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स्वच्छ भारत अभियान: अभियान सफल, स्वच्छता असफल

हाल ही में  स्क्रॉल नामक न्यूज़ वेबसाइट को आरटीआई से मिले एक जवाब के जरिए पता चला की स्वच्छ भारत अभियान में 530 करोड़ रुपए अब तक इस अभियान के विज्ञापन पर खर्च हुए हैं. स्वच्छ भारत के ‘कैंपेन डायरेक्टर’ युगल जोशी ने स्क्रॉल को यह भी बताया की केंद्रीय बजट का कोई भी हिस्सा ‘ग्रास-रूट लेवल’ पर जागरूकता लाने के लिए नहीं इस्तेमाल हुआ. इन खुलासों के बीच एक सवाल उठता है की सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ भारत के अंतर्गत जो कदम उठा रही है, क्या वे कोई असर छोड़ पा रहे हैं?

6,260 लाख से ज़्यादा लोग भारत में खुले में शौच करते हैं. यह दुनिया के खुले में शौच करने वाले लोगों की 59 फीसदी आबादी है. अक्टूबर 2014 में मोदी जी ने भव्य स्तर पर भारत को निर्मल बनाने का अभियान शुरू किया था. अगर उनकी मानें तो भारत के 2,00,000 गांव खुले शौच से मुक्त हो चुके हैं.

स्वच्छ भारत अभियान का लक्ष्य है की अक्टूबर 2019 तक 12 करोड़ शौचालय बनाकर खुले में शौच को बंद किया जाये. पर शायद इस नीति की सच्चाई भी ‘शोर ज़्यादा और काम कम’ जैसी है.

सरकार यह मानती है की अगर ग्रामीण लोगों के बीच शौचालाय बनाए जाएं तो वे खुले में शौच करना बंद कर देंगे. इसलिए शौचालयों का निर्माण ज़ोर-शोर से शुरू हुआ और सरकार का दावा है कि अब तक 54.87 करोड़ शौचालाय बना चुकी है. जमीन पर स्थितियां नहीं बदली. ऐसे में एक शंका उठती है कि शायद शौचालय की कमी इसकी असली वजह नहीं हो.

हम इसे इस तरह से भी देख सकते हैं कि शौच करना व्यक्ति के सबसे निजी कार्यों में से एक है. अगर लोगों के खुले में शौच करने का कारण शौचालय की कमी होती तो वे इसे खुद भी तो बनवा सकते थे. सब नहीं तो ज्यादातर लोग ऐसा कर सकते थे. कौन अपने बच्चों, महिलाओं को इतनी दिक्कत का सामना करने देगा, वह भी रोज़-रोज़. और अगर मान लिया जाय कि यही समाधान है- तो बाकी सरकारों ने अभी तक यह विकल्प क्यों अपनाया?

सरकारों ने पहले भी सोचा था! सबसे पहले यह समाधान ‘सेंट्रल रूरल सैनिटेशन प्रोग्राम’ के अंतर्गत 1986 में लागू हुआ था. दस साल बाद मालूम हुआ कि शौचालय बनाने के बाद भी लोग उनका प्रयोग बिलकुल नहीं कर रहे थे. इसलिए 1999 में ‘टोटल सैनिटेशन कैम्पेन’ की शुरुआत हुई. इसके अंतर्गत बीपीएल कार्ड वालों को 3200 रुपए की सहायता दी गयी ताकि लोग अपना शौचालय बनाकर इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित हों.

सैद्धांतिक तौर पर यह नीति ठीक थी लेकिन इसका प्रबंधन ठीक से नहीं हुआ लिहाजा स्वच्छता में कुछ खास विकास नहीं हुआ.

दस साल बाद, 2012 में ‘निर्मल भारत अभियान’ की  घोषणा हुई. इसमें पिछली 3200 रुपये की सहायता राशि को बढ़ाकर 5500 रुपये कर दिया गया इस उम्मीद के साथ कि लोग अपने शौचालाय खुद बनायेंगे और उनका उपयोग करेंगे. तो पिछले 30 सालों से सरकारें एक ही चीज़ करने की कोशिश रही हैं, पर साल-दर-साल नाकाम हो रही हैं.

प्रिंसटन यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट यही बात को दोहराते हुए कहती है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक कारणों की वजह से लोग आज भी शौचालयों में न जाकर खुले में शौच करना पसंद करेंगे. शौचालय बनाने से खुले में शौच कम नहीं हो रहा क्योंकि शौचालय की कमी समस्या नहीं है. यह रिपोर्ट और कारणों का उल्लेख करती है जिसे मोदी सरकार को ध्यान से पढ़ कर इसे लागू करने की कोशिश करनी चाहिए.

समस्या इससे कहीं ज़्यादा गंभीर है और समाधान भी. स्वच्छ भारत अभियान के विज्ञापनों के कारण, सरकार के ऊपर नैतिक दबाव है कि यह योजना सफल हो. राज्य सरकारें और ग्राम पंचायतों पर भी वह दबाव बढ़ा है और इस दबाव की वजह से सरकारों ने कई कदम उठाये हैं. मध्य प्रदेश सरकार ने कानून बना कर- जिन लोग जिनके घर में फ्लश वाले शौच नहीं हैं वे स्थानीय पंचायत चुनावों में खड़े नहीं हो सकते- इसे लागू करवाने की कोशिश की है.

छत्तीसगढ़ में कई परिवारों को खाना मिलना बंद हो गया क्योंकि उनके पास घर पर शौचालय नहीं है. छत्तीसगढ़ से तो एक बेहद दुखद ख़बर भी आई कि एक आदमी को निर्ममता से पीटा गया और चाकू मारकर उसकी हत्या कर दी गई क्योंकि उसके पास घर में शौचालय बनाने के लिए पैसे नहीं थे.

कारण चाहे जो भी हो, किसी की हत्या समस्या का समाधान नहीं हो सकती. अगर लोगों को जबरन शौचालय बनवाने पर मजबूर किया जाये तो वे शायद दहशत में आकर उनका प्रयोग कर लेंगे पर इससे समाजिक समाधान नहीं निकलेगा. लोगों को मजबूर करने के बजाय उनको खुले में शौच के विरुद्ध कारणों के प्रति जागरूक करना होगा ताकि वे वह कारण अपने भाई-बहनों-परिजनों को भी बता-समझा सकें. हमें अपने यहां समाज द्वारा समर्थित संपूर्ण स्वच्छता की योजना को अपनाना चाहिए और उसके सारे पहलुओं को बारीकी से परख कर लागू करना चाहिए.

बड़ा सवाल यह भी है की अगर स्वच्छ भारत अभियान इतना असफल है तो सरकार अपने आंकड़ों में इतनी बढ़ोत्तरी कैसे दिखा रही है? भारत सरकार की गाइडलाइन्स बेहद प्रभावशाली हैं. इन गाइडलाइन्स में एक गांव को स्वच्छ घोषित करने के लिए दो नियमों का लागू होना अनिवार्य है:

1. कोई मल या विष्ठा का खुले में नहीं दिखना चाहिए.

2. हर घर या समुदाय को मल से निपटने के लिए ‘सेफ टेक्नोलॉजी’ का इस्तेमाल करना चाहिए.

सिर्फ ये दो नियम क़ायदे से किसी गांव को स्वच्छ घोषित करने के लिए पर्याप्त नहीं है. फिर भी अगर इनको मान लिया जाये तो दूसरा विषय है कि स्वच्छ गावों की जांच करता कौन है? क्योंकि स्वच्छता राज्य सरकार का विषय है, इसकी जांच की जिम्मेदारी ग्रामसभा पर पड़ती है. भारत की 6 लाख ग्राम सभाओं में से सिर्फ 17 को अभी तक सत्यापित किया गया है. कश्मीर में सिर्फ 1.67% ग्राम, बिहार में 2.85% और ओडिशा में 5.29% ग्रामों को सत्यापित किया गया है.

गुजरात, केरल और हिमाचल प्रदेश में ये आंकड़े 85% से ज्यादा हैं. मोदीजी ने अपने एक भाषण में भारत के 2,00,000 गांवों को खुले शौच से मुक्त बताया, पर ग्राम सभाओं ने सिर्फ 1,00,500 गांवों का ही सर्वेक्षण किया है.

स्वच्छ भारत अभियान में कई कठिन समस्याएं हैं पर सरकार इनको ठीक करने की जगह गलत-सलत आंकड़े दिखा कर जनता को भरमा रही है. वर्ल्ड बैंक ने इस अभियान की आलोचना की और इसे असंतोषजनक माना. राजनीतिक दांवपेंच के चलते इस योजना को सफल बताया जा रहा है लेकिन अगर इस सरकार को सच में भारत को स्वच्छ बनाना है तो इस अभियान को एक नई दिशा की ज़रूरत है.