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हिंदी अख़बार पार्ट-2: पुनः हाशिए पर दलित, अल्पसंख्यक और महिलाएं
हिंदी अख़बारों के संपादकीय पन्ने की जातिवार, धर्मवार और लिंग आधारित सर्वेक्षण का सिलसिला अक्तूबर महीने से न्यूज़लॉन्ड्री ने शुरू किया था. दूसरे पार्ट में स्थितियां कमोबेश वैसी ही हैं. दलित पिछड़ी जातियां संपादकीय पन्नों से गायब हैं, मुसलमानों के लिए स्पेस और कम है. हिंदी पट्टी में महिलाओं की जो दुर्दशा है, हिंदी अख़बारों के संपादकीय पन्नों पर भी वही स्थिति दिखती है. उस पर भी ज्यादातर अख़बारों का दावा है कि वे सामाजिक सुधार के अग्रिम वाहक हैं.
हिंदी अख़बारों पर जातिवादी और पितृसत्तात्मक होने के आरोप लगते रहे हैं. अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व व उनसे जुड़ी खबरों की रिपोर्टिंग भी संदिग्ध और बहुसंख्यकों के पक्ष में आपराधिक घुमाव लिए होती है. इस संदर्भ में जितेन्द्र कुमार ने न्यूज़लॉन्ड्री के लिए लिखी अपनी समीक्षा रिपोर्ट में दैनिक जागरण के पूर्व मालिक नरेंद्र मोहन के हवाले से एक महत्वपूर्ण वाकये का जिक्र किया- जब नरेंद्र मोहन ने प्रधान संपादक और सहयोगियों को बड़ी स्पष्टता से कहा था कि जिस तरह उर्दू अख़बार मुसलमानों के लिए पत्रकारिता करते हैं उसी तरह मेरा अख़बार हिन्दू पत्रकारिता करेगा.
नब्बे के दौर में भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संरचना में बड़ा बदलाव हो रहा था. ट्रिपल एम- मंडल, मंदिर और मार्केट आजादी के बाद के समाजवादी भारत के मूल ढांचे को पूरी तरह से झिंझोड़ रहा था. तब से अबतक यह एक लंबी यात्रा रही. मीडिया का विस्तार प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक होते हुए डिजिटल तक पहुंच गया है. ऐसे वक्त में जब अखबारों के वजूद तक को लेकर विमर्श उठने लगे हैं, यह ख्याल रोमांचित करता है कि क्या इतने लंबे अरसे के दौरान अखबारों के चरित्र में भी कोई बदलाव आया है?
इसी के तहत न्यूज़लॉन्ड्री ने हंदी अख़बारों के सर्वेक्षण की यह श्रृंखला पिछले महीने शुरू की थी. यहां हम संपादकीय पन्ने पर छपने वाले लेखकों की जाति, धर्म और लिंग की संरचना का अध्ययन करते हैं. उसी कड़ी में पेश है नवंबर महीने का सर्वेक्षण-
नवभारत टाइम्स दिल्ली संस्करण में कुल लेखों की संख्या (जिसमें लेखकों को बाइलाइन मिली है) है 104. जिसमें 87 लेख (83.65 %) सवर्ण लेखकों/स्तंभकारों द्वारा लिखे गए हैं. 14 लेख (13.46 %) ओबीसी और दलित लेखकों के हैं. 3 लेख (02.88%) अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले लेखकों द्वारा लिखे गए हैं.
महिला लेखकों के कुल मिलाकर 17 लेख (16.34%) छापे गए हैं. जिसमें तकरीबन पचास फीसदी लेख महिला सशक्तिकरण और सामाजिक विषयों पर लिखे गए हैं.
अक्टूबर महीने की तुलना में नवभारत टाइम्स के आंकड़ों में सुधार हुआ है. पिछली बार जहां एक भी अल्पसंख्यक लेखकों के लेख नहीं छपे थे, इस बार इनकी संख्या तीन हैं. महिला लेखिकाओं की संख्या में भी इजाफा हुआ है. पिछले महीने जहां यह संख्या 2 थी, इस बार 17 है. सवर्ण लेखकों का अनुपात बढ़ा है. साथ ही करीब पचास फीसदी से ज्यादा ओबीसी-दलित लेखकों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है.
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