Newslaundry Hindi
फिल्म लॉन्ड्री: बिहार से दिल्ली आए एक मामूली युवक की कहानी है, प्रतीक वत्स की ‘ईब आले ऊ’
कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जिनमें किरदारों की वास्तविकता के चित्रण में ही उनके परिवेश, माहौल और स्थान की क्रूरता, विद्रूपता और अमानवीयता उजागर हो जाती है. ‘ईब आले ऊ’ में अंजनी, जितेंद्र, महेन्दर, शशि, नारायण, कुमुद आदि मामूली चरित्रों के जीवन की झांकियों को देखते हुए हम दिल्ली महानगर की निर्मम, क्रूर और अमानवीय झलक भी पाते हैं. दिल्ली की सरकारी लाल इमारतों (सेंट्रल विस्टा) के इलाके में अपनी पहचान, सर्वाइवल और आजीविका के लिए जूझते अंजनी और अन्य चरित्र एक व्यतिरेक का निरूपण करते हैं. प्रतीक वत्स की ‘ईबी आले ऊ’ ऐसी ही फिल्म है.
मुंबई के मामी फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन गेटवे से पुरस्कृत और तमाम देशों के फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई जा चुकी ‘ईब आले ऊ’ देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई है. चुनिंदा मल्टीप्लेक्स में इसके सीमित शो हैं. यह भी एक विपर्यय है कि चालू किस्म की हिंदी फिल्मों को सैकड़ों- हजारों स्क्रीन मिल जाते हैं, लेकिन ‘ईब आले ऊ’ जैसी संवेदनशील, सामयिक और जरूरी फिल्मों को पर्याप्त स्क्रीन नहीं मिल पाते.
प्रतीक वटस की ‘ईब आले ऊ’ बिहार से दिल्ली आए एक अल्पशिक्षित बेरोजगार युवक अंजनी की कहानी है. उसके पास ना तो अच्छी डिग्री है और ना कोई कौशल है. वह अपनी बहन और बहनोई के पास दिल्ली आ गया है. बहनोई सिक्योरिटी गार्ड हैं और बहन मसालों के पैकेट तैयार करती है. दिल्ली आने के बाद बहनोई की सहायता से उसे दिल्ली नगर निगम में छोटी नौकरी (बहन के शब्दों में सरकारी नौकरी) मिल जाती है. उसे बंदर भगाने का काम मिल जाता है. शहरी आबादी के प्रसार और वन-जंगल कटने से बंदर बस्तियों में घुसने लगे हैं. खाने की तलाश में वे कोहराम मचाते हैं. पहले उन्हें भगाने के लिए लंगूरों की मदद ली जाती थी. लंगूरों पर पाबंदी लगने के बाद उनकी आवाज निकालने का काम आदमी करने लगे. फिल्म का शीर्षक उसी आवाज की ध्वनि है.
नौकरी लगने के बाद अंजनी की मुश्किलें शुरू होती हैं. सबसे पहले तो उसे यह काम पसंद नहीं है. बंदर भगाने का काम उसे अपनी तोहीन लगता है. वह बहन से इसकी शिकायत भी करता है, लेकिन किसी अन्य रोजगार के अभाव में इसे स्वीकार कर लेता है. दूसरा, उसे बंदरों से डर भी लगता है. उनकी घुड़की से वह सहमा रहता है. सही उच्चारण और अपेक्षित तीव्रता से बंदरों को भगाने की आवाज भी वह नहीं निकाल पाता. दरअसल, बिहार से विस्थापित अंजनियों की आवाज समाज में भी नहीं सुनी जाती. उसकी बेअसर आवाज उन सभी प्रवासी मजदूरों की ही आवाज है, जिन्हें लॉकडाउन के दिनों में हमने पैदल ही
अपने गांव जाते देखा. हजारों मिल की यात्रा के उनके इस दु:साध्य हिम्मत को देखकर भी सत्ता और समाज को इल्म नहीं हुआ कि दिल्ली अपने देश के गांव से अभी तक कितनी कितनी दूर है. आजादी के 73 सालों के बाद भी कि इस भयानक स्थिति को सरकारी और गोदी मीडिया ने निराधार सुशांत सिंह राजपूत विवाद से हाशिए पर डाल दिया. वास्तव में समाज के संरचना ऐसी बन गई है कि किसी को इस हाशिये के समूह और वर्ग की फिक्र नहीं है.
‘ईब आले ऊ’ हाशिए में गुजर-बसर कर रहे किरदारों की तो कहानी है ही. यह दिल्ली आ रहे हैं उन बेरोजगारों की भी कहानी है, जिनके अपने राज्यों में रोजगार का अभाव है. उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों की कमोबेश यही स्थिति है. सुशासन और विकास के नाम पर राज कर रहे मुख्यमंत्रियों ने राज्य के नागरिकों की आजीविका की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की है. दिल्ली पहुंचने के बाद इन बेरोजगारों की जिंदगी की तबाही और उम्मीद के दरमियान महानगर बेनकाब होते हैं. पता चलता है कि तरक्की और समृद्धि, वैभव और प्रभाव एवं व्यस्त और मस्त महानगर के नीचा नगर के बाशिंदे आज भी आजीविका के चक्कर में फंसे हैं. दिल्ली समेत देश का हर महानगर अनेक परतों में जीता है. ऊपरी परत में सरकारी लाल इमारतें और उनमें बैठे मंत्री व अधिकारी हैं और निचली परत में अंजनी जैसे चरित्र... इनके बीच की परतों में वह भीड़ रहती है, जो ‘ईब आले ऊ’ में एक चरित्र की मामूली सी चूक पर उसकी हत्या कर देती है. यह भीड़ देश में हत्यायें कर रही है और देश का प्रधान सेवक अपनी मनमानी और मनवाणी (मन की बात) में निमग्न है.
अंजनी बंदरों को भगाने के यत्न और प्रयत्न में नई तरकीबें अपनाता है. उन तरकीबों की शिकायत हो जाती है तो वह अपनी नापसंद नौकरी बचाने के लिए रिरियाने लगता है. उसकी स्थिति उन बंदरों से भिन्न नहीं है जो खुराक की तलाश में महानगरीय संपन्नता में विघ्न बन गए हैं. अंजनी के बहन-बहनोई भी विकट स्थिति में हैं. उनकी अपनी मुसीबतें और लड़ाइयां हैं. गर्भवती बहन भाई और पति के बीच की संधि है.
प्रतीक वत्स ने ‘ईब आले ऊ’ के प्रसंगों और संवादों में राजनीतिक संदर्भ और टिप्पणियों का सार्थक उपयोग किया है. वह धर्म और आस्था जनित सामाजिक पाखंड पर भी निशाना साधते हैं. उनकी यह फिल्म 21वीं सदी के दूसरे दशक के भारत और उसकी राजधानी का मार्मिक साक्ष्य है. पाखंड ही है कि एक तरफ बंदरों को भगाना है और दूसरी तरफ उन्हें हनुमान मान कर खिलाना भी है. यह फिल्म एक साथ धर्म, राजनीति, राष्ट्रवाद, महानगर, नीचा नगर, निचले तबके के संघर्ष और ऊंचे तबके के विमर्श को पेश करती है. प्रतीक वटस की खूबी है कि वह इन सभी मुद्दों पर शोर नहीं करते. उन्होंने प्रतीकों के माध्यम से यह रूपक रचा है. इस रचना में उनके सहयोगी लेखक शुभम, कैमरामैन सौम्यानंद साही, कला निर्देशक अभिषेक भारद्वाज व नील मणिकांत, कॉस्टयूम डिजाइनर, एडिटर, ध्वनि मुद्रक सभी ने पर्याप्त योगदान किया है.
कलाकारों में अंजनी की भूमिका निभा रहे शार्दुल भारद्वाज ने अंजनी के पराभव और मनोभाव को अच्छी तरह उकेरा है. इस फिल्म में अनेक नॉन एक्टर हैं. उनके परफॉर्मेंस वास्तविक और सटीक हैं. यहां तक कि बंदरों की हरकतों और घुड़कियों को भी कैमरामैन और संपादक ने अंजनी और लाल इमारतों के बीच प्रभावशाली और मानीखेज तरीके से पेश किया है. इस फिल्म के संवाद और उनमें प्रयुक्त भाषा चरित्रों के भाव-मनोभाव को अच्छी तरह व्यक्त करती है. उन्होंने शब्दों के उच्चारण और संवाद अदायगी पर भी पूरा ध्यान दिया है.
पहली फिल्म में ही प्रतीक वत्स ने जाहिर किया है कि वह सिनेमा माध्यम और उसके प्रयोग को अच्छी तरह समझते हैं. पहली फिल्म अपने किफायती एक्सप्रेशन में वह सारगर्भित और प्रभावकारी हैं. उनसे उम्मीदें बंधी हैं.
कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जिनमें किरदारों की वास्तविकता के चित्रण में ही उनके परिवेश, माहौल और स्थान की क्रूरता, विद्रूपता और अमानवीयता उजागर हो जाती है. ‘ईब आले ऊ’ में अंजनी, जितेंद्र, महेन्दर, शशि, नारायण, कुमुद आदि मामूली चरित्रों के जीवन की झांकियों को देखते हुए हम दिल्ली महानगर की निर्मम, क्रूर और अमानवीय झलक भी पाते हैं. दिल्ली की सरकारी लाल इमारतों (सेंट्रल विस्टा) के इलाके में अपनी पहचान, सर्वाइवल और आजीविका के लिए जूझते अंजनी और अन्य चरित्र एक व्यतिरेक का निरूपण करते हैं. प्रतीक वत्स की ‘ईबी आले ऊ’ ऐसी ही फिल्म है.
मुंबई के मामी फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन गेटवे से पुरस्कृत और तमाम देशों के फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई जा चुकी ‘ईब आले ऊ’ देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई है. चुनिंदा मल्टीप्लेक्स में इसके सीमित शो हैं. यह भी एक विपर्यय है कि चालू किस्म की हिंदी फिल्मों को सैकड़ों- हजारों स्क्रीन मिल जाते हैं, लेकिन ‘ईब आले ऊ’ जैसी संवेदनशील, सामयिक और जरूरी फिल्मों को पर्याप्त स्क्रीन नहीं मिल पाते.
प्रतीक वटस की ‘ईब आले ऊ’ बिहार से दिल्ली आए एक अल्पशिक्षित बेरोजगार युवक अंजनी की कहानी है. उसके पास ना तो अच्छी डिग्री है और ना कोई कौशल है. वह अपनी बहन और बहनोई के पास दिल्ली आ गया है. बहनोई सिक्योरिटी गार्ड हैं और बहन मसालों के पैकेट तैयार करती है. दिल्ली आने के बाद बहनोई की सहायता से उसे दिल्ली नगर निगम में छोटी नौकरी (बहन के शब्दों में सरकारी नौकरी) मिल जाती है. उसे बंदर भगाने का काम मिल जाता है. शहरी आबादी के प्रसार और वन-जंगल कटने से बंदर बस्तियों में घुसने लगे हैं. खाने की तलाश में वे कोहराम मचाते हैं. पहले उन्हें भगाने के लिए लंगूरों की मदद ली जाती थी. लंगूरों पर पाबंदी लगने के बाद उनकी आवाज निकालने का काम आदमी करने लगे. फिल्म का शीर्षक उसी आवाज की ध्वनि है.
नौकरी लगने के बाद अंजनी की मुश्किलें शुरू होती हैं. सबसे पहले तो उसे यह काम पसंद नहीं है. बंदर भगाने का काम उसे अपनी तोहीन लगता है. वह बहन से इसकी शिकायत भी करता है, लेकिन किसी अन्य रोजगार के अभाव में इसे स्वीकार कर लेता है. दूसरा, उसे बंदरों से डर भी लगता है. उनकी घुड़की से वह सहमा रहता है. सही उच्चारण और अपेक्षित तीव्रता से बंदरों को भगाने की आवाज भी वह नहीं निकाल पाता. दरअसल, बिहार से विस्थापित अंजनियों की आवाज समाज में भी नहीं सुनी जाती. उसकी बेअसर आवाज उन सभी प्रवासी मजदूरों की ही आवाज है, जिन्हें लॉकडाउन के दिनों में हमने पैदल ही
अपने गांव जाते देखा. हजारों मिल की यात्रा के उनके इस दु:साध्य हिम्मत को देखकर भी सत्ता और समाज को इल्म नहीं हुआ कि दिल्ली अपने देश के गांव से अभी तक कितनी कितनी दूर है. आजादी के 73 सालों के बाद भी कि इस भयानक स्थिति को सरकारी और गोदी मीडिया ने निराधार सुशांत सिंह राजपूत विवाद से हाशिए पर डाल दिया. वास्तव में समाज के संरचना ऐसी बन गई है कि किसी को इस हाशिये के समूह और वर्ग की फिक्र नहीं है.
‘ईब आले ऊ’ हाशिए में गुजर-बसर कर रहे किरदारों की तो कहानी है ही. यह दिल्ली आ रहे हैं उन बेरोजगारों की भी कहानी है, जिनके अपने राज्यों में रोजगार का अभाव है. उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों की कमोबेश यही स्थिति है. सुशासन और विकास के नाम पर राज कर रहे मुख्यमंत्रियों ने राज्य के नागरिकों की आजीविका की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की है. दिल्ली पहुंचने के बाद इन बेरोजगारों की जिंदगी की तबाही और उम्मीद के दरमियान महानगर बेनकाब होते हैं. पता चलता है कि तरक्की और समृद्धि, वैभव और प्रभाव एवं व्यस्त और मस्त महानगर के नीचा नगर के बाशिंदे आज भी आजीविका के चक्कर में फंसे हैं. दिल्ली समेत देश का हर महानगर अनेक परतों में जीता है. ऊपरी परत में सरकारी लाल इमारतें और उनमें बैठे मंत्री व अधिकारी हैं और निचली परत में अंजनी जैसे चरित्र... इनके बीच की परतों में वह भीड़ रहती है, जो ‘ईब आले ऊ’ में एक चरित्र की मामूली सी चूक पर उसकी हत्या कर देती है. यह भीड़ देश में हत्यायें कर रही है और देश का प्रधान सेवक अपनी मनमानी और मनवाणी (मन की बात) में निमग्न है.
अंजनी बंदरों को भगाने के यत्न और प्रयत्न में नई तरकीबें अपनाता है. उन तरकीबों की शिकायत हो जाती है तो वह अपनी नापसंद नौकरी बचाने के लिए रिरियाने लगता है. उसकी स्थिति उन बंदरों से भिन्न नहीं है जो खुराक की तलाश में महानगरीय संपन्नता में विघ्न बन गए हैं. अंजनी के बहन-बहनोई भी विकट स्थिति में हैं. उनकी अपनी मुसीबतें और लड़ाइयां हैं. गर्भवती बहन भाई और पति के बीच की संधि है.
प्रतीक वत्स ने ‘ईब आले ऊ’ के प्रसंगों और संवादों में राजनीतिक संदर्भ और टिप्पणियों का सार्थक उपयोग किया है. वह धर्म और आस्था जनित सामाजिक पाखंड पर भी निशाना साधते हैं. उनकी यह फिल्म 21वीं सदी के दूसरे दशक के भारत और उसकी राजधानी का मार्मिक साक्ष्य है. पाखंड ही है कि एक तरफ बंदरों को भगाना है और दूसरी तरफ उन्हें हनुमान मान कर खिलाना भी है. यह फिल्म एक साथ धर्म, राजनीति, राष्ट्रवाद, महानगर, नीचा नगर, निचले तबके के संघर्ष और ऊंचे तबके के विमर्श को पेश करती है. प्रतीक वटस की खूबी है कि वह इन सभी मुद्दों पर शोर नहीं करते. उन्होंने प्रतीकों के माध्यम से यह रूपक रचा है. इस रचना में उनके सहयोगी लेखक शुभम, कैमरामैन सौम्यानंद साही, कला निर्देशक अभिषेक भारद्वाज व नील मणिकांत, कॉस्टयूम डिजाइनर, एडिटर, ध्वनि मुद्रक सभी ने पर्याप्त योगदान किया है.
कलाकारों में अंजनी की भूमिका निभा रहे शार्दुल भारद्वाज ने अंजनी के पराभव और मनोभाव को अच्छी तरह उकेरा है. इस फिल्म में अनेक नॉन एक्टर हैं. उनके परफॉर्मेंस वास्तविक और सटीक हैं. यहां तक कि बंदरों की हरकतों और घुड़कियों को भी कैमरामैन और संपादक ने अंजनी और लाल इमारतों के बीच प्रभावशाली और मानीखेज तरीके से पेश किया है. इस फिल्म के संवाद और उनमें प्रयुक्त भाषा चरित्रों के भाव-मनोभाव को अच्छी तरह व्यक्त करती है. उन्होंने शब्दों के उच्चारण और संवाद अदायगी पर भी पूरा ध्यान दिया है.
पहली फिल्म में ही प्रतीक वत्स ने जाहिर किया है कि वह सिनेमा माध्यम और उसके प्रयोग को अच्छी तरह समझते हैं. पहली फिल्म अपने किफायती एक्सप्रेशन में वह सारगर्भित और प्रभावकारी हैं. उनसे उम्मीदें बंधी हैं.
Also Read
-
Margins shrunk, farmers forced to switch: Trump tariffs sinking Odisha’s shrimp industry
-
Gujarat’s invisible walls: Muslims pushed out, then left behind
-
Gurugram’s Smart City illusion: Gleaming outside, broken within
-
DU polls: Student politics vs student concerns?
-
दिल्ली विश्वविद्यालय चुनाव में छात्र हित बनाम संजय दत्त और शराब