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राजनीति गंवाकर राज्यसभा जीतने चले अरविंद केजरीवाल

2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान एक ही दिन में घटी दो घटनाएं अरविंद केजरीवाल के व्यक्तित्व का दो विरोधाभासी स्वरूप उजागर करती हैं. ये घटनाएं हमें अरविंद के प्रति आसक्त भी करती हैं और उनके प्रति आशंका भी पैदा करती हैं.

अरविंद मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ने बनारस चले गए थे. अपने चुनाव अभियान के पहले ही दिन अरविंद केजरीवाल ने सुबह-सुबह गंगा स्नान किया और शाम को तेलियाबाग मैदान में आयोजित जनसभा को बीच में पांच मिनट के लिए स्थगित करवा दिया क्योंकि दालमंडी के पास वाली मस्जिद में अजान शुरू हो गई थी.

अरविंद केजरीवाल से देश की जनता वही सारे दिखावे और नौटंकियों की अपेक्षा नहीं कर रही थी जो हमारे समय के बाकी नेताओं के हथकंडे हैं. हम राजनीति को धारणाओं और प्रतीकात्मकता से परे रखकर यथार्थ में बदलाव वाली उस राजनीति की अपेक्षा अरविंद से कर रहे थे जिसका असर इस देश के लाखों-लाख जनता के जीवन पर हो. वो जनता जो आज भी सरकार और विकास की छाया से दूर है. उनकी जिंदगियों में बदलाव की अपेक्षा, जिन्हें इस देश के सत्ता प्रतिष्ठान से कोई उम्मीद ही नहीं है.

ऐसे लोगों में भरोसा पैदा करवा पाने वाली राजनीति की उम्मीद लोग अरविंद केजरीवाल से कर रहे थे. खुद अरविंद की राजनीतिक यात्रा इसी वादे और दावे के साथ शुरू हुई थी कि देश के एक बड़े हिस्से को साफ-सुथरी, वैकल्पिक राजनीति दिलाएंगे. बानारस पहुंचने तक उनके ऊपर भगोड़े का ठप्पा लग चुका था. दिल्ली में 49 दिन के भीतर अपनी अल्पमत वाली सरकार का उन्होंने इस्तीफा दे दिया था.

ख़ैर स्नान और अजान की राजनीति के बाद भी अरविंद बनारस का चुनाव हार गए. लेकिन इससे एक खटका जरूर हो गया कि क्या अरविंद वह सब कर सकते हैं जिसका उन्होंने दावा किया था. आज उस घटना के लगभग चार साल बाद अरविंद केजरीवाल अपनी राजनीतिक पूंजी लगभग गंवाने के मुंहाने पर नज़र आ रहे हैं. वह पूंजी है ईमानदारी.
अपने समय के एक महत्वपूर्ण आंदोलन पर बतौर पत्रकार लगातार नज़र रखने के कारण आम आदमी पार्टी से जुड़े कुछ निष्कर्ष हम यहां दे रहे हैं. ताजा विवाद पैदा हुआ है राज्यसभा की तीन सीटों के लिए होने वाला चुनाव. आप के पास तीनों सीटों पर जीतने लायक पर्याप्त संख्या है. बीते कुछ समय से पार्टी में इन तीनों नामों को लेकर चर्चा चल रही थी. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन, भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी जैसे तकरीबन 18 लोगों से पार्टी ने संपर्क किया लेकिन किसी ने भी आम आदमी पार्टी के टिकट पर राज्यसभा जाने में रुचि नहीं दिखाई.

दूसरी तरफ पार्टी के भीतर कुमार विश्वास जैसे नेता भी थे जो राज्यसभा जाने की अपनी इच्छा को लगातार जाहिर कर रहे थे. लेकिन पार्टी शीर्ष नेतृत्व (अरविंद, मनीष) से उनकी अनबन के चलते उनका राज्यसभा पहुंचना पहले से ही असंभव दिख रहा था. ऐसा ही हुआ भी.

बुधवार को जब तीनों नामों की सूची पीएसी की बैठक के बाद जारी हुई तब हमारे सामने तीन नाम आए. एक नाम पार्टी के नेता संजय सिंह का है बाकी दो नाम इतने अनजाने हैं कि ज्यादातर पत्रकारों को ही नहीं पता था, आम आदमी की बात कौन करे- सुशील गुप्ता, नारायण दास गुप्ता.

सुशील गुप्ता की पहचान यह है कि बीते नवंबर महीने के आखिर तक वे दिल्ली कांग्रेस के व्यापार प्रकोष्ठ से जुड़े रहे करोड़पती नेता हैं, जबकि एनडी गुप्ता की पहचान ये है कि वे चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, आप का वित्तीय कामकाज देखते रहे हैं और खुद शहर की नामी सीए फर्म के मालिक है.

नामों के उजागर होते ही अटकलों का बाजार गर्म हो गया. हालांकि ये अटकलें है इसलिए हम उन अटकलों को सच नहीं मानकर बात आगे बढ़ाएंगे. क्या अरविंद केजरीवाल ने किसी तरह के वित्तीय लेनदेन के तहत इन दो नामों को राज्यसभा भेजने का फैसला किया है. पीएसी में जिस तरीके से इन नामों पर मुहर लगी वह पहले से ही इस पार्टी में संकुचित हो चुके आम सहमति और लोकतांत्रिक स्पेस को और कम किया है.

अरविंद केजरीवाल के सहयोगी रहे योगेंद्र यादव ने इशारों-इशारों में कुछ बात कही जिसका सीधा सार यह है कि उन्होंने इन नामों की आड़ में कुछ भ्रष्टाचार किया है. योगेंद्र कहते हैं, “पिछले तीन साल में मैंने ना जाने कितने लोगों को कहा कि अरविंद केजरीवाल में और जो भी दोष हों, कोई उसे ख़रीद नहीं सकता. इसीलिए कपिल मिश्रा के आरोप को मैंने ख़ारिज किया. आज समझ नहीं पा रहा हूं कि क्या कहूं? हैरान हूं, स्तब्ध हूं, शर्मसार भी.”

योगेंद्र का यह कहना कि कोई उन्हें खरीद नही सकता, लेकिन आज वे शर्मसार और स्तब्ध हैं. तो क्या अब अरविंद को खरीदा जा सकता है? योगेंद्र के ट्वीट का एक संदेश यह है. अरविंद की ईमानदारी पर भरोसा करने वाले तमाम हैं. वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने एक ट्वीट में कहा कि मन मानने को तैयार नहीं होता कि अरविंद भ्रष्ट हो सकते हैं.

जिस पार्टी से लड़ने के लिए राजमोहन गांधी, मीरा सान्याल, मेधा पाटकर, सोनी सोरी, बाबा हरदेव जैसे लोग लाइन लगाए हुए थे, उसे कोई सुचिंतित विचारक, वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता क्यों नहीं मिला? खुद पार्टी के भीतर अशीष खेतान, आशुतोष, कुमार विश्वास जैसे चेहरे थे.

जिन कुमार विश्वास को लेकर लंबे समय से खींचतान चल रही थी वे किसी भी बुरी से बुरी मजबूरी में आप और अरविंद के लिए इन सबमें बेहतर विकल्प थे. लेकिन अरविंद केजरीवाल ने मोटी थैली वाले एक दलबदलू को तरजीह दी, यह अपने आप में अरविंद की नीयत पर सवाल खड़ा करने के लिए पर्याप्त है.

तस्वीर को एक बार अरविंद के सिरे से भी देखना जरूरी है. अरविंद को एक पूरी पार्टी की जिम्मेदरी उठानी है. उस पार्टी की जिसे कॉरपोरेट चंदा नहीं देता, जनता के चंदे से आज भारी-भरकम खर्च वाले चुनाव लड़ना नामुमकिन हो गया है. खुद आप के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि कई बार अरविंद यह स्वीकार कर चुके हैं कि अब दस-दस रुपए के चंदे का जुगाड़ करना संभव नहीं है, पार्टी को एक मोटा फाइनेंसर चाहिए.

अगर इस बात में सच्चाई है तो पहला सवाल यही पैदा होता है कि पार्टी को पैसेवाले कि ऐसी क्या आपात जरूरत आन पड़ी थी. अरविंद मुख्यमंत्री हैं, पार्टी दिल्ली की सत्ता में हैं. विस्तार के लिहाज से भी ऐसी कोई महत्वाकांक्षी योजना अभी सामने नहीं है जिसके लिए मोटे पैसे की जरूरत हो. पार्टी अपने लोगों को साधते हुए सधे क़दमों से आगे बढ़ सकती थी.
तो क्या इन तीनों नामों में अरविंद केरीवाल की किसी मजबूरी या अवसरवादी लक्षण दिखाई दे रहे हैं. बाकी लोगों की तरह ही मेरा मन भी यह मानने को नहीं करता कि अरविंद भ्रष्ट हो सकते हैं, लेकिन…

अरविंद केजरीवाल की व्यक्तिगत शुचिता पर तो एक बार के लिए भरोसा किया जा सकता है लेकिन एक भारी-भरकम पार्टी की मजबूरियों और तनावों से दबे अरविंद की शुचिता पर भरोसा करना दोधारी तलवार पर चलना है. इसीलिए शुरुआत में बनारस की उस कहानी का जिक्र हुआ कि अवसरानुकूल ट्विस्ट और टर्न केजरीवाल भी ले सकते हैं.