूबर के अंत तक रिलीज़ होने वाले Fearless and United Guards (FAU-G) नाम के इस देसी गेम का पहला एपिसोड गलवान घाटी में चीन के साथ हुई मुठभेड़ पर आधारित होगा. इस फौ-जी गेम के साथ जुड़ा देशभक्ति का दावा इस ऐलान के साथ और भी बढ़ जाता है कि इससे हुई कुल कमाई का बीस प्रतिशत ‘भारत के वीर ट्रस्ट’ को जाएगा जिसकी पहल अक्षय कुमार ने 2018 में तब के गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अगुवाई में की थी. उधर नरेन्द्र मोदी ने अपने ट्विटर पर ‘भारत के और भारत पर’ बने मोबाइल गेमों के पक्ष में अपने और कई अन्य लोगों के ट्वीट शेयर किये जिनमें गेम निर्माता और उद्यमी भी शामिल हैं. गेमिंग के भारतीयकरण और देशभक्ति-प्रेरित होने का आज के दौर में क्या अर्थ होने वाला है, जब मौजूदा समय में ऐसी राजनीतिक शक्तियों का वर्चस्व है जिनकी भारतीय और देशभक्त होने के बारे में आज़ादी के आंदोलन के दौर से अब तक चली आ रही रिवायत से अलग अपनी एक परिभाषा है जिसे वे हर कीमत पर दूसरों पर लादना चाहती हैं?
एक माध्यम के बतौर गेम का इस्तेमाल अपने वर्चस्व के लिए इस्तेमाल किया जाना दुनिया में नया नहीं है और अपने राष्ट्रीय जीवन के इस मोड़ पर अन्य देशों के अनुभवों से हमें कई सूत्र मिल सकते हैं. वीडियो गेम के शुरुआती दिनों से ही अमेरिकी सैन्य अधिष्ठान का नैरेटिव हावी रहा है. अमेरिका को एक सदिच्छापूर्ण महान देश के रूप में स्थापित करना और दुनिया भर में इसके दुश्मनों का सफाया करना वीडियो गेम की दुनिया में एक केन्द्रीय थीम रहा है. शीत युद्ध के ज़माने में ‘रेड स्टॉर्म राइजिंग’ और ‘रेड ओवर मॉस्को’ सरीखे गेमों के माध्यम से कम्युनिस्ट दुश्मन का भय आम लोगों में बोया गया और अमेरिका के अन्दर ठीक वही माहौल कायम किया गया जिससे ‘सीमा पर जवान लड़ रहे हैं’ के तर्क से हर अन्य सवाल को बेमानी कर दिया जाए.
कोल्ड वार ख़त्म होने के बाद ‘लोकतंत्र’ के लिए’ और ‘आतंकवाद’ के खिलाफ़ युद्धों का बोलबाला गेम की दुनिया में रहा जिसमें मध्यपूर्व के देश, उत्तर कोरिया, लातिन अमेरिकी देश और रूस को दुश्मन इलाकों के बतौर चिह्नित किया गया और वीडियो गेमों के अन्दर इन पर फतह करना लक्ष्य बनाया गया. ‘कॉल ऑफ ड्यूटी’ तथा ‘मॉडर्न वारफेयर’ जैसे वीडियो गेम इसी दौर की उपज थे जिसमें अमेरिकी सैन्यवाद की विचार-प्रणाली को पॉपुलर कल्चर में पिरोया गया. इन गेमों में अंधाधुंध गोलीबारी और हिंसा के साथ-साथ युद्ध के अंतर्राष्ट्रीय कायदों के अतिक्रमण को भी स्वीकार्य बना दिया गया. उदाहरण के तौर पर, ‘कॉल ऑफ ड्यूटी’ में दुश्मनों के सर पर गोली मारने पर ज़्यादा पॉइंट मिलते हैं. पब-जी में भी दूसरे प्लेयरों को मारने के बाद उनके असलहों और कपड़ों की ‘लूट’ से आपकी ताकत में इज़ाफा होता है.
क्या हिंसा और एक्शन इन कम्प्यूटर गेमों का अनिवार्य हिस्सा है? इस मुद्दे पर गेमर्स और गेम के अध्येताओं का समुदाय बंटा हुआ है. एक धड़े का मानना है कि बटन दबाने की प्रक्रिया का केंद्र में होना गेमों के लिए ‘ऐक्शन’ को ज़रूरी बना देता है और एनिमेटेड स्क्रीन पर तेज-गति का ऐक्शन ही लोगों को बांधे रख सकता है, इसीलिए गेम कंपनियों में हिंसक गेम बनाने की होड़ मची रहती है. अमेरिका में गन-वायलेंस के सन्दर्भ में ऐसे तर्क आम तौर पर दिये जाते हैं.
दूसरी तरफ ऐसे गेमर्स और जानकार भी हैं जो इस माध्यम को ही दोषी साबित करने का विरोध करते हैं और गेम की दुनिया में हिंसा की केन्द्रीयता के लिए असल दुनिया में संघर्ष, गेम इंडस्ट्री के निहित स्वार्थों और राजनीतिक माहौल के दबाव को ध्यान में रखने पर जोर देते हैं. यह धड़ा क्लाइमेट चेंज से लेकर शिक्षा और सामाजिक न्याय की थीमों पर बन रहे गेमों को लेकर आशान्वित है. हिंसा के साथ-साथ सांस्कृतिक छवियाँ गढ़ने के मामले में भी डिजिटल गेमों की दुनिया में तीखी बहसें होती रही हैं.
पश्चिमी देशों में बने वार-गेम्स में ज़्यादातर विलेन और बुरे पात्र मुसलमान, रूसी, मेक्सिकन या चीनी नस्ल के होते हैं. ज़्यादातर गेमों में सारे पात्र सिर्फ स्त्री या पुरुष होते हैं और लैंगिक फ्लुईडिटी के लिए कोई जगह नहीं होती. ऑनलाइन गेमों में रंगभेद भी साफ़ नज़र आता है. गेम को साथ-साथ खेलने और लाइव स्ट्रीम साझा करने वाले ऑनलाइन समूहों में भी गाली-गालौज और हेट-स्पीच की भरमार पायी जाती है. ऐसे में, क्या कम्प्यूटर गेम में पहले से जारी हिंसा, सैन्यवाद और इस्लामोफोबिया को भारत में साम्प्रदायिक नफ़रत का रंग मिलाकर देशभक्ति और इतिहास-प्रेम के नाम पर परोसने की तैयारी है?
पब-जी का एक मजबूत पक्ष यह रहा है कि इसमें दुश्मन कोई ‘अन्य’ देश, नस्ल, धर्म या विचारधारा नहीं है. शुद्ध देसी कथानक और बेहतरीन ग्राफिक्स के साथ कुछ साल पहले शाहरुख खान ने ‘रा-वन’ गेम प्रस्तुत किया था जो अपनी अंतर्वस्तु में बेहद सकारात्मक था. लेकिन युद्ध और इतिहास को केंद्र में रखकर अभी बनाये जा रहे गेमों में ज़ाहिर है ऐसा नहीं होगा और इसके साथ ही देश के अन्दर भी असहमति रखने वालों को राष्ट्रद्रोही बताने का जो चलन आजकल है, उसका ज़हर इस तरह की गेमिंग से और अधिक फैलेगा.
दक्षिणपंथ की सक्रिय भागीदारी और समर्थन से बन रही मौजूदा दौर की फिल्मों में जैसे इतिहास के हर दौर को हिन्दू-मुस्लिम टकराहट की दास्तानों में रिड्यूस किया जा रहा है, कुछ वैसा ही वैचारिक प्रोपगंडा हमें आने वाले दिनों में डिजिटल गेमों में भी दिख सकता है. ‘मन की बात’ के एकालाप में देसी गेमों और खिलौनों के पक्ष में रवीन्द्रनाथ टैगोर का उद्धरण परोसा गया लेकिन इस बात से कोई मतलब नहीं है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद की संकीर्णता का पुरजोर विरोध किया था और उसके खतरों से चेताया था. खेल के मैदान और गेम के मनोरंजन को नफ़रती विचारों से दूषित करने के प्रति हमें सतर्क रहना होगा. इसके लिए सोशल मीडिया और डिजिटल गेमों जैसे माध्यमों का महत्त्व समझना भी ज़रूरी है.
भारत के लिबरल-वामपंथी हलकों में ऑनलाइन मीडिया के इस्तेमाल को लेकर हिचक और कभी-कभी हिकारत तक देखी जाती है लेकिन दक्षिणपंथ ने आधुनिकता और वैज्ञानिक चेतना के विरोध के बावजूद अपने हितों के लिए तकनीक का भरपूर इस्तेमाल किया है. मोदी ने आह्वान किया है – ‘लेट द गेम्स बिगिन!’ क्या दूसरा पक्ष इसके लिए तैयार है?
( लेखक DiaNuke.org के सम्पादक हैं. साभार-जनपथ)
Also Read
-
‘Pralhad Joshi using Neha’s murder for poll gain’: Lingayat seer Dingaleshwar Swami
-
Corruption woes and CPIM-Congress alliance: The TMC’s hard road in Murshidabad
-
Is the Nitish factor dying down in BJP’s battle for Bihar?
-
Presenting NewsAble: The Newslaundry website and app are now accessible
-
Know Your Turncoats, Part 10: Kin of MP who died by suicide, Sanskrit activist