Newslaundry Hindi
कांग्रेस में जरूरत से कम लोकतंत्र पार्टी को लगातार बना रहा कमजोर
नीति आयोग के अमिताभ कांत को तो लगता है कि जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र हमारे देश की जड़ें खोद रहा है जबकि कांग्रेस के वरिष्ठ जनों को लगता है कांग्रेस में जरूरत से कम लोकतंत्र उसे लगातार कमजोर बनाता जा रहा है. लोकतंत्र है ही एक ऐसा खिलौना जिससे अमिताभ कांत जैसे ‘बच्चे’ भी और कांग्रेस के ‘दादा’ लोग भी जब जैसे चाहें, वैसे खेलते हैं. लेकिन लोकतंत्र की मुसीबत यह है कि वह कोई खिलौना नहीं, एक गंभीर प्रक्रिया व गहरी आस्था है जिसके बिना यह लोकतंत्र में आस्था न रखने वालों की मनमौज में बदल जाता है.
कांग्रेस के भीतर आज यही मनमौज जोरों से जारी है. कांग्रेस के ‘दादाओ’ को लगता है कि नेहरू परिवार की मुट्ठी में पार्टी का दम घुट रहा है. सबकी उंगली राहुल गांधी की तरफ उठती है कि वे राजनीति को गंभीरता से नहीं, सैर-सपाटे की तरह लेते हैं. लेकिन उनमें से कौन कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति को गंभीरता से लेता है? मोतीलाल नेहरू से शुरू कर इंदिरा गांधी तक नेहरू परिवार अपनी बनावट में राजनीतिक प्राणी रहा है और अपनी मर्जी से सत्ता की राजनीति में उतरा है. संजय गांधी को भी परिवार की यह भूख विरासत में मिली थी. अगर हवाई जहाज की दुर्घटना में उनकी मौत न हुई होती तो नेहरू-परिवार का इतिहास व भूगोल दोनों आज से भिन्न होता. संजय गांधी की मौत के बाद इंदिरा गांधी समझ नहीं सकीं कि उनके वारिस राजीव गांधी में वह राजनीतिक भूख नहीं है जिसके बगैर किसी का राजनीतिक नेतृत्व न बनता है, न चलता है.
उन्होंने राजीव गांधी पर सत्ता थोप दी ताकि उनकी भूख जागे. वह पुरानी बात तो है ही कि कुछ महान पैदा होते हैं, कुछ महानता प्राप्त करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है. अनिक्षुक राजीव गांधी पर मां ने सत्ता थोप दी और जब तक वे इसके रास्ते-गलियां समझ पाते तब तक मां की भी हत्या हो गई. अब यह थोपी हुई सत्ता राजीव से चिपक गई और धीरे-धीरे राजीव अनिक्षा से बाहर निकल कर, सत्ता की शक्ति और सत्ता का सुख, दोनों समझने व चाहने लगे. उनमें मां का तेवर तो नहीं था लेकिन तरीका मां का ही था. तमिलनाडु की चुनावी सभा में, लिट्टे के मानव-बम से वे मारे नहीं जाते तो हम उन्हें अपने खानदान के रंग व ढंग से राजनीति करते देखते. विश्वनाथ प्रताप सिंह की दागी बोफर्स तोप के निशाने से पार पा कर, वे अपने बल पर बहुमत पाने और सत्ता की बागडोर संभालने की तैयारी पर थे.
राजीव विहीन कांग्रेस इस शून्य को भरने के लिए फिर नेहरू-परिवार की तरफ देखने लगी लेकिन अब वहां बची थीं सिर्फ सोनिया गांधी- राजनीति से एकदम अनजान व उदासीन, अपने दो छोटे बच्चों को संभालने व उन्हें राजनीति की धूप से बचाने की जी-तोड़ कोशिश में लगी एक विदेशी लड़की! लेकिन जो राजीव गांधी के साथ उनकी मां ने किया वैसा ही कुछ सोनिया गांधी के साथ कांग्रेस के उन बड़े नेताओं ने किया जो नरसिम्हा राव, सीताराम केसरी आदि मोहरों की चालों से बेजार हुए जा रहे थे. उन्होंने सोनिया गांधी पर कांग्रेस थोप दी. फिर सोनिया गांधी ने वह किया जो उनके पति राजीव गांधी ने किया था. राजनीति को समझा भी और फिर उसमें पूरा रस लेने लगीं. मुझे पता नहीं कि आधुनिक दुनिया के लोकतांत्रिक पटल पर कहीं कोई दूसरी सोनिया गांधी हैं या नहीं. सोनिया गांधी ने कांग्रेस को वह सब दिया जो नेहरू-परिवार से उसे मिलता रहा था. बस इतना था कि वे इस परिवार की इटली-संस्करण थीं. सोनिया गांधी ने बहुत संयम, गरिमा से बारीक राजनीतिक चालें चलीं. प्रधानमंत्री की अपनी कुर्सी किसी दूसरे को दे देने और फिर भी कुर्सी को अपनी मुट्ठी में रखने का कमाल भी उन्होंने कर दिखलाया.
राहुल गांधी को उनकी मां ने कांग्रेस-प्रमुख व देश के प्रधानमंत्री की भूमिका में तैयार किया. राहुल भी अपने पिता व मां की तरह ही राजनीति की तालाब के मछली नहीं थे लेकिन उन्हें मां ने चुनने का मौका नहीं दिया. राहुल तालाब में उतार तो दिए गए. जल्दी ही वे इसका विशाल व सर्वभक्षी रूप देख कर किनारे की तरफ भागने लगे, आज तक भागते रहते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि राहुल को राजनीति नहीं करनी है या वे सत्ता की तरफ उन्मुख नहीं हैं. अब तो उनकी शुरुआती झिझक भी चली गई है लेकिन कांग्रेस का इंदिरा गांधी संस्करण उनको पचता नहीं है. वे इसे बदलना चाहते हैं लेकिन वह बदलाव क्या है और कैसे होगा, न इसका साफ नक्शा है उनके पास और न कांग्रेस के वरिष्ठ जन वैसा कोई बदलाव चाहते हैं. यहीं आकर कांग्रेस ठिठक-अंटक गई है.
मतदाता उसकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा है. वह अपनी मुट्ठी कैसे बंद करे, यह बताने वाला उसके पास कोई नहीं है. क्या ऐसी कांग्रेस को राहुल अपनी कांग्रेस बना सकते हैं ? बना सकते हैं यदि वे यह समझ लें कि आगे का रास्ता बनाने और उस पर चलने के लिए नेतृत्व को एक बिंदु से आगे सफाई करनी ही पड़ती है. परदादा जवाहरलाल नेहरू हों कि दादी इंदिरा गांधी या पिता राजीव गांधी, सबने ऐसी सफाई की है, क्योंकि उन्हें कांग्रेस को अपनी पार्टी बनना था. राहुल यहीं आ कर चूक जाते हैं या पीछे हट जाते हैं. वे कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे और लगातार आधी से ज्यादा कांग्रेस उन्हें ही अपना अध्यक्ष मानती भी रही है लेकिन राहुल अब तक अपनी टीम नहीं बना पाए हैं. वे यह भी बता नहीं पाए हैं कि वे कांग्रेस का कैसा चेहरा गढ़ना चाहते हैं. कांग्रेस को ऐसे राहुल की जरूरत है जो उसे गढ़ सके और यहां से आगे ले जा सके. वह तथाकथित ‘वरिष्ठ कांग्रेसजनों’ से पूछ सके कि यदि मैं कांग्रेस की राजनीति को गंभीरता से नहीं ले रहा हूं तो आपको आगे बढ़ कर कांग्रेस को गंभीरता से लेने से किसने रोका है?
पिछले संसदीय चुनाव या उसके बाद के किसी भी राज्य के चुनाव में इन वरिष्ठ कांग्रेसियों में से एक भी जान लगा कर काम करता दिखाई नहीं दिया, दिखाई नहीं देता है तो क्यों? ऐसा क्यों हुआ कि जब राहुल “चौकीदार चोर है!” की हांक लगाते सारे देश में घूम रहे थे तब दूसरा कोई वरिष्ठ कांग्रेसी उसकी प्रतिध्वनि नहीं उठा रहा था? अगर ऐसे नारे से किसी को एतराज था तो किसी ने कोई नया नारा क्यों नहीं गुंजाया? ऐसा क्यों है कि राहुल ही हैं कि जो अपने बयानों-ट्विटों में सरकार को सीधे निशाने पर लेते हैं बाकी कौन, कब, क्या बोलता है, किसने सुना है? शुरू में राहुल कई बार कच्चेपन का परिचय दिया करते थे क्योंकि उनके पीछे संभालने वाला कोई राजनीतिक हाथ नहीं था. अब वक्त ने उन्हें संभाल दिया है.
इस राहुल को कांग्रेस अपनाने को तैयार हो तो कांग्रेस के लिए आज भी आशा है. राहुल को पार्टी के साथ काम करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए क्योंकि कांग्रेस में आज राजस्थान के मुख्यमंत्री के अलावा दूसरा कोई नहीं है कि जो पार्टी को नगरपालिका का चुनाव भी जिता सके. अशोक गहलोत कांग्रेस के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने खुली चुनौती दे कर भाजपा को चुनाव में हराया और फिर चुनौती दे कर सरकार गिराने की रणनीति में उसे मात दी. यह राजनीति का राहुल-ढंग है. ऐसी कांग्रेस और ऐसे राहुल ही एक-दूसरे को बचा सकते हैं.
नीति आयोग के अमिताभ कांत को तो लगता है कि जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र हमारे देश की जड़ें खोद रहा है जबकि कांग्रेस के वरिष्ठ जनों को लगता है कांग्रेस में जरूरत से कम लोकतंत्र उसे लगातार कमजोर बनाता जा रहा है. लोकतंत्र है ही एक ऐसा खिलौना जिससे अमिताभ कांत जैसे ‘बच्चे’ भी और कांग्रेस के ‘दादा’ लोग भी जब जैसे चाहें, वैसे खेलते हैं. लेकिन लोकतंत्र की मुसीबत यह है कि वह कोई खिलौना नहीं, एक गंभीर प्रक्रिया व गहरी आस्था है जिसके बिना यह लोकतंत्र में आस्था न रखने वालों की मनमौज में बदल जाता है.
कांग्रेस के भीतर आज यही मनमौज जोरों से जारी है. कांग्रेस के ‘दादाओ’ को लगता है कि नेहरू परिवार की मुट्ठी में पार्टी का दम घुट रहा है. सबकी उंगली राहुल गांधी की तरफ उठती है कि वे राजनीति को गंभीरता से नहीं, सैर-सपाटे की तरह लेते हैं. लेकिन उनमें से कौन कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति को गंभीरता से लेता है? मोतीलाल नेहरू से शुरू कर इंदिरा गांधी तक नेहरू परिवार अपनी बनावट में राजनीतिक प्राणी रहा है और अपनी मर्जी से सत्ता की राजनीति में उतरा है. संजय गांधी को भी परिवार की यह भूख विरासत में मिली थी. अगर हवाई जहाज की दुर्घटना में उनकी मौत न हुई होती तो नेहरू-परिवार का इतिहास व भूगोल दोनों आज से भिन्न होता. संजय गांधी की मौत के बाद इंदिरा गांधी समझ नहीं सकीं कि उनके वारिस राजीव गांधी में वह राजनीतिक भूख नहीं है जिसके बगैर किसी का राजनीतिक नेतृत्व न बनता है, न चलता है.
उन्होंने राजीव गांधी पर सत्ता थोप दी ताकि उनकी भूख जागे. वह पुरानी बात तो है ही कि कुछ महान पैदा होते हैं, कुछ महानता प्राप्त करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है. अनिक्षुक राजीव गांधी पर मां ने सत्ता थोप दी और जब तक वे इसके रास्ते-गलियां समझ पाते तब तक मां की भी हत्या हो गई. अब यह थोपी हुई सत्ता राजीव से चिपक गई और धीरे-धीरे राजीव अनिक्षा से बाहर निकल कर, सत्ता की शक्ति और सत्ता का सुख, दोनों समझने व चाहने लगे. उनमें मां का तेवर तो नहीं था लेकिन तरीका मां का ही था. तमिलनाडु की चुनावी सभा में, लिट्टे के मानव-बम से वे मारे नहीं जाते तो हम उन्हें अपने खानदान के रंग व ढंग से राजनीति करते देखते. विश्वनाथ प्रताप सिंह की दागी बोफर्स तोप के निशाने से पार पा कर, वे अपने बल पर बहुमत पाने और सत्ता की बागडोर संभालने की तैयारी पर थे.
राजीव विहीन कांग्रेस इस शून्य को भरने के लिए फिर नेहरू-परिवार की तरफ देखने लगी लेकिन अब वहां बची थीं सिर्फ सोनिया गांधी- राजनीति से एकदम अनजान व उदासीन, अपने दो छोटे बच्चों को संभालने व उन्हें राजनीति की धूप से बचाने की जी-तोड़ कोशिश में लगी एक विदेशी लड़की! लेकिन जो राजीव गांधी के साथ उनकी मां ने किया वैसा ही कुछ सोनिया गांधी के साथ कांग्रेस के उन बड़े नेताओं ने किया जो नरसिम्हा राव, सीताराम केसरी आदि मोहरों की चालों से बेजार हुए जा रहे थे. उन्होंने सोनिया गांधी पर कांग्रेस थोप दी. फिर सोनिया गांधी ने वह किया जो उनके पति राजीव गांधी ने किया था. राजनीति को समझा भी और फिर उसमें पूरा रस लेने लगीं. मुझे पता नहीं कि आधुनिक दुनिया के लोकतांत्रिक पटल पर कहीं कोई दूसरी सोनिया गांधी हैं या नहीं. सोनिया गांधी ने कांग्रेस को वह सब दिया जो नेहरू-परिवार से उसे मिलता रहा था. बस इतना था कि वे इस परिवार की इटली-संस्करण थीं. सोनिया गांधी ने बहुत संयम, गरिमा से बारीक राजनीतिक चालें चलीं. प्रधानमंत्री की अपनी कुर्सी किसी दूसरे को दे देने और फिर भी कुर्सी को अपनी मुट्ठी में रखने का कमाल भी उन्होंने कर दिखलाया.
राहुल गांधी को उनकी मां ने कांग्रेस-प्रमुख व देश के प्रधानमंत्री की भूमिका में तैयार किया. राहुल भी अपने पिता व मां की तरह ही राजनीति की तालाब के मछली नहीं थे लेकिन उन्हें मां ने चुनने का मौका नहीं दिया. राहुल तालाब में उतार तो दिए गए. जल्दी ही वे इसका विशाल व सर्वभक्षी रूप देख कर किनारे की तरफ भागने लगे, आज तक भागते रहते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि राहुल को राजनीति नहीं करनी है या वे सत्ता की तरफ उन्मुख नहीं हैं. अब तो उनकी शुरुआती झिझक भी चली गई है लेकिन कांग्रेस का इंदिरा गांधी संस्करण उनको पचता नहीं है. वे इसे बदलना चाहते हैं लेकिन वह बदलाव क्या है और कैसे होगा, न इसका साफ नक्शा है उनके पास और न कांग्रेस के वरिष्ठ जन वैसा कोई बदलाव चाहते हैं. यहीं आकर कांग्रेस ठिठक-अंटक गई है.
मतदाता उसकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा है. वह अपनी मुट्ठी कैसे बंद करे, यह बताने वाला उसके पास कोई नहीं है. क्या ऐसी कांग्रेस को राहुल अपनी कांग्रेस बना सकते हैं ? बना सकते हैं यदि वे यह समझ लें कि आगे का रास्ता बनाने और उस पर चलने के लिए नेतृत्व को एक बिंदु से आगे सफाई करनी ही पड़ती है. परदादा जवाहरलाल नेहरू हों कि दादी इंदिरा गांधी या पिता राजीव गांधी, सबने ऐसी सफाई की है, क्योंकि उन्हें कांग्रेस को अपनी पार्टी बनना था. राहुल यहीं आ कर चूक जाते हैं या पीछे हट जाते हैं. वे कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे और लगातार आधी से ज्यादा कांग्रेस उन्हें ही अपना अध्यक्ष मानती भी रही है लेकिन राहुल अब तक अपनी टीम नहीं बना पाए हैं. वे यह भी बता नहीं पाए हैं कि वे कांग्रेस का कैसा चेहरा गढ़ना चाहते हैं. कांग्रेस को ऐसे राहुल की जरूरत है जो उसे गढ़ सके और यहां से आगे ले जा सके. वह तथाकथित ‘वरिष्ठ कांग्रेसजनों’ से पूछ सके कि यदि मैं कांग्रेस की राजनीति को गंभीरता से नहीं ले रहा हूं तो आपको आगे बढ़ कर कांग्रेस को गंभीरता से लेने से किसने रोका है?
पिछले संसदीय चुनाव या उसके बाद के किसी भी राज्य के चुनाव में इन वरिष्ठ कांग्रेसियों में से एक भी जान लगा कर काम करता दिखाई नहीं दिया, दिखाई नहीं देता है तो क्यों? ऐसा क्यों हुआ कि जब राहुल “चौकीदार चोर है!” की हांक लगाते सारे देश में घूम रहे थे तब दूसरा कोई वरिष्ठ कांग्रेसी उसकी प्रतिध्वनि नहीं उठा रहा था? अगर ऐसे नारे से किसी को एतराज था तो किसी ने कोई नया नारा क्यों नहीं गुंजाया? ऐसा क्यों है कि राहुल ही हैं कि जो अपने बयानों-ट्विटों में सरकार को सीधे निशाने पर लेते हैं बाकी कौन, कब, क्या बोलता है, किसने सुना है? शुरू में राहुल कई बार कच्चेपन का परिचय दिया करते थे क्योंकि उनके पीछे संभालने वाला कोई राजनीतिक हाथ नहीं था. अब वक्त ने उन्हें संभाल दिया है.
इस राहुल को कांग्रेस अपनाने को तैयार हो तो कांग्रेस के लिए आज भी आशा है. राहुल को पार्टी के साथ काम करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए क्योंकि कांग्रेस में आज राजस्थान के मुख्यमंत्री के अलावा दूसरा कोई नहीं है कि जो पार्टी को नगरपालिका का चुनाव भी जिता सके. अशोक गहलोत कांग्रेस के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने खुली चुनौती दे कर भाजपा को चुनाव में हराया और फिर चुनौती दे कर सरकार गिराने की रणनीति में उसे मात दी. यह राजनीति का राहुल-ढंग है. ऐसी कांग्रेस और ऐसे राहुल ही एक-दूसरे को बचा सकते हैं.
Also Read
-
TV Newsance 305: Sudhir wants unity, Anjana talks jobs – what’s going on in Godi land?
-
What Bihar voter roll row reveals about journalism and India
-
India’s real war with Pak is about an idea. It can’t let trolls drive the narrative
-
Reporters Without Orders Ep 376: A law weaponised to target Gujarat’s Muslims, and a family’s fight against police excess in Mumbai
-
बिहार वोटर लिस्ट रिवीजन: सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और सांसद मनोज झा के साथ विशेष बातचीत