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कंकड़ पत्थर पार करेगा, बाबा सब पर राज करेगा

“हमारा मंदिर सौ साल पुराना हो गया है, दरगाह भी पचास साल का हो चुका है, आज तक यहां न बीजेपी न कांग्रेस न ही जदयु से कोई बड़ा नेता आया है. कृपया सबसे पहले पहुंच कर नाम और फोटो कमाने का अवसर न गंवाएं. सारा काम छोड़ कर जल्दी आ जाएं क्योंकि इस इलाके के सारे मंदिर और दरगाहों में नेता आ चुके हैं. हमीं बचे हैं जहां कोई नहीं आया है. राष्ट्रीय अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से नीचे के नेताओं को न भेजें.”

मेरी कल्पना का यह साइन बोर्ड अभी कहीं नहीं लगा है, जल्दी ही लग जाएगा. जिस रफ्तार से सभी दलों के नेता मंदिरों और दरगाहों के चक्कर लगा रहे हैं, उसे देखते हुए हम और आप क्या-क्या देखें, यह सवाल है. क्या भारत में मंदिर प्रवेश आंदोलन चल रहा है? क्या भारत में ख़ादिमों की ख़िदमत का कोई आंदोलन चल रहा है? नेता लोग आज कल ऐसे मौके का विज़ुअल ख़ास तौर से बनवाते हैं. ट्वीट करवाते हैं और सरकार में हैं तो अख़बार में छपवा देते हैं. ट्विटर पर जयंतियां मनाने की होड़ अपने अंतिम चरण में पहुंच गई है. जल्दी ही अब एक दिन पहले से ही ट्वीट आने लगेगा कि कल जयंती है, हम आज ही स्मरण कर रहे हैं, आज वाले को कल कर चुके हैं. सब कुछ एडवांस हो जाएगा. हालत यह न हो जाए कि अगले साल आने वाली जयंती का ट्वीट भी इसी साल आ जाए.

भारत की राजनीति में सौ मीटर की अजीब रेस चल रही है. सब एक दूसरे से पहले मंदिर पहुंच जाना चाहते हैं. नए-नए मठों और मंदिरों की खोज हो रही है. दरगाहों और दरवेशों का पता लगाया जा रहा है. उनके रूट बन रहे हैं. इस प्रक्रिया में दो तरह के “पहली बार” का सृजन किया गया है. एक तो जहां वाकई कोई मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं गया, दूसरा जहां दो तीन दशकों से इनमें से कोई नहीं गया. यह बहुत ज़रूरी होता है ताकि प्रोपगैंडा के लिए ख़ाली बैठा अख़बार का संपादक हेडलाइन लगवा सके कि दो दशक में पहली बार कोई कांग्रेस का नेता या कोई बीजेपी का नेता फलाने मठ में पहुंचा. इससे इलाके का समीकरण बन गया है.

मठ-मंदिर, मस्जिद-दरगाह जाने वाले नेताओं में भी तीन प्रकार हैं. एक जो पहले से ही जाते रहे हैं मगर अब हर जगह जा चुके हैं इसलिए नई जगह की तलाश कर रहे हैं. वे उन मंदिरों में जाने से बचते हैं, जहां राजनीति में उनके कंपटीटर पहले ही जा चुके हैं. दूसरी श्रेणी के वे नेता हैं जो कम जाते थे, मगर आजकल ज़्यादा जाने लगे हैं. तीसरी श्रेणी के वे नेता हैं जो नहीं जाते थे मगर जाना पड़ रहा है. मंदिर गमन, दरगाह भ्रमण का यह उत्तम समय है. भारत में यह आस्था का दोहन काल चल रहा है.

महंतों मौलवियों के साथ तस्वीरों की दो गति प्रतीत होती है. एक गति पुरानी तस्वीर की है. जिसमें नेताजी जेल जाने वाले या जा चुके बाबाजी के चरणों में बैठे हैं. दूसरी गति नई तस्वीर की है. अचानक नए महंत आ जाते हैं. नेताजी उनके शरणागत दिखाई देते हैं. किसी-किसी तस्वीर में तो नेताजी अपना कुर्ता पजामा उतारकर धोती ऐसे पहन लेते हैं, जैसे वे अपना पद छोड़ कर इसी मठ के महंत हो गए हों. तुरंत ट्वीट करते हैं. महंतों को चेतावनी है. ये नेता खुद को महंत होने का दावा भी कर देंगे. बल्कि कर चुके हैं, आपको दिखाई नहीं दे रहा है.

आप नेताओं के भाषण देखिए. नैतिक और धार्मिक शिक्षा की भरमार है. तीस साल पहले जब बसों में यात्राओं की स्मृतियां बन रही थी तब ऐसे स्टीकर खूब देखे थे. ड्राइवर और कंडक्टर की सीट के पास जैसे ही टिकट देने के लिए पैसे बढ़ाता था, टिकट से पहले संदेश मिल जाता था. घरों में जाता था तो ऐसे संदेश आलमारी पर चिपके मिलते थे. न्यूटन की क्रिया प्रतिक्रिया को समझने से जूझ रहा मेरा किशोर मन इस बात को लेकर कंफ्यूज़ हो जाता था कि हे रवीश, चल बता दानों में कौन सा दान बड़ा हुआ? एक ही बस में कंडक्टर की सीट पर लिखा था “कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं है” मगर ड्राइवर की सीट के पास लिखा था “ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं है.“ बस में चढ़ते समय जो ज्ञान मिला था, ड्राइवर साइड से उतरते समय के ज्ञान से अलग था. लग रहा था ड्राइवर और कंडक्टर में दान को लेकर नहीं बनती नहीं .

क्रोध इंसान का शत्रु है. ये संदेश जो मैंने वहां भी चिपके देखें हैं जहां क्रोध करने के लिए किसी इंसान के पहुंचने की कोई संभावना नहीं थी. परिश्रम ही स्वस्थ जीवन का मूलमंत्र है. वैसे आजकल परिश्रम की अधिकता के कारण ही लोग मधुमेह और तनावों के शिकार हो रहे हैं. क्या जाम में तीन-तीन घंटे कार चलाना परिश्रम नहीं है? अगर है तो क्या यह परिश्रम मधुमेह और रक्तचाप देने का कारण नहीं है? लज्जा स्त्री का आभूषण है, पढ़ते ही अलंकार और अग्रवाल ज्वेल्स के बोर्ड देखकर कंफ्यूज़ हो जाता था. जब लज्जा ही गहना है तो फिर ये गहना क्या है?

‘भाग्यवाद हमें नपुंसक बनाता है’, ऐसे संदेशों को देखकर तो और डर जाता हूं. अभी-अभी तो किसी ज्योतिष से भाग्य पूछ कर आया था लेकिन शहर के उस गंदे शौचालय की दीवार पर लिखा देखा तो ठिठक गया. क्या करूं, कहां जाऊं. जीवन का मार्ग क्या है? इंजीनियर बन कर बेरोज़गार बनना या बग़ैर इंजीनियरिंग के ही बेरोज़गार बने रहना? मुझे ये प्रश्न फिजिक्स वाले रेसनिक हेलिडे के प्रश्नों से ज़्यादा टफ़ लगते थे. सदा सत्य बोलें का स्टीकर देखते ही मेरे भीतर के सारे झूठ बोलने लग जाते थे. पटना की सड़कों पर साइकिल चलाता हुआ दूजरा से महेंद्रू पहुंच जाता था.

जीवन को उलझाने वाले ये संदेश इस तरह मेरे मन के भीतर बैठे रहे कि एक यू ट्यूब पर अपना चैनल लांच कर संदेश ऋषि स्टार्ट अप ही शुरू कर दिया. संदेश ऋषि वही बताता है जो आप करते आ रहे हैं और जानते हैं. मगर बताने के बाद लगता है कि आप पहली बार जान रहे हैं. जैसे कोई यह बताता है कि परिवार में बुज़ुर्गों का सम्मान नहीं हो रहा है. लगता है बेरोज़गारों से ज़्यादा बुजुर्ग सड़क पर आ गए हैं. मैं समझ गया कि भारत एक संदेश प्रधान देश है. इसलिए प्रधानमंत्री संदेश देते रहते हैं.

भारत में संदेश सुनाने वाले करोड़पति हो गए. आप भी हो सकते हैं. गन्ने की खेती करेंगे तो बकाया भुगतान के लिए प्रधानमंत्री के वादे का इंतज़ार करेंगे, उस खेत में गन्ना छो़ड़ आश्रम खोल देंगे तो प्रधानमंत्री भी आया करेंगे. राहुल गांधी भी जाया करेंगे और किसी दिन नीतीश कुमार आ जाएं तो खुशी से फूले नहीं समाएंगे.

हम लोगों का पेट भले भर जाए मगर संदेश से मन नहीं भरेगा. भारत में नए-नए संदेश ऋषियों की ज़रूरत है. एक बाबा से सुनकर हम वही बात दूसरे बाबा से सुनने जाते हैं. इस चक्कर में बाबा लोग भी अंबानी-अदानी होने लगे हैं. भारत में ग़रीबों ने अमीरों को एक वरदान दिया है. “जब-जब हम घटेंगे, हे नाथ आप ही बढ़ेंगे.” “हमारी ग़रीबी ही तुम्हारी अमीरी है.” मैं भी अपने कथनों को ‘इंवर्टेट कॉमा’ में बंद करना सीख गया हूं.

बाबा लोग संदेश को लेकर बड़े-बड़े ईवेंट कर रहे हैं. उपदेश के आगे संदेश है और संदेश के आगे सारा देश. सरकार नदियां नहीं बचा रही है. वो नदियों को मारने का श्योर शॉट फार्मूला बांध बनाने में लगी है. नाले नदियों में प्रवाहित हो रहे हैं. उन्हें रोकने के इंतज़ाम का हिसाब नहीं है. लगे कि कुछ हो रहा है इसलिए बड़ी संख्या में नदियों के किनारे ईवेंट हो रहे हैं. मरती हुई नदियों को बचाने का यह अद्भुत तरीका भारत की देन है. किनारे पर जाकर पदयात्रा करो, झाड़ू लगाओ और कानफोड़ू म्यूज़िक के बीच नाच-गाना करो. टू इन वन मेसेज दो कि एक ही कार्यक्रम के उद्घाटन से नदी और संस्कृति दोनों बच रही है. यही तरीका आईसीयू में आज़माया जाना चाहिए. मरने वाले मरीज़ के बगल में ज़ोर-ज़ोर से म्युज़िक बजाया जाना चाहिए.

जो देख रहा है वो सदमे में है. जो दिखा रहा है, वो मजे में है. नदियों को साफ करने का यह फार्मूला पेटेंट होना चाहिए. भारत के इन आध्यात्मिक वैज्ञानिकों को केमिस्ट्री का नोबेल मिलना चाहिए. बग़ैर फिजिक्स, केमिस्ट्री के वैज्ञानिक बनाने की प्रयोगशाला सिर्फ भारत में है. अगले साल नोबेल न मिले तो उसके अगले साल तक सभी नदियों के किनारे पदयात्राएं होनी चाहिए. वैसे पंजाब में एक बाबा हैं बलबीर सिंह सच्चेवाल. उन्होंने चुपचाप 160 किमी नदी साफ कर दी. उन्हें तो कोई ब्रांड अंबेसडर नहीं बनाता. जिन्होंने साफ नहीं की और जिनसे साफ होगा भी नहीं, वे ब्रांड अंबेसडर बने घूम रहे हैं.

हो यह रहा है कि कोई अपना काम नहीं कर रहा है. हर कोई दूसरे का काम कर रहा है. बाबा वैज्ञानिक का काम कर रहे हैं, वैज्ञानिक बाबा का, महंत नेता बन रहे हैं और नेता बाबा बन रहे हैं. बड़े-बड़े नेता पिता-पुत्र संबंधों पर भाषण दे रहे हैं. उपहार में गुलाब देना है कि गेंदा देना है, ये सब बता रहे हैं. कोई अपने सहयोगी को इशारे में शल्य कह रहा है तो शल्य भी इशारा समझ कर ख़ुद को भीष्म होने का दावा कर रहे हैं. वे भी किसी के दुर्योधन होने का इशारा कर देते हैं कि मैं चीरहरण नहीं होने दूंगा. सर, आप भीष्म हैं या कृष्ण क्लियर करें और आप सर कर्ण हैं या अर्जुन है यह भी साफ करें. तब तक अमित शाह जी, आप रुकिए. जल्दी में खुद को व्यासजी घोषित मत कर दीजिएगा कि नया महाभारत आ गया है. नया इंडिया, नया महाभारत. नया शल्य, नया दुर्योधन.

राजनीति फेल हो गई है. वो अब धर्म को फेल कर रही है. नेताओं का सत्य यही है कि वे अब वोट के लिए जनता के बीच नहीं मठों, मंदिरों और दरगाहों में जा रहे हैं. उन्हें पता है कि जनता के पास किस मुंह से जाएं. बेहतर है, वहीं चलो जहां जनता हमसे निराश होकर पहुंचती है. नेता को पता है कि कितने दिनों तक वही घिसी-पिटी बात कहेंगे, इसलिए कुछ दिनों तक दूसरों की हिट बातों को दोहराया जाए. सदा सत्य बोलें, ईमानदारी सबसे बड़ा गहना है टाइप के भाषण दिए जाएं.

बस अडानी जी के बारे में जो असत्य छप रहा है, उस पर कुछ न बोला जाए. विपक्ष के नेता के बारे में सिंगल कॉलम भी छपे तो सीबीआई-ईडी के डबल बैरल से उसे ख़ामोश कर दिया जाए. अडानी जी वैसे भी भारत के पहले सीबीआई प्रूफ उद्योगपति हैं. मैं उनके लेबल का छपा सेब खाता हूं और अच्छा भी होता है. बच गया. अब मुझ पर मानहानि नहीं होगा. डिस्क्लेमर, मैं सही में खाता हूं. सेब, और कुछ नहीं.

प्रधानमंत्री जी पर ज़्यादा दबाव नहीं डालना चाहिए. मैं एंटी मोदी पत्रकारों से पूछता हूं कि आप ही बता दें कितने लोगों के पास जहाज़ है किराया पर देने के लिए. किसी न किसी से तो लेना ही पड़ेगा. अब तो वायु सेना का जहाज़ है. अडानी के जहाज़ की तस्वीर को शेयर नहीं करना चाहिए. लोकतंत्र है, इसे तनाव मुक्त बनाइये. जिसके ख़िलाफ़ कुछ नहीं हो सकता है, उसके बारे में चुप रहिए. बस.

जाहिर है प्रधानमंत्रीजी ने यशवंत सिन्हा का बयान पूरी तरह पढ़ लिया होगा तभी उन्होंने जवाब दिया. पर शायद प्रधानमंत्रीजी एबीसी चैनल पर अडानी की ख़बर नहीं देख पाए वरना वो उनपर भी कुछ न कुछ जरूर बोलते.

वैसे अडानी जी को आस्ट्रेलिया के न्यूज़ चैनल एबीसी वालों पर मानहानि का मुकदमा करना चाहिए. उन्होंने ईपीडब्ल्यू में छपी ख़बर को लेकर मानहानि न की होती तो परन्जॉय गुहा ठाकुरता की नौकरी नहीं जाती. अब वही ठाकुरता एबीसी की डाक्यूमेंट्री में भी हैं. उसमें वकील प्रशांत भूषण भी हैं. जल्दी ही एबीसी चैनल के ख़िलाफ मानहानि कर उनके संपादक को भी चलता करवाएं. वरना स्वदेशी आंदोलन चला रहे बाबा रामदेव को बुरा लग जाएगा कि आप स्वदेशी संपादकों के ख़िलाफ़ मानहानि कर देते हैं और विदेशी संपादकों के ख़िलाफ़ नहीं करते हैं! मानहानि हो, भले वकील को कुछ लाख डॉलर की फीस देने में धनहानि हो.

ईश्वर सब देख रहा है. वो सिर्फ न्यूज़ चैनल नहीं देख रहा है. वो हर जगह है. फेसबुक और ट्विटर पर भी होंगे. उन पर भरोसा रखें. आप राजनीति की इस लीला को समझिए. राजनेता से सही सवाल कीजिए. यह मत पूछिए कि किस मंदिर में पहली बार गए, किस नदी की परिक्रमा की, यह पूछिए कि स्कूल में हमारे बच्चों के लिए मास्टर क्यों नहीं है, अस्पताल में डॉक्टर क्यों नहीं है. क्यों हम जब भी ग़रीब होते हैं, अमीर और भी अमीर हो जाते हैं? आपको बेवकूफ बनाने का एक धार्मिक राजनीतिक प्रोजेक्ट चल रहा है. इसका बहिष्कार कीजिए वरना जल्दी ही राजनीतिक दल आश्रम में बदल जाएंगे और आश्रम वाले वोट लेकर सरकार चलाएंगे. आप पहले भी भज रहे थे, आगे भी भजते रह जाएंगे.