Pakshakarita
'पक्ष'कारिता: पत्रकार की भी कोई जिम्मेदारी होती है या नहीं?
बीते वर्ष के आखिरी पखवाड़े में हमने देखा कि अडानी कंपनी ने हिंदी के अखबारों के पहले पन्ने को सर्वत्र खरीद लिया और किसान आंदोलन के संदर्भ में फुल पेज का एक विज्ञापन देकर आह्वान किया: ‘’इस दुष्प्रचार के खिलाफ आवाज़ उठाइए, सच्चाई जानिए’’.
उसके ठीक समानांतर देखिए कि कैसे नये साल का पहला पखवाड़ा फेसबुक की कंपनी व्हाट्सएप के फुल पेज विज्ञापनों पर खत्म हो रहा है. तकरीबन हर बड़े अखबार के पहले पन्ने पर व्हाट्सएप ने विज्ञापन देकर लोगों को उनकी निजता के प्रति आश्वस्त करने की कोशिश की है, हालांकि दिल्ली के हाइकोर्ट में कंपनी की नयी नीति के खिलाफ एक मुकदमा भी हो गया है.
एक महीने के भीतर दो भीमकाय कंपनियों को अंग्रेज़ी और हिंदी के अखबारों का सहारा क्यों लेना पड़ा अपना बचाव करने के लिए?
दो दिन पहले ही एक मित्र से चैट हो रही थी. वे गोरखपुर और कुशीनगर के इलाके में आजकल फील्डवर्क पर हैं. मैंने उनसे किसान आंदोलन पर पूर्वांचल के किसानों की प्रतिक्रिया जाननी चाही. उनकी दो टिप्पणियां काबिले गौर थीं. इन्हीं से मैं पिछले पखवाड़े की अखबारी सुर्खियों पर बात शुरू करना चाहूंगा.
पहली बात उन्होंने कही कि उधर के किसान आंदोलित तो नहीं हैं, लेकिन गोरखपुर युनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा कुलपति आवास के सामने हॉस्टल के मुद्दे पर अर्धनग्न प्रदर्शन करने को दिल्ली के किसान आंदोलन का एक विस्तार माना जा सकता है. दूसरी बात थोड़ा चौंकाने वाली थी. उनका कहना था कि अम्बानी और अडानी जैसे कारोबारियों के खिलाफ पूर्वांचल के लोगों का कॉमन सेंस अब काम करने लगा है. उनका आकलन है कि संभवत: दो साल बीतते-बीतते कहीं किसान और छोटे खुदरा कारोबारी रिलायंस के स्टोर न फूंकने लग जाएं.
रिलायंस और अडानी भारत की कंपनियां हैं. फेसबुक और उसका व्हाट्सएप अमेरिकी. रिलायंस के जियो और फेसबुक के बीच कारोबारी समझौता है. किसानों ने जियो के बहिष्कार का नारा दिया, तो असर फेसबुक पर भी पड़ा. फिर व्हाट्सएप ने नयी नीति का एलान किया तो हड़कम्प मच गया. जियो वाले एयरटेल पर भागने लगे. व्हाट्सएप वाले सिग्नल पर. याद करिए सिग्नल पर आने की सबसे शुरुआती सलाह किसने दी थी? एडवर्ड स्नोडेन ने. लोगों को ये बात याद हो कि नहीं, लेकिन बहुत तगड़ा माइग्रेशन हुआ है. जियो से भी, व्हाट्सएप से भी.
किसान आंदोलन दोनों घटनाओं के बीच की कड़ी है. इसीलिए जैसा दिसम्बर में अखबारों का रवैया किसान आंदोलन के प्रति था, वह कायम है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन लेकर अखबारों ने किसान आंदोलन पर फर्जी खबरें फैलाने का टेंडर भर दिया है. इसीलिए दैनिक जागरण दिल्ली के गाज़ीपुर बॉर्डर पर चल रहे सेवा लंगर को पूरी अश्लीलता के साथ “दस्तरख्वान” बता रहा है. शीर्षक देखिए, ये ख़बर 11 जनवरी की है: ‘’दस्तरखान की शान से आंदोलन में रुक रहे किसान’’.
अब मसला आंदोलन को बदनाम करने से भी आगे जा चुका है. अब सकारात्मक खबरों की शक्ल में पाठकों को भ्रमित करने का दौर चला है. ऐसी दो खबरें देखने लायक हैं. एक ग्वालियर से है, दूसरी बिलासपुर से. राष्ट्रपति की फोटो छाप कर अखबार लिखता है कि अब खेती करना आसान होगा क्योंकि खेती करने वाले रोबोट आ चुके हैं.
साल के पहले दिन रोबोट से खेती को आसान बनाने का दावा करने वाली खबर छाप कर दैनिक जागरण ने प्रकारांतर से किसानों की मौत का एक फ़तवा दिया है. वैसे, यह देखना दिलचस्प होगा कि हिंदी के अखबारों ने नये साल की शुरुआत कैसे की.
नये साल की चालीसा
दिल्ली से छपने वाले हिंदी के अखबारों में जनसत्ता का एक ज़माने में अपना मेयार होता था. बीच के कई साल अखबार डूबता-उतराता रहा, लेकिन ओम थानवी के संपादक बनने के बाद एक बात इस अखबार में तय हो गयी कि यहां राशिफल छपना बंद हो गया था. वैसे भी, 2004 से पहले जो कुछ राशिफल के नाम पर छपता था, वो पिछले हफ्ते की भविष्यवाणियों का मिश्रित फल होता था जिसे डेस्क पर ही बनाया जाता था. पिछला साल जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज को शायद इतना भयावह लगा होगा कि उन्होंने 2021 के पहले ही दिन पूरा पन्ना राशिफल छाप डाला.
जब जनसत्ता में एक पन्ना भविष्य छपा, तो बाकी का सहज ही सोच सकते हैं. राष्ट्रीय सहारा ने भी 1 जनवरी को पूरा पन्ना राशिफल को दिया. हिंदुस्तान इस मामले में थोड़ा मौलिक निकला. उसने अपनी तरफ से बधाई देते हुए दो लाइन की घटिया कविताई कर दी और साथ में एक ‘’सुरक्षा चालीसा’’ का वीडियो स्कैन कर के डाउनलोड करने के लिए क्यूआर कोड छाप दिया.
दैनिक जागरण और अमर उजाला दोनों ने ही प्रधानमंत्री के भाषण को लीड बनाया और उसमें से तीन शब्दों को हाइलाइट कर के 2021 का मंत्र छापा: ‘’दवाई भी, कड़ाई भी’’. ऐसा लगता है कि अमर उजाला को प्रधानमंत्री की ‘’दवाई’’ पर कोई आशंका रही होगी, तभी उसने पहले पन्ने पर जीवन बीमा का फुल पेज विज्ञापन छाप दिया. वैसे, ‘’दवाई और कड़ाई’’ को कायदे से इस नये साल पर सरकार की पंचलाइन होना चाहिए. इस मामले में कभी-कभार अनजाने ही हिंदी के अख़बार सच बोल जाते हैं.
सभी हिंदी अखबारों ने 1 जनवरी को ही कोरोना की वैक्सीन के आने की घोषणा कर दी थी लेकिन अमर उजाला को वैक्सीन के आगमन पर भरोसा होने में दस दिन लग गया. आखिरकार 10 जनवरी को पूरी आस्था के साथ उसने लीड छापी जिसमें लाल रंग से लिखा था: ‘’मंगल टीका’’. हिंदी पट्टी में बहुत से लोग ऐसे हैं जो जब तक कोई वैक्सीन नहीं लगवाये या खाये होते, तब तक मानकर चलते हैं कि टीका लगाने का मतलब माथे पर तिलक करना होता है. अमर उजाला ने ‘’मंगल टीका’’ का प्रयोग शायद इसी मानसिकता में कर दिया होगा.
अखबारों की भाजपाई धर्मनिरपेक्षता
आइए, अब अखबारी लेखन में धार्मिक आस्था से सीधे धर्म पर चलते हैं.
उत्तर प्रदेश में आजकल राम मंदिर के लिए चंदा इकट्ठा हो रहा है. खबरें गिनवाना मुश्किल है क्योंकि रोज़ाना हर अखबार में इससे जुड़ी दर्जनों खबरें छप रही हैं. कहीं खबरों में जयश्रीराम का उद्घोष हो रहा है तो कहीं चार साल की कोई बच्ची अपना गुल्ल्क तोड़कर मंदिर के लिए पैसे दे रही है (दैनिक जागरण, गाजियाबाद). इन सब के बीच दो खबरें ऐसी हैं जिन पर चर्चा करना थोड़ा ज़रूरी लगता है- एक अलीगढ़ से और दूसरी गोरखपुर से.
साल के पहले दिन दैनिक जागरण ने एक खबर अलीगढ़ डेटलाइन से प्रकाशित की. इसमें एक मुस्लिम महिला रूबी आसिफ़ खान के बारे में बताया गया है जिन्होंने अपनी मन्नत पूरी होने के बाद अपने घर में एक मंदिर स्थापित किया है जिसमें राम, राधा-कृष्ण, गणेश, हनुमान की प्रतिमा है. एक नज़र में खबर धार्मिक सौहार्द की जान पड़ती है, लेकिन असली कहानी भीतर है.
इस महिला ने 5 अगस्त, 2020 को रामलला की आरती की थी जिसके बाद उसे जिंदा जलाने की धमकी मिलने लगी. महिला ने केस कराया. उसे पुलिस ने सुरक्षा दी. खबर में एसपी का बयान है जिसमें वे कह रहे हैं कि महिला को धमकी देने वाले पर कार्रवाई की जाएगी.
क्या सुंदर दृश्य है! यूपी पुलिस एक मुस्लिम महिला की हिंदू देवताओं के प्रति भक्ति को प्रोत्साहित कर रही है. उसे सुरक्षा दे रही है. फिर अचानक सवाल कौंधता है कि मथुरा में जब खुदाई खिदमतगार वाले फैसल खान मंदिर में दर्शन करने पहुंचे और वहां के पुजारी की सहमति से उन्होंने वहां नमाज़ पढ़ी थी तो उन्हें गिरफ्तार कर के जेल क्यों भेज दिया गया? अंतरधार्मिक सौहार्द का मामला तो वो भी था, मुसलमान तो वे भी थे?
जवाब खबर के शीर्षक में ही है. रूबी खान भाजपा की नेता हैं. खबर लिखने वाला चालाक होता तो इस बात को छुपा जाता या भीतर कहीं लिखता कि महिला भाजपा की है. उसने हेडिंग में ही भाजपा डाल दिया. अब आप समझते रहिए कि यूपी में धर्मनिरपेक्ष होने के लिए क्या शर्त जरूरी है!
धर्मनिरपेक्षता वह मूल्य है जिसमें राज्य किसी भी धर्म या पंथ से खुद को बराबर दूरी पर रखता और बरतता है. चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा 5 अगस्त, 2020 को अयोध्या में गढ़ आए हैं, तो उनके अनुयायी क्यों पीछे रहते? लिहाजा प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर के गोरखनाथ मठ में बरसों से चले आ रहे मकर संक्रांति के सालाना खिचड़ी मेला कार्यक्रम को गोरक्षपीठाधीश्वर की भूमिका में उतरते हुए सरकारी आयोजन में तब्दील कर डाला. अफ़सोस, इस पर किसी भी फैक्ट चेकर की निगाह नहीं गयी. यही है सेक्युलर भारत का न्यू नॉर्मल.
हर उत्तरायण पर गोरखनाथ मठ में लगने वाला खिचड़ी मेला एक परंपरागत आयोजन है. पूर्णत: गैर-सरकारी. इस साल भारत सरकार के डाक विभाग ने इस मेले में एक विशेष टिकट का अनावरण किया और महंत सह मुख्यमंत्री ने उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग की डिजिटल डायरी और एप को यहीं लॉन्च किया. जाहिर है, मुख्यमंत्री का कार्यक्रम कवर करने सभी पत्रकार वहां गए रहे होंगे. क्या किसी के मन में सवाल नहीं कौंधा कि जो काम लखनऊ में सरकारी आयोजन के माध्यम से होना चाहिए था वह गोरखनाथ मठ में खिचड़ी मेले के दौरान क्यों हो रहा है? क्या यूपी के पत्रकार इस धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को हिंदू लोकतंत्र मान चुके हैं? क्या वे एक मठ के महंत और मुख्यमंत्री में फर्क करना भूल गए हैं? या फिर उन्हें किसी ने कान में बता दिया है कि चुनावी जीत का मतलब देवत्व प्राप्ति होती है?
खबर लिखना भी भूल गए?
कुछ लोग कह सकते हैं कि एक गरीब स्थानीय हिंदी पत्रकार या स्ट्रिंगर से लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता आदि की उम्मीद करना कुछ ज्यादती है. चलिए माना, लेकिन क्या पत्रकार खबर लिखने का बुनियादी उसूल भी भूल चुके हैं, कि आजकल वे खुलेआम यौन हिंसा की शिकार महिला का नाम और पहचान उजागर कर देते हैं?
मामला मध्य प्रदेश के नागदा जिले का है, जहां एक महिला को उसके सास, ससुर, पति और रिश्तेदार ने बर्बर तरीके से प्रताडि़त किया और मरा समझकर कर फेंक कर भाग गए. फिलहाल यह महिला इंदौर के एमवाइ अस्पताल में जिंदगी और मौत की जंग लड़ रही है. इस महिला के साथ जैसी बर्बरता हुई है, उसकी तुलना में कार्रवाई के नाम पर केवल आइपीसी की धारा 307 खड़ी है जिसके अंतर्गत दो लोगों को गिरफ्तार किया गया है. बाकी की छीछालेदर और कवर-अप अखबारों ने कर दी है.
ऊपर की दोनों खबरों में महिला के उत्पीड़न की वजह ‘’चरित्र शंका’’ और ‘’अवैध संबंध’’ को बताया गया है. दिलचस्प है कि पत्रिका अपनी खबर में लिखता है कि घर की औरतें काम के सिलसिले में अकसर गुजरात जाती हैं तब घर बंद पड़ा रहता है. इसके बावजूद पीडि़त महिला के घर से बाहर जाने को उसने ‘’अवैध संबंध’’ से जोड़ दिया गया है.
ये दोनों खबरें वैसे भी फॉलोअप हैं. शुरुआती खबर में पत्रिका, भास्कर, नई दुनिया, राज एक्सप्रेस, दैनिक जागरण सब ने निरपवाद रूप से महिला का नाम लिया है जबकि साथ में बर्बर यौन प्रताड़ना की बात भी लिखी है. अखबारों और रिपोर्टरों ने ऐसा क्यों किया? ऊपर पत्रिका की खबर की तस्वीर देखिए, लिखा है- ‘’पुलिस ने बताया कि महिला का नाम ... है’’. पुलिस तो बताएगी ही, पत्रकार की भी कोई जिम्मेदारी होती है या नहीं? कहीं इसके पीछे ‘रेप’ की आशंका को पूरी तरह रूलआउट करने की बात तो नहीं है?
बुधवार को नागदा पुलिस इंदौर जाकर वहां भर्ती महिला का बयान ले आयी, ऐसा अखबार कहते हैं. यह बात वे अखबार लिख रहे हैं जिन्होंने एक दिन पहले लिखा है कि उस महिला की जीभ, नाकऔर गाल तलवार से काट दिए गए थे. बिना जीभ, नाक और गाल के महिला ने बयान कैसे दिया होगा, यह सहज सवाल किसी ने क्यों नहीं उठाया?
शुक्रवार को दो और गिरफ्तारियों की खबर अखबारों ने छापी. पहले तो सभी ने लिखा था कि महिला के यौनांग में ‘बेलन’ डाला गया. शुक्रवार को दैनिक भास्कर ने लिखा कि पकड़े गए दो और आरोपियों ने महिला के साथ ‘’छेड़छाड़’’ भी की थी. किसी भी रिपोर्टर ने यह पूछने की सहज कोशिश क्यों नहीं की कि ‘’छेड़छाड़़’’ और यौनांग में बेलन डालने को पुलिस ने यौन प्रताड़ना मानते हुए अलग से धाराएं एफआईआर में अभी तक क्यों नहीं डाली हैं?
तीन दिन पहले ही सीधी जिले से बिलकुल ऐसी ही घटना सामने आयी थी जहां रेप के बाद यौनांग में सरिया डाल दिया गया था. राहुल गांधी ने उस केस में पीडि़त महिला को ‘निर्भया’ कहा था. वहां रेप की पुष्टि थी, यहां पैटर्न समान है. अखबारों और पत्रकारों की ओर से सवाल गायब!
छपने की आस में एक चिट्ठी
मध्य प्रदेश कुछ और कारणों से भी सुर्खियों में है. जानने वाले कह रहे हैं कि प्रदेश में कुछ ‘बड़ा’ होने वाला है. यह ‘बड़ा’ क्या हो सकता है, वहां के अखबार पढ़कर आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं. ग्वालियर में गोडसे ज्ञानशाला का खुलना, साध्वी प्रज्ञा के बयान, सांप्रदायिक हिंसा की छिटपुट घटनाएं, बहुत कुछ इस ओर इशारा कर रहा है. सबकी कवरेज बराबर है, बस एक चीज़ की कवरेज नहीं है- मध्य प्रदेश के प्रबुद्ध व्यक्तियों और लेखक संगठनों व सामाजिक समूहों द्वारा राष्ट्रपति को भेजी गयी चिट्ठी.
किसी राज्य के प्रबुद्ध नागरिकों की ओर से राष्ट्रपति को भेजी गयी ऐसी चिट्ठी शायद हमने हालिया अतीत में नहीं देखी-सुनी. इस चिट्ठी को सुधी पाठक यहां पढ़ सकते हैं और अंदाजा लगा सकते हैं कि हिंदी के अखबारों को देश के दिल की कितनी परवाह है.
बीते वर्ष के आखिरी पखवाड़े में हमने देखा कि अडानी कंपनी ने हिंदी के अखबारों के पहले पन्ने को सर्वत्र खरीद लिया और किसान आंदोलन के संदर्भ में फुल पेज का एक विज्ञापन देकर आह्वान किया: ‘’इस दुष्प्रचार के खिलाफ आवाज़ उठाइए, सच्चाई जानिए’’.
उसके ठीक समानांतर देखिए कि कैसे नये साल का पहला पखवाड़ा फेसबुक की कंपनी व्हाट्सएप के फुल पेज विज्ञापनों पर खत्म हो रहा है. तकरीबन हर बड़े अखबार के पहले पन्ने पर व्हाट्सएप ने विज्ञापन देकर लोगों को उनकी निजता के प्रति आश्वस्त करने की कोशिश की है, हालांकि दिल्ली के हाइकोर्ट में कंपनी की नयी नीति के खिलाफ एक मुकदमा भी हो गया है.
एक महीने के भीतर दो भीमकाय कंपनियों को अंग्रेज़ी और हिंदी के अखबारों का सहारा क्यों लेना पड़ा अपना बचाव करने के लिए?
दो दिन पहले ही एक मित्र से चैट हो रही थी. वे गोरखपुर और कुशीनगर के इलाके में आजकल फील्डवर्क पर हैं. मैंने उनसे किसान आंदोलन पर पूर्वांचल के किसानों की प्रतिक्रिया जाननी चाही. उनकी दो टिप्पणियां काबिले गौर थीं. इन्हीं से मैं पिछले पखवाड़े की अखबारी सुर्खियों पर बात शुरू करना चाहूंगा.
पहली बात उन्होंने कही कि उधर के किसान आंदोलित तो नहीं हैं, लेकिन गोरखपुर युनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा कुलपति आवास के सामने हॉस्टल के मुद्दे पर अर्धनग्न प्रदर्शन करने को दिल्ली के किसान आंदोलन का एक विस्तार माना जा सकता है. दूसरी बात थोड़ा चौंकाने वाली थी. उनका कहना था कि अम्बानी और अडानी जैसे कारोबारियों के खिलाफ पूर्वांचल के लोगों का कॉमन सेंस अब काम करने लगा है. उनका आकलन है कि संभवत: दो साल बीतते-बीतते कहीं किसान और छोटे खुदरा कारोबारी रिलायंस के स्टोर न फूंकने लग जाएं.
रिलायंस और अडानी भारत की कंपनियां हैं. फेसबुक और उसका व्हाट्सएप अमेरिकी. रिलायंस के जियो और फेसबुक के बीच कारोबारी समझौता है. किसानों ने जियो के बहिष्कार का नारा दिया, तो असर फेसबुक पर भी पड़ा. फिर व्हाट्सएप ने नयी नीति का एलान किया तो हड़कम्प मच गया. जियो वाले एयरटेल पर भागने लगे. व्हाट्सएप वाले सिग्नल पर. याद करिए सिग्नल पर आने की सबसे शुरुआती सलाह किसने दी थी? एडवर्ड स्नोडेन ने. लोगों को ये बात याद हो कि नहीं, लेकिन बहुत तगड़ा माइग्रेशन हुआ है. जियो से भी, व्हाट्सएप से भी.
किसान आंदोलन दोनों घटनाओं के बीच की कड़ी है. इसीलिए जैसा दिसम्बर में अखबारों का रवैया किसान आंदोलन के प्रति था, वह कायम है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन लेकर अखबारों ने किसान आंदोलन पर फर्जी खबरें फैलाने का टेंडर भर दिया है. इसीलिए दैनिक जागरण दिल्ली के गाज़ीपुर बॉर्डर पर चल रहे सेवा लंगर को पूरी अश्लीलता के साथ “दस्तरख्वान” बता रहा है. शीर्षक देखिए, ये ख़बर 11 जनवरी की है: ‘’दस्तरखान की शान से आंदोलन में रुक रहे किसान’’.
अब मसला आंदोलन को बदनाम करने से भी आगे जा चुका है. अब सकारात्मक खबरों की शक्ल में पाठकों को भ्रमित करने का दौर चला है. ऐसी दो खबरें देखने लायक हैं. एक ग्वालियर से है, दूसरी बिलासपुर से. राष्ट्रपति की फोटो छाप कर अखबार लिखता है कि अब खेती करना आसान होगा क्योंकि खेती करने वाले रोबोट आ चुके हैं.
साल के पहले दिन रोबोट से खेती को आसान बनाने का दावा करने वाली खबर छाप कर दैनिक जागरण ने प्रकारांतर से किसानों की मौत का एक फ़तवा दिया है. वैसे, यह देखना दिलचस्प होगा कि हिंदी के अखबारों ने नये साल की शुरुआत कैसे की.
नये साल की चालीसा
दिल्ली से छपने वाले हिंदी के अखबारों में जनसत्ता का एक ज़माने में अपना मेयार होता था. बीच के कई साल अखबार डूबता-उतराता रहा, लेकिन ओम थानवी के संपादक बनने के बाद एक बात इस अखबार में तय हो गयी कि यहां राशिफल छपना बंद हो गया था. वैसे भी, 2004 से पहले जो कुछ राशिफल के नाम पर छपता था, वो पिछले हफ्ते की भविष्यवाणियों का मिश्रित फल होता था जिसे डेस्क पर ही बनाया जाता था. पिछला साल जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज को शायद इतना भयावह लगा होगा कि उन्होंने 2021 के पहले ही दिन पूरा पन्ना राशिफल छाप डाला.
जब जनसत्ता में एक पन्ना भविष्य छपा, तो बाकी का सहज ही सोच सकते हैं. राष्ट्रीय सहारा ने भी 1 जनवरी को पूरा पन्ना राशिफल को दिया. हिंदुस्तान इस मामले में थोड़ा मौलिक निकला. उसने अपनी तरफ से बधाई देते हुए दो लाइन की घटिया कविताई कर दी और साथ में एक ‘’सुरक्षा चालीसा’’ का वीडियो स्कैन कर के डाउनलोड करने के लिए क्यूआर कोड छाप दिया.
दैनिक जागरण और अमर उजाला दोनों ने ही प्रधानमंत्री के भाषण को लीड बनाया और उसमें से तीन शब्दों को हाइलाइट कर के 2021 का मंत्र छापा: ‘’दवाई भी, कड़ाई भी’’. ऐसा लगता है कि अमर उजाला को प्रधानमंत्री की ‘’दवाई’’ पर कोई आशंका रही होगी, तभी उसने पहले पन्ने पर जीवन बीमा का फुल पेज विज्ञापन छाप दिया. वैसे, ‘’दवाई और कड़ाई’’ को कायदे से इस नये साल पर सरकार की पंचलाइन होना चाहिए. इस मामले में कभी-कभार अनजाने ही हिंदी के अख़बार सच बोल जाते हैं.
सभी हिंदी अखबारों ने 1 जनवरी को ही कोरोना की वैक्सीन के आने की घोषणा कर दी थी लेकिन अमर उजाला को वैक्सीन के आगमन पर भरोसा होने में दस दिन लग गया. आखिरकार 10 जनवरी को पूरी आस्था के साथ उसने लीड छापी जिसमें लाल रंग से लिखा था: ‘’मंगल टीका’’. हिंदी पट्टी में बहुत से लोग ऐसे हैं जो जब तक कोई वैक्सीन नहीं लगवाये या खाये होते, तब तक मानकर चलते हैं कि टीका लगाने का मतलब माथे पर तिलक करना होता है. अमर उजाला ने ‘’मंगल टीका’’ का प्रयोग शायद इसी मानसिकता में कर दिया होगा.
अखबारों की भाजपाई धर्मनिरपेक्षता
आइए, अब अखबारी लेखन में धार्मिक आस्था से सीधे धर्म पर चलते हैं.
उत्तर प्रदेश में आजकल राम मंदिर के लिए चंदा इकट्ठा हो रहा है. खबरें गिनवाना मुश्किल है क्योंकि रोज़ाना हर अखबार में इससे जुड़ी दर्जनों खबरें छप रही हैं. कहीं खबरों में जयश्रीराम का उद्घोष हो रहा है तो कहीं चार साल की कोई बच्ची अपना गुल्ल्क तोड़कर मंदिर के लिए पैसे दे रही है (दैनिक जागरण, गाजियाबाद). इन सब के बीच दो खबरें ऐसी हैं जिन पर चर्चा करना थोड़ा ज़रूरी लगता है- एक अलीगढ़ से और दूसरी गोरखपुर से.
साल के पहले दिन दैनिक जागरण ने एक खबर अलीगढ़ डेटलाइन से प्रकाशित की. इसमें एक मुस्लिम महिला रूबी आसिफ़ खान के बारे में बताया गया है जिन्होंने अपनी मन्नत पूरी होने के बाद अपने घर में एक मंदिर स्थापित किया है जिसमें राम, राधा-कृष्ण, गणेश, हनुमान की प्रतिमा है. एक नज़र में खबर धार्मिक सौहार्द की जान पड़ती है, लेकिन असली कहानी भीतर है.
इस महिला ने 5 अगस्त, 2020 को रामलला की आरती की थी जिसके बाद उसे जिंदा जलाने की धमकी मिलने लगी. महिला ने केस कराया. उसे पुलिस ने सुरक्षा दी. खबर में एसपी का बयान है जिसमें वे कह रहे हैं कि महिला को धमकी देने वाले पर कार्रवाई की जाएगी.
क्या सुंदर दृश्य है! यूपी पुलिस एक मुस्लिम महिला की हिंदू देवताओं के प्रति भक्ति को प्रोत्साहित कर रही है. उसे सुरक्षा दे रही है. फिर अचानक सवाल कौंधता है कि मथुरा में जब खुदाई खिदमतगार वाले फैसल खान मंदिर में दर्शन करने पहुंचे और वहां के पुजारी की सहमति से उन्होंने वहां नमाज़ पढ़ी थी तो उन्हें गिरफ्तार कर के जेल क्यों भेज दिया गया? अंतरधार्मिक सौहार्द का मामला तो वो भी था, मुसलमान तो वे भी थे?
जवाब खबर के शीर्षक में ही है. रूबी खान भाजपा की नेता हैं. खबर लिखने वाला चालाक होता तो इस बात को छुपा जाता या भीतर कहीं लिखता कि महिला भाजपा की है. उसने हेडिंग में ही भाजपा डाल दिया. अब आप समझते रहिए कि यूपी में धर्मनिरपेक्ष होने के लिए क्या शर्त जरूरी है!
धर्मनिरपेक्षता वह मूल्य है जिसमें राज्य किसी भी धर्म या पंथ से खुद को बराबर दूरी पर रखता और बरतता है. चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा 5 अगस्त, 2020 को अयोध्या में गढ़ आए हैं, तो उनके अनुयायी क्यों पीछे रहते? लिहाजा प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर के गोरखनाथ मठ में बरसों से चले आ रहे मकर संक्रांति के सालाना खिचड़ी मेला कार्यक्रम को गोरक्षपीठाधीश्वर की भूमिका में उतरते हुए सरकारी आयोजन में तब्दील कर डाला. अफ़सोस, इस पर किसी भी फैक्ट चेकर की निगाह नहीं गयी. यही है सेक्युलर भारत का न्यू नॉर्मल.
हर उत्तरायण पर गोरखनाथ मठ में लगने वाला खिचड़ी मेला एक परंपरागत आयोजन है. पूर्णत: गैर-सरकारी. इस साल भारत सरकार के डाक विभाग ने इस मेले में एक विशेष टिकट का अनावरण किया और महंत सह मुख्यमंत्री ने उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग की डिजिटल डायरी और एप को यहीं लॉन्च किया. जाहिर है, मुख्यमंत्री का कार्यक्रम कवर करने सभी पत्रकार वहां गए रहे होंगे. क्या किसी के मन में सवाल नहीं कौंधा कि जो काम लखनऊ में सरकारी आयोजन के माध्यम से होना चाहिए था वह गोरखनाथ मठ में खिचड़ी मेले के दौरान क्यों हो रहा है? क्या यूपी के पत्रकार इस धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को हिंदू लोकतंत्र मान चुके हैं? क्या वे एक मठ के महंत और मुख्यमंत्री में फर्क करना भूल गए हैं? या फिर उन्हें किसी ने कान में बता दिया है कि चुनावी जीत का मतलब देवत्व प्राप्ति होती है?
खबर लिखना भी भूल गए?
कुछ लोग कह सकते हैं कि एक गरीब स्थानीय हिंदी पत्रकार या स्ट्रिंगर से लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता आदि की उम्मीद करना कुछ ज्यादती है. चलिए माना, लेकिन क्या पत्रकार खबर लिखने का बुनियादी उसूल भी भूल चुके हैं, कि आजकल वे खुलेआम यौन हिंसा की शिकार महिला का नाम और पहचान उजागर कर देते हैं?
मामला मध्य प्रदेश के नागदा जिले का है, जहां एक महिला को उसके सास, ससुर, पति और रिश्तेदार ने बर्बर तरीके से प्रताडि़त किया और मरा समझकर कर फेंक कर भाग गए. फिलहाल यह महिला इंदौर के एमवाइ अस्पताल में जिंदगी और मौत की जंग लड़ रही है. इस महिला के साथ जैसी बर्बरता हुई है, उसकी तुलना में कार्रवाई के नाम पर केवल आइपीसी की धारा 307 खड़ी है जिसके अंतर्गत दो लोगों को गिरफ्तार किया गया है. बाकी की छीछालेदर और कवर-अप अखबारों ने कर दी है.
ऊपर की दोनों खबरों में महिला के उत्पीड़न की वजह ‘’चरित्र शंका’’ और ‘’अवैध संबंध’’ को बताया गया है. दिलचस्प है कि पत्रिका अपनी खबर में लिखता है कि घर की औरतें काम के सिलसिले में अकसर गुजरात जाती हैं तब घर बंद पड़ा रहता है. इसके बावजूद पीडि़त महिला के घर से बाहर जाने को उसने ‘’अवैध संबंध’’ से जोड़ दिया गया है.
ये दोनों खबरें वैसे भी फॉलोअप हैं. शुरुआती खबर में पत्रिका, भास्कर, नई दुनिया, राज एक्सप्रेस, दैनिक जागरण सब ने निरपवाद रूप से महिला का नाम लिया है जबकि साथ में बर्बर यौन प्रताड़ना की बात भी लिखी है. अखबारों और रिपोर्टरों ने ऐसा क्यों किया? ऊपर पत्रिका की खबर की तस्वीर देखिए, लिखा है- ‘’पुलिस ने बताया कि महिला का नाम ... है’’. पुलिस तो बताएगी ही, पत्रकार की भी कोई जिम्मेदारी होती है या नहीं? कहीं इसके पीछे ‘रेप’ की आशंका को पूरी तरह रूलआउट करने की बात तो नहीं है?
बुधवार को नागदा पुलिस इंदौर जाकर वहां भर्ती महिला का बयान ले आयी, ऐसा अखबार कहते हैं. यह बात वे अखबार लिख रहे हैं जिन्होंने एक दिन पहले लिखा है कि उस महिला की जीभ, नाकऔर गाल तलवार से काट दिए गए थे. बिना जीभ, नाक और गाल के महिला ने बयान कैसे दिया होगा, यह सहज सवाल किसी ने क्यों नहीं उठाया?
शुक्रवार को दो और गिरफ्तारियों की खबर अखबारों ने छापी. पहले तो सभी ने लिखा था कि महिला के यौनांग में ‘बेलन’ डाला गया. शुक्रवार को दैनिक भास्कर ने लिखा कि पकड़े गए दो और आरोपियों ने महिला के साथ ‘’छेड़छाड़’’ भी की थी. किसी भी रिपोर्टर ने यह पूछने की सहज कोशिश क्यों नहीं की कि ‘’छेड़छाड़़’’ और यौनांग में बेलन डालने को पुलिस ने यौन प्रताड़ना मानते हुए अलग से धाराएं एफआईआर में अभी तक क्यों नहीं डाली हैं?
तीन दिन पहले ही सीधी जिले से बिलकुल ऐसी ही घटना सामने आयी थी जहां रेप के बाद यौनांग में सरिया डाल दिया गया था. राहुल गांधी ने उस केस में पीडि़त महिला को ‘निर्भया’ कहा था. वहां रेप की पुष्टि थी, यहां पैटर्न समान है. अखबारों और पत्रकारों की ओर से सवाल गायब!
छपने की आस में एक चिट्ठी
मध्य प्रदेश कुछ और कारणों से भी सुर्खियों में है. जानने वाले कह रहे हैं कि प्रदेश में कुछ ‘बड़ा’ होने वाला है. यह ‘बड़ा’ क्या हो सकता है, वहां के अखबार पढ़कर आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं. ग्वालियर में गोडसे ज्ञानशाला का खुलना, साध्वी प्रज्ञा के बयान, सांप्रदायिक हिंसा की छिटपुट घटनाएं, बहुत कुछ इस ओर इशारा कर रहा है. सबकी कवरेज बराबर है, बस एक चीज़ की कवरेज नहीं है- मध्य प्रदेश के प्रबुद्ध व्यक्तियों और लेखक संगठनों व सामाजिक समूहों द्वारा राष्ट्रपति को भेजी गयी चिट्ठी.
किसी राज्य के प्रबुद्ध नागरिकों की ओर से राष्ट्रपति को भेजी गयी ऐसी चिट्ठी शायद हमने हालिया अतीत में नहीं देखी-सुनी. इस चिट्ठी को सुधी पाठक यहां पढ़ सकते हैं और अंदाजा लगा सकते हैं कि हिंदी के अखबारों को देश के दिल की कितनी परवाह है.
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