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दिल्ली हिंसा: कैसे मोहम्मद आरिफ ने हिंदू बनकर अपने मामा की ही सामूहिक हत्या कर दी

25 फरवरी को उत्तर पूर्वी दिल्ली के बृजपुरी में हुई हिंसा अपने पीछे एक जला हुआ स्कूल, एक क्षतिग्रस्त मस्जिद, आगजनी में तबाह हुई दुकानें, घर और चार लोगों को मृत छोड़ गई. साल की शुरुआत में राजधानी के दंगों में अपने पीछे 53 लोगों की जान लेने वाले दिल्ली दंगों के इस तीसरे और सबसे हिंसक दिन अशफाक हुसैन, मेहताब खान शाकिर अहमद और मनीष सिंह मारे गए.

जुलाई में दिल्ली पुलिस के विशेष जांच दल ने अशफाक, मेहताब और जाकिर की मौत पर तीन अलग आरोप पत्र दाखिल किए. इससे पहले के ती महीनों में पुलिस ने बृजपुरी रोड पर तीन लोगों की डंडों, कैंचियों और तलवारों से की गई सामूहिक हत्या के लिए चार हिंदुओं और एक मुसलमान को गिरफ्तार किया था.

न्यूज़लॉन्ड्री की दंगों की पड़ताल करते हुए इस श्रृंखला के पहले दूसरे और तीसरे भाग में हमने पाया कि कैसे दिल्ली पुलिस ने सांप्रदायिक हिंसा के बीच मुसलमानों को ही मुसलमानों की हत्या के लिए आरोपी बनाया.

अशफाक, मेहताब और जाकिर की हत्या में पुलिस ने चार हिंदू और बृजपुरी के कारीगर मोहम्मद आरिफ की गिरफ्तारी में कॉल डिटेल, सीसीटीवी फुटेज और गवाहों के बयानों को आधार बनाया है. उनके ऊपर आरोप भारतीय कानून संहिता के आठ सूत्रों के अंतर्गत दाखिल हुए हैं जिनमें हत्या और आपराधिक साजिश जैसे कानून शामिल हैं. पुलिस ने एक चश्मदीद गवाह के बयानों के आधार पर पांचों को आरोपी बनाया है. पुलिस के द्वारा पेश किए गए दो और चश्मदीद गवाह यह दावा करते हैं कि आरिफ दंगा करने वाली भीड़ का हिस्सा था. हालांकि उनमें से किसी ने भी यह दावा नहीं किया कि वह इन तीन व्यक्तियों की सामूहिक हत्या में शामिल था. अब यह बात सामने आई है कि मरने वालों में से एक आरिफ के मामा थे.

अपनी ग्राउंड रिपोर्ट में न्यूजलॉन्ड्री को पता चला कि संभवत आरिफ हत्या में शामिल नहीं था और यह भी संभव है कि वह दंगाई भीड़ का भी हिस्सा नहीं था. बाकी चार आरोपियों पर भी हत्या का आरोप लगाने में पुलिस के कारण भी काफी कमजोर दिखाई पड़ते हैं.

अपनी छानबीन में हमें यह भी पता चला कि पुलिस ने तीन अलग-अलग हत्याओं को एक तीन लोगों की हत्या का सामूहिक कृत्य बताया है, जिससे पुलिस ने इसके लिए इन्हीं पांच लोगों को उन्हीं गवाहों के बयानों पर गिरफ्तार किया है और मामलों में दाखिल स्पष्ट और अनिर्णायक से दिखने वाले तीनों आरोप पत्र दाखिल किए हैं.

आरोप पत्र सांप्रदायिक हिंसा और तीनों हत्याओं में पुलिस कि आरोपित भूमिका से आंख मूंद लेते हैं. बृजपुरी और उसके पड़ोस के मुस्तफाबाद के स्थानीय निवासी दावा करते हैं कि 25 फरवरी को बृजपुरी की फारुकिया मस्जिद पर, जहां सीएए और एनआरसी के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहे थे- वहां पुलिस की वेशभूषा में एक दल ने हमला कर उसे जला दिया था और वहां मौजूद श्रद्धालुओं के साथ हिंसा की थी.

पुलिस दावा करती है कि वे और आरोपियों गवाहों और संभावित अपराधियों की पहचान के लिए अभी भी जांच कर रही है, जो भी तथ्य सामने आएंगे आगे दाखिल होने वाले आरोप पत्र में शामिल किए जाएंगे.

25 फरवरी को बृजपुरी में जाकिर अहमद, अशफाक हुसैन और मेहताब खान की हत्या कर दी गई थी

बृजपुरी में तबाही का दिन

25 फरवरी को 22 वर्षीय अशफाक जो मुस्तफाबाद में एक बिजली मैकेनिक था, पास की ब्रह्मपुरी से शाम को घर वापस आ रहा था. बृजपुरी का 24 वर्षीय जाकिर फारूकी मस्जिद में शाम की नमाज देने गया था. 22 वर्षीय मेहताब खान जो बृजपुरी में रहने वाला एक विद्यार्थी था शाम को 6:00 बजे दूध लाने बाहर गया था. इनमें से कोई भी घर वापस नहीं लौटा.

इनकी लाशें बृजपुरी रोड पर मिली थीं जहां से उन्हें दिलशाद गार्डन के गुरु तेग बहादुर अस्पताल ले जाया गया जहां पर उन्हें मृत अवस्था में लाया गया घोषित कर दिया.

उत्तर पूर्वी दिल्ली की सांप्रदायिक हिंसा में 25 फरवरी तीसरा और सबसे रक्तरंजित दिन था. इससे दो दिन पहले भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा ने मौजपुर में एक हुजूम इकट्ठा किया था और कहा था कि अगर जाफराबाद के सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले लोगों को वहां से हटाया नहीं गया, तो वह कानून अपने हाथ में ले लेंगे. हिंदू और मुसलमान दोनों के बीच पत्थरबाजी उसके थोड़े ही समय बाद शुरू हो गई थी.

24 फरवरी को मध्यान्ह के आसपास वजीराबाद रोड पर दिल्ली पुलिस और सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों के बीच झड़प हुई. यह झड़प जल्दी ही एक तरफ मुसलमानों और दूसरी तरफ पुलिस और हिंदू दंगाइयों के बीच एक हिंसक टकराव में तब्दील हो गई. खजूरी खास और शिव विहार के बीच आनन-फानन में खड़ी की गई सीमाएं पैदा हो गईं, जिसने एक दूसरे पर दोपहर से देर शाम तक पत्थरबाजी और पेट्रोल बम फेंकती हुई भीड़ को अलग कर दिया.

25 फरवरी को दोपहर करीब 1:30 बजे, बृजपुरी पुलिया जो मुस्लिम बाहुल्य मुस्तफाबाद और मिले-जुले जनसंख्या वाले बृजपुरी को अलग करती है, पर सीएए के खिलाफ प्रदर्शन स्थल पर भीड़ इकट्ठा हो गई. वहां से करीब 300 मीटर दूर बृजपुरी रोड, जो पूरी उत्तर पूर्वी दिल्ली में फैली हुई वजीराबाद रोड से निकलती है, पर एक दूसरी भीड़ इकट्ठा होने लगी.

शुरू में हिंसा बहुत मामूली स्तर की थी. मोटरसाइकिल पर चलने वाले हिंदू युवकों को पुलिया पर रोका गया और उन्हें बाकी रास्ता पैदल तय करने को कहा गया जब उनके वाहनों को जलाया जा रहा था. बृजपुरी रोड पर दूसरी भीड़ मुसलमान युवकों के साथ यही बर्ताव कर रही थी. दोपहर करीब 3:00 बजे हालात बिगड़ने लगे जब मुस्लिम भीड़ रोड पर हिंदू दुकानदारों के शटर तोड़कर उन्हें लूटते और आग जलाते हुए तेजी से आगे बढ़ने लगी. एशिया वेल की रिपोर्ट के अनुसार यह आगजनी पूर्व नियोजित दिखाई पड़ती है क्योंकि भीड़ गाड़ियों पर तेल के ड्रम पत्थर साथ लेकर आई थी.

पुलिया और बृजपुरी मुख्य सड़क
हिंसा के दो दिन बाद बृजपुरी मुख्य मार्ग

हिंदू भीड़ पीछे धकेल दी गई और परिणाम स्वरूप हुई हिंसा में गोलियां भी चलीं. 22 वर्षीय मनीष सिंह उर्फ राहुल ठाकुर, जो ब्रिज पुरी निवासी था यह देखने के लिए बाहर निकला कि यह हंगामा क्या है, इस दौरान उसकी छाती में गोली लगी. उसी दिन बाद में गुरु तेग बहादुर अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया.

बृजपुरी के निवासी यह आरोप लगाते हैं कि पुलिस और अर्धसैनिक सुरक्षा बल जो वजीराबाद रोड पर थे, उन्होंने आगजनी और पत्थरबाजी को रोकने से मना कर दिया. बृजपुरी रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के सेक्रेटरी अशोक सोलंकी याद करते हैं: "जब मैंने एक पुलिस की कार को देखा तो मैं मदद मांगते हुए उसके सामने लेट गया. गाड़ी में से कुछ कांस्टेबल बाहर निकले उन्होंने मुझे मेरे हाथ और पैर पकड़ कर उठाया और बगल में कर दिया. वह कह रहे थे कि उनके पास हस्तक्षेप करने के आदेश नहीं हैं."

पुलिस और अर्धसैनिक बल शाम 6:00 बजे के बाद वहां पहुंचे. मुस्लिम भीड़ बृजपुरी रोड से पीछे हट कर फिर पुलिया पर पहुंच गई. हिंदू भीड़, जो अभी तक संख्या बल में कम थी, उसने बृजपुरी रोड के साथ लगी हुई मुसलमानों की दुकानों को आग लगाते हुए आक्रामक होना शुरू कर दिया. करीब 6:30 बजे एक भीड़ जिसमें पुलिस के वर्दी धारी लोग भी शामिल थे उन्होंने पुलिया के पास की फारुकिया मस्जिद पर हमला बोल दिया. डंडे, सरिए, चाकू और तलवारों से लैस भीड़ ने अंदर नमाज पढ़ रहे आदमियों और बाहर प्रदर्शन कर रही औरतों पर हमला किया. उन्होंने मस्जिद को आग लगा दी और प्रदर्शन स्थल को तबाह कर दिया.

24 वर्षीय जाकिर के भाई गुलफाम बताते हैं कि वह मस्जिद पर हुए हमले में मारा गया. दोनों भाई बृजपुरी में एक वेल्डिंग की दुकान चलाते थे. गुलफाम बताते हैं, "वह शाम की नमाज के लिए मस्जिद गया था. करीब 6:30 बजे मुझे पता चला कि उसकी लाश पुलिया के पास पड़ी थी जहां से उसे मुस्तफाबाद के मेहर नर्सिंग होम ले जाया गया." गुलफाम यह भी कहते हैं कि नर्सिंग होम ने जाकिर को दाखिल नहीं किया और वहां से उसे पास के अल हिंद अस्पताल खाट पर ले जाना पड़ा. रास्ते में ही उसकी मौत हो गई तब करीब रात के 8:00 बजे थे."

अल हिंद अस्पताल में जाकिर की लाश को इंदिरा विहार के निवासी अशफाक हुसैन की लाश के बगल में रखा गया. अशफाक की मां अली फातिमा की आखिरी बार अपने नवविवाहित बेटे से शाम को करीब 6:30 बजे फोन पर हुई थी. वे कहती हैं, "वह तो नहीं बोल पा रहा था पर ऐसा लगा कि जैसे मैंने उसे आखिरी सांसे लेते हुए सुना."

शाम के 7:00 बजे परिवार को पता चला कि अशफाक की लाश पुलिया के पास खून से लथपथ पड़ी थी. उनके पिता आगाज हुसैन कहते हैं, "उस रात और अगले दिन बहुत सी औरतें हमारे घर आईं और उन्होंने हमें बताया की मस्जिद पर उन सब की रक्षा करते हुए अशफाक की जान गई."

उसी शाम, मस्जिद से करीब 40 मीटर दूर मेहताब की लाश मिली थी. उसके परिवार और पड़ोसी दावा करते हैं कि मेहताब मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं था. उसकी मां खुशनूजी कहती हैं कि वह हिंसा के बीच गिरकर तब मरा जब वह शाम को 6:00 बजे दूध लेने बाहर गया था. गुस्से में कांपती हुई आवाज़ में वे कहती हैं, "मेरे अंदर एक आग सी जल रही है. जिसने भी यह किया है उसे सजा जरूर मिलेगी."

जाकिर के भाई गुलफाम अहमद जो बृजपुरी में एक वेल्डिंग की दुकान चलाते हैं
अशफाक के पिता आगाज हुसैन जो मुस्तफाबाद के इंदिरा विहार में रहते हैं
मेहताब की मां खुशनूजी अपने घर बृजपुरी में

मोहम्मद आरिफ कहां था?

28 फरवरी को दयालपुर पुलिस स्टेशन ने अशफाक जाकिर मेहता और एक ज़मील ह़क की हत्या के लिए एफआईआर संख्या 77/2020 दाखिल की. यह एफआईआर, गुरु तेग बहादुर अस्पताल के द्वारा इन मौतों के लिए मेडिकोलीगल सर्टिफिकेट या एमएलसी जारी करने के बाद दर्ज की गई. तीन हफ्ते बाद, जब एसआईटी को केस दिए जाने के 15 दिन बीत चुके थे, इन मौतों के लिए अलग-अलग तीन एफआईआर - 159/2020 (अशफाक), 163/2020 (मेहताब) और 158/2020 (ज़ाकिर)- दयालपुर पुलिस स्टेशन में दाखिल की गईं. इनके पीछे का तर्क यह था कि पुलिस की जांच पड़ताल में यह बात सामने आई कि चारों हत्याएं अलग-अलग समय पर अलग-अलग जगह की गई थीं.

अब एसआईटी अपने ही द्वारा इकट्ठी की गई जानकारी का खंडन कर रही है. जुलाई में दाखिल किए गए आरोप पत्र दावा करते हैं कि जाकिर, मेहताब और अशफाक बृजपुरी रोड पर गली नंबर 10 के बाहर हिंदू भीड़ के द्वारा एक साथ मारे गए.

तीन हत्याओं को एक ही सामूहिक हत्या बता देने का नतीजा यह है कि तीनों आरोप पत्र लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं, जिनमें वही आरोपी वही गवाह वही परिस्थितियां और वही नक्शे शामिल हैं. केवल मरे हुए लोगों के नाम और पते अलग हैं.

चार्जशीट में बताया गया है कि कैसे मोहम्मद आरिफ ने हिंदू होने का ढोंग किया

पुलिस का दावा है कि 35 वर्षीय आरिफ, जो हिंदू भीड़ का हिस्सा था ने इस त्रिआयामी हत्या को अंजाम दिया. आरोप पत्र यह कहता है कि उसने "कुछ हिंदुओं की भीड़" को इन तीन लड़कों को पकड़ कर बुरी तरह पीटते हुए देखा.

आरोप पत्र आगे कहता है- "वह डर के मारे वहीं रुका रहा और उसने अपने मुंह पर रूमाल बांध लिया. अपने को छुपाने के लिए उसने भी वही सब नारे लगाने शुरू कर दिए. अपने को बचाने के लिए उसने भी इन तीन लड़कों को पीटा. यह लड़के उस समय संभवत मर कर गिर गए. फिर वह वहां से किसी तरह निकल भागा. उसे बाद में यह पता चला कि तीनों लड़के मुसलमान थे."

क्या पुलिस के पास अपने इस कथानक के लिए सबूत हैं? कुछ खास नहीं. पुलिस के पास इस वाद को दोहराते हुए एक बयान है, जिस पर कथित रूप से आरिफ के ही दस्तखत हैं. पुलिस की हिरासत में दिया हुआ यह बयान अदालत में कोई मायने नहीं रखता. पुलिस यह भी दावा करती है कि आरिफ के फोन की लोकेशन "घटना के समय घटनास्थल पर ही मिली है."

एसआईटी आरिफ और चार हिंदू आरोपियों को दोषी ठहराने में सीसीटीवी फुटेज का सहारा लेती है. आरोप पत्र में हिंदू युवकों के डंडा लिए हुए और पत्थर फेंकते हुए कुछ फुटेज हैं, पर आरिफ का कोई फुटेज नहीं है.

इन आरोप पत्रों में तीन तथाकथित चश्मदीद गवाहों के इस मुस्लिम से हिंदू बने दंगाई के खिलाफ बयान भी हैं. न्यूजलॉन्ड्री के पास मौजूद यह बयान जो पुलिस की हिरासत में दिए गए, कहते हैं कि गवाहों ने आरिफ को मुसलमानों की आग लगाती और दंगा करती हुई भीड़ का नेतृत्व करते हुए देखा. लेकिन उनमें से किसी ने भी उसे जाकिर, अशफाक और मेहताब के ऊपर हमला या उनकी हत्या करते हुए देखने का दावा नहीं किया है.

न्यूजलॉन्ड्री ने इन तीन चश्मदीद गवाहों, ब्रिज पुरी रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के सेक्रेटरी अशोक सोलंकी, उसके अध्यक्ष सुरेंद्र शर्मा और शशिकांत कश्यप से बात की.

61 वर्षीय सुरेंद्र शर्मा कहते हैं, "हमने आरिफ को केवल दुकानें जलाते और दंगा करते हुए देखा किसी को मारते हुए नहीं." वे यह भी कहते हैं कि आरोपी ने उस समय हेलमेट लगाया था, "मैंने उसे इसलिए पहचाना क्योंकि वह हमारे ही मोहल्ले से है."

सुरेंद्र यह स्पष्ट करते हैं कि वह हिंसा खत्म होने के बाद ही बृजपुरी रोड गए जब स्थानीय एसएचओ आ चुके थे. उनका कहना है, "मैं पुलिया पर एसएचओ के साथ ही गया और वहां आरिफ को बिना हेलमेट के देखा."

सुरेंद्र शर्मा का अंदाजा था कि उनके और अशोक सोलंकी के आरिफ के खिलाफ बयान- जो बिल्कुल एक से प्रतीत होते हैं, दंगा करने के मामले में लिए गए थे न कि तीन लोगों की सामूहिक हत्या के मामले में. न्यूजलॉन्ड्री से जानकर के उनके बयान किस उपयोग में लाए जा रहे हैं, वे आश्चर्यचकित होते हैं और तुरंत अशोक सोलंकी को खबर करते हैं.

अशोक सोलंकी और सुरेंद्र शर्मा

सुरेंद्र शर्मा के एक पड़ोसी, 30 वर्षीय शशिकांत कश्यप गाजीपुर में मोबाइल फोन की एक दुकान चलाते हैं. वे इस त्रिआयामी हत्या के मुख्य चश्मदीद गवाह हैं. पुलिस का कहना है कि उन्होंने न केवल आरिफ को दंगा और आगजनी करते हुए देखा, बल्कि उन्होंने बृजपुरी के पांच आदमियों को मिलकर मेहताब, अशफाक और जाकिर की सामूहिक हत्या करते हुए भी देखा. उनमें से एक, प्रवीण लापता बताया जाता है और बाकी के चार- अशोक, अजय, शुभम और जितेंद्र महीनों से जेल में बंद हैं. आरोप पत्र के साथ जोड़ा गया एक नक्शा कथित तौर पर यह दिखाता है कि शशिकांत कश्यप ने केवल कुछ मीटर की दूरी से ही यह हत्या देखी.

न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए शशिकांत अपने एसआईटी को दिए हुए बयान से अलग बात करते हैं. उनका कहना है, "मैंने सुना था कि मेहताब मारा गया. मैंने दो आदमियों को हिंदू भीड़ के द्वारा मारते हुए देखा. यह उस दिन तब हुआ जब दोनों भीड़ गुत्थम-गुत्था थीं." यह बताने पर के उनका एसआईटी को दिया गया बयान साफ कहता है कि उन्होंने तीन आदमियों को देखा, वे कहते हैं कि पुलिस ने "संभवत एक आदमी जोड़ दिया होगा."

यह मुख्य गवाह दावा करता है कि उसने हिंदू दंगाइयों की पहचान पुलिस द्वारा उनके हाव भाव देखकर की. "रात का समय था तो कोई देख तो सकता नहीं था. मैं शारीरिक बनावट और चलने के तरीके से पहचान जान पाया."

शर्मा और सोलंकी के आरोपों से अलग, शशिकांत कश्यप का दावा है कि उन्होंने दंगों के दौरान आरिफ का चेहरा देखा और वह हेलमेट पहने हुए नहीं था.

क्या आरिफ दोनों आदमियों को पीटने वाली भीड़ का हिस्सा था? शशिकांत जवाब देते हैं, "बिल्कुल हो सकता है. मैंने केवल हमले की 15 सेकंड के आसपास झलक देखी थी."

बृजपुरी के निवासी आरिफ के बारे में एक बात पर जोर देना बिल्कुल नहीं भूलते, कि वह "बीसी" अर्थात बुरे चरित्र वाला है, जिसका हवालात का इतिहास है. बृजपुरी निवासी आरिफ की मां फरहीन कहती हैं, "पुलिस हमेशा मेरे लड़के के पीछे पड़ी थी. उससे एक बार एक गलती हुई और उसके बाद पुलिस जब मन करे तब आती है और उसे बिना कारण उठाकर ले जाती है."

आरोप पत्र आरिफ के खिलाफ 2005 से दाखिल हुए 24 मामलों की सूची प्रस्तुत करता है. उनमें से एक में वह दोषी साबित हुआ, लेकिन वह मामला 2004 में चोरी और घुसपैठ का है. बाकी मामलों में से दो में अदालत की कार्यवाही बाकी है, एक में वह बरी हो गया है और बाकी में उसे छोड़ दिया गया. एक मामला खारिज किया जा चुका है. 2009 से 2015 के बीच आरिफ को छ: बार गिरफ्तार किया गया है.

आरिफ की मां का कहना है, "वह अप्रैल से जेल में है. हमारे पास जमानत देने के लिए और वकील करने के लिए पैसे नहीं हैं. पुलिस झूठ बोल रही है, हिंसा के वक्त वह हमारी गली के बाहर पहरा देते खड़ा रहा. वो पुलिया पर गया ही नहीं था."

फरहीन के पड़ोसी इस बात की पुष्टि करते हैं. उनके एक पड़ोसी भीकम सिंह जो गली के मुहाने पर दूध की दुकान चलाते हैं, बताते हैं, "वह दंगों के दौरान 24 घंटे गली के बाहर बैठा रहता था. उन दिनों में हिंदू और मुस्लिम साथ खड़े होकर पहरा देते थे."

एक और दुकानदार अली हसन यह दावा करते हैं कि आरिफ कभी पुलिया पर गया ही नहीं. उनका कहना है, "जब हिंसा हो रही थी तो वह इस जगह से कभी गया ही नहीं. जो पुलिस वाले उसके बारे में जानते थे वह अप्रैल में सादे कपड़ों में आकर उसे उठाकर ले गए. उसने उन्हें उसे अकेला छोड़ देने के लिए कहा. उन्होंने उसे गाड़ी में डाला और ले गए."

आरिफ की मां फरहीन जो अपने घर बृजपुरी में रहती है
आरिफ के पड़ोसी भीकम सिंह और अली हसन का कहना है कि उन्होंने हिंसा में भाग नहीं लिया बल्कि अपनी गली की रखवाली की.

अब यह बात निकलकर आई है कि आरिफ, मारे गए लोगों में से एक मेहताब का दूर का भांजा है. मेहताब के बड़े भाई मोहम्मद राशिद कहते हैं, "आरिफ उन्हें मामा बुलाता था."

तो पुलिस यह दावा कर रही है कि आरिफ ने सांप्रदायिक दंगे के दौरान हिंदू आदमी का भेष करके बृजपुरी रोड पर अपने ही मामा की सामूहिक हत्या कर दी.

हत्याएं कैसे और कहां हुईं?

पुलिस का यह दावा है कि जाकिर, अशफाक और मेहता की हत्या एक साथ हिंदू भीड़ के द्वारा हुई जिनमें मेहताब का भांजा आरिफ भी शामिल था, बहुत विरोधाभासों के ऊपर खड़ा है.

मिसाल के तौर पर, एफआईआर 158, 159 और 163 जिन्हें मार्च में दर्ज किया गया कहती हैं, "तफ्तीश के दौरान यह पता चला कि उपरोक्त चार मृत लोगों की हत्या दंगों के दौरान हुई, और उनकी हत्या की जगह और समय, अलग-अलग थे."

मेहताब खान की हत्या से संबंधित एफआईआर

पुलिस अपनी इस वस्तुस्थिति पर जून तक कायम रही. गुरु तेग बहादुर अस्पताल के विधि चिकित्सा विभाग को लिखे गए एक पत्र में इंस्पेक्टर सुरेंद्र कुमार, जो मेहताब की हत्या की जांच कर रहे हैं, स्पष्ट करते हैं, "तफ्तीश के दौरान यह बात सामने आई थी कि चारों मृतक जिनके नाम जाकिर, अशफाक, जमील और मेहताब हैं, अलग-अलग जगहों पर और अलग-अलग समय पर कत्ल किए गए."

सुरेंद्र कुमार ने यह पत्र 22 जून को इससे ठीक उल्टा दावा करते हुए, आरोप पत्र को दाखिल करने से दो हफ्ते पहले लिखा.

इंस्पेक्टर सुरेंद्र कुमार का 22 जून को जीटीबी अस्पताल को पत्र

गली नंबर 10 निवासी रोहित याद करते हैं कि 25 फरवरी को पुलिस के आने के बाद जब हिंसा ठंडी पड़ गई थी, वह बृजपुरी रोड की तरफ गए और उन्होंने मेहताब के शव को देखा. स्पष्ट करते हैं कि उस समय सड़क पर और कोई शव नहीं पड़ा था वह कहते हैं, "मैंने मेहताब के शव को हमारी गली से थोड़ा आगे सड़क पर पड़े हुए देखा. उसके शरीर पर जलने के निशान थे."

चश्मदीद गवाह अशोक सोलंकी और सुरेंद्र शर्मा, रोहित के इस दावे की पुष्टि करते हैं. सोलंकी बताते हैं, "सच यह है कि गली के बाहर कोई नहीं मरा. अरुण मॉडर्न स्कूल के पास केवल मेहताब की जान गई. मैंने उसके शव को देखा था." शर्मा भी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, "जब पुलिस आई तो मेहताब सड़क पर मरा हुआ पड़ा था. वहां केवल एक ही शव था और कोई नहीं."

इसके साथ ही साथ न्यूजलॉन्ड्री के द्वारा देखी गई जाकिर अशफाक और मेहताब की पोस्टमार्टम की तस्वीरें, उनकी चोटों के बीच अनियमितता दिखाती हैं. हालांकि तीनों आदमियों के घर पर एक धारदार हथियार से घाव था- जो पुलिस के दावे के अनुसार तलवार से किया गया- केवल मेहताब के पैरों, हाथों और धड़ पर जलने के निशान हैं. अगर तीनों युवकों की हत्या साथ हुई, तो जलने के निशान केवल मेहताब के शरीर पर ही क्यों हैं, बाकियों के क्यों नहीं? आरोप पत्र यह दावा करता है कि आरोपी डंडो, तलवारों और केंचियों से लैस थे, पर पेट्रोल बमों से नहीं.

तो फिर जाकिर और अशफाक की हत्या कैसे और कहां पर हुई? उनके परिवारों का दावा है कि उनकी हत्या तब हुई जब पुलिस की वर्दी में आदमियों और हिंदू भीड़ ने करीब 6:30 बजे फारूकिया मस्जिद पर हमला बोल दिया. परिवारजनों में से उस समय वहां कोई भी मौजूद नहीं था पर उनके ये आरोप बृजपुरी के और निवासियों, जो उस समय वहां पर थे, की बातों पर आधारित हैं.

बृजपुरी में गली नंबर 10 के बाहर बिजली का खंभा, जहां पुलिस का दावा है कि तीनों लोगों को मार डाला.
बृजपुरी में फारूकिया मस्जिद, यह जनवरी और फरवरी में सीएए के विरोध का स्थल था.
फारूकिया मस्जिद की मरम्मत की जा रही है.

ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्होंने जाकिर और अशफाक को मरा हुआ देखा.

58 वर्षीय नसीम उल हसन मुस्तफाबाद में एक व्यापारी हैं जो 25 फरवरी को मस्जिद के पीछे के मदरसे से बच्चों को बचाने गए जब उस पर हमला हुआ था. वे दावा करते हैं, "मैं मदरसे की छत पर गया और नीचे देखा. वहां दरवाजे पर कम से कम पांच आदमी मरे पड़े थे जिनमें अशफाक और जाकिर भी थे. भीड़ और पुलिस जाते समय तीन आदमियों को ले गए जबकि जाकिर और अशफाक को हमारे लोग उठाकर मेहर नर्सिंग होम ले गए."

फारुकिया मस्जिद के इमाम मुफ्ती मोहम्मद ताहिर और फिरोज अख्तर मुस्तफाबाद के एक दर्जी उन नमाजियों में से थे जिनमें मस्जिद पर हमला किया गया. ताहिर ने हमें फोन पर बताया, "दंगाइयों और वर्दी पहने हुए आदमियों ने हम पर नमाज के दौरान हमला किया. मुझे बाद में पता चला कि मस्जिद पर हमले के दौरान कई आदमी मारे गए, जाकिर उनमें से एक था. मुझे बाकियों के बारे में नहीं पता क्योंकि मैं खुद पुलिस वालों के पीटने के कारण बेहोश हो गया था."

फिरोज जो इस हमले में बुरी तरह घायल हुए, चिंता करते हैं कि बाकी नमाजियों का क्या हुआ. वे कहते हैं, "जब पुलिस और दंगाई अंदर घुसे मस्जिद के अंदर छह लोग थे. मुझे मुएज़्ज़िन साहब और इमाम साहब पर हुए हमले का पता है. पर मैं यह कभी ना जान पाया कि बाकी तीन आदमियों का क्या हुआ."

जब चश्मदीद गवाहों के बयान और उनकी अपनी एफआईआर कुछ और कहती हैं, तो पुलिस क्यों कह रही है कि यह मौतें एक ही सामूहिक हत्या का भाग थीं? एक कारण ये, कि जाकिर और अशफाक की हत्या मस्जिद में नहीं हुई इस पर जोर देकर पुलिस मस्जिद पर हुए हमले की जांच की मांग को आसानी से खारिज कर सकती है, जबकि चश्मदीद गवाह यह आरोप लगाते हैं कि यह हमला हिंदू भीड़ और वर्दीधारी आदमियों के द्वारा मिलकर किया गया.

मस्जिद और मदरसा की देखरेख करने वाली कमेटी के अध्यक्ष मोहम्मद फ़ख़रुद्दीन ध्यान दिलाते हैं कि उनकी बार-बार पुलिस से गुज़ारिश के बावजूद मस्जिद पर हमले की एफआईआर दर्ज नहीं की गई है.

आरोपियों में से एक शुभम सिंह के पिता विजेंद्र सिंह यह कहते हैं कि शशिकांत, शुभम को पहचान ही नहीं सकते थे. उनका कहना है, "इकलौता गवाह, शशिकांत, यह दावा करता है कि उसने मेरे बेटे को देखा उसे जानता भी नहीं था. न ही हम जानते हैं कि शशिकांत कौन है. उसके ऊपर नाम लेने का दबाव पुलिस के द्वारा बनाया जा रहा है. हमारे लड़के को गलत तौर पर पकड़ा गया है. उसके खिलाफ कोई सबूत है ही नहीं."

आरोपी शुभम सिंह के पिता विजेंद्र सिंह बृजपुरी में अपने घर पर.

जुलाई में चार हिंदू आरोपियों ने सुनवाई के दौरान अदालत से कहा कि उन्हें जाकिर की हत्या में झूठा फंसाया जा रहा है क्योंकि वह उसी मोहल्ले में रहते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि "एक गवाह झूठे तौर पर रखा गया है" और उनमें से एक जो सीसीटीवी फुटेज में हथियारबंद दिखाई देता है, केवल "दूसरे समुदाय की दंगाई भीड़" से खुद को बचाने की कोशिश कर रहा था. उनकी जमानत की अर्जी खारिज हो गई थी.

मामले में लिप्त बृजपुरी के दो निवासी, जो इन आरोपियों से किसी भी प्रकार से जुड़े हुए नहीं हैं, कहते हैं कि कश्यप को कई बार कई दिनों तक पुलिस हिरासत में रखा गया. उनमें से एक निवासी, जो बदले की कार्यवाही के डर के कारण अपनी पहचान छुपाना चाहते हैं के अनुसार, "पुलिस ने उससे कहा कि या तो वह आरोपी बन सकता है या गवाह."

हालांकि कश्यप किसी प्रकार के पुलिस दबाव की बात को खारिज करते हुए कहते हैं, "उन्होंने मेरे साथ कोई मारपीट नहीं की. उन्हें शक तो करना ही पड़ेगा. उनके ऊपर भी तो दबाव है."

आरोपपत्र में 25 फरवरी को शुभम की एक डंडा लेकर सीसीटीवी फुटेज है. उसमें मेन रोड पर हिंसा में भाग लेते हुए नहीं दिखाई देता. उसके पिता पूछते हैं, "अगर हम अपने घरों की रक्षा न करें तो फिर क्या करें? 25 फरवरी को मुस्लिम भीड़ को रोक सकने लायक पुलिस बल नहीं था. उन्होंने स्थानीय लड़कों को भीड़ के पीछे धकेलने में मदद करने के लिए कहा था."

न्यूजलॉन्ड्री ने क्राइम ब्रांच के डिप्टी कमिश्नर राजेश देव, जो इस जांच और पुलिस के जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष हैं को प्रश्न भेजे हैं.

उन्होंने कोई भी जवाब देने से इनकार करते हुए हमें पुलिस के जनसंपर्क अधिकारी से बात करने को कहा. उनके अनुसार, "हम मीडिया में चल रहे किसी भी मुद्दे और विवाद का हिस्सा नहीं बन सकते."

पुलिस के अतिरिक्त जनसंपर्क अधिकारी के दफ्तर ने कहा, "हम अदालत में विचाराधीन मामलों पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते."

एक धांधली से भरी जांच?

जाकिर, अशफाक और मेहताब की हत्या के करीब 8 महीने बाद, उनके परिवार बहुत दयनीय अवस्था में हैं. अशफाक और जाकिर अपने परिवारों में इकलौते कम आने वाले थे और मेहताब के भाई राशिद को उनके हिंदू मालिक ने दंगों के बाद निकाल दिया.

वे सभी अपने जीवन के चरम पर थे. जाकिर की शादी को 10 साल हो गए थे और उनके दो बच्चे भी हैं. अशफाक की शादी केवल उनकी मृत्यु से 11 ही दिन पहले हुई थी. उनकी विधवा बीवी को उनकी मौत के बाद उसके मां-बाप के पास वापस पहुंचा दिया गया. जाकिर की पत्नी मुस्कान के लिए, वह सब कुछ थे. वह गुस्से में कहती हैं, "मेरा कोई परिवार नहीं. कोई नहीं है जो मुझे सहारा दे. मेरा पति ही मेरे जीवन में इकलौता चैन का ज़रिया था. उसके हत्यारे इतने नृशंस कैसे हो सकते हैं?"

जाकिर के भाई दावा करते हैं कि हत्याओं के लिए गिरफ्तार पांचों लोगों में से कोई दोषी नहीं है. गुलफाम कहते हैं, "वे सभी निर्दोष हैं. असली दोषी तो बाहर से बंदूकों से लैस होकर आए थे. पुलिस ने इन सब लड़कों को गिरफ्तार किया, पर कपिल शर्मा को नहीं, जो इस सब को भड़काने वाला था."

26 फरवरी को दंगों से अगली सुबह, दिल्ली पुलिस की भर्ती में कुछ लोग फिर से फारूकिया मस्जिद पर आए और उसके पीछे के मदरसे में आग लगा दी. मोहम्मद फ़ख़रुद्दीन मानते हैं कि ऐसा सीसीटीवी सबूतों को मिटाने के लिए किया गया क्योंकि उसका सारा फुटेज मदरसे में ही रखा जाता था.

मोजो स्टोरी के द्वारा हासिल किए गए 26 फरवरी के एक वीडियो में दिखता है कि पुलिस के लोग मदरसे में घुस रहे हैं, खिड़कियों से धुआं निकल रहा है और वह लोग वहां से बाहर निकल रहे हैं.

मेहताब के भाई मोहम्मद रशीद को उनके हिंदू मालिक ने हिंसा के तुरंत बाद निकाल दिया था. अब उसे फारूकिया मस्जिद की मरम्मत का ठेका दिया गया है.
50 वर्षीय मोहम्मद फखरुद्दीन ने आरोप लगाया कि मस्जिद और मदरसे को पुलिस ने जला दिया और लूट लिया.

जैसा कि एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया और बीबीसी ने प्रमाणिक तौर पर दिखा दिया है, यह अकाट्य है कि दिल्ली पुलिस ने राजधानी में सांप्रदायिक मारकाट को बढ़ावा दिया. या तो उन्होंने हिंदू भीड़ के साथ मिलकर मुसलमानों को निशाना बनाया या ऐसा होते हुए हिंसा के दुर्दांत वाक्यों में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया.

इस संदर्भ में, वर्दीधारी आदमियों द्वारा फारुकिया मस्जिद के हमले में जाकर और अशफाक की हत्या को मेहताब की हत्या के साथ जोड़ देना, आत्मरक्षा का एक प्रबल प्रयास लगती है. आरिफ की गिरफ्तारी और हिंसा में उसकी भूमिका को साबित करने के लिए पेश किए गए हल्के सबूत, अजीब से तर्क और विरोधाभासी वक्तव्य, एक कमजोर व्यक्ति के खिलाफ साजिश सी लगती है.

पत्रकार मनोज मिटा और अधिवक्ता एचएस फुल्का 1984 में सिख विरोधी दंगों के बारे में लिखी गई अपनी किताब, When a Tree Shook Delhi मैं बताते हैं कि जब हिंदू भीड़ है इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नरसंहार के लिए राजधानी में घूम रही थी तो दिल्ली पुलिस "आमतौर पर सिखों पर हमलों की मूक दर्शक बनी रही." पर "अगली सुबह जब उन हमलों ने हत्याओं का रूप ले लिया, तब जाकर पुलिस ने हस्तक्षेप किया… लेकिन सामूहिक अपराध को बढ़ावा देने के लिए."

ऐसा लगता है कि पिछले 36 सालों में कुछ बदला नहीं है.

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यह रिपोर्ट दिल्ली पुलिस की 2020 में दिल्ली दंगों के द्वारा की रही जांच करते हुए एक श्रंखला का हिस्सा है.

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25 फरवरी को उत्तर पूर्वी दिल्ली के बृजपुरी में हुई हिंसा अपने पीछे एक जला हुआ स्कूल, एक क्षतिग्रस्त मस्जिद, आगजनी में तबाह हुई दुकानें, घर और चार लोगों को मृत छोड़ गई. साल की शुरुआत में राजधानी के दंगों में अपने पीछे 53 लोगों की जान लेने वाले दिल्ली दंगों के इस तीसरे और सबसे हिंसक दिन अशफाक हुसैन, मेहताब खान शाकिर अहमद और मनीष सिंह मारे गए.

जुलाई में दिल्ली पुलिस के विशेष जांच दल ने अशफाक, मेहताब और जाकिर की मौत पर तीन अलग आरोप पत्र दाखिल किए. इससे पहले के ती महीनों में पुलिस ने बृजपुरी रोड पर तीन लोगों की डंडों, कैंचियों और तलवारों से की गई सामूहिक हत्या के लिए चार हिंदुओं और एक मुसलमान को गिरफ्तार किया था.

न्यूज़लॉन्ड्री की दंगों की पड़ताल करते हुए इस श्रृंखला के पहले दूसरे और तीसरे भाग में हमने पाया कि कैसे दिल्ली पुलिस ने सांप्रदायिक हिंसा के बीच मुसलमानों को ही मुसलमानों की हत्या के लिए आरोपी बनाया.

अशफाक, मेहताब और जाकिर की हत्या में पुलिस ने चार हिंदू और बृजपुरी के कारीगर मोहम्मद आरिफ की गिरफ्तारी में कॉल डिटेल, सीसीटीवी फुटेज और गवाहों के बयानों को आधार बनाया है. उनके ऊपर आरोप भारतीय कानून संहिता के आठ सूत्रों के अंतर्गत दाखिल हुए हैं जिनमें हत्या और आपराधिक साजिश जैसे कानून शामिल हैं. पुलिस ने एक चश्मदीद गवाह के बयानों के आधार पर पांचों को आरोपी बनाया है. पुलिस के द्वारा पेश किए गए दो और चश्मदीद गवाह यह दावा करते हैं कि आरिफ दंगा करने वाली भीड़ का हिस्सा था. हालांकि उनमें से किसी ने भी यह दावा नहीं किया कि वह इन तीन व्यक्तियों की सामूहिक हत्या में शामिल था. अब यह बात सामने आई है कि मरने वालों में से एक आरिफ के मामा थे.

अपनी ग्राउंड रिपोर्ट में न्यूजलॉन्ड्री को पता चला कि संभवत आरिफ हत्या में शामिल नहीं था और यह भी संभव है कि वह दंगाई भीड़ का भी हिस्सा नहीं था. बाकी चार आरोपियों पर भी हत्या का आरोप लगाने में पुलिस के कारण भी काफी कमजोर दिखाई पड़ते हैं.

अपनी छानबीन में हमें यह भी पता चला कि पुलिस ने तीन अलग-अलग हत्याओं को एक तीन लोगों की हत्या का सामूहिक कृत्य बताया है, जिससे पुलिस ने इसके लिए इन्हीं पांच लोगों को उन्हीं गवाहों के बयानों पर गिरफ्तार किया है और मामलों में दाखिल स्पष्ट और अनिर्णायक से दिखने वाले तीनों आरोप पत्र दाखिल किए हैं.

आरोप पत्र सांप्रदायिक हिंसा और तीनों हत्याओं में पुलिस कि आरोपित भूमिका से आंख मूंद लेते हैं. बृजपुरी और उसके पड़ोस के मुस्तफाबाद के स्थानीय निवासी दावा करते हैं कि 25 फरवरी को बृजपुरी की फारुकिया मस्जिद पर, जहां सीएए और एनआरसी के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहे थे- वहां पुलिस की वेशभूषा में एक दल ने हमला कर उसे जला दिया था और वहां मौजूद श्रद्धालुओं के साथ हिंसा की थी.

पुलिस दावा करती है कि वे और आरोपियों गवाहों और संभावित अपराधियों की पहचान के लिए अभी भी जांच कर रही है, जो भी तथ्य सामने आएंगे आगे दाखिल होने वाले आरोप पत्र में शामिल किए जाएंगे.

25 फरवरी को बृजपुरी में जाकिर अहमद, अशफाक हुसैन और मेहताब खान की हत्या कर दी गई थी

बृजपुरी में तबाही का दिन

25 फरवरी को 22 वर्षीय अशफाक जो मुस्तफाबाद में एक बिजली मैकेनिक था, पास की ब्रह्मपुरी से शाम को घर वापस आ रहा था. बृजपुरी का 24 वर्षीय जाकिर फारूकी मस्जिद में शाम की नमाज देने गया था. 22 वर्षीय मेहताब खान जो बृजपुरी में रहने वाला एक विद्यार्थी था शाम को 6:00 बजे दूध लाने बाहर गया था. इनमें से कोई भी घर वापस नहीं लौटा.

इनकी लाशें बृजपुरी रोड पर मिली थीं जहां से उन्हें दिलशाद गार्डन के गुरु तेग बहादुर अस्पताल ले जाया गया जहां पर उन्हें मृत अवस्था में लाया गया घोषित कर दिया.

उत्तर पूर्वी दिल्ली की सांप्रदायिक हिंसा में 25 फरवरी तीसरा और सबसे रक्तरंजित दिन था. इससे दो दिन पहले भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा ने मौजपुर में एक हुजूम इकट्ठा किया था और कहा था कि अगर जाफराबाद के सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले लोगों को वहां से हटाया नहीं गया, तो वह कानून अपने हाथ में ले लेंगे. हिंदू और मुसलमान दोनों के बीच पत्थरबाजी उसके थोड़े ही समय बाद शुरू हो गई थी.

24 फरवरी को मध्यान्ह के आसपास वजीराबाद रोड पर दिल्ली पुलिस और सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों के बीच झड़प हुई. यह झड़प जल्दी ही एक तरफ मुसलमानों और दूसरी तरफ पुलिस और हिंदू दंगाइयों के बीच एक हिंसक टकराव में तब्दील हो गई. खजूरी खास और शिव विहार के बीच आनन-फानन में खड़ी की गई सीमाएं पैदा हो गईं, जिसने एक दूसरे पर दोपहर से देर शाम तक पत्थरबाजी और पेट्रोल बम फेंकती हुई भीड़ को अलग कर दिया.

25 फरवरी को दोपहर करीब 1:30 बजे, बृजपुरी पुलिया जो मुस्लिम बाहुल्य मुस्तफाबाद और मिले-जुले जनसंख्या वाले बृजपुरी को अलग करती है, पर सीएए के खिलाफ प्रदर्शन स्थल पर भीड़ इकट्ठा हो गई. वहां से करीब 300 मीटर दूर बृजपुरी रोड, जो पूरी उत्तर पूर्वी दिल्ली में फैली हुई वजीराबाद रोड से निकलती है, पर एक दूसरी भीड़ इकट्ठा होने लगी.

शुरू में हिंसा बहुत मामूली स्तर की थी. मोटरसाइकिल पर चलने वाले हिंदू युवकों को पुलिया पर रोका गया और उन्हें बाकी रास्ता पैदल तय करने को कहा गया जब उनके वाहनों को जलाया जा रहा था. बृजपुरी रोड पर दूसरी भीड़ मुसलमान युवकों के साथ यही बर्ताव कर रही थी. दोपहर करीब 3:00 बजे हालात बिगड़ने लगे जब मुस्लिम भीड़ रोड पर हिंदू दुकानदारों के शटर तोड़कर उन्हें लूटते और आग जलाते हुए तेजी से आगे बढ़ने लगी. एशिया वेल की रिपोर्ट के अनुसार यह आगजनी पूर्व नियोजित दिखाई पड़ती है क्योंकि भीड़ गाड़ियों पर तेल के ड्रम पत्थर साथ लेकर आई थी.

पुलिया और बृजपुरी मुख्य सड़क
हिंसा के दो दिन बाद बृजपुरी मुख्य मार्ग

हिंदू भीड़ पीछे धकेल दी गई और परिणाम स्वरूप हुई हिंसा में गोलियां भी चलीं. 22 वर्षीय मनीष सिंह उर्फ राहुल ठाकुर, जो ब्रिज पुरी निवासी था यह देखने के लिए बाहर निकला कि यह हंगामा क्या है, इस दौरान उसकी छाती में गोली लगी. उसी दिन बाद में गुरु तेग बहादुर अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया.

बृजपुरी के निवासी यह आरोप लगाते हैं कि पुलिस और अर्धसैनिक सुरक्षा बल जो वजीराबाद रोड पर थे, उन्होंने आगजनी और पत्थरबाजी को रोकने से मना कर दिया. बृजपुरी रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के सेक्रेटरी अशोक सोलंकी याद करते हैं: "जब मैंने एक पुलिस की कार को देखा तो मैं मदद मांगते हुए उसके सामने लेट गया. गाड़ी में से कुछ कांस्टेबल बाहर निकले उन्होंने मुझे मेरे हाथ और पैर पकड़ कर उठाया और बगल में कर दिया. वह कह रहे थे कि उनके पास हस्तक्षेप करने के आदेश नहीं हैं."

पुलिस और अर्धसैनिक बल शाम 6:00 बजे के बाद वहां पहुंचे. मुस्लिम भीड़ बृजपुरी रोड से पीछे हट कर फिर पुलिया पर पहुंच गई. हिंदू भीड़, जो अभी तक संख्या बल में कम थी, उसने बृजपुरी रोड के साथ लगी हुई मुसलमानों की दुकानों को आग लगाते हुए आक्रामक होना शुरू कर दिया. करीब 6:30 बजे एक भीड़ जिसमें पुलिस के वर्दी धारी लोग भी शामिल थे उन्होंने पुलिया के पास की फारुकिया मस्जिद पर हमला बोल दिया. डंडे, सरिए, चाकू और तलवारों से लैस भीड़ ने अंदर नमाज पढ़ रहे आदमियों और बाहर प्रदर्शन कर रही औरतों पर हमला किया. उन्होंने मस्जिद को आग लगा दी और प्रदर्शन स्थल को तबाह कर दिया.

24 वर्षीय जाकिर के भाई गुलफाम बताते हैं कि वह मस्जिद पर हुए हमले में मारा गया. दोनों भाई बृजपुरी में एक वेल्डिंग की दुकान चलाते थे. गुलफाम बताते हैं, "वह शाम की नमाज के लिए मस्जिद गया था. करीब 6:30 बजे मुझे पता चला कि उसकी लाश पुलिया के पास पड़ी थी जहां से उसे मुस्तफाबाद के मेहर नर्सिंग होम ले जाया गया." गुलफाम यह भी कहते हैं कि नर्सिंग होम ने जाकिर को दाखिल नहीं किया और वहां से उसे पास के अल हिंद अस्पताल खाट पर ले जाना पड़ा. रास्ते में ही उसकी मौत हो गई तब करीब रात के 8:00 बजे थे."

अल हिंद अस्पताल में जाकिर की लाश को इंदिरा विहार के निवासी अशफाक हुसैन की लाश के बगल में रखा गया. अशफाक की मां अली फातिमा की आखिरी बार अपने नवविवाहित बेटे से शाम को करीब 6:30 बजे फोन पर हुई थी. वे कहती हैं, "वह तो नहीं बोल पा रहा था पर ऐसा लगा कि जैसे मैंने उसे आखिरी सांसे लेते हुए सुना."

शाम के 7:00 बजे परिवार को पता चला कि अशफाक की लाश पुलिया के पास खून से लथपथ पड़ी थी. उनके पिता आगाज हुसैन कहते हैं, "उस रात और अगले दिन बहुत सी औरतें हमारे घर आईं और उन्होंने हमें बताया की मस्जिद पर उन सब की रक्षा करते हुए अशफाक की जान गई."

उसी शाम, मस्जिद से करीब 40 मीटर दूर मेहताब की लाश मिली थी. उसके परिवार और पड़ोसी दावा करते हैं कि मेहताब मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं था. उसकी मां खुशनूजी कहती हैं कि वह हिंसा के बीच गिरकर तब मरा जब वह शाम को 6:00 बजे दूध लेने बाहर गया था. गुस्से में कांपती हुई आवाज़ में वे कहती हैं, "मेरे अंदर एक आग सी जल रही है. जिसने भी यह किया है उसे सजा जरूर मिलेगी."

जाकिर के भाई गुलफाम अहमद जो बृजपुरी में एक वेल्डिंग की दुकान चलाते हैं
अशफाक के पिता आगाज हुसैन जो मुस्तफाबाद के इंदिरा विहार में रहते हैं
मेहताब की मां खुशनूजी अपने घर बृजपुरी में

मोहम्मद आरिफ कहां था?

28 फरवरी को दयालपुर पुलिस स्टेशन ने अशफाक जाकिर मेहता और एक ज़मील ह़क की हत्या के लिए एफआईआर संख्या 77/2020 दाखिल की. यह एफआईआर, गुरु तेग बहादुर अस्पताल के द्वारा इन मौतों के लिए मेडिकोलीगल सर्टिफिकेट या एमएलसी जारी करने के बाद दर्ज की गई. तीन हफ्ते बाद, जब एसआईटी को केस दिए जाने के 15 दिन बीत चुके थे, इन मौतों के लिए अलग-अलग तीन एफआईआर - 159/2020 (अशफाक), 163/2020 (मेहताब) और 158/2020 (ज़ाकिर)- दयालपुर पुलिस स्टेशन में दाखिल की गईं. इनके पीछे का तर्क यह था कि पुलिस की जांच पड़ताल में यह बात सामने आई कि चारों हत्याएं अलग-अलग समय पर अलग-अलग जगह की गई थीं.

अब एसआईटी अपने ही द्वारा इकट्ठी की गई जानकारी का खंडन कर रही है. जुलाई में दाखिल किए गए आरोप पत्र दावा करते हैं कि जाकिर, मेहताब और अशफाक बृजपुरी रोड पर गली नंबर 10 के बाहर हिंदू भीड़ के द्वारा एक साथ मारे गए.

तीन हत्याओं को एक ही सामूहिक हत्या बता देने का नतीजा यह है कि तीनों आरोप पत्र लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं, जिनमें वही आरोपी वही गवाह वही परिस्थितियां और वही नक्शे शामिल हैं. केवल मरे हुए लोगों के नाम और पते अलग हैं.

चार्जशीट में बताया गया है कि कैसे मोहम्मद आरिफ ने हिंदू होने का ढोंग किया

पुलिस का दावा है कि 35 वर्षीय आरिफ, जो हिंदू भीड़ का हिस्सा था ने इस त्रिआयामी हत्या को अंजाम दिया. आरोप पत्र यह कहता है कि उसने "कुछ हिंदुओं की भीड़" को इन तीन लड़कों को पकड़ कर बुरी तरह पीटते हुए देखा.

आरोप पत्र आगे कहता है- "वह डर के मारे वहीं रुका रहा और उसने अपने मुंह पर रूमाल बांध लिया. अपने को छुपाने के लिए उसने भी वही सब नारे लगाने शुरू कर दिए. अपने को बचाने के लिए उसने भी इन तीन लड़कों को पीटा. यह लड़के उस समय संभवत मर कर गिर गए. फिर वह वहां से किसी तरह निकल भागा. उसे बाद में यह पता चला कि तीनों लड़के मुसलमान थे."

क्या पुलिस के पास अपने इस कथानक के लिए सबूत हैं? कुछ खास नहीं. पुलिस के पास इस वाद को दोहराते हुए एक बयान है, जिस पर कथित रूप से आरिफ के ही दस्तखत हैं. पुलिस की हिरासत में दिया हुआ यह बयान अदालत में कोई मायने नहीं रखता. पुलिस यह भी दावा करती है कि आरिफ के फोन की लोकेशन "घटना के समय घटनास्थल पर ही मिली है."

एसआईटी आरिफ और चार हिंदू आरोपियों को दोषी ठहराने में सीसीटीवी फुटेज का सहारा लेती है. आरोप पत्र में हिंदू युवकों के डंडा लिए हुए और पत्थर फेंकते हुए कुछ फुटेज हैं, पर आरिफ का कोई फुटेज नहीं है.

इन आरोप पत्रों में तीन तथाकथित चश्मदीद गवाहों के इस मुस्लिम से हिंदू बने दंगाई के खिलाफ बयान भी हैं. न्यूजलॉन्ड्री के पास मौजूद यह बयान जो पुलिस की हिरासत में दिए गए, कहते हैं कि गवाहों ने आरिफ को मुसलमानों की आग लगाती और दंगा करती हुई भीड़ का नेतृत्व करते हुए देखा. लेकिन उनमें से किसी ने भी उसे जाकिर, अशफाक और मेहताब के ऊपर हमला या उनकी हत्या करते हुए देखने का दावा नहीं किया है.

न्यूजलॉन्ड्री ने इन तीन चश्मदीद गवाहों, ब्रिज पुरी रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के सेक्रेटरी अशोक सोलंकी, उसके अध्यक्ष सुरेंद्र शर्मा और शशिकांत कश्यप से बात की.

61 वर्षीय सुरेंद्र शर्मा कहते हैं, "हमने आरिफ को केवल दुकानें जलाते और दंगा करते हुए देखा किसी को मारते हुए नहीं." वे यह भी कहते हैं कि आरोपी ने उस समय हेलमेट लगाया था, "मैंने उसे इसलिए पहचाना क्योंकि वह हमारे ही मोहल्ले से है."

सुरेंद्र यह स्पष्ट करते हैं कि वह हिंसा खत्म होने के बाद ही बृजपुरी रोड गए जब स्थानीय एसएचओ आ चुके थे. उनका कहना है, "मैं पुलिया पर एसएचओ के साथ ही गया और वहां आरिफ को बिना हेलमेट के देखा."

सुरेंद्र शर्मा का अंदाजा था कि उनके और अशोक सोलंकी के आरिफ के खिलाफ बयान- जो बिल्कुल एक से प्रतीत होते हैं, दंगा करने के मामले में लिए गए थे न कि तीन लोगों की सामूहिक हत्या के मामले में. न्यूजलॉन्ड्री से जानकर के उनके बयान किस उपयोग में लाए जा रहे हैं, वे आश्चर्यचकित होते हैं और तुरंत अशोक सोलंकी को खबर करते हैं.

अशोक सोलंकी और सुरेंद्र शर्मा

सुरेंद्र शर्मा के एक पड़ोसी, 30 वर्षीय शशिकांत कश्यप गाजीपुर में मोबाइल फोन की एक दुकान चलाते हैं. वे इस त्रिआयामी हत्या के मुख्य चश्मदीद गवाह हैं. पुलिस का कहना है कि उन्होंने न केवल आरिफ को दंगा और आगजनी करते हुए देखा, बल्कि उन्होंने बृजपुरी के पांच आदमियों को मिलकर मेहताब, अशफाक और जाकिर की सामूहिक हत्या करते हुए भी देखा. उनमें से एक, प्रवीण लापता बताया जाता है और बाकी के चार- अशोक, अजय, शुभम और जितेंद्र महीनों से जेल में बंद हैं. आरोप पत्र के साथ जोड़ा गया एक नक्शा कथित तौर पर यह दिखाता है कि शशिकांत कश्यप ने केवल कुछ मीटर की दूरी से ही यह हत्या देखी.

न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए शशिकांत अपने एसआईटी को दिए हुए बयान से अलग बात करते हैं. उनका कहना है, "मैंने सुना था कि मेहताब मारा गया. मैंने दो आदमियों को हिंदू भीड़ के द्वारा मारते हुए देखा. यह उस दिन तब हुआ जब दोनों भीड़ गुत्थम-गुत्था थीं." यह बताने पर के उनका एसआईटी को दिया गया बयान साफ कहता है कि उन्होंने तीन आदमियों को देखा, वे कहते हैं कि पुलिस ने "संभवत एक आदमी जोड़ दिया होगा."

यह मुख्य गवाह दावा करता है कि उसने हिंदू दंगाइयों की पहचान पुलिस द्वारा उनके हाव भाव देखकर की. "रात का समय था तो कोई देख तो सकता नहीं था. मैं शारीरिक बनावट और चलने के तरीके से पहचान जान पाया."

शर्मा और सोलंकी के आरोपों से अलग, शशिकांत कश्यप का दावा है कि उन्होंने दंगों के दौरान आरिफ का चेहरा देखा और वह हेलमेट पहने हुए नहीं था.

क्या आरिफ दोनों आदमियों को पीटने वाली भीड़ का हिस्सा था? शशिकांत जवाब देते हैं, "बिल्कुल हो सकता है. मैंने केवल हमले की 15 सेकंड के आसपास झलक देखी थी."

बृजपुरी के निवासी आरिफ के बारे में एक बात पर जोर देना बिल्कुल नहीं भूलते, कि वह "बीसी" अर्थात बुरे चरित्र वाला है, जिसका हवालात का इतिहास है. बृजपुरी निवासी आरिफ की मां फरहीन कहती हैं, "पुलिस हमेशा मेरे लड़के के पीछे पड़ी थी. उससे एक बार एक गलती हुई और उसके बाद पुलिस जब मन करे तब आती है और उसे बिना कारण उठाकर ले जाती है."

आरोप पत्र आरिफ के खिलाफ 2005 से दाखिल हुए 24 मामलों की सूची प्रस्तुत करता है. उनमें से एक में वह दोषी साबित हुआ, लेकिन वह मामला 2004 में चोरी और घुसपैठ का है. बाकी मामलों में से दो में अदालत की कार्यवाही बाकी है, एक में वह बरी हो गया है और बाकी में उसे छोड़ दिया गया. एक मामला खारिज किया जा चुका है. 2009 से 2015 के बीच आरिफ को छ: बार गिरफ्तार किया गया है.

आरिफ की मां का कहना है, "वह अप्रैल से जेल में है. हमारे पास जमानत देने के लिए और वकील करने के लिए पैसे नहीं हैं. पुलिस झूठ बोल रही है, हिंसा के वक्त वह हमारी गली के बाहर पहरा देते खड़ा रहा. वो पुलिया पर गया ही नहीं था."

फरहीन के पड़ोसी इस बात की पुष्टि करते हैं. उनके एक पड़ोसी भीकम सिंह जो गली के मुहाने पर दूध की दुकान चलाते हैं, बताते हैं, "वह दंगों के दौरान 24 घंटे गली के बाहर बैठा रहता था. उन दिनों में हिंदू और मुस्लिम साथ खड़े होकर पहरा देते थे."

एक और दुकानदार अली हसन यह दावा करते हैं कि आरिफ कभी पुलिया पर गया ही नहीं. उनका कहना है, "जब हिंसा हो रही थी तो वह इस जगह से कभी गया ही नहीं. जो पुलिस वाले उसके बारे में जानते थे वह अप्रैल में सादे कपड़ों में आकर उसे उठाकर ले गए. उसने उन्हें उसे अकेला छोड़ देने के लिए कहा. उन्होंने उसे गाड़ी में डाला और ले गए."

आरिफ की मां फरहीन जो अपने घर बृजपुरी में रहती है
आरिफ के पड़ोसी भीकम सिंह और अली हसन का कहना है कि उन्होंने हिंसा में भाग नहीं लिया बल्कि अपनी गली की रखवाली की.

अब यह बात निकलकर आई है कि आरिफ, मारे गए लोगों में से एक मेहताब का दूर का भांजा है. मेहताब के बड़े भाई मोहम्मद राशिद कहते हैं, "आरिफ उन्हें मामा बुलाता था."

तो पुलिस यह दावा कर रही है कि आरिफ ने सांप्रदायिक दंगे के दौरान हिंदू आदमी का भेष करके बृजपुरी रोड पर अपने ही मामा की सामूहिक हत्या कर दी.

हत्याएं कैसे और कहां हुईं?

पुलिस का यह दावा है कि जाकिर, अशफाक और मेहता की हत्या एक साथ हिंदू भीड़ के द्वारा हुई जिनमें मेहताब का भांजा आरिफ भी शामिल था, बहुत विरोधाभासों के ऊपर खड़ा है.

मिसाल के तौर पर, एफआईआर 158, 159 और 163 जिन्हें मार्च में दर्ज किया गया कहती हैं, "तफ्तीश के दौरान यह पता चला कि उपरोक्त चार मृत लोगों की हत्या दंगों के दौरान हुई, और उनकी हत्या की जगह और समय, अलग-अलग थे."

मेहताब खान की हत्या से संबंधित एफआईआर

पुलिस अपनी इस वस्तुस्थिति पर जून तक कायम रही. गुरु तेग बहादुर अस्पताल के विधि चिकित्सा विभाग को लिखे गए एक पत्र में इंस्पेक्टर सुरेंद्र कुमार, जो मेहताब की हत्या की जांच कर रहे हैं, स्पष्ट करते हैं, "तफ्तीश के दौरान यह बात सामने आई थी कि चारों मृतक जिनके नाम जाकिर, अशफाक, जमील और मेहताब हैं, अलग-अलग जगहों पर और अलग-अलग समय पर कत्ल किए गए."

सुरेंद्र कुमार ने यह पत्र 22 जून को इससे ठीक उल्टा दावा करते हुए, आरोप पत्र को दाखिल करने से दो हफ्ते पहले लिखा.

इंस्पेक्टर सुरेंद्र कुमार का 22 जून को जीटीबी अस्पताल को पत्र

गली नंबर 10 निवासी रोहित याद करते हैं कि 25 फरवरी को पुलिस के आने के बाद जब हिंसा ठंडी पड़ गई थी, वह बृजपुरी रोड की तरफ गए और उन्होंने मेहताब के शव को देखा. स्पष्ट करते हैं कि उस समय सड़क पर और कोई शव नहीं पड़ा था वह कहते हैं, "मैंने मेहताब के शव को हमारी गली से थोड़ा आगे सड़क पर पड़े हुए देखा. उसके शरीर पर जलने के निशान थे."

चश्मदीद गवाह अशोक सोलंकी और सुरेंद्र शर्मा, रोहित के इस दावे की पुष्टि करते हैं. सोलंकी बताते हैं, "सच यह है कि गली के बाहर कोई नहीं मरा. अरुण मॉडर्न स्कूल के पास केवल मेहताब की जान गई. मैंने उसके शव को देखा था." शर्मा भी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, "जब पुलिस आई तो मेहताब सड़क पर मरा हुआ पड़ा था. वहां केवल एक ही शव था और कोई नहीं."

इसके साथ ही साथ न्यूजलॉन्ड्री के द्वारा देखी गई जाकिर अशफाक और मेहताब की पोस्टमार्टम की तस्वीरें, उनकी चोटों के बीच अनियमितता दिखाती हैं. हालांकि तीनों आदमियों के घर पर एक धारदार हथियार से घाव था- जो पुलिस के दावे के अनुसार तलवार से किया गया- केवल मेहताब के पैरों, हाथों और धड़ पर जलने के निशान हैं. अगर तीनों युवकों की हत्या साथ हुई, तो जलने के निशान केवल मेहताब के शरीर पर ही क्यों हैं, बाकियों के क्यों नहीं? आरोप पत्र यह दावा करता है कि आरोपी डंडो, तलवारों और केंचियों से लैस थे, पर पेट्रोल बमों से नहीं.

तो फिर जाकिर और अशफाक की हत्या कैसे और कहां पर हुई? उनके परिवारों का दावा है कि उनकी हत्या तब हुई जब पुलिस की वर्दी में आदमियों और हिंदू भीड़ ने करीब 6:30 बजे फारूकिया मस्जिद पर हमला बोल दिया. परिवारजनों में से उस समय वहां कोई भी मौजूद नहीं था पर उनके ये आरोप बृजपुरी के और निवासियों, जो उस समय वहां पर थे, की बातों पर आधारित हैं.

बृजपुरी में गली नंबर 10 के बाहर बिजली का खंभा, जहां पुलिस का दावा है कि तीनों लोगों को मार डाला.
बृजपुरी में फारूकिया मस्जिद, यह जनवरी और फरवरी में सीएए के विरोध का स्थल था.
फारूकिया मस्जिद की मरम्मत की जा रही है.

ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्होंने जाकिर और अशफाक को मरा हुआ देखा.

58 वर्षीय नसीम उल हसन मुस्तफाबाद में एक व्यापारी हैं जो 25 फरवरी को मस्जिद के पीछे के मदरसे से बच्चों को बचाने गए जब उस पर हमला हुआ था. वे दावा करते हैं, "मैं मदरसे की छत पर गया और नीचे देखा. वहां दरवाजे पर कम से कम पांच आदमी मरे पड़े थे जिनमें अशफाक और जाकिर भी थे. भीड़ और पुलिस जाते समय तीन आदमियों को ले गए जबकि जाकिर और अशफाक को हमारे लोग उठाकर मेहर नर्सिंग होम ले गए."

फारुकिया मस्जिद के इमाम मुफ्ती मोहम्मद ताहिर और फिरोज अख्तर मुस्तफाबाद के एक दर्जी उन नमाजियों में से थे जिनमें मस्जिद पर हमला किया गया. ताहिर ने हमें फोन पर बताया, "दंगाइयों और वर्दी पहने हुए आदमियों ने हम पर नमाज के दौरान हमला किया. मुझे बाद में पता चला कि मस्जिद पर हमले के दौरान कई आदमी मारे गए, जाकिर उनमें से एक था. मुझे बाकियों के बारे में नहीं पता क्योंकि मैं खुद पुलिस वालों के पीटने के कारण बेहोश हो गया था."

फिरोज जो इस हमले में बुरी तरह घायल हुए, चिंता करते हैं कि बाकी नमाजियों का क्या हुआ. वे कहते हैं, "जब पुलिस और दंगाई अंदर घुसे मस्जिद के अंदर छह लोग थे. मुझे मुएज़्ज़िन साहब और इमाम साहब पर हुए हमले का पता है. पर मैं यह कभी ना जान पाया कि बाकी तीन आदमियों का क्या हुआ."

जब चश्मदीद गवाहों के बयान और उनकी अपनी एफआईआर कुछ और कहती हैं, तो पुलिस क्यों कह रही है कि यह मौतें एक ही सामूहिक हत्या का भाग थीं? एक कारण ये, कि जाकिर और अशफाक की हत्या मस्जिद में नहीं हुई इस पर जोर देकर पुलिस मस्जिद पर हुए हमले की जांच की मांग को आसानी से खारिज कर सकती है, जबकि चश्मदीद गवाह यह आरोप लगाते हैं कि यह हमला हिंदू भीड़ और वर्दीधारी आदमियों के द्वारा मिलकर किया गया.

मस्जिद और मदरसा की देखरेख करने वाली कमेटी के अध्यक्ष मोहम्मद फ़ख़रुद्दीन ध्यान दिलाते हैं कि उनकी बार-बार पुलिस से गुज़ारिश के बावजूद मस्जिद पर हमले की एफआईआर दर्ज नहीं की गई है.

आरोपियों में से एक शुभम सिंह के पिता विजेंद्र सिंह यह कहते हैं कि शशिकांत, शुभम को पहचान ही नहीं सकते थे. उनका कहना है, "इकलौता गवाह, शशिकांत, यह दावा करता है कि उसने मेरे बेटे को देखा उसे जानता भी नहीं था. न ही हम जानते हैं कि शशिकांत कौन है. उसके ऊपर नाम लेने का दबाव पुलिस के द्वारा बनाया जा रहा है. हमारे लड़के को गलत तौर पर पकड़ा गया है. उसके खिलाफ कोई सबूत है ही नहीं."

आरोपी शुभम सिंह के पिता विजेंद्र सिंह बृजपुरी में अपने घर पर.

जुलाई में चार हिंदू आरोपियों ने सुनवाई के दौरान अदालत से कहा कि उन्हें जाकिर की हत्या में झूठा फंसाया जा रहा है क्योंकि वह उसी मोहल्ले में रहते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि "एक गवाह झूठे तौर पर रखा गया है" और उनमें से एक जो सीसीटीवी फुटेज में हथियारबंद दिखाई देता है, केवल "दूसरे समुदाय की दंगाई भीड़" से खुद को बचाने की कोशिश कर रहा था. उनकी जमानत की अर्जी खारिज हो गई थी.

मामले में लिप्त बृजपुरी के दो निवासी, जो इन आरोपियों से किसी भी प्रकार से जुड़े हुए नहीं हैं, कहते हैं कि कश्यप को कई बार कई दिनों तक पुलिस हिरासत में रखा गया. उनमें से एक निवासी, जो बदले की कार्यवाही के डर के कारण अपनी पहचान छुपाना चाहते हैं के अनुसार, "पुलिस ने उससे कहा कि या तो वह आरोपी बन सकता है या गवाह."

हालांकि कश्यप किसी प्रकार के पुलिस दबाव की बात को खारिज करते हुए कहते हैं, "उन्होंने मेरे साथ कोई मारपीट नहीं की. उन्हें शक तो करना ही पड़ेगा. उनके ऊपर भी तो दबाव है."

आरोपपत्र में 25 फरवरी को शुभम की एक डंडा लेकर सीसीटीवी फुटेज है. उसमें मेन रोड पर हिंसा में भाग लेते हुए नहीं दिखाई देता. उसके पिता पूछते हैं, "अगर हम अपने घरों की रक्षा न करें तो फिर क्या करें? 25 फरवरी को मुस्लिम भीड़ को रोक सकने लायक पुलिस बल नहीं था. उन्होंने स्थानीय लड़कों को भीड़ के पीछे धकेलने में मदद करने के लिए कहा था."

न्यूजलॉन्ड्री ने क्राइम ब्रांच के डिप्टी कमिश्नर राजेश देव, जो इस जांच और पुलिस के जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष हैं को प्रश्न भेजे हैं.

उन्होंने कोई भी जवाब देने से इनकार करते हुए हमें पुलिस के जनसंपर्क अधिकारी से बात करने को कहा. उनके अनुसार, "हम मीडिया में चल रहे किसी भी मुद्दे और विवाद का हिस्सा नहीं बन सकते."

पुलिस के अतिरिक्त जनसंपर्क अधिकारी के दफ्तर ने कहा, "हम अदालत में विचाराधीन मामलों पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते."

एक धांधली से भरी जांच?

जाकिर, अशफाक और मेहताब की हत्या के करीब 8 महीने बाद, उनके परिवार बहुत दयनीय अवस्था में हैं. अशफाक और जाकिर अपने परिवारों में इकलौते कम आने वाले थे और मेहताब के भाई राशिद को उनके हिंदू मालिक ने दंगों के बाद निकाल दिया.

वे सभी अपने जीवन के चरम पर थे. जाकिर की शादी को 10 साल हो गए थे और उनके दो बच्चे भी हैं. अशफाक की शादी केवल उनकी मृत्यु से 11 ही दिन पहले हुई थी. उनकी विधवा बीवी को उनकी मौत के बाद उसके मां-बाप के पास वापस पहुंचा दिया गया. जाकिर की पत्नी मुस्कान के लिए, वह सब कुछ थे. वह गुस्से में कहती हैं, "मेरा कोई परिवार नहीं. कोई नहीं है जो मुझे सहारा दे. मेरा पति ही मेरे जीवन में इकलौता चैन का ज़रिया था. उसके हत्यारे इतने नृशंस कैसे हो सकते हैं?"

जाकिर के भाई दावा करते हैं कि हत्याओं के लिए गिरफ्तार पांचों लोगों में से कोई दोषी नहीं है. गुलफाम कहते हैं, "वे सभी निर्दोष हैं. असली दोषी तो बाहर से बंदूकों से लैस होकर आए थे. पुलिस ने इन सब लड़कों को गिरफ्तार किया, पर कपिल शर्मा को नहीं, जो इस सब को भड़काने वाला था."

26 फरवरी को दंगों से अगली सुबह, दिल्ली पुलिस की भर्ती में कुछ लोग फिर से फारूकिया मस्जिद पर आए और उसके पीछे के मदरसे में आग लगा दी. मोहम्मद फ़ख़रुद्दीन मानते हैं कि ऐसा सीसीटीवी सबूतों को मिटाने के लिए किया गया क्योंकि उसका सारा फुटेज मदरसे में ही रखा जाता था.

मोजो स्टोरी के द्वारा हासिल किए गए 26 फरवरी के एक वीडियो में दिखता है कि पुलिस के लोग मदरसे में घुस रहे हैं, खिड़कियों से धुआं निकल रहा है और वह लोग वहां से बाहर निकल रहे हैं.

मेहताब के भाई मोहम्मद रशीद को उनके हिंदू मालिक ने हिंसा के तुरंत बाद निकाल दिया था. अब उसे फारूकिया मस्जिद की मरम्मत का ठेका दिया गया है.
50 वर्षीय मोहम्मद फखरुद्दीन ने आरोप लगाया कि मस्जिद और मदरसे को पुलिस ने जला दिया और लूट लिया.

जैसा कि एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया और बीबीसी ने प्रमाणिक तौर पर दिखा दिया है, यह अकाट्य है कि दिल्ली पुलिस ने राजधानी में सांप्रदायिक मारकाट को बढ़ावा दिया. या तो उन्होंने हिंदू भीड़ के साथ मिलकर मुसलमानों को निशाना बनाया या ऐसा होते हुए हिंसा के दुर्दांत वाक्यों में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया.

इस संदर्भ में, वर्दीधारी आदमियों द्वारा फारुकिया मस्जिद के हमले में जाकर और अशफाक की हत्या को मेहताब की हत्या के साथ जोड़ देना, आत्मरक्षा का एक प्रबल प्रयास लगती है. आरिफ की गिरफ्तारी और हिंसा में उसकी भूमिका को साबित करने के लिए पेश किए गए हल्के सबूत, अजीब से तर्क और विरोधाभासी वक्तव्य, एक कमजोर व्यक्ति के खिलाफ साजिश सी लगती है.

पत्रकार मनोज मिटा और अधिवक्ता एचएस फुल्का 1984 में सिख विरोधी दंगों के बारे में लिखी गई अपनी किताब, When a Tree Shook Delhi मैं बताते हैं कि जब हिंदू भीड़ है इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नरसंहार के लिए राजधानी में घूम रही थी तो दिल्ली पुलिस "आमतौर पर सिखों पर हमलों की मूक दर्शक बनी रही." पर "अगली सुबह जब उन हमलों ने हत्याओं का रूप ले लिया, तब जाकर पुलिस ने हस्तक्षेप किया… लेकिन सामूहिक अपराध को बढ़ावा देने के लिए."

ऐसा लगता है कि पिछले 36 सालों में कुछ बदला नहीं है.

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यह रिपोर्ट दिल्ली पुलिस की 2020 में दिल्ली दंगों के द्वारा की रही जांच करते हुए एक श्रंखला का हिस्सा है.

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