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17 घंटे बिजली इस्तेमाल कर सिर्फ 20 फीसदी का बिल भुगतान

भारत के कई राज्यों में बिजली आपूर्ति और उसके बदले ग्राहकों से मिलने वाला भुगतान एक बड़ी समस्या की डगर पर है. शिकागो यूनिवर्सिटी के दिल्ली स्थित एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (ईपीईसी) ने बिहार पर केंद्रित अपने ताजा अध्ययन में बताया है कि राज्य में ग्राहकों को रोजाना औसतन 17 घंटे बिजली दी जाती थी इसमें औसत केवल 38 प्रतिशत बिजली बिल का भुगतान किया गया. जबकि कई लोगों ने 20 फीसदी से भी कम बिजली बिल का भुगतान किया गया.

यह भी हैरानी भरा रहा है कि जहां बिजली कम मिलती रही है वहां ज्यादा बिल का भुगतान किया गया. ईपीईसी ने बताया है कि यह अध्ययन बिहार के गरीब, ग्रामीण या छोटे शहरों के माइक्रोडेटा पर आधारित है. इतना ही नहीं ब्राजील, पाकिस्तान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में भी शोधकर्ताओं ने उपभोक्ताओं के इस आदत पर शोध किए. वहां भी बड़े स्तर पर यही प्रवृत्ति (आदत) देखने को मिली है.

ईपीईसी ने बताया कि बिहार में बिजली बिल भुगतान को प्रोत्साहित करने के लिए टीम ने बिहार के स्वामित्व वाली एक बिजली वितरण कंपनी के साथ नए पायलट प्रोजेक्ट पर काम किया. इसके तहत पड़ोसी राज्यों में मिल रहे बिजली की मात्रा को बिहार के उपभोक्ताओं से जोड़ा गया. जिन क्षेत्रों ने अपने बिलों का अधिक भुगतान किया, उन इलाकों में बिजली की कटौती कम कर उन्हें पुरस्कृत भी किया गया.

ईपीआईसी के दक्षिण एशिया निदेशक अनंत सुदर्शन कहते हैं, "हम केवल इस बात पर जोर दे रहे हैं कि सभी को 24 घंटे बिजली मुहैया करायी जाए. ताकि आर्थिक विकास को गति मिल सके. इन नीतियों में से कई एक दूसरे के पूरक हैं. इस सामाजिक अवधारणा को बदलने की जरूरत है कि बिजली बिल का भुगतान न करना सही है.

कई विकासशील देशों में उपभोक्ता बिजली आपूर्ति के लिए पूरी तरह से भुगतान नहीं करते हैं. एक नए अध्ययन से पता चलता है कि इससे व्यापक रूप से नुकसान हुआ है और बिजली की कमी हो गई है. बिजली की कटौती के कारण समाज बिजली को खरीद और बिक्री के बजाय अधिकार के रूप में देखने लगी है. यानी बिजली पाना उनका हक है, चाहे भुगतान करें या न करें.

दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोगों के पास आसानी से बिजली की पहुंच का अभाव है. लगातार प्रयासों के बावजूद आर्थिक विकास में उछाल के लिए दुनिया भर में बिजली की लगातार आपूर्ति के लिए संसाधनों का इस्तेमाल किया जा रहा है.

शिकागो विश्वविद्यालय और अन्य साझेदार संस्थानों के शोध से एक महत्वपूर्ण बात सामने आई है. उसके मुताबिक समस्या की जड़ इस बात में है कि, समाज अक्सर बिजली को एक अधिकार के रूप में देखता है, जिसके लिए भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है. यह एक दुष्चक्र को शुरू करता है.

परिणामस्वरूप उपभोक्ता नियमित रूप से अपने बिजली बिलों का भुगतान नहीं करते हैं और सरकारें अक्सर इसे सहन करती हैं. ऐसे में बिजली सप्लाई करने वाली कंपनियां हर समय घाटे में चली जाती हैं, इसे वसूलना उनके लिए चुनौती बन जाता है. क्योंकि उन्हें अधिक बिजली की भी आपूर्ति करनी पड़ती है.

आखिरकार, ये कंपनियां दिवालिया हो जाती हैं और आपूर्ति में कटौती करने लगती हैं. क्योंकि वो उपभोक्ताओं से लागत वसूल किए बिना बिजली उत्पादक कंपनियों का भुगतान नहीं कर सकते हैं. और अंत में, जब ग्राहक को इसकी वजह से खराब बिजली आपूर्ति होती है, वह अपने पूरे बिल का भुगतान करना जरूरी नहीं समझते.

शिकागो विश्वविद्यालय के ऊर्जा नीति संस्थान के निदेशक मिल्टन फ्रीडमैन प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं, "बिजली वितरण के इसी तौर-तरीके को अपनाकर गरीबों तक बिजली मुहैया कराना कठिन है. अगर ऐसा ही होता रहा तो बिजली कंपनियां घाटे में चली जाएंगी और बाजार गिर जाएगा. इसका सीधा असर हर किसी पर पड़ेगा.’’

वह आगे कहते हैं, ‘’हमारा विचार है कि कोई भी समाधान तब तक काम नहीं करेगा, जब तक कि उसका सामाजिक मानदंड नहीं है. यानी कि बिजली एक अधिकार है, इस मानदंड को स्थापित करने के बजाय यह एक नियमित उत्पाद है, को स्थापित नहीं किया जाए. कहने का अर्थ है कि जिस तरह लोग भोजन, सेल फोन आदि के लिए भुगतान करते हैं, ठीक उसी तरह बिजली के लिए भुगतान करना जरूरी है, इस मान्यता को स्थापित करना होगा."

बिजली बिल भुगतान की समस्या को लेकर ग्रीनस्टोन और उनके साथी रॉबिन बर्गेस (लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस), निकोलस रयान (येल यूनिवर्सिटी), और अनंत सुदर्शन (शिकागो यूनिवर्सिटी) वर्तमान प्रणाली में तीन बदलाव का सुझाव भी दिया है. सबसे पहला है सब्सिडी में सुधार चूंकि सभी आय वर्ग के उपभोक्ता अक्सर बिजली सब्सिडी का फायदा लेते हैं, फिर भी इलेक्ट्रिसिटी सब्सिडी को बुरी तरीके से निशाना बनाया जाता है. इन सब्सिडी को हटाते हुए यदि गरीबों को बिजली देकर मदद करते हैं, तो वह इसका भुगतान करेंगे. यह सब्सिडी सीधे गरीबों को खाते में दिया जा सकता है. इससे बिजली के बाजार को होने वाले नुकसान से भी बचाया जा सकेगा.

इसके अलावा सामाजिक मानदंडों में बदलाव की भी जरूरत है. उपभोक्ता प्रोत्साहन और बिल संग्रह प्रक्रिया में बदलाव से बिजली की चोरी और बिलों का भुगतान न करने की आदत से निजात मिल सकती है. अध्ययन से पता चलता है कि चोरी गरीबों तक सीमित नहीं है. वास्तव में, बड़े उपभोक्ताओं के द्वारा भी इस तरह की चोरी करते हैं. और सबसे अंत में तकनीकी आधारित सुधार है. जैसे कि, व्यक्तिगत स्तर पर स्मार्ट मीटर का उपयोग करने से भुगतान और आपूर्ति को बढ़ावा देंगे.

भारत के कई राज्यों में बिजली आपूर्ति और उसके बदले ग्राहकों से मिलने वाला भुगतान एक बड़ी समस्या की डगर पर है. शिकागो यूनिवर्सिटी के दिल्ली स्थित एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (ईपीईसी) ने बिहार पर केंद्रित अपने ताजा अध्ययन में बताया है कि राज्य में ग्राहकों को रोजाना औसतन 17 घंटे बिजली दी जाती थी इसमें औसत केवल 38 प्रतिशत बिजली बिल का भुगतान किया गया. जबकि कई लोगों ने 20 फीसदी से भी कम बिजली बिल का भुगतान किया गया.

यह भी हैरानी भरा रहा है कि जहां बिजली कम मिलती रही है वहां ज्यादा बिल का भुगतान किया गया. ईपीईसी ने बताया है कि यह अध्ययन बिहार के गरीब, ग्रामीण या छोटे शहरों के माइक्रोडेटा पर आधारित है. इतना ही नहीं ब्राजील, पाकिस्तान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में भी शोधकर्ताओं ने उपभोक्ताओं के इस आदत पर शोध किए. वहां भी बड़े स्तर पर यही प्रवृत्ति (आदत) देखने को मिली है.

ईपीईसी ने बताया कि बिहार में बिजली बिल भुगतान को प्रोत्साहित करने के लिए टीम ने बिहार के स्वामित्व वाली एक बिजली वितरण कंपनी के साथ नए पायलट प्रोजेक्ट पर काम किया. इसके तहत पड़ोसी राज्यों में मिल रहे बिजली की मात्रा को बिहार के उपभोक्ताओं से जोड़ा गया. जिन क्षेत्रों ने अपने बिलों का अधिक भुगतान किया, उन इलाकों में बिजली की कटौती कम कर उन्हें पुरस्कृत भी किया गया.

ईपीआईसी के दक्षिण एशिया निदेशक अनंत सुदर्शन कहते हैं, "हम केवल इस बात पर जोर दे रहे हैं कि सभी को 24 घंटे बिजली मुहैया करायी जाए. ताकि आर्थिक विकास को गति मिल सके. इन नीतियों में से कई एक दूसरे के पूरक हैं. इस सामाजिक अवधारणा को बदलने की जरूरत है कि बिजली बिल का भुगतान न करना सही है.

कई विकासशील देशों में उपभोक्ता बिजली आपूर्ति के लिए पूरी तरह से भुगतान नहीं करते हैं. एक नए अध्ययन से पता चलता है कि इससे व्यापक रूप से नुकसान हुआ है और बिजली की कमी हो गई है. बिजली की कटौती के कारण समाज बिजली को खरीद और बिक्री के बजाय अधिकार के रूप में देखने लगी है. यानी बिजली पाना उनका हक है, चाहे भुगतान करें या न करें.

दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोगों के पास आसानी से बिजली की पहुंच का अभाव है. लगातार प्रयासों के बावजूद आर्थिक विकास में उछाल के लिए दुनिया भर में बिजली की लगातार आपूर्ति के लिए संसाधनों का इस्तेमाल किया जा रहा है.

शिकागो विश्वविद्यालय और अन्य साझेदार संस्थानों के शोध से एक महत्वपूर्ण बात सामने आई है. उसके मुताबिक समस्या की जड़ इस बात में है कि, समाज अक्सर बिजली को एक अधिकार के रूप में देखता है, जिसके लिए भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है. यह एक दुष्चक्र को शुरू करता है.

परिणामस्वरूप उपभोक्ता नियमित रूप से अपने बिजली बिलों का भुगतान नहीं करते हैं और सरकारें अक्सर इसे सहन करती हैं. ऐसे में बिजली सप्लाई करने वाली कंपनियां हर समय घाटे में चली जाती हैं, इसे वसूलना उनके लिए चुनौती बन जाता है. क्योंकि उन्हें अधिक बिजली की भी आपूर्ति करनी पड़ती है.

आखिरकार, ये कंपनियां दिवालिया हो जाती हैं और आपूर्ति में कटौती करने लगती हैं. क्योंकि वो उपभोक्ताओं से लागत वसूल किए बिना बिजली उत्पादक कंपनियों का भुगतान नहीं कर सकते हैं. और अंत में, जब ग्राहक को इसकी वजह से खराब बिजली आपूर्ति होती है, वह अपने पूरे बिल का भुगतान करना जरूरी नहीं समझते.

शिकागो विश्वविद्यालय के ऊर्जा नीति संस्थान के निदेशक मिल्टन फ्रीडमैन प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं, "बिजली वितरण के इसी तौर-तरीके को अपनाकर गरीबों तक बिजली मुहैया कराना कठिन है. अगर ऐसा ही होता रहा तो बिजली कंपनियां घाटे में चली जाएंगी और बाजार गिर जाएगा. इसका सीधा असर हर किसी पर पड़ेगा.’’

वह आगे कहते हैं, ‘’हमारा विचार है कि कोई भी समाधान तब तक काम नहीं करेगा, जब तक कि उसका सामाजिक मानदंड नहीं है. यानी कि बिजली एक अधिकार है, इस मानदंड को स्थापित करने के बजाय यह एक नियमित उत्पाद है, को स्थापित नहीं किया जाए. कहने का अर्थ है कि जिस तरह लोग भोजन, सेल फोन आदि के लिए भुगतान करते हैं, ठीक उसी तरह बिजली के लिए भुगतान करना जरूरी है, इस मान्यता को स्थापित करना होगा."

बिजली बिल भुगतान की समस्या को लेकर ग्रीनस्टोन और उनके साथी रॉबिन बर्गेस (लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस), निकोलस रयान (येल यूनिवर्सिटी), और अनंत सुदर्शन (शिकागो यूनिवर्सिटी) वर्तमान प्रणाली में तीन बदलाव का सुझाव भी दिया है. सबसे पहला है सब्सिडी में सुधार चूंकि सभी आय वर्ग के उपभोक्ता अक्सर बिजली सब्सिडी का फायदा लेते हैं, फिर भी इलेक्ट्रिसिटी सब्सिडी को बुरी तरीके से निशाना बनाया जाता है. इन सब्सिडी को हटाते हुए यदि गरीबों को बिजली देकर मदद करते हैं, तो वह इसका भुगतान करेंगे. यह सब्सिडी सीधे गरीबों को खाते में दिया जा सकता है. इससे बिजली के बाजार को होने वाले नुकसान से भी बचाया जा सकेगा.

इसके अलावा सामाजिक मानदंडों में बदलाव की भी जरूरत है. उपभोक्ता प्रोत्साहन और बिल संग्रह प्रक्रिया में बदलाव से बिजली की चोरी और बिलों का भुगतान न करने की आदत से निजात मिल सकती है. अध्ययन से पता चलता है कि चोरी गरीबों तक सीमित नहीं है. वास्तव में, बड़े उपभोक्ताओं के द्वारा भी इस तरह की चोरी करते हैं. और सबसे अंत में तकनीकी आधारित सुधार है. जैसे कि, व्यक्तिगत स्तर पर स्मार्ट मीटर का उपयोग करने से भुगतान और आपूर्ति को बढ़ावा देंगे.