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किसानों को पराली न जलाने की एवज में रुपए देना समाधान नहीं
क्या किसानों को अपने खेतों में पराली न जलाने के एवज में पैसे मिलने चाहिए? आज के समय में यह सबसे विवादास्पद मुद्दों में से एक है क्योंकि उत्तर भारत में सर्दियों की शुरुआत हो चुकी है और यही वह समय है जब खेतों में पराली जलाई जाती है. यह प्रदूषण हवा के माध्यम से दिल्ली तक पहुंच जाता है. यह किसी से नहीं छुपा कि दिल्ली गाड़ियों के धुएं और प्रदूषण के अन्य स्थानीय कारणों के फलस्वरूप पहले से ही बेदम है. तर्क यह है कि सरकार द्वारा नकद सहायता मिलने पर किसान अपने खेतों में आग नहीं लगाएंगे.
स्वच्छ वायु के लिए लगातार अभियान चलाने और एक पर्यावरणविद होने के नाते मेरा यह मानना है कि इस प्रोत्साहन का उल्टा असर पड़ेगा. दूसरे शब्दों में, इस मदद का दुरुपयोग होना आसान है क्योंकि नकद सहायता पाने के लिए किसान पहले से अधिक मात्रा में पराली जलाएंगे और हर साल नकद सहायता की राशि में वृद्धि करनी होगी. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यह प्रोत्साहन इस कुरीति को बढ़ा सकता है. लेकिन, सोशल मीडिया में मुझ पर लगातार हमले किए जा रहे हैं और मुझे “इलीटिस्ट (संभ्रांतवादी), अज्ञानी एवं वास्तविकता से दूर” बताया जा रहा है. इसी के साथ मुझे किसान विरोधी भी घोषित कर दिया गया है.
हालांकि सच्चाई यह है कि पिछले साल पंजाब सरकार ने प्रोत्साहन के रूप में 31,231 किसानों को कुल 29 करोड़ रुपए बांटे थे लेकिन उसके बावजूद पराली जलाने की घटनाओं में लगातार वृद्धि ही हुई है. लेकिन असली समस्या यह नहीं है. किसानों को सहायता की आवश्यकता है, इसमें कोई दो राय नहीं है. मैं कृषि संकट की बड़ी समस्याओं के बारे में तो बात भी नहीं कर रही हूं. किसान चक्की के दो पाटों के बीच में फंसे हैं. जहां एक तरफ खेती की लागत लगातार बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ किसानों पर उपभोक्ताओं के लिए मूल्य कम रखने का भी दबाव है. यह प्रणाली किसानों के श्रम को कम करके आंकने के साथ-साथ उनकी जमीन और जलीय संपदा को भी नुकसान पहुंचाती है. इसमें तत्काल सुधार किए जाने की आवश्यकता है. हमें समस्या को पहचानने और आगे बढ़ने का रास्ता तलाशने की जरूरत है. एक ऐसा रास्ता जो किसानों को आय दे और साथ ही साथ पर्यावरण को बचाने में भी सहयोग करे.
हम जानते हैं कि किसान पराली इसलिए जलाते हैं क्योंकि धान की फसल की कटाई और अगली गेहूं की फसल की बुवाई के बीच कुछ समय का अंतराल रहता है. हम यह भी जानते हैं कि इस अवधि को छोटा कर दिया गया है क्योंकि सरकार ने धान के रोपने में लगभग एक महीने की देरी को अधिसूचित किया है. ऐसा इसलिए ताकि फसल मानसून के आगमन के आसपास लगाई जा सके. यह सब इसलिए किया गया है ताकि किसान भूजल का अत्यधिक इस्तेमाल न करें.
आप यह तर्क दे सकते हैं कि किसानों को इन पानी के संकट वाले क्षेत्रों में धान की रोपाई नहीं करनी चाहिए. आपकी बात सही भी है. लेकिन जवाब जटिल है क्योंकि सरकारें एक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अनुसार धान की खरीद करती हैं. इसके फलस्वरूप किसान एक अजीब से चक्कर में पड़ जाते हैं. बासमती धान की पराली जलाई नहीं जाती क्योंकि उसका इस्तेमाल पशुओं के चारे के लिए होता है. लेकिन बासमती धान एमएसपी के अंदर नहीं आता है क्योंकि इसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार किया जा सकता है. इसलिए, किसान अब भी गैर-बासमती धान को एमएसपी के लिए उगाते हैं और फिर उनके पास ठूंठ को जलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. इसलिए उनका दम तो घुटता है ही, साथ ही साथ हमारी सांसों पर भी आफत आन पड़ती है.
इस समस्या के समाधान के तीन पहलू हैं. पहला, मशीनों की मदद से पराली को वापस जमीन में ही दबा दिया जाए और ऐसा इस प्रकार किया जाए जिससे गेहूं की फसल की बुवाई में कोई व्यवधान न पहुंचे. लेकिन ये कृषि उपकरण महंगे हैं (कुछ साल पहले तक ये उपलब्ध भी नहीं थे), इसलिए, पिछले दो वर्षों में केंद्र सरकार ने धनराशि प्रदान की है, ताकि राज्य सरकारें इन मशीनों को खरीद सकें और उन्हें किसानों को बिना किसी लागत या न्यूनतम लागत पर उपलब्ध करा सकें. वर्ष 2020 में पराली जलाने के मौसम की शुरुआत तक, अकेले पंजाब में लगभग 50,000 मशीनों (मशीन केंद्रों व व्यक्तिगत किसानों को) को 80 प्रतिशत अनुदान पर दिया गया था. जैव ईंधन को वापस जमीन में दबाने से मिट्टी की उर्वरता में भी सुधार होगा.
समाधान का दूसरा पहलू जैव ईंधन को मूल्य प्रदान करना है. अगर किसानों को पराली की कीमत दी जाए तो वे उसे नहीं जलाएंगे. इस क्षेत्र में कई संभावनाएं हैं. ऊर्जा उत्पादन से लेकर कंप्रेस्ड बायोगैस (सीबीजी) बनाने के लिए पराली का उपयोग करने तक. इस क्षेत्र में भी बहुत कुछ हो रहा है. पहला सीबीजी प्रोजेक्ट 2021 की शुरुआत में चालू हो जाना चाहिए. इसके अलावा कई और परियोजनाओं पर भी काम चालू है. पिछले महीने, भारतीय रिजर्व बैंक ने ऋण देने की प्राथमिकता सूची में सीबीजी को शामिल किया है. इसके अलावा भारतीय स्टेट बैंक ने एक ऋण योजना चालू की है और तेल कंपनियों ने भी अगले पांच वर्षों तक 46 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से पराली खरीदने के लिए हामी भरी है. अतः आज जो पराली हम जला रहे हैं, उसे वाहनों में प्रयोग के लिए ईंधन के रूप में बदला जाएगा. इसके अलावा पुराने बिजली संयंत्रों में कोयले की जगह पराली का उपयोग करने का विकल्प भी है. यह न केवल बुनियादी ढांचे को विस्तारित करने में मदद करेगा, बल्कि पर्यावरणीय लागत को भी कम करेगा. तीसरा विकल्प किसानों को धान की बजाय अन्य फसलें उगाने के लिए प्रेरित करना और उनके फसल विकल्पों में विविधता लाना है. जाहिर है कि यह एक बड़ी चुनौती है लेकिन यही समय की मांग है.
तथ्य यह है कि किसानों को वास्तविक विकल्प प्रदान करने के लिए हमें बहुत कुछ करने की आवश्यकता है. उदाहरण के लिए, उन्हें मृदा जैविक कार्बन के पारिस्थितिक तंत्र सेवा के लिए भुगतान किया जा सकता है. लेकिन ये सब इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे इस क्षेत्र में सकारात्मक हस्तक्षेपों की नींव पड़े. नकद प्रोत्साहन न मिलने की सूरत में किसान पराली जलाने को मजबूर हैं, ऐसा कहना उनके साथ अन्याय होगा और उसकी कीमत हम सबके बच्चों के फेफड़ों को चुकानी होगी.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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