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महिलाओं के नजरिए से इस चुनाव में कहां खड़े हैं नीतीश कुमार
शराबबंदी जैसा अलोकप्रिय किंतु ऐतिहासिक फैसला करने के पीछे नीतीश कुमार ने वजह बतायी थी कि बिहार की महिलाएं इससे सुरक्षित और सबल होंगी. इस चुनाव में नीतीश कुमार के उस फैसले की परीक्षा भी होनी है. क्या बिहार की महिलाओं ने उस फैसले को उसी तरह से देखा जिस तरीके से नीतीश सरकार ने प्रचारित किया था?
मुजफ्फरपुर के एक प्राइवेट कोचिंग सेंटर में बैंकिंग की तैयारी करने वाली आरती झा अपनी स्कूटी से लंगट सिंह कॉलेज के ग्राउंड में अपने दोस्तों से मिलने आई हुई थीं. बिहार में महिलाओं की स्थिति को लेकर हमारे सवाल पर आरती कहती हैं, ‘‘लॉकडाउन आप लोगों (पुरुषों) के लिए नया था, हमारे लिए नहीं. महिलाएं तो पहले से ही दीवारों में कैद थीं. बाहर जाने को लेकर तो हमारे लिए नियम पहले से ही बना हुआ है. देखिए ना अभी शाम के चार बजे नहीं कि घर लौटने के लिए मां का फोन आने लगा. नीतीश कुमार के शासन में महिलाओं को लेकर बातें तो खूब हुई, लेकिन बदला कुछ नहीं.’’
आरती के साथ बैठी उनकी दोस्त 24 वर्षीय रागिनी गुप्ता उनसे पूरी तरह इत्तेफ़ाक़ नहीं रखती हैं. वो कहती हैं, ‘‘इस सरकार ने लड़कियों को लेकर ठीक-ठाक काम किया है. शराबबंदी हो या साइकिल योजना हो. लड़कियों को 10वीं और 12वीं में फर्स्ट आने पर पैसा देना हो. इस सरकार ने काम किया और इससे महिलाओं को फायदा हुआ है. पैसे के लालच में ही सही लड़कियां पढ़ रही है और परिवार उन्हें पढ़ा रहे हैं.’’
इसके बाद आरती और रागिनी अपनी-अपनी बात को अपने तर्क से साबित करने में लग जाती हैं. इसी दौरान रागिनी मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में लड़कियों के साथ हुई भयावह घटना का जिक्र करते हुए कहती हैं, “लड़कियों के साथ इतना सब हुआ. इस चुनाव में उसका कोई जिक्र तक नहीं है. महिलाओं का मुद्दा कोई भी राजनीतिक दल सही से नहीं उठा रहा है.”
मुजफ्फरपुर की घटना नीतीश कुमार सरकार की सबसे बड़ी असफलताओं में शामिल है. इस मुद्दे पर उनकी देशव्यापी फजीहत हुई, एक मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा. तो क्या इस चुनाव में महिलाओं की सुरक्षा कोई मुद्दा है? इस सवाल के जवाब के लिए हमने मुजफ्फरपुर के अलग-अलग इलाकों में लोगों से बात की. 48 वर्षीय रविन्द्र शाह मिठाई बनाने का काम करते हैं. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए शाह कहते हैं, ‘‘शेल्टर होम का मुद्दा पुराना हो गया है. किसी को याद थोड़ी है. वोट तो इस बार रोजगार के नाम पर हम लोग देंगे.’’
शाह की तरह ही ज़्यादातर लोगों के लिए शेल्टर होम का मामला अब मुद्दा नहीं है. इस विवाद के बाद इस्तीफा देने वाली मंत्री मंजू वर्मा को जदयू ने दोबारा टिकट दिया है.
बीते पंद्रह साल से बिहार की सत्ताधारी पार्टी जनता दल यू और बीजेपी के नेता अपनी रैलियों में लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के शासन काल को जंगलराज बोलकर वोटरों को प्रभावित करने की कोशिश करते नज़र आए. नेताओं ने यह दावा किया कि नीतीश शासन में महिलाओं के लिए एक आज़ाद महौल बना. इसमें पंचायत चुनाव में महिलाओं को दिया जाने वाला आरक्षण और लड़कियों को दी जाने वाली साइकिल योजना, शराबबंदी समेत कई योजनाओं की बड़ी भूमिका रही.
ऐसा कहा गया कि साल 2010 और 15 के चुनाव में महिला वोटरों ने नीतीश कुमार का साथ दिया. दोनों बार उनकी सरकार बिहार में बनी. हालांकि लोकनीति-सीएसडीएस का सर्वे में एक दूसरी ही सच्चाई सामने आती है.
सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार ने हाल ही में बीबीसी हिंदी के लिए लिखे अपने लेख में बताते हैं, ‘‘जनता दल यूनाइटेड-बीजेपी गठबंधन को सबसे बड़ी जीत साल 2010 में मिली थी. तब गठबंधन को 39.1 फीसदी मत मिले थे. कइयों ने इस जीत को बड़े पैमाने पर महिलाओं के समर्थन से जोड़कर देखा था लेकिन लोकनीति-सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक 2010 के चुनाव में एनडीए को 39 प्रतिशत महिलाओं का वोट मिला था, जो उनके औसत वोट जितना ही था.’’
हमने राज्य के अन्य इलाकों में भी नीतीश कुमार की नीतियों और 15 साल के राज पर महिलाओं का नजरिया जानने की कोशिश की.
साइकिल योजना
किशनगंज के सोनार पट्टी की रहने वाली 35 वर्षीय अनीता देवी अपनी बेटी दीपा शाह के साथ 3 नवंबर को राहुल गांधी की रैली में पहुंची थीं. जब हमने नीतीश कुमार के कामों को लेकर उनसे सवाल किया तो वह कहती हैं, ‘‘मैं तो यहां राहुल गांधी को देखने आई हूं. उनको कभी सामने से देखी नहीं. वोट तो हम नीतीश कुमार को ही देंगे. उनसे काफी फायदा हुआ है. मेरी बेटी को पिछले साल ही साइकिल का पैसा मिला था. लॉकडाउन में राशन दिया. हमें और क्या चाहिए?’’
दीपा शाह ने 2020 में ही 10वीं पास किया है. जब वो 9वीं क्लास में थी तब उन्हें सरकार की तरफ से साइकिल खरीदने का पैसा दिया गया. न्यूज़लॉन्ड्री ने दीपा से पूछा कि साइकिल मिलने से उन्हें क्या फायदा हुआ तो वो कहती हैं, "पहले हम लोग पैदल स्कूल जाते थे. समय ज़्यादा लगता था. साइकिल मिल गई तो समय बचता है. इसके अलावा क्या ही फायदा हुआ."
सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार ने लड़कियों को साइकिल देने की योजना साल 2007-08 में शुरू की थी. इस योजना के तहत साल 2019-20 तक तकरीबन 70,10,387 लड़कियों को अब तक साइकिल या साइकिल के लिए पैसे दिए गए हैं. इस योजना का मकसद लड़कियों को हाईस्कूल में ड्राप आउट होने से बचाना था. इसका लाभ भी मिला लेकिन ड्राप आउट रोकना ही एकमात्र मकसद था. वो लड़कियां आखिरी आज कर क्या रही है.
किशनगंज के लाइन गढ़ी की रहने वाली जूही खातून से जब हम मिले तब वो एक बच्चे को सुला रही थीं. जूही ने साल 2016 में 10वीं पास किया. तब उन्हें साइकिल योजना का लाभ भी मिला लेकिन 10वीं के तुरंत बाद ही उनकी शादी हो गई और आज वह दो साल के बच्चे की मां हैं. साइकिल योजना के लाभ पर वह कहती है, "क्या ही बदला. 10वीं करते ही शादी हो गई. अब ससुराल में खाना बनाती हूं. बच्चे को पालती हूं. घर वालों ने पढ़ने नहीं दिया."
जूही के साथ बैठी उनकी मां खालिदा बेगम अपनी बेटी की शिकायत पर कहती हैं, ‘‘लड़कियों के लिए माहौल ठीक नहीं है. 10वीं तक पढ़ाए. उसके बाद दूर पढ़ने के लिए भेजने के लिए हमारे पास ना पैसे थे और ना ही महौल. आजकल ऐसी ऐसी खबर टीवी वाले बताते हैं. देखकर ही डर लगता है.’’ इसके बाद खालिदा हमें उत्तर प्रदेश के हाथरस की घटना के बारे में बताने लगती हैं.
बीजेपी और जेडीयू के नेता लालू और राबड़ी के शासनकाल को जंगलराज कहते हैं, लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के आंकड़े हमें बताते हैं कि हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया है.
साल 2019 में बिहार पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक बलात्कार के कुल 1,450 मामले सामने आए. साल 2020 में मार्च महीने में देशव्यापी लॉकडाउन लगा उसके बाद से लोगों का बाहर निकलना एक तरह से कम हुआ, लेकिन इस दौरान भी रेप के मामले सामने आते रहे. बिहार पुलिस की रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल में 82, मई में 120, जून में 152, जुलाई में 149 और अगस्त 139 बलात्कार के मामले दर्ज हुए. यानी औसतन हर दिन 4 से 5 मामले सामने आए. इस दौरान कई गैंगरेप का वीडियो भी वायरल हुआ.
नीतीश कुमार ने दहेज लेन-देन के मामले को रोकने के लिए एक अभियान चलाया. लेकिन इसका भी कोई खास ज़मीनी असर देखने को नहीं मिला. आज भी स्थानीय अखबारों में लड़कियों को दहेज के नाम पर जलाने की ख़बरें छपती ही रहती हैं.
महिलाओं की इन तमाम परेशानियों को कोई चुनावी दल मुद्दा नहीं बना रहा. दरभंगा की रहने वाली एथलीट अम्बिका रश्मि कहती हैं, "इस चुनाव में महिला सुरक्षा पर तो बात नहीं हो रही लेकिन महिला सशक्तिकरण पर ज़रूर कुछ लोग बात करते हैं. वर्किंग स्पेस को सुरक्षित बनाने की बात करते है. वर्किंग स्पेस से घर तक कि जो दूरी होती है वह भी सुरक्षित नहीं होती है. किसी एनजीओ में या किसी भी तरह के संस्थान में जाकर महिलाएं काम कर रही हैं लेकिन वहां से हम रात को नहीं लौट सकते हैं. अगर आने जाने की सुरक्षा नहीं रहेगी तो महिलाएं कैसे काम कर पाएंगी."
अम्बिका अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, "मैं और मेरी बहन खेल से जुड़े हुए हैं. हमारी जो एकादमी है उसका समय सुबह साढ़े पांच बजे होता है. अभी के मौसम में साढ़े पांच बजे अंधेरा रहता है. हम घर से निकलकर वहां नहीं जा सकते हैं क्योंकि रास्ता अंधेरे मेें असुरक्षित है. अगर मेरे भाई या मेरे पिता मेरे साथ नहीं आएंगे तो हम लोग क्लास भी नहीं जा सकते हैं. पुलिस तो छोड़िए यहां की सड़कों पर स्ट्रीट लाइट तक नहीं है. बिना महिला सुरक्षा के महिला सशक्तिकरण की बात कैसे होगी."
शराबबंदी
राजधानी पटना में रहने वाले एक पत्रकार हंसते हुए कहते हैं, ‘‘बिहार में शराबबंदी है, यह एक मजाक के सिवा कुछ नहीं है. आपको पहले शराब खरीदने दुकान पर जाना पड़ता था लेकिन अब तो आपके घर पर ही आ जाएगा.’’
बिहार में शराबबंदी काफी धूमधाम से किया गया. एक मजबूत कानून बनाया गया और उसके तहत आरोपी पाए गए सैंकड़ों लोगों को जेल भेज दिया गया. तब कहा गया कि नीतीश कुमार के इस दांवे से आधी आबादी का वोट उनका हो गया. शुरुआत में महिलाएं भी इससे खुश दिखीं, लेकिन आगे चलकर वहीं महिलाएं अब नीतीश कुमार से खफा दिखती हैं.
दरभंगा में नीतीश कुमार की रैली में पहुंची एक महिला से जब हमने शराबबंदी को लेकर सवाल पूछा तो वह कहने लगी, ‘‘अब तो घरे-घरे मिल रहा है. पहले जो शराब 50 रुपए का मिलता था अब वो दो सौ-तीन सौ रुपए का मिल रहा है. अब तो नुकसान ज़्यादा हो रहा है. जब शराबबंदी हो गई तो शराब आ कैसे रहा है. मेरे हिसाब से तो उन्हें इस तरह की बंदी हटा लेनी चाहिए. कम से कम पैसा ही बच जाएगा, पीने वाले तो मानेंगे नहीं.’’
समस्तीपुर की रहने वाली रेणु देवी ने बताया, ‘‘पहले घर के आदमी लोग बाजार से पीकर आते थे अब घर पर ही लेकर आते हैं. पहले से ज्यादा मुश्किल हो गया है. काम-धाम है नहीं, समान बेचकर भी पी जाते हैं मर्द लोग.’’
हालांकि किशनगंज की अनिता शराबबंदी से खुश दिखीं. उनके मुताबिक शराब मिल भले रही है लेकिन अब लोग पीकर सड़कों पर ड्रामा नहीं कर रहे हैं. अगर कोई ड्रामा करता है तो पुलिस को फोन करने पर कार्रवाई भी होती है.
बिहार के अलग-अलग जिलों में हमने तमाम महिलाओं से शराबबंदी पर सवाल किया. उनकी प्रतिक्रिया मिलीजुली रही. लेकिन एक बात साफ है कि नीतीश कुमार के इस फैसले का उनको कोई खास राजनीतिक लाभ महिला वोटरों की तरफ से मिलता नहीं दिख रहा.
महिला वोट नीतीश को मिलेगा?
बिहार चुनाव के दौरान अलग-अलग जिलों की यात्रा करने वाली पत्रकार साधिका तिवारी कहती हैं, ‘‘यह कहना मुश्किल है कि महिला वोटरों का जिस तरह समर्थन पहले नीतीश कुमार को मिलता था वैसा इस बार मिल पाएगा. इसके पीछे कई कारण हैं. पहला कि खुद सरकारी आंकड़ें ही बताते हैं कि सरकार अब महिलाओं से जुड़ी योजनाओं पर खर्च कम कर दी है. दूसरी बात बीते पांच साल में महिलाओं को लेकर कुछ नया नहीं हुआ. साइकिल योजना हो या पंचायत चुनाव में 50 प्रतिशत आरक्षण देने की बात. अब यह सब योजनाएं पुरानी हो गई हैं. इसका कोई खास असर भी नहीं हुआ. साइकिल योजना का लाभ 9वीं क्लास में मिलता है आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके की लड़कियां 9वीं तक जाने से पहले ही पढ़ाई छोड़ देती हैं. पंचायत चुनाव में आरक्षण देने का मकसद था महिला नेतृत्व में वृद्धि करना लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा.’’
अपने आखिरी चुनाव की घोषणा कर चुके नीतीश कुमार को महिलाओं का समर्थन नहीं मिला तो यह उनके राजनीतिक जीवन का सबसे खराब प्रदर्शन भी हो सकता है.
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