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'एक देश : दो विधान' अब ऐसा कहना अपनी मौत की आधिकारिक घोषणा करना होगा!

अभी जो बाइडन ने व्हाइट हाउस की दहलीज पर पांव भी नहीं रखा है कि उसके दरवाजे पर हांगकांग की दस्तक पड़ने लगी है. राष्ट्रपति भवन में सांस लेने से पहले ही बाइडन को पता चल गया है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक में सांस लेने का अवकाश नहीं होता है. और यह भी कि उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति की भूमिका में कितना बड़ा अंतर होता है. हांगकांग ने व्हाइट हाउस के द्वार पर जो दस्तक दी है, बाइडन उसे अनसुना नहीं कर सकेंगे, क्योंकि वह ट्रंप-समर्थकों की नहीं, लोकतंत्र की दस्तक है.

कभी चीन से हासिल किया गया हांगकांग लंबे समय तक ब्रितानी उपनिवेश रहा. 1997 में इंग्लैंड ने हांगकांग को एक संधि के तहत चीन को वापस लौटाया जिसकी आत्मा थी: ‘एक देश : दो विधान!’ आशय यह था कि हांगकांग चीन का हिस्सा रहेगा जरूर लेकिन चीनी कानून उस पर लागू नहीं होंगे. संधि कहती है कि 2047 तक हांगकांग के अपने नागरिक अधिकार होंगे और अपनी लोकतांत्रिक परंपराएं होंगी. चीन उनमें किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा.

हांगकांग की भौगोलिक स्थिति भी उसे ऐसी स्वायत्तता को अनुकूलता देती है. जब तक चीन संधि की मर्यादा में रहा, हांगकांग में सब ठीक चलता रहा. इंग्लैंड की लोकतांत्रिक परंपराओं के तहत पला हांगकांग जब चीनी प्रभुत्व तले आया तब उसके पास वह लोकतांत्रिक परंपरा थी जिसमें असहमति की आजादी थी, नये संगठन खड़ा करने और नया रास्ता खोजने, बोलने, लिखने और बयान देने की आजादी थी. यह सब चीन को नागवार तो गुजरता रहा लेकिन उसने वक्त को गुजरने दिया और अपना फंदा कसना भी जारी रखा. कसते फंदे की घुटन जल्दी ही सतह पर आने लगी और इसके प्रतिकार की खबरें हांगकांग से चल कर दुनिया भर में फैलने लगीं. चीन को यह नया हांगकांग रास कैसे आता? उसे हांगकांग से उठती हर स्वतंत्र आवाज अपने लिए चुनौती लगने लगी. लेकिन यह आवाज एक बार उठी तो फिर कभी गुम नहीं हुई.

चीनी दवाब के खिलाफ हांगकांग कोई चार साल पहले बोला. वहां की सड़कों से ऐसी आवाज उठी जैसी पहले कभी सुनी नहीं गई थी. युवकों का यह ऐसा प्रतिकार था जिसने जल्दी ही सारे हांगकांग को अपनी चपेट में ले लिया. देखते-देखते सारा देश, जिसे चीनी आज भी ‘एक शहर’ भर कहते हैं, दो टुकड़ों में बंट गया. एक छोटा-सा, मुट्ठी भर चीनपरस्त नौकरशाहों का हांगकांग, दूसरी तरफ सारा देश! इसलिए प्रतिरोध व्यापक भी हुआ और उग्र भी! वह अहिंसक तो नहीं ही रहा, उसे शांतिमय भी नहीं कहा जा सकता था. लेकिन यह फैसला इस आधार पर भी करना चाहिए कि सत्ता के कैसे दमन का, नागरिकों ने कैसा प्रतिकार किया.

महात्मा गांधी ने भी ऐसा विवेक किया था और पश्चिम में हुए नागरिकों के कुछ प्रतिरोधों को ‘करीब-करीब अहिंसक’ कहा था. उन्होंने हमें यह भी समझाया था कि बिल्ली के मुंह में दबा चूहा जब दम टूटने से पहले, पलट कर बिल्ली को काटने की कोशिश करता है तो वह हिंसा नहीं, बहादुरों की अहिंसा का ही प्रमाण दे रहा होता है. इसलिए ऐसा तो नहीं है कि हांगकांग के नागरिक प्रतिकार के पीछे कहीं महात्मा गांधी की प्रेरणा है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वहां महात्मा गांधी की उपस्थिति है ही नहीं. यथासंभव शांतिमय लेकिन व्यापक हर नागरिक प्रतिरोध का चेहरा महात्मा गांधी की तरफ ही होता है. इसलिए भी यह जरूरी है, और नैतिक है कि सारा संसार हांगकांग की तरफ देखें और उसकी सुने, और चीन को पीछे लौटने को मजबूर करे.

अभी-अभी जून में चीन ने हांगकांग के बारे में एकतरफा निर्णय किया कि ‘हांगकांग नगर सरकार’ को यह अधिकार है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन रहे किसी भी राजनेता को उसके पद, हैसियत, संगठन से बहिष्कृत कर सकती है. देशद्रोह वह सबसे सस्ता स्टिकर है जो किसी की भी पीठ पर चिपकाया जा सकता है. चीनी आदेश में कहा गया कि वे सभी ‘देश की सुरक्षा’ के लिए खतरा हैं जो हांगकांग के लिए आजादी की मांग करते हैं, चीन का आधिपत्य स्वीकार करने से इंकार करते हैं, हांगकांग के मामले में विदेशी हस्तक्षेप की मांग करते हैं या किसी दूसरे तरीके से भी लोकतांत्रिक आंदोलन को शह देते हैं. चीन से ऐसी शह मिलते ही ‘नगर सरकार’ ने चार सांसदों को संसद से बहिष्कृत कर दिया. ये चारों सदस्य चीनी वर्चस्व के सबसे संयत लेकिन सबसे तर्कशील प्रतिनिधि थे. दूसरे उग्र सांसदों को न छू कर, इन्हें निशाने पर लेने के पीछे की रणनीति प्रतिरोध आंदोलन में फूट डालने की थी. हांगकांग की संसद के 70 सदस्यों में 19 सदस्य लोकतंत्र समर्थक संगठन के दम पर चुनाव जीत कर आए हुए हैं.

चीन-समर्थक डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष वू ची-वाई ने कहा, “अब हमें दुनिया से यह कहने की जरूत नहीं है कि हम आज भी 'एक देश: दो विधान' वाले हैं. ऐसा कहना तो अपनी मौत की आधिकारिक घोषणा करना होगा!” अब इसका जवाब लोकतंत्र समर्थकों की तरफ से आना था और वह अभी-अभी आया है जब वहां की संसद से बाकी बचे 15 सांसदों ने एक साथ त्यागपत्र दे दिया. “जहां लोकतंत्र नहीं है वहां हमारे होने का मतलब ही क्या है!”, लोकतंत्र समर्थकों की प्रवक्ता ने कहा. हांगकांग की संसद लोकतंत्रविहीन हो गई.

यह बेहद कड़वा घूंट साबित हुआ और इसलिए चीन समर्थक नौकरशाहों ने अगला हमला इंग्लैंड पर किया और कहा कि वह तुरंत ‘अपनी गलती का परिमार्जन’ करे. वे लोग कौन-सी गलती की बात कर रहे हैं? यहां निशाने पर बीएओ पासपोर्ट है. मतलब वे तीन लाख हांगकांग के नागरिक जिनके पास इंग्लैंड का वह पासपोर्ट है जिसके बल पर वे जब चाहे इंग्लैंड जा कर, वहां के वैधानिक नागरिक बन सकते हैं. ये लोग चीन के लिए नैतिक खतरा बने हुए हैं. चीन चाहता है कि इंग्लैंड वह पासपोर्ट रद्द कर दे. लेकिन इंग्लैंड बार-बार हांगकांग के इन नागरिकों को आश्वस्त करता रहता है कि वे जब चाहें इस दरवाजे पर दस्तक दे कर भीतर आ जाएं. यह दरवाजा चीन को आतंकित करता रहता है, क्योंकि करीब 30 लाख वे लोग भी बीएओ पासपोर्ट के वैधानिक हकदार हैं जिनका जन्म हांगकांग के चीन को मिलने से पहले हुआ है.

मतलब यह है कि हांगकांग के कोई 35 लाख नागरिक किसी भी दिन इंग्लैंड के नागरिक बन कर देश छोड़ सकते हैं. यह वह भयावह मंजर है जिसे चीन पचा नहीं पा रहा है. कुछ नासमझ लोग हैं जो इस पूरे मामले को चीन के अत्यंत प्राचीन कबीलों की आपसी लड़ाई से जोड़ कर समझना-समझाना चाहते हैं. उन्हें यह अंदाजा ही नहीं है कि यह आधुनिक हांगकांग है जो कबीलों की नहीं, लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है.

अब दुनिया भर की लोकतांत्रिक शक्तियों के सामने चुनौती है कि हांगकांग कहीं याह्या खान के समक्ष खड़ा बांग्लादेश न बन जाए! आज तो कोई जयप्रकाश नारायण भी हैं नहीं कि जो बांग्लादेश की अंतरात्मा को कंधे पर ढोते हुए, सारे संसार की लोकतांत्रिक शक्तियों के दरवाजे पर दस्तक देते हुए फिरेंगे. इसलिए हांगकांग की दस्तक सुनना जरूरी है. बाइडन भी सुनें और हमारा देश भी सुने अन्यथा लोकतंत्र हमारी सुनना बंद कर देगा.

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अभी जो बाइडन ने व्हाइट हाउस की दहलीज पर पांव भी नहीं रखा है कि उसके दरवाजे पर हांगकांग की दस्तक पड़ने लगी है. राष्ट्रपति भवन में सांस लेने से पहले ही बाइडन को पता चल गया है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक में सांस लेने का अवकाश नहीं होता है. और यह भी कि उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति की भूमिका में कितना बड़ा अंतर होता है. हांगकांग ने व्हाइट हाउस के द्वार पर जो दस्तक दी है, बाइडन उसे अनसुना नहीं कर सकेंगे, क्योंकि वह ट्रंप-समर्थकों की नहीं, लोकतंत्र की दस्तक है.

कभी चीन से हासिल किया गया हांगकांग लंबे समय तक ब्रितानी उपनिवेश रहा. 1997 में इंग्लैंड ने हांगकांग को एक संधि के तहत चीन को वापस लौटाया जिसकी आत्मा थी: ‘एक देश : दो विधान!’ आशय यह था कि हांगकांग चीन का हिस्सा रहेगा जरूर लेकिन चीनी कानून उस पर लागू नहीं होंगे. संधि कहती है कि 2047 तक हांगकांग के अपने नागरिक अधिकार होंगे और अपनी लोकतांत्रिक परंपराएं होंगी. चीन उनमें किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा.

हांगकांग की भौगोलिक स्थिति भी उसे ऐसी स्वायत्तता को अनुकूलता देती है. जब तक चीन संधि की मर्यादा में रहा, हांगकांग में सब ठीक चलता रहा. इंग्लैंड की लोकतांत्रिक परंपराओं के तहत पला हांगकांग जब चीनी प्रभुत्व तले आया तब उसके पास वह लोकतांत्रिक परंपरा थी जिसमें असहमति की आजादी थी, नये संगठन खड़ा करने और नया रास्ता खोजने, बोलने, लिखने और बयान देने की आजादी थी. यह सब चीन को नागवार तो गुजरता रहा लेकिन उसने वक्त को गुजरने दिया और अपना फंदा कसना भी जारी रखा. कसते फंदे की घुटन जल्दी ही सतह पर आने लगी और इसके प्रतिकार की खबरें हांगकांग से चल कर दुनिया भर में फैलने लगीं. चीन को यह नया हांगकांग रास कैसे आता? उसे हांगकांग से उठती हर स्वतंत्र आवाज अपने लिए चुनौती लगने लगी. लेकिन यह आवाज एक बार उठी तो फिर कभी गुम नहीं हुई.

चीनी दवाब के खिलाफ हांगकांग कोई चार साल पहले बोला. वहां की सड़कों से ऐसी आवाज उठी जैसी पहले कभी सुनी नहीं गई थी. युवकों का यह ऐसा प्रतिकार था जिसने जल्दी ही सारे हांगकांग को अपनी चपेट में ले लिया. देखते-देखते सारा देश, जिसे चीनी आज भी ‘एक शहर’ भर कहते हैं, दो टुकड़ों में बंट गया. एक छोटा-सा, मुट्ठी भर चीनपरस्त नौकरशाहों का हांगकांग, दूसरी तरफ सारा देश! इसलिए प्रतिरोध व्यापक भी हुआ और उग्र भी! वह अहिंसक तो नहीं ही रहा, उसे शांतिमय भी नहीं कहा जा सकता था. लेकिन यह फैसला इस आधार पर भी करना चाहिए कि सत्ता के कैसे दमन का, नागरिकों ने कैसा प्रतिकार किया.

महात्मा गांधी ने भी ऐसा विवेक किया था और पश्चिम में हुए नागरिकों के कुछ प्रतिरोधों को ‘करीब-करीब अहिंसक’ कहा था. उन्होंने हमें यह भी समझाया था कि बिल्ली के मुंह में दबा चूहा जब दम टूटने से पहले, पलट कर बिल्ली को काटने की कोशिश करता है तो वह हिंसा नहीं, बहादुरों की अहिंसा का ही प्रमाण दे रहा होता है. इसलिए ऐसा तो नहीं है कि हांगकांग के नागरिक प्रतिकार के पीछे कहीं महात्मा गांधी की प्रेरणा है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वहां महात्मा गांधी की उपस्थिति है ही नहीं. यथासंभव शांतिमय लेकिन व्यापक हर नागरिक प्रतिरोध का चेहरा महात्मा गांधी की तरफ ही होता है. इसलिए भी यह जरूरी है, और नैतिक है कि सारा संसार हांगकांग की तरफ देखें और उसकी सुने, और चीन को पीछे लौटने को मजबूर करे.

अभी-अभी जून में चीन ने हांगकांग के बारे में एकतरफा निर्णय किया कि ‘हांगकांग नगर सरकार’ को यह अधिकार है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन रहे किसी भी राजनेता को उसके पद, हैसियत, संगठन से बहिष्कृत कर सकती है. देशद्रोह वह सबसे सस्ता स्टिकर है जो किसी की भी पीठ पर चिपकाया जा सकता है. चीनी आदेश में कहा गया कि वे सभी ‘देश की सुरक्षा’ के लिए खतरा हैं जो हांगकांग के लिए आजादी की मांग करते हैं, चीन का आधिपत्य स्वीकार करने से इंकार करते हैं, हांगकांग के मामले में विदेशी हस्तक्षेप की मांग करते हैं या किसी दूसरे तरीके से भी लोकतांत्रिक आंदोलन को शह देते हैं. चीन से ऐसी शह मिलते ही ‘नगर सरकार’ ने चार सांसदों को संसद से बहिष्कृत कर दिया. ये चारों सदस्य चीनी वर्चस्व के सबसे संयत लेकिन सबसे तर्कशील प्रतिनिधि थे. दूसरे उग्र सांसदों को न छू कर, इन्हें निशाने पर लेने के पीछे की रणनीति प्रतिरोध आंदोलन में फूट डालने की थी. हांगकांग की संसद के 70 सदस्यों में 19 सदस्य लोकतंत्र समर्थक संगठन के दम पर चुनाव जीत कर आए हुए हैं.

चीन-समर्थक डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष वू ची-वाई ने कहा, “अब हमें दुनिया से यह कहने की जरूत नहीं है कि हम आज भी 'एक देश: दो विधान' वाले हैं. ऐसा कहना तो अपनी मौत की आधिकारिक घोषणा करना होगा!” अब इसका जवाब लोकतंत्र समर्थकों की तरफ से आना था और वह अभी-अभी आया है जब वहां की संसद से बाकी बचे 15 सांसदों ने एक साथ त्यागपत्र दे दिया. “जहां लोकतंत्र नहीं है वहां हमारे होने का मतलब ही क्या है!”, लोकतंत्र समर्थकों की प्रवक्ता ने कहा. हांगकांग की संसद लोकतंत्रविहीन हो गई.

यह बेहद कड़वा घूंट साबित हुआ और इसलिए चीन समर्थक नौकरशाहों ने अगला हमला इंग्लैंड पर किया और कहा कि वह तुरंत ‘अपनी गलती का परिमार्जन’ करे. वे लोग कौन-सी गलती की बात कर रहे हैं? यहां निशाने पर बीएओ पासपोर्ट है. मतलब वे तीन लाख हांगकांग के नागरिक जिनके पास इंग्लैंड का वह पासपोर्ट है जिसके बल पर वे जब चाहे इंग्लैंड जा कर, वहां के वैधानिक नागरिक बन सकते हैं. ये लोग चीन के लिए नैतिक खतरा बने हुए हैं. चीन चाहता है कि इंग्लैंड वह पासपोर्ट रद्द कर दे. लेकिन इंग्लैंड बार-बार हांगकांग के इन नागरिकों को आश्वस्त करता रहता है कि वे जब चाहें इस दरवाजे पर दस्तक दे कर भीतर आ जाएं. यह दरवाजा चीन को आतंकित करता रहता है, क्योंकि करीब 30 लाख वे लोग भी बीएओ पासपोर्ट के वैधानिक हकदार हैं जिनका जन्म हांगकांग के चीन को मिलने से पहले हुआ है.

मतलब यह है कि हांगकांग के कोई 35 लाख नागरिक किसी भी दिन इंग्लैंड के नागरिक बन कर देश छोड़ सकते हैं. यह वह भयावह मंजर है जिसे चीन पचा नहीं पा रहा है. कुछ नासमझ लोग हैं जो इस पूरे मामले को चीन के अत्यंत प्राचीन कबीलों की आपसी लड़ाई से जोड़ कर समझना-समझाना चाहते हैं. उन्हें यह अंदाजा ही नहीं है कि यह आधुनिक हांगकांग है जो कबीलों की नहीं, लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है.

अब दुनिया भर की लोकतांत्रिक शक्तियों के सामने चुनौती है कि हांगकांग कहीं याह्या खान के समक्ष खड़ा बांग्लादेश न बन जाए! आज तो कोई जयप्रकाश नारायण भी हैं नहीं कि जो बांग्लादेश की अंतरात्मा को कंधे पर ढोते हुए, सारे संसार की लोकतांत्रिक शक्तियों के दरवाजे पर दस्तक देते हुए फिरेंगे. इसलिए हांगकांग की दस्तक सुनना जरूरी है. बाइडन भी सुनें और हमारा देश भी सुने अन्यथा लोकतंत्र हमारी सुनना बंद कर देगा.

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