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मध्य प्रदेश: नज़र न लागे राजा तोरे बंगले पर

झीलों के खूबसूरत शहर भोपाल की तफरी पर अगर कोई निकल जाए तो ऐसा शायद ही हो कि वहां कि सड़कों और गली कूंचों में टंगी अलग अलग अख़बारों की तख्तियों पर उसकी नज़र ना पड़े. यूं तो भोपाल में प्रमुख हिंदी और अंग्रेजी अखबारों के दफ्तर एमपी नगर (महाराणा प्रताप नगर) स्थित प्रेस काम्प्लेक्स में हैं लेकिन इस शहर का मिज़ाज़ कुछ ऐसा है कि यहां के चौराहों से लेकर गली नुक्कड़ों तक आपको छोटे-मोटे अखबारों या न्यूज़ पोर्टल के दफ्तर नज़र आ जाएंगे.

विदुर की नीति, यलगार, भड़कती चिंगारी से लेकर बिच्छू जैसे नाम वाले अखबार और पोर्टल भोपाल में आपको मिल जाएंगे. असल में इस शहर में अखबारों की इस भीड़ का कारण है यहां की मौजूदा और पुरानी सरकारों की पत्रकारों के लिए दरियादिली. चाहे सरकार भाजपा की हो या पहले की कांग्रेस सरकार. पत्रकारों को बंगला-गाड़ी देकर हमेशा खुश करने की कोशिश की गई है. मध्यप्रदेश की सरकारों की पत्रकारों के प्रति दरियादिली का इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि प्यारे मियां जैसे अपराधी भी पत्रकारिता की आड़ में सालों-साल सरकारी सुविधाओं का मज़ा लेते रहे.

अभी हाल ही में (4 दिसंबर) मध्य-प्रदेश सरकार ने दस पत्रकारों को सरकारी आवासीय बंगले मुहैया कराने का निर्देश जारी किया है. ये बंगले प्रेस पूल योजना के अंतर्गत तीन साल के लिए किराए पर दिए गए हैं. बावजूद इसके कि पहले से ही प्रेसपूल योजना के तहत मध्य प्रदेश में लगभग 210 पत्रकार और मीडिया संस्थान सरकारी बंगले का लाभ उठा रहे हैं. 20-25 साल से नाममात्र का या फिर बिना किराया दिए. उस किराए की रकम साल 2010 तक 14 करोड़ रुपए तक पहुंच गयी थी. ये बंगले भोपाल के चार इमली, 74 नंबर, 45 नंबर, शिवाजी नगर, प्रोफेसर्स कॉलोनी जैसे वीआईपी इलाकों में मुहैया कराये जाते हैं. यह भोपाल का वो इलाका है जहां मंत्रियों, आईएएस, आईपीएस, व अन्य वरिष्ठ सरकारी अधिकारी रहते हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद चार दिसंबर 2020 को जारी सरकारी दस्तावेज के मुताबिक ये बंगले नया इन्डिया के जगदीप सिंह, न्यूज़ 18 के शरद श्रीवास्तव, अग्निबाण के रामेश्वर धाकड़, आईएनडी-24 के सुनील श्रीवास्तव, आईबीसी-24 के सुधीर दंडोतिया, डिजियाना के अश्विनी कुमार मिश्र, पीपुल्स समाचार के संतोष चौधरी, टीवी-9 भारतवर्ष के मकरंद काले, ज़ी न्यूज़ के विवेक पटैय्या और नवदुनिया के धनंजय प्रताप सिंह को आवंटित किए गए हैं.

क्या था मीडिया द्वारा सरकारी बंगलो पर कब्ज़े और 14 करोड़ के बकाया किराए का मामला

गौरतलब है कि साल 2012 में मध्य प्रदेश जनसम्पर्क विभाग (डायरेक्टरेट ऑफ़ इन्फॉर्मेशन एंड पब्लिक रिलेशन्स) के पूर्व संयुक्त निदेशक श्रीप्रकाश दीक्षित ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में पत्रकार कोटे के तहत सरकारी बंगले के आवंटन में हुई गड़बड़ियों के बारे में याचिका दायर की थी और कोर्ट से गुहार लगायी थी कि सरकारी बंगलों पर पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के गैरकानूनी कब्ज़े से छुड़ाया जाए. याचिका दायर करने के पहले दीक्षित ने सूचना के अधिकार के ज़रिये सम्पदा संचालनालय (डायरेक्टरेट ऑफ़ एस्टेट्स) से वो दस्तावेज़ इक्कठा किये जिसमें बताया गया था कि भोपाल में तकरीबन 210 पत्रकारों और मीडिया संस्थांनों को सरकारी बंगले आवंटित किए गए थे. इन मीडियाकर्मियों और संस्थानों ने लगभग 25-30 साल से इन बंगलों पर कब्ज़ा कर रखा था और उन पर नवम्बर 2010 तक 14 करोड़ का किराया बाकी था.

सूचना के अधिकार के दस्तावेजों में इस बात का भी जिक्र था कि मध्य प्रदेश के ऑडिटर एंड अकाउंटेंट्स जनरल (लेखा परीक्षक) ने इन सरकारी आवासों पर पत्रकारों और मीडिया संस्थांनों का गैरकानूनी कब्ज़ा बताया था और यह कहते हुए आपत्ति जतायी थी कि मध्य प्रदेश सरकार जानबूझ कर पत्रकारों से किराया वसूल नहीं कर रही है. 210 सरकारी आवासों में से 176 पर गैरकानूनी कब्ज़ा था, 23 खाली करा लिए गए थे और 11 बंगलों पर उच्च न्यायायलय से पत्रकारों ने स्टे ऑर्डर (स्थगन आदेश) ले लिया था.

2012 में दायर की गयी दीक्षित की याचिका पर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश शरद बोबडे मौजूदा दौर में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश) की बेंच ने नवम्बर 2012 में मध्यप्रदेश सरकार से चार हफ़्तों के भीतर इस मामले सम्बंधित रिपोर्ट पेश करने के आदेश दिए थे. इस मामले की सुनवाई में आगे जाकर जनवरी 2014 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एएम खानविलकर ने आखिरी आदेश सुनाते हुए मध्य प्रदेश सरकार को इस मामले में याचिकाकर्ता की शिकायत के मद्देनज़र उचित कार्यवाही कर याचिकाकर्ता को 30 अप्रैल 2014 तक सूचित करने के आदेश दिए थे. मई के महीने में मध्य प्रदेश सरकार ने दीक्षित को सूचित किया कि 95 लोगों ने सरकारी आवासों पर गैरकानूनी कब्ज़ा कर रखा है, 71 लोगों ने अवधि बढ़ाने के लिए आवेदन दिया और 37 घर खाली हो चुके हैं.

दीक्षित ने मध्य प्रदेश सरकार के इस जवाब के खिलाफ अदालत की अवमानना की याचिका दायर की थी जिसके तहत अदालत ने सरकार को नोटिस भी जारी किया था. लेकिन दीक्षित के मुताबिक उसके बाद भी मौजूदा सरकार ने इस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की थी.

न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में दीक्षित बताते हैं, "मैंने यह याचिका पत्रकारों के खिलाफ नहीं बल्कि पत्रकारों के कोटों में आने वाले सरकारी आवासों के गैरकानूनी इस्तेमाल के खिलाफ की थी. सरकारी बंगले में रुकने की तय अवधि बीत जाने के बाद भी पत्रकारों और मीडिया संस्थनों ने वहां कब्ज़ा बनाये रखा था. इनमें से बहुत से लोग तो पत्रकार भी नहीं है बल्कि छोटे-मोटे साप्ताहिक अखबार चला कर इन सरकारी आवासों पर कब्ज़ा जमा कर बैठे हैं. कुछ ने सरकारी बंगले में ही एक-दो मंज़िल की इमारत भी बना ली है."

दीक्षित आगे कहते हैं, "सरकारी मुलाज़िमों से तो मध्य प्रदेश की सरकारों एक झटके में बंगले खाली करवा लेती है लेकिन पत्रकारों से सरकारी बंगले खाली करवाने में सरकारें कमज़ोर साबित हुयी हैं. देखा जाए तो बहुत से लोग जिनको पत्रकार कोटे में बंगले आवंटित होते है वह पत्रकार होते भी नहीं हैं, ये लोग असल में राजनैतिक पार्टियों के करीबी होते हैं और सरकारें उन्हें पत्रकारों के हिस्से के बंगले मुहैय्या करा देती हैं.”

देखने में आया है कि सरकार कांग्रेस की हो या भाजपा की वह अपने करीबियों को सरकारी बंगले मुहैया कराती हैं. यहां तक कि इन राजनैतिक पार्टियों से जुड़े संगठनों को भी पत्रकार कोटे के तहत बंगले बांट दिए जाते हैं.

दीक्षित बताते हैं, "यूएनआई, पीटीआई, हिंदुस्तान टाइम्स, ज़ी टीवी, नईदुनिया, लोकमत जैसे बड़े ग्रुप को पत्रकार कोटे के तहत बंगले मुहैया कराये गए थे. वहां ये सालों साल से डेरा जमाकर बैठे हैं. इसके अलावा हम संवेद, विश्व संवाद केंद्र जैसी संस्थाए जो भाजपा की करीबी है उनको भी पत्रकार कोटे के अंतर्गत बंगले दिए गए हैं.”

हमारी जानकारी में एक दिलचस्प वाकया आया. कांग्रेस नेता ललित श्रीवास्तव और भाजपा नेता कैलाश सारंग को पत्रकार कोटे के तहत सरकारी आवास दिए गए थे, जबकि अब दोनो ही नेताओं का निधन हो चुका है. युवक कांग्रेस के नेता बंसीलाल गांधी को साल 1984 में एक साल के लिए बंगला आवंटित हुआ था. सालो-साल वहां रहने के बाद उन्होंने बंगला खाली करने से मना कर दिया और उच्च न्यायालय से स्थगन आदेश ले लिया. अर्जुन सिंह के करीबी माने जाने वाले कांग्रेस नेता महेंद्र सिंह चौहान को पत्रकार कोटे के तहत बंगला दिया गया था जिस पर वह 20-30 साल तक काबिज़ रहे और खाली करने के आदेश के बाद उच्च न्यायालय में जाकर स्थगन का आदेश ले आये थे.

सम्पदा संचालनालय से सूचना के अधिकार में मिली जानकारी के अनुसार कुछ पत्रकारों ने लाखों-करोड़ों के किराए नहीं भरे थे. जैसे कि वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश मेहता पर तकरीबन 1.24 करोड़ का किराया बाकी था, पत्रकार सिद्धार्थ खरे पर 1.10 करोड़ का किराया बाकी था. वरिष्ठ पत्रकार शिव अनुराग पटेरिया पर 26 लाख का किराया बाकी था. ऐसे पत्रकारों की फेहरिस्त इतनी लम्बी थी कि साल 2010 तक का किराया 14 करोड़ हो चुका था.

भोपाल में सरकारों और पत्रकारों की इस जुगलबंदी का आलम यह है कि यहां शिवाजी नगर इलाके के सरकारी बंगलों में रहने वाले पत्रकारों के निवास को मज़ाकिया तौर पर पत्रकार दलाल स्ट्रीट के नाम से पुकारते हैं.

प्रेस पूल के नियमों के अनुसार उन्हीं पत्रकारों के सरकारी बंगले दिए जाने चाहिए जिनके खुद के नाम पार या उनके परिवार के किसी व्यक्ति के नाम पर भोपाल नगर निगम की सीमा में घर नहीं हो. पत्रकारों को यह आवास सिर्फ तीन साल के लिए आवंटित होते हैं. नियमों के अनुसार अगर कोई पत्रकार पत्रकारिता छोड़ चुका है या भोपाल छोड़ कर जा चुका है तो उसे सरकारी आवास खाली करना अनिवार्य है. नियम यह भी कहते हैं कि पत्रकारों की वरिष्ठता के आधार पर एक फेहरिस्त बनाकर एक उच्च स्तरीय समिति के सामने पेश की जानी चाहिए, जिसके बाद उच्चस्तरीय समिति जनसम्पर्क विभाग की राय लेने की बाद ही सरकारी बंगले पत्रकारों को आवंटित कराएगी.

लेकिन मध्य प्रदेश में नियमों को ताक पर रखकर सरकारी बंगले मौजूदा सरकारों के निर्देश पर ही मुहैय्या कराये जाते हैं. सूचना के अधिकार के अनुसार ना ही पत्रकारों की कोई फेहरिस्त बनायी जाती है और ना ही कोई समिति गठित की जाती है जो कि जनसम्पर्क विभाग से परामर्श कर यह बंगले मुहैया कराये.

मध्य प्रदेश की सरकारों का पत्रकार प्रेम

चाहे सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की सभी सरकारें पत्रकारों मीडिया संस्थानों को अपनी तरफ से लाभ पहुंचाने में सक्रिय रहती हैं. ताकि उनकी कलम की धार सरकार के खिलाफ ज़्यादा ना चले.

मध्य प्रदेश में यह पत्रकार प्रेम कांग्रेस नेता श्यामा चरण शुक्ल के दौर से चला आ रहा है. शुक्ल मध्य प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे. वह जब मुख्यमंत्री थे तब अपने एक करीबी प्रचंड नाम के अखबार के मालिक को उन्होंने सरकारी बंगला मुहैया कराया था. माना जाता है कि तभी से पत्रकारों को सरकारी बंगले बांटने का रिवाज़ शुरू हो गया था.

आगे चलकर उनकी इस "बंगलाबाट" परंपरा को उनके बाद के मुख्य मंत्रियों ने जारी रखा. अर्जुन सिंह जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को ज़मीन, बंगले व अन्य सरकारी सुविधाएं मुहैया करना शुरू किया. 100-200 रुपए किराए पर आलीशान सरकारी बंगले पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को दिए जाने लगे. शहर के मुख्य इलाकों में अख़बारों को सस्ती दरों पर ज़मीन मुहैया होने लगी थी.

अर्जुन सिंह ने अखबारों को एक पेज का विज्ञापन देने के लिए एक कमेटी भी बनायीं थी जिसकी अध्यक्षता मोती लाल वोहरा ने की थी. आगे जाकर जब मोती लाल वोहरा मुख्यमंत्री बने तब भी पत्रकारों को सरकारी लाभ, बंगले और ज़मीन मुहैया कराते रहे, उन्होंने उनके भाई गोविन्द लाल वोहरा जो पेशे से पत्रकार थे को एक नहीं दो बंगले मुहैया करा दिए थे. इसके बाद भाजपा के सुंदरलाल पटवा हो, कांग्रेस के दिग्विजय सिंह हों, भाजपा की उमा भारती हों या मौजूदा मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान हों सभी पत्रकारों को या पत्रकार कोटे में उनके पार्टी के करीबियों को 'बंगलाबाट' करते चले आ रहे हैं.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का नाम खुद विवादों में आ गया था. चौहान को खुद दो बंगले आवंटित थे, जिनमें से एक को उन्होंने किरार समाज का कार्यालय बना दिया था. गौरतलब है कि इस किरार समाज की अध्यक्ष उनकी पत्नी साधना सिंह चौहान हैं.

Also Read: लाइव कवरेज के दौरान ज़ी पंजाबी के पत्रकार को किसानों ने दौड़ाया

Also Read: किसानों से इतर एक और आंदोलन जिस पर नहीं है प्रशासन और नेशनल मीडिया की नजर

झीलों के खूबसूरत शहर भोपाल की तफरी पर अगर कोई निकल जाए तो ऐसा शायद ही हो कि वहां कि सड़कों और गली कूंचों में टंगी अलग अलग अख़बारों की तख्तियों पर उसकी नज़र ना पड़े. यूं तो भोपाल में प्रमुख हिंदी और अंग्रेजी अखबारों के दफ्तर एमपी नगर (महाराणा प्रताप नगर) स्थित प्रेस काम्प्लेक्स में हैं लेकिन इस शहर का मिज़ाज़ कुछ ऐसा है कि यहां के चौराहों से लेकर गली नुक्कड़ों तक आपको छोटे-मोटे अखबारों या न्यूज़ पोर्टल के दफ्तर नज़र आ जाएंगे.

विदुर की नीति, यलगार, भड़कती चिंगारी से लेकर बिच्छू जैसे नाम वाले अखबार और पोर्टल भोपाल में आपको मिल जाएंगे. असल में इस शहर में अखबारों की इस भीड़ का कारण है यहां की मौजूदा और पुरानी सरकारों की पत्रकारों के लिए दरियादिली. चाहे सरकार भाजपा की हो या पहले की कांग्रेस सरकार. पत्रकारों को बंगला-गाड़ी देकर हमेशा खुश करने की कोशिश की गई है. मध्यप्रदेश की सरकारों की पत्रकारों के प्रति दरियादिली का इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि प्यारे मियां जैसे अपराधी भी पत्रकारिता की आड़ में सालों-साल सरकारी सुविधाओं का मज़ा लेते रहे.

अभी हाल ही में (4 दिसंबर) मध्य-प्रदेश सरकार ने दस पत्रकारों को सरकारी आवासीय बंगले मुहैया कराने का निर्देश जारी किया है. ये बंगले प्रेस पूल योजना के अंतर्गत तीन साल के लिए किराए पर दिए गए हैं. बावजूद इसके कि पहले से ही प्रेसपूल योजना के तहत मध्य प्रदेश में लगभग 210 पत्रकार और मीडिया संस्थान सरकारी बंगले का लाभ उठा रहे हैं. 20-25 साल से नाममात्र का या फिर बिना किराया दिए. उस किराए की रकम साल 2010 तक 14 करोड़ रुपए तक पहुंच गयी थी. ये बंगले भोपाल के चार इमली, 74 नंबर, 45 नंबर, शिवाजी नगर, प्रोफेसर्स कॉलोनी जैसे वीआईपी इलाकों में मुहैया कराये जाते हैं. यह भोपाल का वो इलाका है जहां मंत्रियों, आईएएस, आईपीएस, व अन्य वरिष्ठ सरकारी अधिकारी रहते हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद चार दिसंबर 2020 को जारी सरकारी दस्तावेज के मुताबिक ये बंगले नया इन्डिया के जगदीप सिंह, न्यूज़ 18 के शरद श्रीवास्तव, अग्निबाण के रामेश्वर धाकड़, आईएनडी-24 के सुनील श्रीवास्तव, आईबीसी-24 के सुधीर दंडोतिया, डिजियाना के अश्विनी कुमार मिश्र, पीपुल्स समाचार के संतोष चौधरी, टीवी-9 भारतवर्ष के मकरंद काले, ज़ी न्यूज़ के विवेक पटैय्या और नवदुनिया के धनंजय प्रताप सिंह को आवंटित किए गए हैं.

क्या था मीडिया द्वारा सरकारी बंगलो पर कब्ज़े और 14 करोड़ के बकाया किराए का मामला

गौरतलब है कि साल 2012 में मध्य प्रदेश जनसम्पर्क विभाग (डायरेक्टरेट ऑफ़ इन्फॉर्मेशन एंड पब्लिक रिलेशन्स) के पूर्व संयुक्त निदेशक श्रीप्रकाश दीक्षित ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में पत्रकार कोटे के तहत सरकारी बंगले के आवंटन में हुई गड़बड़ियों के बारे में याचिका दायर की थी और कोर्ट से गुहार लगायी थी कि सरकारी बंगलों पर पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के गैरकानूनी कब्ज़े से छुड़ाया जाए. याचिका दायर करने के पहले दीक्षित ने सूचना के अधिकार के ज़रिये सम्पदा संचालनालय (डायरेक्टरेट ऑफ़ एस्टेट्स) से वो दस्तावेज़ इक्कठा किये जिसमें बताया गया था कि भोपाल में तकरीबन 210 पत्रकारों और मीडिया संस्थांनों को सरकारी बंगले आवंटित किए गए थे. इन मीडियाकर्मियों और संस्थानों ने लगभग 25-30 साल से इन बंगलों पर कब्ज़ा कर रखा था और उन पर नवम्बर 2010 तक 14 करोड़ का किराया बाकी था.

सूचना के अधिकार के दस्तावेजों में इस बात का भी जिक्र था कि मध्य प्रदेश के ऑडिटर एंड अकाउंटेंट्स जनरल (लेखा परीक्षक) ने इन सरकारी आवासों पर पत्रकारों और मीडिया संस्थांनों का गैरकानूनी कब्ज़ा बताया था और यह कहते हुए आपत्ति जतायी थी कि मध्य प्रदेश सरकार जानबूझ कर पत्रकारों से किराया वसूल नहीं कर रही है. 210 सरकारी आवासों में से 176 पर गैरकानूनी कब्ज़ा था, 23 खाली करा लिए गए थे और 11 बंगलों पर उच्च न्यायायलय से पत्रकारों ने स्टे ऑर्डर (स्थगन आदेश) ले लिया था.

2012 में दायर की गयी दीक्षित की याचिका पर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश शरद बोबडे मौजूदा दौर में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश) की बेंच ने नवम्बर 2012 में मध्यप्रदेश सरकार से चार हफ़्तों के भीतर इस मामले सम्बंधित रिपोर्ट पेश करने के आदेश दिए थे. इस मामले की सुनवाई में आगे जाकर जनवरी 2014 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एएम खानविलकर ने आखिरी आदेश सुनाते हुए मध्य प्रदेश सरकार को इस मामले में याचिकाकर्ता की शिकायत के मद्देनज़र उचित कार्यवाही कर याचिकाकर्ता को 30 अप्रैल 2014 तक सूचित करने के आदेश दिए थे. मई के महीने में मध्य प्रदेश सरकार ने दीक्षित को सूचित किया कि 95 लोगों ने सरकारी आवासों पर गैरकानूनी कब्ज़ा कर रखा है, 71 लोगों ने अवधि बढ़ाने के लिए आवेदन दिया और 37 घर खाली हो चुके हैं.

दीक्षित ने मध्य प्रदेश सरकार के इस जवाब के खिलाफ अदालत की अवमानना की याचिका दायर की थी जिसके तहत अदालत ने सरकार को नोटिस भी जारी किया था. लेकिन दीक्षित के मुताबिक उसके बाद भी मौजूदा सरकार ने इस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की थी.

न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में दीक्षित बताते हैं, "मैंने यह याचिका पत्रकारों के खिलाफ नहीं बल्कि पत्रकारों के कोटों में आने वाले सरकारी आवासों के गैरकानूनी इस्तेमाल के खिलाफ की थी. सरकारी बंगले में रुकने की तय अवधि बीत जाने के बाद भी पत्रकारों और मीडिया संस्थनों ने वहां कब्ज़ा बनाये रखा था. इनमें से बहुत से लोग तो पत्रकार भी नहीं है बल्कि छोटे-मोटे साप्ताहिक अखबार चला कर इन सरकारी आवासों पर कब्ज़ा जमा कर बैठे हैं. कुछ ने सरकारी बंगले में ही एक-दो मंज़िल की इमारत भी बना ली है."

दीक्षित आगे कहते हैं, "सरकारी मुलाज़िमों से तो मध्य प्रदेश की सरकारों एक झटके में बंगले खाली करवा लेती है लेकिन पत्रकारों से सरकारी बंगले खाली करवाने में सरकारें कमज़ोर साबित हुयी हैं. देखा जाए तो बहुत से लोग जिनको पत्रकार कोटे में बंगले आवंटित होते है वह पत्रकार होते भी नहीं हैं, ये लोग असल में राजनैतिक पार्टियों के करीबी होते हैं और सरकारें उन्हें पत्रकारों के हिस्से के बंगले मुहैय्या करा देती हैं.”

देखने में आया है कि सरकार कांग्रेस की हो या भाजपा की वह अपने करीबियों को सरकारी बंगले मुहैया कराती हैं. यहां तक कि इन राजनैतिक पार्टियों से जुड़े संगठनों को भी पत्रकार कोटे के तहत बंगले बांट दिए जाते हैं.

दीक्षित बताते हैं, "यूएनआई, पीटीआई, हिंदुस्तान टाइम्स, ज़ी टीवी, नईदुनिया, लोकमत जैसे बड़े ग्रुप को पत्रकार कोटे के तहत बंगले मुहैया कराये गए थे. वहां ये सालों साल से डेरा जमाकर बैठे हैं. इसके अलावा हम संवेद, विश्व संवाद केंद्र जैसी संस्थाए जो भाजपा की करीबी है उनको भी पत्रकार कोटे के अंतर्गत बंगले दिए गए हैं.”

हमारी जानकारी में एक दिलचस्प वाकया आया. कांग्रेस नेता ललित श्रीवास्तव और भाजपा नेता कैलाश सारंग को पत्रकार कोटे के तहत सरकारी आवास दिए गए थे, जबकि अब दोनो ही नेताओं का निधन हो चुका है. युवक कांग्रेस के नेता बंसीलाल गांधी को साल 1984 में एक साल के लिए बंगला आवंटित हुआ था. सालो-साल वहां रहने के बाद उन्होंने बंगला खाली करने से मना कर दिया और उच्च न्यायालय से स्थगन आदेश ले लिया. अर्जुन सिंह के करीबी माने जाने वाले कांग्रेस नेता महेंद्र सिंह चौहान को पत्रकार कोटे के तहत बंगला दिया गया था जिस पर वह 20-30 साल तक काबिज़ रहे और खाली करने के आदेश के बाद उच्च न्यायालय में जाकर स्थगन का आदेश ले आये थे.

सम्पदा संचालनालय से सूचना के अधिकार में मिली जानकारी के अनुसार कुछ पत्रकारों ने लाखों-करोड़ों के किराए नहीं भरे थे. जैसे कि वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश मेहता पर तकरीबन 1.24 करोड़ का किराया बाकी था, पत्रकार सिद्धार्थ खरे पर 1.10 करोड़ का किराया बाकी था. वरिष्ठ पत्रकार शिव अनुराग पटेरिया पर 26 लाख का किराया बाकी था. ऐसे पत्रकारों की फेहरिस्त इतनी लम्बी थी कि साल 2010 तक का किराया 14 करोड़ हो चुका था.

भोपाल में सरकारों और पत्रकारों की इस जुगलबंदी का आलम यह है कि यहां शिवाजी नगर इलाके के सरकारी बंगलों में रहने वाले पत्रकारों के निवास को मज़ाकिया तौर पर पत्रकार दलाल स्ट्रीट के नाम से पुकारते हैं.

प्रेस पूल के नियमों के अनुसार उन्हीं पत्रकारों के सरकारी बंगले दिए जाने चाहिए जिनके खुद के नाम पार या उनके परिवार के किसी व्यक्ति के नाम पर भोपाल नगर निगम की सीमा में घर नहीं हो. पत्रकारों को यह आवास सिर्फ तीन साल के लिए आवंटित होते हैं. नियमों के अनुसार अगर कोई पत्रकार पत्रकारिता छोड़ चुका है या भोपाल छोड़ कर जा चुका है तो उसे सरकारी आवास खाली करना अनिवार्य है. नियम यह भी कहते हैं कि पत्रकारों की वरिष्ठता के आधार पर एक फेहरिस्त बनाकर एक उच्च स्तरीय समिति के सामने पेश की जानी चाहिए, जिसके बाद उच्चस्तरीय समिति जनसम्पर्क विभाग की राय लेने की बाद ही सरकारी बंगले पत्रकारों को आवंटित कराएगी.

लेकिन मध्य प्रदेश में नियमों को ताक पर रखकर सरकारी बंगले मौजूदा सरकारों के निर्देश पर ही मुहैय्या कराये जाते हैं. सूचना के अधिकार के अनुसार ना ही पत्रकारों की कोई फेहरिस्त बनायी जाती है और ना ही कोई समिति गठित की जाती है जो कि जनसम्पर्क विभाग से परामर्श कर यह बंगले मुहैया कराये.

मध्य प्रदेश की सरकारों का पत्रकार प्रेम

चाहे सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की सभी सरकारें पत्रकारों मीडिया संस्थानों को अपनी तरफ से लाभ पहुंचाने में सक्रिय रहती हैं. ताकि उनकी कलम की धार सरकार के खिलाफ ज़्यादा ना चले.

मध्य प्रदेश में यह पत्रकार प्रेम कांग्रेस नेता श्यामा चरण शुक्ल के दौर से चला आ रहा है. शुक्ल मध्य प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे. वह जब मुख्यमंत्री थे तब अपने एक करीबी प्रचंड नाम के अखबार के मालिक को उन्होंने सरकारी बंगला मुहैया कराया था. माना जाता है कि तभी से पत्रकारों को सरकारी बंगले बांटने का रिवाज़ शुरू हो गया था.

आगे चलकर उनकी इस "बंगलाबाट" परंपरा को उनके बाद के मुख्य मंत्रियों ने जारी रखा. अर्जुन सिंह जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को ज़मीन, बंगले व अन्य सरकारी सुविधाएं मुहैया करना शुरू किया. 100-200 रुपए किराए पर आलीशान सरकारी बंगले पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को दिए जाने लगे. शहर के मुख्य इलाकों में अख़बारों को सस्ती दरों पर ज़मीन मुहैया होने लगी थी.

अर्जुन सिंह ने अखबारों को एक पेज का विज्ञापन देने के लिए एक कमेटी भी बनायीं थी जिसकी अध्यक्षता मोती लाल वोहरा ने की थी. आगे जाकर जब मोती लाल वोहरा मुख्यमंत्री बने तब भी पत्रकारों को सरकारी लाभ, बंगले और ज़मीन मुहैया कराते रहे, उन्होंने उनके भाई गोविन्द लाल वोहरा जो पेशे से पत्रकार थे को एक नहीं दो बंगले मुहैया करा दिए थे. इसके बाद भाजपा के सुंदरलाल पटवा हो, कांग्रेस के दिग्विजय सिंह हों, भाजपा की उमा भारती हों या मौजूदा मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान हों सभी पत्रकारों को या पत्रकार कोटे में उनके पार्टी के करीबियों को 'बंगलाबाट' करते चले आ रहे हैं.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का नाम खुद विवादों में आ गया था. चौहान को खुद दो बंगले आवंटित थे, जिनमें से एक को उन्होंने किरार समाज का कार्यालय बना दिया था. गौरतलब है कि इस किरार समाज की अध्यक्ष उनकी पत्नी साधना सिंह चौहान हैं.

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