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कालाः कई पाठों को संभव बनाती फिल्म

सत्तर के दशक में फिल्मकार के बालाचंदर ने बंगलुरू में पले-बढ़े मराठी मूल के शिवाजी राव गायकवाड़ का ऑडिशन लेने के बाद अपने सहयोगी को कहा था- ‘देखते रहो. इस लड़के की आंखों में आग है. एक दिन यह खास मुकाम हासिल करेगा.’ साल 1975 में अपनी पहली फिल्म ‘अपूर्व रागंगल’ की जोरदार कामयाबी के बाद शिवाजी से रजनीकांत बने इस अभिनेता का स्टारडम आज भी जादू की तरह दर्शकों पर हावी है और वे उम्र के सातवें दशक में भी एशिया के सबसे महंगे सितारे हैं. इस मामले में सिर्फ जैकी चांग ही उनसे आगे हैं.

रजनीकांत की कामयाबी का हर मोड़ किंवदंती बन चुका है. सबसे अधिक बजट की फिल्म हो, अत्याधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल की बात हो, अजीबो-गरीब अंदाज से परदे पर अदाकारी दिखाना हो- इन सबमें पहले पायदान पर रजनी सर ही हैं. उनकी एक उपलब्धि यह भी है कि वे अकेले ऐसे भारतीय अभिनेता हैं जिसने सिनेमा के चार रूपों- ब्लैक एंड व्हाइट, रंगीन, थ्रीडी और मोशन कैप्चर तकनीक- में काम भी किया है. भारत समेत बाहर के देशों में भी उनके प्रशंसक हैं और एक आकलन के मुताबिक उनके फैन क्लबों की तादाद 50 हजार के आसपास है.

बंगलुरु में बस कंडक्टर के रूप में 750 रुपये मासिक कमाने वाले युवा की यह उपलब्धि किसी दंतकथा से कम नहीं है. ऐसे में देशभर के सिनेमाघरों में चल रही ‘काला’ या ‘काला करिकालन’ की सफलता भी कोई नयी बात नहीं है. जो नयी बात है, वह यह कि इस फिल्म के संदर्भ में चल रही चर्चाएं उनके स्टारडम से उतनी जुड़ी हुई नहीं हैं, जितनी फिल्म की कहानी, किरदारों और निर्देशक पा रंजीत की राजनीति से संबद्ध हैं.

आम तौर पर पॉपुलर फिल्में, खासकर बड़े सितारों की फिल्में, इस तरह की बहस का मौका नहीं देती हैं. एक स्तर पर दशकों पहले तमिल सिनेमा में द्रविड़ राजनीति परदे पर खुलकर प्रतिबिंबित होती थी, पर लंबे अरसे से हाशिये की राजनीति को इस तरह के अवसर नहीं मिले हैं. हिंदी सिनेमा कभी गरीबों और किसानों की मुश्किलों को अपना मुद्दा बनाता था, पर जाति और धर्म जैसे विषयों को उसने गंभीरता से नहीं पेश किया है. ‘काला’ इन कमियों-खामियों को दूर करने की कोशिश करती है. ऐसे में जरूरी है कि इस फिल्म का बहुआयामी विश्लेषण हो. यह फिल्म अपने अनेक पाठ के मौके भी मुहैया कराती है.

दलित-बहुजन नायक गढ़ने की प्रक्रिया

साल 2016 में ‘कबाली’ में भी पा रंजीत ने दलित दावे को प्रभावी ढंग से रखा था. उस फिल्म में भी मुख्य भूमिका रजनीकांत की थी. रंजीत अपनी पहली फिल्म ‘अट्टाकाथी’ में भी दलित संस्कृति और उसकी चिंता को व्यक्त कर चुके हैं. उनका कहना है कि पहले जो सिनेमा में दलितों की प्रस्तुति हुई है, वह गैर-दलितों द्वारा किया गया है जिनकी नज़र में दलित दया के पात्र हैं तथा उनकी दुनिया उदास और बेरंग है.

रंजीत अपने समाज को लेकर बनी इस समझ को उलटने की कोशिश कर रहे हैं. इस मायने में वे नागराज मंजुले और नीरज घेवन जैसे फिल्मकारों की नयी पौध का हिस्सा हैं जो अपने समाज की कहानी, आकांक्षा और फंतासी को खुद रचने की जिद्द पाले हुए है. इस जिद्द का एक पहलू यह भी है कि वे सिर्फ दलित फिल्मकार की पहचान नहीं चाहते, बल्कि देश और सिनेमा में सच्चे अर्थों में बहुलता और बराबरी के आग्रही हैं.

इसी जिद्द के कारण रंजीत का काला हजारों सालों से श्रेष्ठता का छद्म ओढ़े आपराधिक धार्मिकता और भ्रष्टाचार से टकरा जाता है. वह विषमता के विरुद्ध आंबेडकरवादी वैचारिकी के छाते तले भीमजी से लेनिन जैसे चरित्रों के साथ समता और सहभागिता का महाआख्यान रचता है. काले, नीले और लाल का रंगाचार दलित को बहुजन में बदल देता है जहां जाति और वर्ग को लेकर सचेत समझ आगे की राह बनाती है.

लेकिन, यह भी समझना होगा कि इन दलित फिल्मकारों के काम को सिर्फ जातिगत आधार पर विश्लेषित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि सिनेमा की समृद्धि में आवश्यक योगदान की तरह देखा जाना चाहिए. कला, शिल्प और विषयवस्तु के लिहाज से अपार संभावनाओं का दरवाजा खुल रहा है.

‘काला’ है कौन?

किसी भी फिल्म या कहानी का कोई-न-कोई संदर्भ-बिंदु होता है जिसके इर्द-गिर्द विभिन्न तत्वों को मिलाकर कथानक तैयार किया जाता है. पिछले साल भर ‘काला’ को लेकर यह सवाल उठाया जाता रहा है कि यह फिल्म धारावी या मुंबई के किस ‘डॉन’ के ऊपर आधारित है.

किसी जमाने में धारावी की झोपड़पट्टी में अपनी धाक रखनेवाले व्यवसायी-डॉन तिरावियम नादर के बेटे-बेटी का आरोप है कि यह फिल्म उनके पिता की कहानी है. निर्माता और निर्देशक से इस बात को स्वीकार करने और फिल्म में इसका उल्लेख करने की मांग करते हुए तिरावियम नादर के पुत्र और वरिष्ठ पत्रकार जवाहर नादर ने फिल्म उद्योग और अदालत का दरवाजा भी खटखटाया है. उनकी एक अर्जी तकनीकी आधारों पर खारिज हो चुकी है और एक याचिका लंबित है.

पूर्व डॉन की बेटी विजयालक्ष्मी नादर ने भी लगातार इस मसले को सोशल मीडिया और अखबारों के जरिये उठाया है. एक बयान में उन्होंने बताया है कि इस बाबत फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी बात निर्देशक से हुई थी और रंजीत ने कहा था कि यह फिल्म नादर की कहानी नहीं है. एक अन्य साक्षात्कार में निर्देशक ने कहा है कि रजनीकांत का किरदार उनके दादा से प्रभावित है जो गांव में कुछ इसी रुतबे से रहा करते थे.

तमिलनाडु से पचास के दशक में मुंबई भागकर गये तिरावियम नादर ने धारावी के एक इलाके में शरण ली थी. अपने साहस के बूते वे वहां बहुत जल्दी गरीब तमिल समुदाय में लोकप्रिय हो गये और उनकी छवि एक संरक्षक की बन गयी. धीरे-धीरे वे चीनी-गुड़ के बड़े व्यवसायी बन गये जिसके कारण उन्हें ‘गुड़वाला सेठ’ की संज्ञा मिली. रूप-रंग के कारण उन्हें ‘काला सेठ’ भी कहा जाता था. हाजी मस्तान और वरदराजन मुदलियार जैसे किंवदंती बन चुके नादर ने धारावी की खाली पड़ी जमीनों पर कब्जा कर लोगों को बसाया तथा उनके रोजगार और शिक्षा के लिए काम किया. उनके द्वारा बनवाया गया कामराजार मेमोरियल स्कूल आज एक बड़ा संस्थान है.

फिल्म में काला के एक जीप पर बैठे दृश्य के सांकेतिक महत्व की चर्चा खूब हो रही है. उस जीप के नंबर में बीआर और 1956 है. इसे बाबासाहेब और 1956 में नागपुर में उनके धर्मांतरण से जोड़ कर देखा जा रहा है, पर विजयालक्ष्मी का कहना है कि यह वह साल है जब उनके पिता मुंबई आये थे. नाना पाटेकर के चरित्र को वे शिव सेना नेता बाल ठाकरे से जोड़ कर देखती हैं. यह उल्लेखनीय है कि बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों को मुंबई छोड़ देने की धमकी दी थी. उस वक्त बाल ठाकरे का नारा हुआ करता था- “उठाओ लुंगी, बजाओ पुंगी”. तब तमिलों के खिलाफ दंगे भी हुए थे. धारावी को इस धमकी से सुरक्षा नादर और मुदलियार ने दी थी.

यदि फिल्म नादर के जीवन पर आधारित है, तो दलित राजनीति को कथानक में डालने पर सवाल उठना स्वाभाविक है. हालांकि फिल्म में काला की जाति नहीं बतायी गयी है, पर दृश्यों से यह साफ इंगित होता है कि उसकी सामुदायिक पहचान क्या है. नादर या मुदलियार या हाजी मस्तान या करीम लाला जैसे डॉन शहरी गरीबों के नायक बनकर उभरे थे. जिन लोगों को इनका संरक्षण मिला, वे किसी भी जाति या धर्म के हो सकते थे. उस दौर में जो सहभागिता बनती थी, उसमें ये कारक अहम नहीं होते थे.

यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि तिरावियम नादर पक्के कांग्रेस समर्थक थे. इसका एक असर उनके बेटे-बेटी के नामकरण में देखा जा सकता है- जवाहर और विजयालक्ष्मी. उन्होंने अपने स्कूल का नाम भी कामराज पर रखा था. साल 1991 में जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई, तो उन्हें इस बात का बहुत आघात लगा था कि हत्या तमिलों ने किया.

निर्देशक रंजीत ने यह भी कहा है कि उन्हें पांच-छह लोगों ने कहा है कि यह फिल्म इस या उस व्यक्ति पर आधारित है. नादर के बारे में कोई खास जानकारी लिखित रूप में दर्ज नहीं की गयी है. उनकी कहानी के स्रोत उनके नजदीकी और धारावी के लोग हो सकते हैं. विजयालक्ष्मी नादर ने फिल्म और उनके पिता के जीवन की समानता पर विस्तार से लिखा है. उन्होंने कहा है कि उनके पिता को या तो नादर के रूप में दिखाना था, या फिर एक सेकुलर तमिल के रूप में. दलित पहलू डालना असली कहानी के साथ अन्याय है.

बकौल विजयालक्ष्मी, “रजनीकांत का चरित्र आज के धारावी में केंद्रित है, पर वह अक्सर ऐसी चीजें करता है, जो बहुत पीछे की बातें हैं और असली काला सेठ से प्रभावित हैं.” उन्होंने एक दृश्य का उदाहरण दिया है जिसमें रजनीकांत ने सफारी सूट पहना हुआ है. यह सवाल तो वाजिब ही है कि आज धारावी में कौन सफारी सूट पहनता है. शिक्षा पर जोर एक और पहलू है. नादर खुद कभी सांसद-विधायक इसीलिए नहीं बनना चाहते थे क्योंकि उनकी मान्यता थी कि राजनीति में पढ़े-लिखे लोगों को जाना चाहिए.

पुलिस द्वारा नादर पर कभी हाथ न डाल पाना भी इस फिल्म में देखा जा सकता है. दंगे भड़काने की कोशिशों के दृश्य के बारे में वे कहती हैं कि यह सब असली कहानी से अलग दिखाने की कोशिशें भर हैं. उन्होंने यह भी कहा है कि रंजीत अपने शुरुआती साक्षात्कारों में भी कह चुके हैं कि फिल्म मुंबई के एक तमिल डॉन की कहानी है, जो तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले से हैं.

जवाहर और विजयालक्ष्मी नादर तथा रंजीत के पक्ष सही या गलत हो सकते हैं, लेकिन अगर कहानी को हम सिर्फ एक रचना या कल्पनाशीलता का परिणाम मान लें, तो फिर हमें यह भी मानना होगा कि फिल्म दलित-बहुजन राजनीति की आड़ लेकर एक फंतासी ही बुनती है, जिसका उद्देश्य मनोरंजन करना भर है. इस लिहाज से काला ऐसी पहले बन चुकी फिल्मों की नकल भर ही रह जाती है, जिसमें दीवारों पर टंगे चित्र बदल गये हैं. नयी राजनीति और संस्कृति को अपनी दावेदारी करनी है, तो उसे अपने नायक भी खोजने और गढ़ने होंगे. दलित-बहुजन नायक-नायकियों की कमी नहीं है, ऐसे में किसी ‘दीवार’ या ‘नायकन’ की नकल करने की कोई जरूरत नहीं है.

क्या ‘काला’ किसी राजनीतिक प्लॉट का हिस्सा है?

रजनीकांत से अलग राजनीतिक विचारधारा रखने और साथ फिल्में बनाने से संबंधित एक साक्षात्कार में पा रंजीत ने कहा है कि रजनीकांत के लिए सिनेमा पूरी तरह से मनोरंजन और व्यवसाय है. उन्होंने यह भी बताया कि वरिष्ठ अभिनेता की सलाह है कि वे पहले कुछ और फिल्में बना लें, उसके बाद अपनी राजनीति को अभिव्यक्त करें. लेकिन ‘कबाली’ और ‘काला’ के बीच रजनीकांत के राजनीति में जाने के ऐलान तथा ‘काला’ के अभिनेता और रजनीकांत के दामाद धनुष द्वारा निर्मित होने के मामले के साथ अगर तमिलनाडु की रजनीति को देखें, तो फिल्म को देखने की एक खिड़की और खुलती है. खुद रजनीकांत कह चुके हैं कि सिर्फ स्टारडम, लोकप्रियता और संसाधनों से राजनीति में कामयाबी नहीं पायी जा सकती है.

जिस तमिलनाडु में सिनेमा का सियासत से बेहद करीबी रिश्ता रहा हो, वहां रजनीकांत कामयाबी के लिए अन्य जरूरी किन चीजों की ओर इशारा कर रहे हैं? सभी जानते हैं कि चो रामास्वामी और एस गुरुमूर्ति जैसे आरएसएस के करीबी लोगों से रजनीकांत की घनिष्ठता रही है. राजनीति में आने की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा था कि वे ‘आध्यात्मिक राजनीति’ करना चाहते हैं.

अभी कुछ दिन पहले वेदांता संयंत्र से फैलते प्रदूषण का विरोध कर रहे नागरिकों के पुलिस द्वारा मारे जाने के बाद उनका बयान आया कि असामाजिक तत्वों की वजह से यह घटना हुई. उनका पूरा बयान सरकार और पुलिस की हिमायत में था. रजनीकांत को कभी भी मोदी सरकार या हिंदुत्व की राजनीति के विरुद्ध बोलते नहीं सुना गया है. ऐसे में संभव है कि भविष्य में भाजपा और रजनीकांत मिलकर द्रविड़ राजनीति को चुनौती देने की कोशिश कर सकते हैं.

द्रमुक नेता करुणानिधि अब सक्रिय नहीं हैं और उनके परिवार में फूट है. जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक में भी गहरी दरारें पड़ चुकी हैं. ऐसे में एक करिश्माई व्यक्ति तीसरे विकल्प के रूप में अपनी जगह बना सकता है, परंतु इसके लिए उसे ऐसे राजनीतिक मुहावरों की अपनाना होगा जो भाजपा से अलग दिखने में उसकी मदद करे और वोट जुटाए. तनोज मेश्राम ने एक तार्किक लेख में इस तथ्य को रेखांकित किया है कि तमिलनाडु में दलित आबादी करीब बीस फीसदी है और इसमें अपनी मौजूदगी बनाने के लिए भाजपा देशभर में कोशिश कर रही है. उन्होंने तमिल दलितों में द्रविड़ पार्टियों से बढ़ती नाराजगी की ओर भी संकेत किया है. कुछ दलित ऐसे भी हैं, जो पेरियार के विचारों से सहमति नहीं रखते. बकौल मेश्राम, पा रंजीत भी ऐसे लोगों में से हैं. ‘कबाली’ में पेरियार की तस्वीर नहीं दिखाने के लिए रंजीत माफी भी मांग चुके हैं.

मेश्राम का एक मजबूत तर्क यह भी है कि रजनीकांत की फिल्में काफी समय से अच्छा कमाई नहीं कर पा रही हैं. ऐसे में एक नये तेवर में रंजीत द्वारा परदे पर लाना उन्हें जरूर भला लगा होगा, खासकर तब जब इससे उनको राजनीति में भी मदद मिलती हो. यह सवाल भी अहम है कि पहले कब रजनीकांत ने एक मुद्दे पर एक निर्देशक के साथ भारी बजट की फिल्में लगातार की हैं. खैर, यह तो वक्त ही बतायेगा कि जातिवाद के खिलाफ लड़ने की बात कर रहा युवा निर्देशक एक दक्षिणपंथी थकते स्टार को सियासत में खड़ा करने में योगदान दे रहा है या मामला बस मनोरंजन और व्यवसाय का है, जैसा कि रंजीत के रजनी सर मानते हैं.

बहरहाल, काला की कहानी में कई और बातें हैं जो समय के साथ ही सामने आएंगी.