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चुनावी गंगा: बिहार में 74 फीसदी सीवेज प्रदूषण झेल रही राष्ट्रीय नदी बनेगी 37वें मुख्यमंत्री की गवाह
बिहार में चुनावी चाल तेज रफ्तार पकड़ चुकी है लेकिन मैदान में मंद गति के प्रवाह वाली गंगा चुप और उदास हैं. 10 नवंबर, 2020 को जब बिहार में चुनाव के नतीजे आएंगे तो मल-कीचड़, ठोस कचरा और उद्योगों से प्रदूषित राष्ट्रीय नदी का दर्जा रखने वाली गंगा सूबे के 37वें मुख्यमंत्री की साक्षी भी बन जाएंगी. यह भी संभव है कि जीतने-हारने वाले प्रत्याशी को शायद चुल्लू भर गंगाजल की जरूरत पड़ जाए. फिलहाल चुनावी धमक और आरोप-प्रत्यारोपों के दौर से ऐसा लगता है कि अभी गंगा मईया पर बेटों को ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं पड़ रही है.
राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी), जो कि एक रजिस्टर्ड सोसाइटी है और जिसे गंगा राज्यों में नदी की साफ-सफाई, साज-सज्जा से जुड़े कामों पर सरकारी एजेंसियों को अमल कराने का जिम्मा सौंपा गया है, उसकी ओर से 30 सितंबर, 2020 को एक बैठक संपन्न हुई है. इस बैठक में गंगा में प्रदूषण की रोकथाम के लिए अन्य राज्यों के साथ बिहार के कामों का भी जायजा लिया गया. बैठक में सबसे पहले यह साफ किया गया कि इसका मकसद नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेशों का पालन करने के लिए है.
बैठक में सभी राज्यों की ओर से अपनी स्थिति स्पष्ट की गई. बिहार का भी नंबर आया, कहा गया कि राज्य में मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट यानी आचार संहिता लागू है तो अभी हाथ बंधे रहेंगे. नवंबर के बाद गंगा सफाई का काम बहुत तेज कर दिया जायेगा.
इस भविष्य के दावे के अलावा बैठक में गंगा सफाई को लेकर अतीत के कामों और वर्तमान स्थिति की भी बात हुई। डाउन टू अर्थ को मिली बैठक की रिपोर्ट के मुताबिक, एनएमसीजी के वरिष्ठ पर्यावरण विशेषज्ञ ने बताया कि राज्य कुल 65.15 करोड़ लीटर सीवेज प्रतिदिन (651.5 एमएलडी) निकासी करता है जिसमें से महज नौ करोड़ लीटर (90 एमएलडी) पुराने और आठ करोड़ लीटर (80एमएलडी) सीवेज का उपचार नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए होता है. यानी करीब 74 फीसदी सीवेज बिना उपचार के ही गंगा और सहायक नदियों में चला जाता है.
देश की नदियों को मल-प्रदूषण से रोकने के लिए सरकारें फिलहाल एसटीपी को ही कारगर तरीका मानती हैं. इनकी परियोजनाएं, डीपीआर, जगह का अधिग्रहण आदि का काम वर्षों से चल रहा है. सितंबर महीने में ही केंद्र की ओर से कुछ और नए एसटीपी लगाने की घोषणा की गई है. बहरहाल कुल 25 एसटीपी राज्य में प्रस्तावित हैं. इनमें से दो ही पूरे हैं. बाकी सभी एसटीपी कहीं-न-कहीं किसी प्रक्रिया वाली फाइल और संचालित होने के लिए अटके हैं. आचार संहिता लागू है तो अभी काम नहीं होगा और इस दौरान गंगा में सीवेज का प्रवाह बना रहेगा.
ठोस कचरे का भी अंबार अब शहर और गांवों से निकलने लगा है. लिहाजा यह मैदान और फिर नालियों, तालाबों, जलाशयों और किसी न किसी रास्ते नदियों में भी पहुंच ही जाता है. कचरे से निकलने वाला गंदा जल भी भू-जल और नदियों को प्रदूषित करता रहता है. ऐसे में बिहार इसके लिए भी तैयार नही है. इस पर भी चुनाव के दौरान कोई बातचीत नहीं दिखाई देती.
बैठक में बताया गया कि 2,272 टन प्रतिदिन (टीपीडी) कचरा प्रतिदिन राज्य में निकलता है. इसमें से महज 1226 टन कचरा प्रतिदिन प्रोसेस किया जाता है और 112 टन कचरा प्रतिदिन लैंडफिल साइट में गिराया जाता है. 934 टन कचरा यानी करीब 50 फीसदी कचरा प्रतिदिन अब भी राज्य के लिए अनछुआ है. नदियां, तालाब, जलाशय इन कचरों का निवास स्थान बन रहे हैं.
सामूहिक प्रवाह शोधन संयंत्र (सीईटीपी) के लिए भी पांच स्थान बिहार में चुने गए हैं. यह ध्यान रखने लायक है कि स्थान ही चुने गए हैं. जमीन पर अभी कुछ उतरा नहीं है. वहीं, पूर्वी और पश्चमी चंपारण में बहने वाली सिकरहना नदी को मॉडल नदी बनाने के लिए चुना गया है, जिसका जल नहाने लायक बनाया जाएगा. बैठक में बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रतिनिधि इस बात को छुपा ले गए कि आखिर अभी तक क्यों नहीं बनाया गया.
बैठक में गंगा नदी में प्रदूषण की रोकथाम के लिए बहुत उत्सुकता दिखाई गई, ऐसा लगा कि जो काम अभी तक नहीं किए जा सके हैं, वे बस चुनाव के कारण रुक गए हैं और उन्हें चुनाव खत्म होते ही बहुत जल्द पूरा कर दिया जाएगा. बहरहाल एनएमसीजी ने बिहार के अधिकारी की उत्सुकता पर विराम लगाया और कहा कि फिलहाल पेपर का कामकाज जारी रखिए, ताकि आचार संहिता बाद नवंबर से काम किया जा सके.
बैठक के अंत में जलशक्ति मंत्रालय के सचिव को यह अच्छा नहीं लगा या बातचीत ही निस्सार लगी कि राज्यों के वरिष्ठ अधिकारी ही स्थिति बताने और सुनने के लिए इसमें शामिल नहीं हैं. उन्होंने जोर देकर कहा कि बैठक में वरिष्ठ अधिकारी जरूर आने चाहिए, और बैठक की शुरुआत में ही सभी राज्यों को यह चेताया गया कि कम से कम ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक प्रदूषण और खतरनाक कचरा, जैविक कचरा आदि के प्रबंधन को लेकर ठोस आंकड़े जुटाए जाने चाहिए. यानी आंकड़ों की कमी अब भी बनी हुई है.
दरअसल यह एक राज्य की बात नहीं है बल्कि उत्तराखंड और फिर उत्तर प्रदेश के रास्ते बिहार, झारखंड, पश्चिम-बंगाल और बंगाल की खाड़ी में जाकर मिल जाने वाली गंगा नदी के लिए फिक्र शायद ही कोई राज्य कर रहा है. 1985 में देश की सर्वोच्च अदालत की चौखट पार करके न्यायमूर्तियों के सामने पहुंची जनहित याचिका में जो समस्याएं गिनवाई गईं थी, उसे 2014 और 2017 के बाद से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में करीब हर तीसरे-चौथे महीने गिनवाया जा रहा है. समस्या खत्म होने के बजाए बढ़ती जा रही हैं. ज्यों-ज्यों दवा हो रही है मर्ज बढ़ता जा रहा है.
वहीं, 13 अगस्त, 2020 को एनजीटी ने गौर किया कि उत्तराखंड, यूपी, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिवों और निगरानी समितियों को आदेश दिया गया था कि वे समय-समय पर बैठक करके गंगा की स्थिति और जल गुणवत्ता में सुधार लाए जाने वाले कदमों का जायजा लिया करें. लेकिन बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल की स्थिति ही साफ नहीं है. और पीठ ने यह कहा कि राज्यों के मुख्य सचिव कोई बैठक कर रहे हैं यह कहना थोड़ा मुश्किल है. इसे जरूर सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
यह भी पीठ ने गौर किया कि राज्यों की नुमाइंदगी अदालत में अपना पक्ष रखने के लिए भी नहीं आती है, जिससे कई अहम जानकारियों की सत्यता जांचना बेहद जटिल हो जाता है. अदालत को गुस्सा नहीं आया, बल्कि उन्होंने कहा कि हम यह उम्मीद करते हैं कि राज्य इस मामले की उपेक्षा करने के बजाए इसे गंभीरता से लेंगे. बैठक को बेहद जरूरी बताते हुए अदालत ने कहा कि गंगा के पुनरुद्धार का बेहतर से बेहतर तरीका आजमाया जाना चाहिए. यहां तक कि गंगा सफाई के लिए कई हितधारकों से फंड जुटाए जाने की कोशिश भी की जानी चाहिए.
पीठ ने एनएमसीजी और जलशक्ति मंत्रालय को कहा है कि वे राज्यों के मुख्य सचिव को आगाह करें कि न सिर्फ समस्याओं के समाधान के स्पष्ट बिंदु वाली कार्ययोजना बनाई जाए बल्कि उचित कदम भी उठाए जाएं. याचिकाकर्ता एमसी मेहता के मामले में गंगा से जुड़ा यह मुद्दा अब भी जारी है. सिर्फ कार्ययोजनाओं में वर्षों खर्च हो गए हैं. एनजीटी ने फिर से एनएमसीजी और संबंधित राज्यों को 25 सितंबर को एक अन्य बैठक करने के लिए कहा था लेकिन गंगा राज्यों की यह बैठक अभी तक हो नहीं पाई है.
फिलहाल बिहार चुनाव में है और अन्य राज्य वित्तीय गतिविधियों को बढाने में सक्रिय हैं. एनजीटी इन सारे प्रश्नों पर 8 फरवरी, 2021 को सुनवाई करेगा. इतनी लंबी तारीखें गंगा की सफाई के मामले में बीते वर्ष से लग रही हैं और सकारात्मक नतीजे दिखाई नहीं दे रहे.
कोविड-19 के दौरान 25 मार्च से 08 जून, 2020 तक लंबे लॉकडाउन में कुछ तस्वीरों को देखकर गंगा की सफाई का शोर मचा था, उस वक्त डाउन टू अर्थ ने रिपोर्ट में बताया था कि निगरानी और नमूनों की जांच व आंकड़ों को जुटाए बिना यह कहना मुश्किल होगा. बहरहाल हाल ही में सीपीसीबी ने बताया है कि लॉकडाउन के दौरान गंगा की जलगुणवत्ता में कोई खास सुधार नहीं हुआ.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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