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किसानों के साथ नया साल: ‘जश्न मनाना किसानों के शहादत की बेइज्जती होगी’
किसानों को नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए एक महीने से ज्यादा हो गया है. वह इस उम्मीद के साथ सर्द मौसम में खुले आसमान के नीचे बैठे हैं कि उन्हें एक दिन जीत जरूर मिलेगी. चाहे 15 साल का बच्चा हो या फिर 70-80 साल का बुजुर्ग सबके इरादे इतने बुलंद हैं कि कानून वापसी से पहले कोई भी अपने घर जाना ही नहीं चाहता.
किसानों को नए साल से भी काफी उम्मीदें हैं. उनका कहना है कि उन्हें अभी भी नया साल मनाने का इंतजार हैं, जब सरकार उनकी मांगे मान लेगी. नए साल के मौके पर रात भर किसानों ने क्या किया, यह जानने के लिए न्यूज़लॉन्ड्री की टीम सिंघु बॉर्डर उनके साथ रही.
चार भाषाओं में बांटी गईं किताबें
जब हम सिंघु बॉर्डर पर पहुंचे तो वहां बाकी दिनों की तरह ही गतिविधियां चल रही थीं. रात में जैसे-जैसे 2020 खत्म होने और 2021 शुरू होने का टाइम नजदीक आता जा रहा था, वैसे-वैसे किसान मंच की ओर रुख कर रहे थे. देखते ही देखते वहां सैकड़ों की संख्या में युवा और बुजुर्ग इकट्ठा हो गए. कुछ मीडियाकर्मी भी उनकी गतिविधियां कवर करने के लिए वहां पहुंचे थे.
12:00 बजते ही मंच के पास लोगों को किताबें बांटने का सिलसिला शुरू हो जाता है. यहां हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी और उर्दू यानि चार भाषाओं में किताबे बांटी गईं. जिसको जो भाषा आती थी, वह अपने हिसाब से किताबें ले रहे थे.
वहीं पास ही कुछ लोग कैंडल जलाकर आंदोलन में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दे रहे थे. ये लोग उन्हें शहीद कहकर पुकारते हैं.
कई अन्य जगहों पर इंकलाबी पंजाबी गाने चल रहे थे. जो आंदोलन में मौजूद लोगों में जोश भरने का काम कर रहे थे. आंदोलन में आखिर तक बैठे लोगों के बीच में बने लंबे रास्ते पर गई जगहों पर लोगों को मूंगफली, रेवड़ी और चाय देने का क्रम चल रहा था. वहीं इस रास्ते पर दर्जनों युवा सिर्फ गाड़ियों की निकासी कराने का काम कर रहे थे, ताकि जाम न लग जाए. बड़ी संख्या में गाड़ियों के आवागमन के चलते बीच-बीच में जाम की स्थिति भी बनी हुई थी. कुछ लोग ठंड से बचने के लिए अलाव जलाकर रात काट रहे थे. जबकि युवाओं का एक जत्था नए साल का जश्न पटाखे फोड़कर कर रहा था. इसे देखते ही कुछ बुजुर्ग किसान वहां पहुंचे और उन्होंने डांटते हुए कहा तुम लोगों को शर्म नहीं आ रही है, यहां हमारे भाई-बंधु मर (शहीद) रहे हैं और तुम पटाखे फोड़ रहे हो.
किताबें बांट रहे पंजाब के मोगा जिले से आए 28 वर्षीय जसबीर सिंह कहते हैं, "आज नए साल की शुरुआत हो गई है लेकिन हमारे लिए अभी कोई नया साल नहीं है. हमारा नया साल तब होगा जब यह तीनों नए कानून वापस हो जाएंगे." वह उन्हें काले कानून कहकर पुकारते हैं.
वह कहते हैं, "हम नए साल की शुरुआत किताबें बांटकर कर रहे हैं. यह किताबें पढ़कर हमारे नौजवान सबक और ज्ञान के जरिए जारी संघर्ष को सही दिशा में ले जा सकते हैं. यह किताबें नए साल पर युवकों को नई दिशा दिखाएंगी. किताबें इसलिए भी बांटी जा रही हैं ताकि लोग इतिहास जान सकें. क्योंकि जो लोग पढ़ते नहीं हैं उन्हें बीते कल का कुछ नहीं पता होता है. जो लोग अपने इतिहास को नहीं जानते हैं वह कभी आगे नहीं बढ़ सकते. इसलिए जरूरी है कि इन किताबों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त करें."
वह नए साल पर जश्न मनाने वाले युवाओं पर वह कहते हैं कि, "पटाखे जलाने से सिर्फ वातावरण खराब हो रहा है. इससे बेहतर है कि युवा किताबें पढ़ें. क्योंकि यही किताबें हैं जो इन्हें आगे का रास्ता दिखाएंगी."
सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों को रद्द नहीं किए जाने पर वह कहते हैं, "सरकार मान जाएगी, आंदोलन में जो अरदासें और जो लोग यहां शहीद हो रहे हैं उससे यहां के संघर्ष का पता चलता है. और आज तक जिन्होंने भी संघर्ष किया है उन्हें सफलता जरूर मिली है. इस आंदोलन में पंजाब से बहुत पढ़े-लिखे लोग आए हुए हैं. उनमें डॉक्टर, वकील भी हैं. वह पागल नहीं हैं, बहुत सोच समझ कर संघर्ष के रास्ते आगे बढ़ रहे हैं. इस पूरे आंदोलन में एक सकारात्मकता है इसलिए जीत तो पक्की है.”
किताबें कहां से आ रही हैं, क्या कोई संस्था है जहां से किताबें आ रही हैं. इस सवाल पर जसबीर कहते हैं, "हमारी कोई संस्था नहीं है और न ही हमें कोई फंडिंग कर रहा है. हम कुछ दोस्त मिलकर जंगी किताब के नाम से पिछले 30 दिनों से यहां लाइब्रेरी चला रहे हैं. यहां पूरी दुनिया और खासकर के पंजाब में जिन्होंने संघर्ष किया है उनकी किताबें मौजूद हैं. हम पांच साथी मिलकर इस काम को अंजाम दे रहे हैं. यहां सिर्फ जानकारी भरी किताबें हैं.”
एक सप्ताह पहले ही सिंघु बॉर्डर पहुंचे सुखविंदर सिंह नया साल मनाने के सवाल पर कहते हैं, "जब घर पर मां भूखी हो तो बच्चे कैसे खुशी मना सकते हैं. जब देश का अन्नदाता सड़कों पर हो तो खुशी किस बात की. मैं नए साल के किसी भी जश्न में शामिल नहीं हूं बल्कि अपने साथियों के संग किताबें बांट रहा हूं."
किताबों, साहित्य और अच्छे विचारों के साथ जुड़ें किसान
23 वर्षीय सिंह कहते हैं, "उनके दोस्त जसबीर सिंह और किरनप्रीत सिंह की अपनी पर्सनल लाइब्रेरी थी. लेकिन जब यह आंदोलन शुरू हुआ तो हमने सोचा कि यहां नौजवानों के पास बहुत टाइम है इसलिए क्यों न वहां अपनी लाइब्रेरी ले जाएं. इस आइडिया के बाद यहां वह अपनी खुद की खरीदी हुई किताबें लेकर आ गए. इसके बाद जब मुझे पता चला कि साथी ऐसा कर रहे हैं तो मुझे भी ऐसा करने का और उनका साथ देने का मन किया. अब मैं भी यहां आकर इनके साथ इस काम में शामिल हो गया हूं. हमने तय किया है कि अब हम यहां से तब ही जाएंगे जब नए कृषि कानून वापस होंगे. इसके बाद हम नए साल का जश्न भी मनाएंगे."
इन्हीं के साथी पंजाब के रोपड़ से आए 27 वर्षीय किरनप्रीत सिंह कहते हैं, "हमने पहले से ही तय किया हुआ था कि हम नए साल की शुरुआत किताबें बांटकर करेंगे. ताकि नौजवान किताबों, साहित्य और अच्छे विचारों के साथ जुड़ सकें."
सिंह कहते हैं कि, "यहां लाइब्रेरी में ज्यादातर किताबें सिख योद्धाओं की हैं. इनमें भगत सिंह, उधम सिंह की किताबें भी हैं. इसके अलावा अग्रेजी के नॉवेल, उर्दू कि किताबें भी हैं. 1200 किताबें हम यहां अपनी खुद की लाइब्रेरी की लेकर आए थे. उसके बाद कुछ किताबें हमने अपने दोस्तों से भी खरीदीं. अभी हमारे पास करीब 2200 किताबें हैं जबकि करीब 1500 किताबें इश्यू हो चुकी हैं. ट्राली में बैठे लोग उन्हें पढ़ रहे हैं. एक दिन में हम 200 किताबें इश्यू करते हैं. पढ़कर सभी लोग किताबें वापिस जमा कर देते हैं. यह सब कुछ फ्री में चल रहा है."
किरन प्रीत कहते हैं, "नया साल मनाने के कई तरीके हैं, जरूरी नहीं है कि हम पार्टी, डांस या पटाखे छोड़कर ही नया साल मनाएं. हमें दो मिनट की खुशी के लिए अपना वातावरण खराब नहीं करना चाहिए. हम ऐसे मौके पर एक दूसरे को पौधा देकर भी खुशी जाहिर कर सकते हैं."
पटाखे छोड़ने पर नाराजगी
हमारी मुलाकात यहां पंजाब के अमृतसर से आए 60 वर्षीय बुजुर्ग मनविंदर सिंह नंबरदार से होती है. वह न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, "हमें नए साल से बहुत उम्मीदें हैं. उम्मीद है कि हम यहां से जीतकर जाएंगे."
सिंघु बॉर्डर पर 12 बजते ही कुछ युवाओं द्वारा छोड़े गए पटाखों पर वह नाराजगी जाहिर करते हुए कहते हैं, “यह गलत बात है, बच्चों को यह पटाखे नहीं छोड़ने चाहिए. क्योंकि हमारा अभी कोई नया साल नहीं है. जिस दिन हम जीतेंगे उस दिन हमारा नया साल होगा. और हम उस दिन घर-घर जाकर एक दूसरे को बधाई देंगे. हम इन बच्चों को समझाएंगे कि उन्होंने जो किया, गलत है.”
सरकार के नहीं मानने पर वह आगे कहते हैं कि, "सरकार को यह कानून वापस करने ही होंगे. अगर सरकार नहीं मानेगी तो उसे मनाकर जाएंगे."
सर्द मौसम में रात के करीब एक बजे यह पूछने पर कि आपको ठंड नहीं लग रही, इस सवाल पर मनविंद्र कहते हैं, "सर्द मौसम हमारा क्या करेगा. हम खेती करने वाले आदमी हैं. ऐसे मौसम में हम खेतों पर पानी चलाते हैं. यह ठंड तो उसके सामने कुछ भी नहीं है. हमारे लिए ठंड कुछ नहीं है. हम सिर्फ यहां ये कानून वापस कराने के लिए आए हुए हैं. इस जारी लड़ाई को हम जीतकर ही घर लौटेंगे. उससे पहले हम यहां से जाने वाले नहीं हैं."
प्रदर्शनस्थल पर कैंडल जला रहे 24 वर्षीय अरशद ने हमें बताया, "हम चार डब्बे कैंडल लेकर आए थे, अब उन्हें जला रहे हैं. मैं भी किसान हूं और किसान का बेटा हूं. बहुत थोड़ी सी जमीन है हमारे पास. हम मजदूरी ज्यादा करते हैं. परिवार की स्थिति भी ठीक नहीं है. लेकिन मैं यहां किसानों के लिए आया हूं. उनके हक के लिए उनके साथ खड़ा हूं."
वह कहते हैं, "जो हमारे किसान भाई शहीद हुए हैं हम उनकी याद में कैंडल जलाकर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं."
नया साल खुशी में मनाया जाता है गम में नहीं
कैंडल जला रहे गुरविंदर सिंह कहते हैं, "नया साल तो घर में होता है, अब यहां सड़कों पर परेशानी में कोई क्या नया साल मनाए. क्योंकि जब किसी पर कोई मुश्किल वक्त होता है तब खुशी मनाने का कोई मजा नहीं होता है. इसलिए हम इस अवसर पर कैंडल जलाकर किसानों को श्रद्धांजलि दे रहे हैं. हमारे 40 से ज्यादा किसान शहीद हो गए हैं."
कपूरथला जिला निवासी 31 वर्षीय सिंह आगे कहते हैं, "अगर आज हम नया साल मनाते हैं तो कहीं न कहीं उनकी शहादत की बेइज्जती है. जब ये तीनों बिल रद्द हो जाएंगे तब हमारा नया साल होगा. और यहां से घर तक नाचते-गाते जाएंगे."
पटाखे जलाने वालों के बारे में वो कहते हैं, "पता नहीं कौन लोग थे और किसने भेजे थे. क्योंकि यहां माहौल और आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. पिछले कई आंदोलनों को भी बदनाम करने के लिए ऐसा किया गया है. इसलिए उनकी पड़ताल होनी चाहिए कि वह कौन लोग हैं जो पटाखे छोड़ रहे थे."
"हम यहां सिर्फ नगर कीर्तन की तैयारी कर रहे हैं. क्योंकि अगर हम यहां जश्न मनाएंगे तो जो लोग यहां शहीद हुए हैं उनकी शहादत का क्या फायदा. हम यह एकता के लिए भी कर रहे हैं. क्योंकि बीजेपी हमें बांटने की कोशिश कर रही है. कभी हमें खालिस्तानी बोलती है तो कभी अर्बन नक्सल. लेकिन हम एकजुट हैं."
अलाव जलाकर रातें गुजार रहे किसान
कुछ किसान यहां पूरी-पूरी रात अलाव जलाकर भी रातें गुजार रहे हैं. वहीं कुछ खुले आसमान के नीचे सिर्फ ट्राली के सहारे कपड़ा बिछाकर, अपने बिस्तर के पास ही आग जलाकर सो जाते हैं. उनके जूते भी बिस्तर के पास ही पड़े नजर आते हैं. देखकर भी डर लगता है कि कहीं यह आग उनके बिस्तर में न लग जाए.
अलाव ताप रहे कुछ लोग कहते हैं, “यह तो मोदी को देखना चाहिए के कौन कैसे सो रहा है. यहां पड़े किसानों को कोई खुशी नहीं है जो अपना घर छोड़े पड़े हैं. यहां हम मुश्किल में जरूर हैं लेकिन अब हमने भी कमस खा ली है कि जब तक ये कानून वापिस नहीं हो जाते हैं तब तक हम यहां से नहीं जाने वाले हैं.”
इन्हीं में से एक किसान कहते हैं, “सरकार सोचती होगी कि हम यहां से चले जाएंगे, लेकिन हम यहां से जाने वाले नहीं हैं. उन्हें लगता है कि परेशान होकर या फिर ठंड से भागकर अपने घर चले जाएंगे. ये उनकी गलतफहमी है, किसान यहां से हिलने वाला नहीं है.”
किसान आदोलन में 45 से ज्यादा मौतें
अब तक किसान आंदोलन में 45 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी हैं. इनमें दो किसानों ने सुसाइड किया है जबकि बाकि किसानों की मौत ठंड या हार्ट अटैक के कारण हुई है. साल की पहली तारीख यानी एक जनवरी को भी गाजीपुर बॉर्डर पर एक किसान ने दम तोड़ दिया. जबकि 2 जनवरी, शनिवार को भी एक बुजुर्ग किसान के आत्महत्या की खबर है.
धरना-प्रदर्शन स्थल के पास लगे शौचालय में रामपुर निवासी कश्मीर सिंह ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. उन्होंने एक सुसाइड नोट भी छोड़ा है. उन्होंने लिखा है कि उनकी शहादत बेकार नहीं जानी चाहिए. उनका अंतिम संस्कार भी दिल्ली यूपी की सीमा पर ही किया जाए.
इससे पहले शुक्रवार को बागपत जिले के भगवानपुर नांगल गांव के 57 वर्षीय निवासी मोहर सिंह की दिल का दौरा पड़ने से मौत हुई थी. उनकी मौत गाजीपुर बॉर्डर के धरनास्थल पर ही हो गई थी.
इन मौतों पर भारतीय किसान यूनियन का कहना है कि मरने वाले किसानों को शहादत का दर्जा मिलना चाहिए.
Also Read: किसान आंदोलन से देश को क्या सबक लेना चाहिए
किसानों को नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए एक महीने से ज्यादा हो गया है. वह इस उम्मीद के साथ सर्द मौसम में खुले आसमान के नीचे बैठे हैं कि उन्हें एक दिन जीत जरूर मिलेगी. चाहे 15 साल का बच्चा हो या फिर 70-80 साल का बुजुर्ग सबके इरादे इतने बुलंद हैं कि कानून वापसी से पहले कोई भी अपने घर जाना ही नहीं चाहता.
किसानों को नए साल से भी काफी उम्मीदें हैं. उनका कहना है कि उन्हें अभी भी नया साल मनाने का इंतजार हैं, जब सरकार उनकी मांगे मान लेगी. नए साल के मौके पर रात भर किसानों ने क्या किया, यह जानने के लिए न्यूज़लॉन्ड्री की टीम सिंघु बॉर्डर उनके साथ रही.
चार भाषाओं में बांटी गईं किताबें
जब हम सिंघु बॉर्डर पर पहुंचे तो वहां बाकी दिनों की तरह ही गतिविधियां चल रही थीं. रात में जैसे-जैसे 2020 खत्म होने और 2021 शुरू होने का टाइम नजदीक आता जा रहा था, वैसे-वैसे किसान मंच की ओर रुख कर रहे थे. देखते ही देखते वहां सैकड़ों की संख्या में युवा और बुजुर्ग इकट्ठा हो गए. कुछ मीडियाकर्मी भी उनकी गतिविधियां कवर करने के लिए वहां पहुंचे थे.
12:00 बजते ही मंच के पास लोगों को किताबें बांटने का सिलसिला शुरू हो जाता है. यहां हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी और उर्दू यानि चार भाषाओं में किताबे बांटी गईं. जिसको जो भाषा आती थी, वह अपने हिसाब से किताबें ले रहे थे.
वहीं पास ही कुछ लोग कैंडल जलाकर आंदोलन में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दे रहे थे. ये लोग उन्हें शहीद कहकर पुकारते हैं.
कई अन्य जगहों पर इंकलाबी पंजाबी गाने चल रहे थे. जो आंदोलन में मौजूद लोगों में जोश भरने का काम कर रहे थे. आंदोलन में आखिर तक बैठे लोगों के बीच में बने लंबे रास्ते पर गई जगहों पर लोगों को मूंगफली, रेवड़ी और चाय देने का क्रम चल रहा था. वहीं इस रास्ते पर दर्जनों युवा सिर्फ गाड़ियों की निकासी कराने का काम कर रहे थे, ताकि जाम न लग जाए. बड़ी संख्या में गाड़ियों के आवागमन के चलते बीच-बीच में जाम की स्थिति भी बनी हुई थी. कुछ लोग ठंड से बचने के लिए अलाव जलाकर रात काट रहे थे. जबकि युवाओं का एक जत्था नए साल का जश्न पटाखे फोड़कर कर रहा था. इसे देखते ही कुछ बुजुर्ग किसान वहां पहुंचे और उन्होंने डांटते हुए कहा तुम लोगों को शर्म नहीं आ रही है, यहां हमारे भाई-बंधु मर (शहीद) रहे हैं और तुम पटाखे फोड़ रहे हो.
किताबें बांट रहे पंजाब के मोगा जिले से आए 28 वर्षीय जसबीर सिंह कहते हैं, "आज नए साल की शुरुआत हो गई है लेकिन हमारे लिए अभी कोई नया साल नहीं है. हमारा नया साल तब होगा जब यह तीनों नए कानून वापस हो जाएंगे." वह उन्हें काले कानून कहकर पुकारते हैं.
वह कहते हैं, "हम नए साल की शुरुआत किताबें बांटकर कर रहे हैं. यह किताबें पढ़कर हमारे नौजवान सबक और ज्ञान के जरिए जारी संघर्ष को सही दिशा में ले जा सकते हैं. यह किताबें नए साल पर युवकों को नई दिशा दिखाएंगी. किताबें इसलिए भी बांटी जा रही हैं ताकि लोग इतिहास जान सकें. क्योंकि जो लोग पढ़ते नहीं हैं उन्हें बीते कल का कुछ नहीं पता होता है. जो लोग अपने इतिहास को नहीं जानते हैं वह कभी आगे नहीं बढ़ सकते. इसलिए जरूरी है कि इन किताबों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त करें."
वह नए साल पर जश्न मनाने वाले युवाओं पर वह कहते हैं कि, "पटाखे जलाने से सिर्फ वातावरण खराब हो रहा है. इससे बेहतर है कि युवा किताबें पढ़ें. क्योंकि यही किताबें हैं जो इन्हें आगे का रास्ता दिखाएंगी."
सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों को रद्द नहीं किए जाने पर वह कहते हैं, "सरकार मान जाएगी, आंदोलन में जो अरदासें और जो लोग यहां शहीद हो रहे हैं उससे यहां के संघर्ष का पता चलता है. और आज तक जिन्होंने भी संघर्ष किया है उन्हें सफलता जरूर मिली है. इस आंदोलन में पंजाब से बहुत पढ़े-लिखे लोग आए हुए हैं. उनमें डॉक्टर, वकील भी हैं. वह पागल नहीं हैं, बहुत सोच समझ कर संघर्ष के रास्ते आगे बढ़ रहे हैं. इस पूरे आंदोलन में एक सकारात्मकता है इसलिए जीत तो पक्की है.”
किताबें कहां से आ रही हैं, क्या कोई संस्था है जहां से किताबें आ रही हैं. इस सवाल पर जसबीर कहते हैं, "हमारी कोई संस्था नहीं है और न ही हमें कोई फंडिंग कर रहा है. हम कुछ दोस्त मिलकर जंगी किताब के नाम से पिछले 30 दिनों से यहां लाइब्रेरी चला रहे हैं. यहां पूरी दुनिया और खासकर के पंजाब में जिन्होंने संघर्ष किया है उनकी किताबें मौजूद हैं. हम पांच साथी मिलकर इस काम को अंजाम दे रहे हैं. यहां सिर्फ जानकारी भरी किताबें हैं.”
एक सप्ताह पहले ही सिंघु बॉर्डर पहुंचे सुखविंदर सिंह नया साल मनाने के सवाल पर कहते हैं, "जब घर पर मां भूखी हो तो बच्चे कैसे खुशी मना सकते हैं. जब देश का अन्नदाता सड़कों पर हो तो खुशी किस बात की. मैं नए साल के किसी भी जश्न में शामिल नहीं हूं बल्कि अपने साथियों के संग किताबें बांट रहा हूं."
किताबों, साहित्य और अच्छे विचारों के साथ जुड़ें किसान
23 वर्षीय सिंह कहते हैं, "उनके दोस्त जसबीर सिंह और किरनप्रीत सिंह की अपनी पर्सनल लाइब्रेरी थी. लेकिन जब यह आंदोलन शुरू हुआ तो हमने सोचा कि यहां नौजवानों के पास बहुत टाइम है इसलिए क्यों न वहां अपनी लाइब्रेरी ले जाएं. इस आइडिया के बाद यहां वह अपनी खुद की खरीदी हुई किताबें लेकर आ गए. इसके बाद जब मुझे पता चला कि साथी ऐसा कर रहे हैं तो मुझे भी ऐसा करने का और उनका साथ देने का मन किया. अब मैं भी यहां आकर इनके साथ इस काम में शामिल हो गया हूं. हमने तय किया है कि अब हम यहां से तब ही जाएंगे जब नए कृषि कानून वापस होंगे. इसके बाद हम नए साल का जश्न भी मनाएंगे."
इन्हीं के साथी पंजाब के रोपड़ से आए 27 वर्षीय किरनप्रीत सिंह कहते हैं, "हमने पहले से ही तय किया हुआ था कि हम नए साल की शुरुआत किताबें बांटकर करेंगे. ताकि नौजवान किताबों, साहित्य और अच्छे विचारों के साथ जुड़ सकें."
सिंह कहते हैं कि, "यहां लाइब्रेरी में ज्यादातर किताबें सिख योद्धाओं की हैं. इनमें भगत सिंह, उधम सिंह की किताबें भी हैं. इसके अलावा अग्रेजी के नॉवेल, उर्दू कि किताबें भी हैं. 1200 किताबें हम यहां अपनी खुद की लाइब्रेरी की लेकर आए थे. उसके बाद कुछ किताबें हमने अपने दोस्तों से भी खरीदीं. अभी हमारे पास करीब 2200 किताबें हैं जबकि करीब 1500 किताबें इश्यू हो चुकी हैं. ट्राली में बैठे लोग उन्हें पढ़ रहे हैं. एक दिन में हम 200 किताबें इश्यू करते हैं. पढ़कर सभी लोग किताबें वापिस जमा कर देते हैं. यह सब कुछ फ्री में चल रहा है."
किरन प्रीत कहते हैं, "नया साल मनाने के कई तरीके हैं, जरूरी नहीं है कि हम पार्टी, डांस या पटाखे छोड़कर ही नया साल मनाएं. हमें दो मिनट की खुशी के लिए अपना वातावरण खराब नहीं करना चाहिए. हम ऐसे मौके पर एक दूसरे को पौधा देकर भी खुशी जाहिर कर सकते हैं."
पटाखे छोड़ने पर नाराजगी
हमारी मुलाकात यहां पंजाब के अमृतसर से आए 60 वर्षीय बुजुर्ग मनविंदर सिंह नंबरदार से होती है. वह न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, "हमें नए साल से बहुत उम्मीदें हैं. उम्मीद है कि हम यहां से जीतकर जाएंगे."
सिंघु बॉर्डर पर 12 बजते ही कुछ युवाओं द्वारा छोड़े गए पटाखों पर वह नाराजगी जाहिर करते हुए कहते हैं, “यह गलत बात है, बच्चों को यह पटाखे नहीं छोड़ने चाहिए. क्योंकि हमारा अभी कोई नया साल नहीं है. जिस दिन हम जीतेंगे उस दिन हमारा नया साल होगा. और हम उस दिन घर-घर जाकर एक दूसरे को बधाई देंगे. हम इन बच्चों को समझाएंगे कि उन्होंने जो किया, गलत है.”
सरकार के नहीं मानने पर वह आगे कहते हैं कि, "सरकार को यह कानून वापस करने ही होंगे. अगर सरकार नहीं मानेगी तो उसे मनाकर जाएंगे."
सर्द मौसम में रात के करीब एक बजे यह पूछने पर कि आपको ठंड नहीं लग रही, इस सवाल पर मनविंद्र कहते हैं, "सर्द मौसम हमारा क्या करेगा. हम खेती करने वाले आदमी हैं. ऐसे मौसम में हम खेतों पर पानी चलाते हैं. यह ठंड तो उसके सामने कुछ भी नहीं है. हमारे लिए ठंड कुछ नहीं है. हम सिर्फ यहां ये कानून वापस कराने के लिए आए हुए हैं. इस जारी लड़ाई को हम जीतकर ही घर लौटेंगे. उससे पहले हम यहां से जाने वाले नहीं हैं."
प्रदर्शनस्थल पर कैंडल जला रहे 24 वर्षीय अरशद ने हमें बताया, "हम चार डब्बे कैंडल लेकर आए थे, अब उन्हें जला रहे हैं. मैं भी किसान हूं और किसान का बेटा हूं. बहुत थोड़ी सी जमीन है हमारे पास. हम मजदूरी ज्यादा करते हैं. परिवार की स्थिति भी ठीक नहीं है. लेकिन मैं यहां किसानों के लिए आया हूं. उनके हक के लिए उनके साथ खड़ा हूं."
वह कहते हैं, "जो हमारे किसान भाई शहीद हुए हैं हम उनकी याद में कैंडल जलाकर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं."
नया साल खुशी में मनाया जाता है गम में नहीं
कैंडल जला रहे गुरविंदर सिंह कहते हैं, "नया साल तो घर में होता है, अब यहां सड़कों पर परेशानी में कोई क्या नया साल मनाए. क्योंकि जब किसी पर कोई मुश्किल वक्त होता है तब खुशी मनाने का कोई मजा नहीं होता है. इसलिए हम इस अवसर पर कैंडल जलाकर किसानों को श्रद्धांजलि दे रहे हैं. हमारे 40 से ज्यादा किसान शहीद हो गए हैं."
कपूरथला जिला निवासी 31 वर्षीय सिंह आगे कहते हैं, "अगर आज हम नया साल मनाते हैं तो कहीं न कहीं उनकी शहादत की बेइज्जती है. जब ये तीनों बिल रद्द हो जाएंगे तब हमारा नया साल होगा. और यहां से घर तक नाचते-गाते जाएंगे."
पटाखे जलाने वालों के बारे में वो कहते हैं, "पता नहीं कौन लोग थे और किसने भेजे थे. क्योंकि यहां माहौल और आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. पिछले कई आंदोलनों को भी बदनाम करने के लिए ऐसा किया गया है. इसलिए उनकी पड़ताल होनी चाहिए कि वह कौन लोग हैं जो पटाखे छोड़ रहे थे."
"हम यहां सिर्फ नगर कीर्तन की तैयारी कर रहे हैं. क्योंकि अगर हम यहां जश्न मनाएंगे तो जो लोग यहां शहीद हुए हैं उनकी शहादत का क्या फायदा. हम यह एकता के लिए भी कर रहे हैं. क्योंकि बीजेपी हमें बांटने की कोशिश कर रही है. कभी हमें खालिस्तानी बोलती है तो कभी अर्बन नक्सल. लेकिन हम एकजुट हैं."
अलाव जलाकर रातें गुजार रहे किसान
कुछ किसान यहां पूरी-पूरी रात अलाव जलाकर भी रातें गुजार रहे हैं. वहीं कुछ खुले आसमान के नीचे सिर्फ ट्राली के सहारे कपड़ा बिछाकर, अपने बिस्तर के पास ही आग जलाकर सो जाते हैं. उनके जूते भी बिस्तर के पास ही पड़े नजर आते हैं. देखकर भी डर लगता है कि कहीं यह आग उनके बिस्तर में न लग जाए.
अलाव ताप रहे कुछ लोग कहते हैं, “यह तो मोदी को देखना चाहिए के कौन कैसे सो रहा है. यहां पड़े किसानों को कोई खुशी नहीं है जो अपना घर छोड़े पड़े हैं. यहां हम मुश्किल में जरूर हैं लेकिन अब हमने भी कमस खा ली है कि जब तक ये कानून वापिस नहीं हो जाते हैं तब तक हम यहां से नहीं जाने वाले हैं.”
इन्हीं में से एक किसान कहते हैं, “सरकार सोचती होगी कि हम यहां से चले जाएंगे, लेकिन हम यहां से जाने वाले नहीं हैं. उन्हें लगता है कि परेशान होकर या फिर ठंड से भागकर अपने घर चले जाएंगे. ये उनकी गलतफहमी है, किसान यहां से हिलने वाला नहीं है.”
किसान आदोलन में 45 से ज्यादा मौतें
अब तक किसान आंदोलन में 45 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी हैं. इनमें दो किसानों ने सुसाइड किया है जबकि बाकि किसानों की मौत ठंड या हार्ट अटैक के कारण हुई है. साल की पहली तारीख यानी एक जनवरी को भी गाजीपुर बॉर्डर पर एक किसान ने दम तोड़ दिया. जबकि 2 जनवरी, शनिवार को भी एक बुजुर्ग किसान के आत्महत्या की खबर है.
धरना-प्रदर्शन स्थल के पास लगे शौचालय में रामपुर निवासी कश्मीर सिंह ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. उन्होंने एक सुसाइड नोट भी छोड़ा है. उन्होंने लिखा है कि उनकी शहादत बेकार नहीं जानी चाहिए. उनका अंतिम संस्कार भी दिल्ली यूपी की सीमा पर ही किया जाए.
इससे पहले शुक्रवार को बागपत जिले के भगवानपुर नांगल गांव के 57 वर्षीय निवासी मोहर सिंह की दिल का दौरा पड़ने से मौत हुई थी. उनकी मौत गाजीपुर बॉर्डर के धरनास्थल पर ही हो गई थी.
इन मौतों पर भारतीय किसान यूनियन का कहना है कि मरने वाले किसानों को शहादत का दर्जा मिलना चाहिए.
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