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केदारनाथ सिंह: मुहावरों के विरुद्ध एक मुहावरा

समकालीन कविता के समादृत नाम केदारनाथ सिंह के न रहने से हिंदी साहित्य संसार में शोक की लहर है. इन क्षणों में कुछ मुहावरों से काम लेने का चलन है जैसे- एक युग का अंत.

इस चलन में केदारनाथ सिंह (7 जुलाई, 1934 – 19 मार्च, 2018) के युग पर सोचते हुए यह बहुत स्पष्ट नजर आ सकता है कि ‘केदार-काव्य’ मुहावरों के विरुद्ध जाते हुए मुहावरा बन जाने का काव्य है.

आधुनिक कविता में आने वालों के लिए केदारनाथ सिंह की कविता एक प्राथमिक पाठ की तरह है और केदारनाथ सिंह एक विद्यालय की तरह. एक उम्र पर आकर इससे आगे बढ़ना होता है, लेकिन दुर्भाग्य से हिंदी कविता में केदार-काव्य ने कुछ इस प्रकार की परंपरा का निर्माण किया है, जिसमें ड्राप-आउट्स बहुत हैं. यों प्रतीत होता है जैसे केदार-काव्य के बाद उन्होंने कुछ पढ़ा ही नहीं.

कुछ स्थूल अर्थों में कहें तो जेएनयू, डीयू, बीएचयू, एयू से पढ़ाई पूरी करने के बावजूद भी कविता के संसार में वे ‘पांचवी पांच से तेज़’ नजर नहीं आते. इस प्राथमिकता का एक दुखद पक्ष यह भी है कि यह छोड़ने वाले को आवारा नहीं, भक्त बनाती है; अध्यवसायी नहीं अधकचरा बनाती है.

यह इसलिए है क्योंकि केदार-काव्य का मुरीद होना आसान है, केदार-काव्य का रियाज आसान नहीं है. यह हो ही नहीं सकता. क्योंकि उसकी सारी संभावनाएं उसके सर्जक द्वारा सोखी जा चुकी हैं.

केदारनाथ सिंह की कविताओं की पहली किताब ‘अभी, बिल्कुल अभी’ शीर्षक से 1960 में आई और दूसरी 1980 में ‘जमीन पक रही है’ शीर्षक से. ये 20 वर्ष केदारनाथ सिंह और हिंदी कविता दोनों के ही निर्णायक वर्ष हैं. इनमें ही हिंदी कविता वह स्वरूप बना, जिसे आज आधुनिक या समकालीन या मुख्यधारा की कविता कहते हैं.

इन 20 वर्षों में ही हिंदी कविता के सारे जरूरी और गैरजरूरी आंदोलन हुए और मुक्तिबोध, धूमिल, रघुवीर सहाय जैसे कवि पहचाने गए. इसके साथ ही कविता में क्या हो, क्या न हो, क्या कहा जाए, क्या न कहा जाए, कैसे कहा जाए, कैसे न कहा जाए… यह सब तय हुआ.

लेकिन हिंदी में कवि-निर्माण सारी स्थितियों में कविता से ही नहीं होता है. इसमें महानगर और पद-पुरस्कार भी उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं. केदारनाथ सिंह के बाद न किसी दूसरे कवि के जीवन में ये 20 वर्ष आए और न ही हिंदी कविता के. इस बीच केदारनाथ सिंह अपनी स्वीकृति और लोकप्रियता के दबाव में कहीं न कहीं अयोग्यताओं को प्रतिष्ठित और स्थापित करने-कराने में भी लगे रहे.

यहां एक व्यक्तिगत प्रसंग याद आता है. वह साल 2013 की गर्मियों की एक दुपहर थी, हिंदी के एक युवा-आलोचक को गई शाम ही हिंदी में आलोचना के लिए दिया जाने वाला एक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला था. वह आगरा से आया था और इस दुपहर उसने तय किया था कि वह केदारनाथ सिंह से मिलकर ही आगरा लौटेगा. उसके साथ हिंदी के एक और कवि-आलोचक भी थे. इन दोनों के बीच में इन पंक्तियों का लेखक भी था.

कवि-आलोचक ने केदार-आवास की सीढ़ियां चढ़ते हुए इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि उनके पैर छू लेना, क्योंकि मैं छूता हूं, वह मेरे गुरु रहे हैं— जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में.

केदारनाथ सिंह के पैर इतने नजदीक आ गए थे कि अब स्पर्श-विमर्श की गुंजाइश बची नहीं थी. उसे किसी आगामी तात्कालिकता के लिए बचा रखना था.

यह व्यक्ति केदारनाथ सिंह से इन पंक्तियों के लेखक की पहली मुलाकात थी. उन्होंने उस मुलाकात में लेव तोल्स्तोय और व्लादिमीर कोरेलेंको से जुड़ा एक संस्मरण सुनाते हुए कहा, एक बार की बात है, तोल्स्तोय एक साहित्यिक सभा में बैठे हुए थे. इस सभा में उनके प्रेमी, प्रशसंक, अनुयायी, शिष्य और चापलूस भरे हुए थे. उनमें से अधिकतर उनसे तब के युवा लेखक कोरेलेंको की बुराई कर रहे थे कि वह आपकी बहुत आलोचना करता है और अक्सर आपको बुरा कहता रहता है. सभा और सभा के केंद्रीय व्यक्तित्व यानी तोल्स्तोय इससे बिल्कुल अंजान थे कि कोरेलेंको भी इस सभा में कहीं पीछे बैठा यह सब सुन रहा है.

तोल्स्तोय ने कोरेलेंको की निंदा कर रहे लोगों को डपटते हुए कहा कि चुप हो जाइए आप लोग, कोरेलेंको मुझे बहुत प्रिय है और क्या तो अच्छा उपन्यास लिखा है उसने. तोल्स्तोय, कोरेलेंको के नए उपन्यास ‘द ब्लाइंड म्यूज़ीशियन’ की बात कर रहे थे.

कोरेलेंको यह सब सुनकर बहुत भावुक हो गया और सभा को चीरते हुए तोल्स्तोय के सामने आया और बोला मुझे माफ कीजिए आप, मैं कोरेलेंको हूं. तोल्स्तोय ने कोरेलेंको को गले लगा लिया.

केदारजी बोले कि बाद में कोरेलेंको ने अपने एक संस्मरण में लिखा कि उस रोज तोल्स्तोय की बांहों में आकर मुझे लगा कि यह संसार की सबसे सुरक्षित जगह है.

केदारनाथ सिंह की मृत्यु पर भले ही राष्ट्रीय शोक न हो रहा हो, लेकिन कविता के एक युग के वह गवाह रहे हैं. उन्होंने हिंदी कविता के मिजाज को बनते-बिगड़ते-बदलते देखा. उनका कद हिंदी कविता में तोल्स्तोय सरीखा है, यह मैं नहीं कहूंगा, मेरी इतनी हैसियत नहीं है. यह नामवर सिंह और विष्णु खरे की शैली और उनका शगल है. वे हर किसी को रवींद्रनाथ टैगोर, बेर्तोल्त ब्रेख्त और रोज़ा लुक्सेम्बर्ग जैसा बताते रहते हैं.

लेकिन यह तो बेशक कहा जा सकता है कि केदारनाथ सिंह की कविता इस असुरक्षित संसार में हमारे लिए संसार की सबसे सुरक्षित जगह है, जो जब तक यह संसार है संभवतः इतनी ही सुरक्षित बनी रहेगी.