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अपराध रिपोर्टिंग पार्ट 2: क्या अपराध रिपोर्टिंग की कोई एथिक्स नहीं होनी चाहिए?

इस पूरे प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या अपराध रिपोर्टिंग की कोई एथिक्स नहीं होनी चाहिए? क्या अपराध रिपोर्टिंग का अर्थ किसी को भी बिना सुबूत और तथ्यों के अपराधी घोषित कर देना है? क्या अपराध रिपोर्टिंग के नाम पर पुलिस और जांच एजेंसियों की सेलेक्टिव लीक को बिना किसी क्रास चेकिंग और जांच-पड़ताल के प्रसारित करना उचित है? निश्चय ही, सूत्र आधारित रिपोर्टिंग के अधिकार को खत्म कर दिया गया तो पत्रकारिता का एक सबसे असरदार उपकरण हाथ से निकल जायेगा और इससे पत्रकारिता बहुत कमजोर हो जायेगी.

अपराध रिपोर्टिंग के अपराध का पहला पार्ट यहां पढ़ें.

लेकिन सूत्र आधारित रिपोर्टिंग का अर्थ यह नहीं है कि आप सूत्र से खासकर ऐसे सूत्र से जो उस जानकारी को खुलकर स्वीकार करने के लिए तैयार न हो और जिसकी किसी और स्वतंत्र सूत्र ने पुष्टि न की हो, वैसी सेलेक्टिव लीक या आधी-अधूरी/तोड़ी-मरोड़ी जानकारी को बिना किसी छानबीन के सनसनीखेज सुर्ख़ियों के साथ प्रकाशित-प्रसारित करें जो किसी का चरित्र हनन करती हो या जांच को प्रभावित करती हो या पब्लिक परसेप्शन बनाती हो. किसी भी अकेले सूत्र से मिली जानकारी को उससे संबंधित दूसरे, तीसरे और चौथे सूत्र, अन्य स्वतंत्र सूत्रों और आधिकारिक सूत्रों से पुष्टि, छानबीन और क्रास चेकिंग किये बिना इस तरह से उछालना, जैसे वही आखिरी सत्य हो, प्रोफेशनल पत्रकारिता के उसूलों के खिलाफ है.

यह पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों के मुताबिक, किसी भी विवादास्पद सूचना या खबर को बिना दो या तीन स्रोतों से पुष्टि किए और दूसरे पक्ष को अपने बचाव का मौका दिए बिना प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए. क्या अपराध रिपोर्टिंग में तथ्यपरकता (एक्यूरेसी), वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता (फेयरनेस) और संतुलन का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए? या अपराध रिपोर्टिंग इन उसूलों से ऊपर है? क्या आरोपियों को फेयर ट्रायल का अधिकार नहीं है? क्या एकतरफा, असंतुलित और बिना ठोस तथ्यों के और जांच पूरा हुए किसी को अपराधी साबित करनेवाली रिपोर्टिंग से बने पब्लिक परसेप्शन और दबाव के कारण न्यायालयों के लिए निष्पक्ष सुनवाई कर पाना संभव है?

दरअसल, अपराध रिपोर्टिंग के अपराधों के बारे में जितना कहा जाए, कम है. कई बार ऐसा लगता है कि अपराध रिपोर्टिंग की एक अलग स्वतंत्र, स्वायत्त और खुद तक सीमित दुनिया बन गई है. इस दुनिया में उसका पत्रकारिता के सामान्य नियमों और उसूलों से अलग अपना खुद का नियम चलता है जिसे जब चाहे मनमाने तरीके से तोडा-मरोड़ा जा सके. कई बार तो ऐसा लगता है कि जैसे अपराध की दुनिया का अपना एक अंडरवर्ल्ड है, वैसे ही पत्रकारिता में अपराध रिपोर्टिंग का अपना एक अंडरवर्ल्ड बन गया है.

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि अपराध पत्रकारिता का यह अंडरवर्ल्ड आमतौर पर किसी के प्रति जवाबदेह नहीं दिखता है. लगता नहीं कि उसपर कोई गेटकीपिंग चलती है. अलबत्ता ऐसा लगता है कि संपादकों ने भी उनके आगे घुटने टेक दिए हैं क्योंकि उनकी अतिरेकपूर्ण, छिछली, चरित्र हत्या में शामिल और अश्लील क्राइम रिपोर्टिंग टीआरपी ले आ रही है. इन दिनों तो ऐसा लग रहा है कि संपादक खुद क्राइम रिपोर्टिंग के अंडरवर्ल्ड में न सिर्फ शामिल हो गए हैं बल्कि कई तो उसकी अगुवाई करते हुए दिखाई दे रहे हैं.

असल में, अपराध रिपोर्टिंग की एक बुनियादी समस्या है और वह वक्त के साथ और गहरी होती गई है कि वह पूरी तरह से पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों की प्रवक्ता बन गई है. वह पुलिस/जांच-एजेंसियों के अलावा कुछ नहीं देखती है, उनके कहे के अलावा और कुछ नहीं बोलती है और उनके अलावा और किसी की नहीं सुनती है. इस तरह अपराध रिपोर्टिंग पुलिस/जांच-एजेंसियों की और पुलिस/जांच-एजेंसियों के द्वारा रिपोर्टिंग हो गई है.

स्थिति यह हो गई है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस की ऑफ़ द रिकार्ड ब्रीफिंग या कानाफूसी में दी गई आधी-अधूरी सूचनाओं, गढ़ी हुई कहानियों और अपुष्ट जानकारियों को बिना किसी और स्रोत से कन्फर्म या चेक किये “एक्सक्लूसिव” खबर की तरह छापने/दिखाने में कोई संकोच नहीं करते हैं.

हालांकि यह पत्रकारिता का बुनियादी उसूल है कि किसी भी ऐसी ऑफ द रिकार्ड ब्रीफिंग से मिली जानकारी या सूचना को बिना किसी स्वतंत्र स्रोत से पुष्टि किये नहीं चलाना चाहिए. यह ठीक है कि अपराध रिपोर्टिंग में पुलिस/जांच-एजेंसियां सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह से खुद पुलिस/जांच-एजेंसियों की साख गिरी है और उन्होंने मीडिया को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, उसे देखते हुए क्राईम रिपोर्टरों को खुद अपनी तरफ से अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए लेकिन इसके उलट हो यह रहा है कि क्राईम रिपोर्टरों की पुलिस पर निर्भरता और बढ़ती जा रही है.

इस कारण अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि अपराध रिपोर्टिंग बहुत सुस्त, एकल स्रोत आधारित और इस कारण कई बार बहुत घातक रिपोर्टिंग बनती जा रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि अपराध रिपोर्टिंग को अपनी प्रकृति के मुताबिक सबसे सावधान, सतर्क और जांच-पड़ताल करनेवाली रिपोर्टिंग होनी चाहिए. इसके लिए जरूरी है कि वह रिपोर्टिंग और पत्रकारिता के बुनियादी नियमों और उसूलों-एक्यूरेसी, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, संतुलन और स्रोत के उल्लेख का पालन करे.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि सबसे अधिक लापरवाह, असावधान और सुस्त रिपोर्टिंग के लिए अगर कोई पुरस्कार देना हो तो अपराध रिपोर्टिंग को दिया जाना चाहिए. उसे तथ्यों की कोई परवाह नहीं रहती है. वस्तुनिष्ठता का तो लगता है कि अपराध रिपोर्टरों ने नाम ही नहीं सुना है. वे हमेशा एक पूर्वाग्रह और झुकाव के साथ रिपोर्टिंग करते हैं. कहानियां गढ़ने में वे बॉलीवुड के क्राइम थ्रिलर लेखकों को भी पीछे छोड़ देते हैं जिसमें तथ्यों की जगह अफवाहों, गप्पों, ध्यान बंटाने के लिए दिए गए पुलिस के प्लांट, लीक और मनमाने निष्कर्ष शामिल होते हैं.

इस प्रक्रिया में अपराध रिपोर्टिंग वास्तव में तथ्यपूर्ण रिपोर्टिंग के बजाय गल्प रिपोर्टिंग हो गई है जिसमें तथ्यों से अधिक जोर कहानी गढ़ने पर होता है. इस मायने में अपराध की खबरें सचमुच मनोहर कहानियां बना दी गई हैं. सच पूछिए तो कहानी गढ़ने में क्राईम रिपोर्टर पुलिस से भी आगे हैं. खासकर न्यूज चैनलों के आने और उसमे अपराध की खबरों को अत्यधिक महत्त्व मिलने के बाद स्थिति बिलकुल नियंत्रण से बाहर हो गई है.

असल में, चैनलों के बीच तीखी प्रतियोगिता के कारण हमेशा ‘एक्सक्लूसिव’ और सनसनीखेज दिखाने के दबाव के बाद तो अपराध रिपोर्टिंग जैसे बिलकुल बेलगाम हो गई है. अधिकांश चैनलों की अपराध रिपोर्टिंग में 20 प्रतिशत तथ्य और 80 प्रतिशत गल्प के साथ ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ी जाती हैं कि आप बिना अपने तर्क और समझ को ताखे पर रखे उसपर विश्वास नहीं कर सकते.

वैसे भी, पुलिस के साथ नत्थी (एम्बेडेड) हो चुकी अपराध रिपोर्टिंग से निष्पक्षता की अपेक्षा करना संभव नहीं है. रही बात स्रोत के उल्लेख की तो संबंधित पुलिस अफसर/अफसरों के आन रिकार्ड बयानों के बजाय ज्यादातर मामलों में पुलिस/जांच-एजेंसियों के सूत्रों से काम चला लिया जाता है. न्यूज मीडिया की इस कमजोरी को पुलिस और जांच एजेंसियां अधिकांश मामलों में आसानी से इस्तेमाल कर लेती हैं.

लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि पुलिस/जांच-एजेंसियों के साथ पूरी तरह से नत्थी हो चुकी अपराध रिपोर्टिंग अब पुलिस के लिए सुपारी लेकर काम करने लगी है. पुलिस अपनी गलतियों और अपराधों को सही ठहराने के लिए अपराध रिपोर्टरों का सहारा लेने लगी है. ये रिपोर्टर ऐसे मामलों में पुलिस की गलतियों पर पर्दा डालने के लिए पुलिस की आधी सच्ची-झूठी कहानियों को सच की तरह पेश करने लगते हैं या खुलेआम उसके बचाव में उतर आते हैं.

यहां तक कि निर्दोष लोगों को जबरदस्ती दोषी साबित करने में भी ये रिपोर्टर पुलिस से पीछे नहीं रहते हैं. यही नहीं, आपराधिक मामलों की जांच में पुलिस की नाकामियों को छुपाने के लिए सच्ची-झूठी कहानियां फ़ैलाने में भी क्राइम रिपोर्टर पुलिस के पीछे खड़े हो जाते हैं.

यह ठीक है कि कई बार चैनल और अखबार पुलिस और उसकी ज्यादतियों के खिलाफ भी बोलने लगते हैं, लेकिन वह तब जब पुलिस के खिलाफ विरोध या लोगों का गुस्सा सामने आने लगा हो. अन्यथा अपराध रिपोर्टिंग पुलिस से आगे उसकी आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग या सेलेक्टिव लीकिंग को क्रिटिकली जांचने-परखने, खुली छानबीन करने और स्वतंत्र रिपोर्टिंग करना कब का भूल चुकी है. अफसोस की बात यह है कि इसका खामियाजा सैकड़ों निर्दोष लोगों को भुगतना पड़ता है जबकि पुलिस/जांच-एजेंसियों और अपराधी मौज में हैं.

दरअसल, अपराध संवाददाताओं का यह ‘अपराध’ नया नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चैनलों और अखबारों में क्राईम रिपोर्टिंग पूरी तरह से पुलिस/जांच-एजेंसियों के हाथों का खिलौना बन गई है. सबसे अधिक आपत्तिजनक बात यह है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस से मिली जानकारियों को बिना पुलिस/जांच-एजेंसियों का हवाला दिए अपनी एक्सक्लूसिव खबर की तरह पेश करते हैं.

इसी का नतीजा है कि आज से नहीं बल्कि वर्षों से पुलिस की ओर से प्रायोजित “मुठभेड़ हत्याओं” की रिपोटिंग में बिना किसी अपवाद के खबर एक जैसी भाषा में छपती रही है. यही नहीं, अपराध संवाददाताओं की मदद से पुलिस हर फर्जी मुठभेड़ को वास्तविक मुठभेड़ साबित करने की कोशिश करती रही है. सबसे हैरानी की बात यह है कि पुलिस की ओर से हर मुठभेड़ की एक ही तरह की कहानी बताई जाती है और अपराध संवाददाता बिना कोई सवाल उठाये उसे पूरी स्वामीभक्ति से छापते रहे हैं. कई मामलों में यह स्वामीभक्ति पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़ जाती रही है और रिपोर्टर फर्जी मुठभेड़ों को सही ठहराने के तर्क जुटाने लगते हैं. .

आश्चर्य नहीं कि इस तरह की गल्प (मनोहर कहानियां) रिपोर्टिंग के कारण पुलिस/जांच-एजेंसियों और मीडिया द्वारा ‘अपराधी’ और ‘आतंकवादी’ घोषित किए गए कई निर्दोष लोग अंततः कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए. इसके बावजूद एकतरफा मीडिया ट्रायल से बने पब्लिक परसेप्शन के कारण इन निर्दोष लोगों को न सिर्फ बरसों जेल में सड़ना पड़ा है बल्कि इस दाग के साथ जीना और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा है.

यही नहीं, कई मामलों में अत्यधिक मीडिया ट्रायल का दबाव न्यायालयों पर भी दिखाई पड़ा है जिसका खामियाजा अंततः निर्दोषों को भुगतना पड़ता है और कई मामलों में असली अपराधी बच निकलते हैं. लेकिन अपराध रिपोर्टिंग आज भी अपने इन ‘अपराधों’ से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है.

अभिनेता सुशांत सिंह के मामले में तो अपराध रिपोर्टिंग ने अपनी पिछली सभी हदें तोड़ दी हैं. वह अब ‘नाईटक्राव्लर’ के साइकोपैथ अपराधी रिपोर्टर और न्यूज आफ द वर्ल्ड के रिपोर्टरों/संपादकों के अपराधों की ओर बढ़ चली है. वह खुद अपराध की रिपोर्टिंग और अपराध के बीच की लक्ष्मणरेखा को लांघती हुई दिखाई दे रही है. निजता के हनन, चरित्र हत्या से लेकर कंगारू कोर्ट में फैसले सुनाने तक ऐसा लगता है कि जैसे क्राइम रिपोर्टिंग के अंडरवर्ल्ड की कमान अब खुद चैनलों के संपादकों ने अपने हाथ में ले ली है और इस अंडरवर्ल्ड ने चैनलों का टेकओवर कर लिया है.

न्यूज मीडिया के इस अंडरवर्ल्ड को खून का स्वाद मिल चुका है. वह सिर्फ अभिनेता सुशांत सिंह के मामले में अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती के खलनायकीकरण तक रुकनेवाला नहीं है.

( आनंद प्रधान इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन के प्रोफेसर हैं.)