लिंग, धर्म और जाति के खलनायक हिंदी पत्रकारिता के नायक

देश के प्रमुख हिंदी अखबारों के संपादकीय पन्ने का यह आंकड़ा हिंदी समाज की कड़वी सच्चाई है.

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कुछ ही दिन पहले हिंदी के प्रतिष्ठित कवि अशोक वाजपेयी ने एक साक्षात्कार में कहा था, आज का हिंदी समाज सर्वाधिक धर्मांध, सांप्रदायिक, घृणाप्रेरित और हिंसक है. न्यूज़लॉन्ड्री में उस साक्षात्कार के अंश प्रकाशित हुए थे. हिंदी समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हिंदी के अख़बार और पत्र-पत्रिकाएं भी हैं. लिहाजा हमने देश की हिंदी पट्टी में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले कुछ बड़े अख़बारों की मनोदशा को अशोक वाजपेयी के बयान की रोशनी में खंगालने का निर्णय किया.

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अखबारों के संपादकीय पृष्ठ उसकी वैचारिक जमीन का मोटी मोटा अनुमान दे देते हैं. साथ ही ये अपने समाज का भी एक हद तक प्रतिनिधित्व करते हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने एक अक्टूबर, 2017 से लेकर 31 अक्टूबर, 2017 के बीच दैनिक जागरण, अमर उजाला, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ का बारीक मुआयना किया. यहां प्रकाशित होने वाले लेखों की जातिगत, लैंगिक और धार्मिक संरचना को समझने का यह प्रयास आंखे खोलने वाला है साथ ही हिंदी पत्रकारिता की कई उलझी हुई समस्याओं के इलाज का रास्ता भी यहीं से होकर जाता है.

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इस श्रृंखला के तहत न्यूज़लॉन्ड्री अब से हर महीने हिंदी पट्टी के प्रमुख अखबारों के संपादकीय पृष्ठ की पड़ताल करेगा. इस कड़ी में हम दैनिक हिंदुस्तान के आंकड़े कुछ तकनीकी वजहों से नहीं दे पाए हैं. आगे से उसे भी इसका हिस्सा बनाया जाएगा.

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इस सर्वे ने हमारा सामना कुछ बेहद नाटकीय सच्चाईयों से करवाया मसलन अस्सी नब्बे के दशक में हिंदी वैचारिकता की पताका ढोने वाले जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर 85 फीसदी लेखक अगड़ी (सवर्ण) जातियों के हैं. इसके ठीक पीछे करोड़ी प्रसार संख्या वाला अखबार दैनिक जागरण है इसके विचार पन्नों पर 80 फीसदी सवर्ण लेखक जमे हुए हैं.
हिंदी अखबारों के संपादकीय पन्ने जिस तरह से सवर्णवादी मानसिकता की चपेट में हैं लगभग उसी तरह उन पर पुरुषवाद का काला साया भी है. नवभारत टाइम्स में सिर्फ दो फीसदी संपादकीय लेखक महिलाएं हैं. इसी तरह जनसत्ता और दैनिक जागरण भी महिलाओं से लगभग सुरक्षित दूरी बनाकर चलते हैं.

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धार्मिक लिहाज से भी हिंदी पट्टी के अखबारों की दशा दरिद्र ही दिखती है. दिल्ली से निकलने वाले महाकाय मीडिया समूह टाइम्स के हिंदी अखबार नवभारत टाइम्स में पूरे अक्टूबर महीने के दौरान एक भी अल्पसंख्यक लेखक संपादकीय पृष्ठ पर जगह नहीं बना सका. कमोबेश ऐसी ही दुर्दशा जनसत्ता की भी है. वहां पूरे महीने के दौरान 1.4 प्रतिशत लेख अल्पसंख्यक लेखकों के छपे. करोड़ी दैनिक जागरण की स्थिति थोड़ी बेहतर है. यहां 8.3 फीसदी लेख अल्पसंख्यक लेखकों ने लिखे.

सामाजिक न्याय, जातिवाद, पुरुषवाद, सांप्रदायिकता जैसी जड़वत समस्याएं हिंदी अखबारों की चौखट के भीतर सुपरमैन बन कर बिराजती हैं. हिंदी समाज को लेकर अशोक वाजपेयी का आकलन सटीक के आस-पास ही है. पढ़ें सर्वे की प्रमुख जानकारियां.

1. अमर उजाला

कुल लेखों की संख्या- 114

दिन- 30

सवर्ण- 6960.52%
ओबीसी/दलित- 14- 12.28%
अल्पसंख्यक-  31- 27.19%

अल्पसंख्यक– 31 (जिसमें 24 विदेशी  व ईसाई (77.41%), 6 मुसलमान (19.35%)

महिलाएं– 29 – 25.43%

अक्टूबर महीने में अमर उजाला दिल्ली संस्करण, के संपादकीय पेज पर कुल 114 लेख छपे. इन लेखों में 69 लेख सवर्ण लेखकों द्वारा लिखे गए जबकि महीने भर में 14 लेख ओबीसी-दलितों ने लिखे हैं. यानी कि महज 12.28 फीसदी लेख इनके हिस्से आता है.
अल्पसंख्यकों द्वारा 31 लेख लिखे गए. यहां गौरतलब है कि इन 31 लेखों में से 24 लेख (77.41 फीसदी) विदेशी तथा ईसाई लेखकों, स्तंभकारों व पत्रकारों ने लिखे. सिर्फ 6 लेख (19.35 फीसदी) मुसलमान लेखक-पत्रकारों द्वारा लिखे गए थे. इन 6 में मारूफ रज़ा, तसलीमा नसरीन व मरिआना बाबर के दो-दो लेख थे.

इसी तरह कुल 114 लेखों में सिर्फ 29 लेख महिला लेखक-पत्रकारों द्वारा लिखे गए. मतलब 25.43 फीसदी महिलाओं का प्रतिनिधित्व रहा. जबकि इसमें भी महीने भर में 5 लेख तवलीन सिंह के छापे गए जो मूल रूप से अंग्रेजी की पत्रकार हैं.

अमर उजाला के 30 फीसदी से ज्यादा लेख अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित कर छापे गए.

2. दैनिक भास्कर

कुल लेखों की संख्या– 86

दिन – 27

सवर्ण– 57 – 66.27%
ओबीसी/दलित– 9 – 10.46%
अल्पसंख्यक – 20 – 23.25%

अल्पसंख्यक– 20 (18 विदेशी ( 90%), 2 मुस्लिम (10%) )

महिलाएं- 16 – 18.60%

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर कुल 86 लेख छपे थे. जिसमें 57 लेख सवर्ण लेखकों की कलम से आए. वहीं 9 लेख (10.46 फीसदी) ओबीसी-दलितों द्वारा लिखे गए हैं. संपादकीय पृष्ठ पर अल्पसंख्यकों द्वारा लिखे 20 लेखों (23.25 फीसदी) को जगह दी गई.
हैरत कि बात है कि इन 20 में से कुल 18 लेख (90 फीसदी) विदेशी व ईसाई लेखकों द्वारा लिखे गए. जबकि सिर्फ 2 लेख (10 फीसदी) भारतीय मुसलमान लेखकों-स्तंभकारों द्वारा लिखा गया.

दैनिक भास्कर में विजयशंकर मेहता का प्रेरणादायी, मोटिवेशनल कॉलम जीने की राह को संपादकीय पृष्ठ पर छापता है. महीने भर में लगभग बीस दिन उनका कॉलम छपा है.
कुल 86 में से महज 16 लेख (18.60 फीसदी) महिला लेखकों-स्तंभकारों द्वारा लिखे गए. हालांकि एक रविवार को भास्कर ने वुमेन भास्कर नाम का एक सप्लिमेंट पेज लगाया था.
भास्कर के 32-35 फीसदी लेख न्यूयॉर्क टाइम्स और टाइम्स मैगजीन से अनूदित होते हैं. साथ ही दैनिक भास्कर 30 वर्ष से कम उम्र के युवा लेखकों को चार सौ शब्दों का एक कॉलम सप्ताह के पांच दिन देता है.

3. दैनिक जागरण

कुल लेखों की संख्या– 60

दिन – 30

सवर्ण– 48- 80%
ओबीसी/दलित– 7 – 11.6 %
अल्पसंख्यक– 5 – 08.33%

महिलाएं– 8 – 13.33%

दैनिक जागरण के कुल छपे 60 लेखों में 48 लेख सवर्णों के हैं. वहीं 7 लेख ओबीसी- दलितों (11.60 फीसदी) और 5 लेख (08.33 फीसदी) अल्पसंख्यकों द्वारा लिखे गए.
अल्पसंख्यकों में कोई भी ईसाई लेखक नहीं था. पांचों इस्लाम धर्म से ताल्लुक रखने वाले लेखक-स्तंभकार थे.

वहीं महज पांच लेख महिला लेखिकाओं द्वारा लिखे गए. यह कुल लेखों का सिर्फ 13.33 फीसदी रहा.

दैनिक जागरण में अनूदित लेखों की संख्या भास्कर और अमर उजाला के अनुपात में काफी कम रहे.

4. जनसत्ता

कुल लेखों की संख्या– 70

दिन – 30

सवर्ण– 60 – 85.71%
ओबीसी/दलित– 9 – 12.85%
अल्पसंख्यक– 1 – 1.42%

महिलाएं– 10 – 14.28%

जनसत्ता के कुल 70 लेखों में 60 लेख अगड़ी जाति के लेखकों द्वारा लिखे गए. 70 में से 9 लेख (12.85 फीसदी) ओबीसी-दलित और सिर्फ 1 लेख (1.42 फीसदी) अल्पसंख्यक लेखक-स्तंभकार द्वारा लिखा गया.

महिलाओं का प्रतिनिधित्व यहां भी बाकी अखबारों की तरह ही रहा. 70 में से 10 लेख (14.28 फीसदी) महिलाओं ने लिखे.

तवलीन सिंह, सुधीश पचौरी और चिदंबरम जनसत्ता के प्रमुख स्तंभकारों में हैं.

5. नवभारत टाइम्स

कुल लेखों की संख्या– 71

दिन – 26

सवर्ण– 50 – 70.42%
ओबीसी/दलित– 21- 29.57%
अल्पसंख्यक– 0 – 0%

महिलाएं– 2 – 2.81%

नवभारत टाइम्स के कुल लेखों की संख्या है 71. जिसमें 50 सवर्णों और 21 ओबीसी-दलित लेखकों (29.57 फीसदी ) द्वारा लिखे गए. हैरत है कि एक भी लेख (0) अल्पसंख्यक लेखकों द्वारा नहीं लिखा गया.

महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी नवभारत टाइम्स में बाकी अखबारों की तुलना में दयनीय रहा. सिर्फ दो लेख महिलाओं द्वारा लिखे गए. यह बनता है कुल लेखों का सिर्फ 2.81 फीसदी.

चंद्रभूषण, संजय कुंदन और राहुल पांडे नवभारत के मुख्य स्तंभकारों में हैं.

अन्य निष्कर्ष

1.पांचों अखबार जिनपर हमारा शोध आधारित रहा, सभी में अगड़ी जाति के लेखकों का एकतरफा वर्चस्व है.

2.ओबीसी-दलितों का प्रतिनिधित्व तो कम है ही साथ ही इन समुदायों के उत्थान के प्रश्नों पर आधारित संपादकीय लेखों की भी कमी है.

3.तसलीमा नसरीन और तवलीन सिंह को छोड़कर ज्यादातर महिला लेखिकाओं ने गैर-राजनीतिक विषयों पर आलेख लिखे हैं. ठोस, राजनीतिक विषयों पर महिलाओं ने कम लेख लिखा.

4.सरकार की नीतियों की आलोचना से जुड़े लेख उसके समर्थन में लिखे लेखों की तुलना में बहुत कम हैं. अधिकतर राजनीतिक लेखों का भी सुर सत्ता के पक्ष में है.

5.अमर उजाला और दैनिक भास्कर में 30 फीसदी से ज्यादा संपदकीय लेख अंग्रेजी से अनुवाद होकर प्रकाशित हो रहे हैं.

6.दैनिक भास्कर का संपादकीय सिर्फ आधे पेज होता है. बाकी के आधे पन्ने पर विदेशी अखबारों की अनुदित खबरें होती हैं.

(नोट: जाति और अल्पसंख्यकों के आंकड़ों में 1 से 2 फीसदी का अंतर हो सकता है.)

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