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निरंजन टाकले: वह पत्रकार जिसने जज लोया की स्टोरी की थी

जज लोया की स्टोरी करने वाले पत्रकार निरंजन टाकले, चौथी कक्षा में वकील बनना चाहते थे.

ऐसा इसलिए क्योंकि 1971 में राज्य सरकार ने उनके परिवार की 16 एकड़ खेतिहर ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया था. इसका उनके परिवार को कोई मुआवजा नहीं मिला. परिवार के मुआवजे के इंतजार में, निरंजन का साइकिल खरीदने का सपना पूरा नहीं हो सका.

उन दिनों टाकले नाशिक, महाराष्ट्र के नगरपालिका स्कूल के छात्र थे और सुबह-सुबह अखबार बांटने का काम किया करते थे. उन दिनों की याद ताजा करते हुए टाकले कहते हैं, “मेरे पिता अख़बार और पत्रिकाओं का एक छोटा सा स्टॉल लगाते थे. हालांकि किसी को इसका सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ समझ नहीं आता था, लेकिन इसकी वजह से मैं अखबारों और पत्रिकाओं से जुड़ता गया. मैं लोगों को अखबार बांटा करता और उस दरम्यान मैं बस स्टैंड पर सबसे ताजा ख़बर चिल्लाया करता.”

इस कच्ची उम्र में टाकले ने सोचा भी नहीं था कि वो एक खोजी पत्रकार बनेंगे. ये छोड़िए उन्होंने तो यह भी नहीं सोचा था कि एक स्टोरी करने के बाद उन्हें महीनों बेरोजगार रहना पड़ेगा- या वह “पॉलिटिकल हॉट पोटैटो” हो जाएंगे, जैसा वह कहते हैं.

20 नवंबर, 2017 को 51 वर्षीय निरंजन टाकले ने कारवां पत्रिका के लिए स्टोरी की- “फेमिली ब्रेक्स इट्स साइंलेंस शॉकिंग डिटेल्स इमर्ज इन डेथ ऑफ जज प्रीसाइडिंग ओवर सोहराबुद्दीन ट्रायल.” यह स्टोरी सीबीआई के विशेष अदालत के जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत से संबंधित थी. वह सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे. टाकले ने अपनी स्टोरी में मौत से संबंधित जानकारियों के अंतरविरोधों पर सवाल उठाया. इस केस में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह मुख्य अभियुक्त थे.

अगले दिन टाकले ने इस मसले से जुड़ी दूसरी स्टोरी भी की. पहली स्टोरी जहां जज लोया की मौत के घटनाक्रम पर ध्यान दिलाती है वहीं दूसरी स्टोरी जज लोया के परिजनों के बयानों को विस्तृत तरीके से पेश करती है.

शुरुआत से चलते हैं

1985 में टाकले ने इंजीनियरिंग करने के लिए पुणे यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. “वो वक्त बहुत अलग था. राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. वह साइंस और टेक्नोलॉजी की बात करते थे. सैम पित्रोदा सेंटर फॉर डेवल्पमेंट ऑफ टेलिमैटिक्स, का नेतृत्व कर रहे थे, जो कि टेलीकॉम की दुनिया में क्रांति का प्रतीक था. सो उस वक्त सब इंजीनियर बनना चाहते थे. उसमें मैं भी फंस गया. 1980 के उत्तरार्ध में जीडीपी में वृद्धि हो रही थी. आठ प्रतिशत से ऊपर की वृद्धि थी. फिर भी बोफोर्स के कारण सरकार हार गई,” टाकले कहते हैं.

टाकले और मैं कॉन्सटिट्यूशन क्लब के बाहर, दिल्ली की गर्मी में पसीने से तरबतर हैं. वह दिल्ली में इंक्लूसिव इंडिया सिटिज़न कॉनक्लेव में भाग लेने आए थे. इस कार्यक्रम ‘साइलेंसिंग द मीडिया’ की अध्यक्षता द कारवां के पॉलिटिकल एडिटर हरतोष सिंह बल कर रहे थे.

टाकले अपनी यात्रा के बारे में बताते हैं कि वह पत्रकारिता में कैसे आए. “बड़ी रैलियों में, सारे बड़े नेता कहा करते थे कि जिनके स्विस बैंकों में अकाउंट हैं, उन्हें 15 दिन के भीतर पकड़ा जाएगा. उसी समय से मेरे दिमाग में यह विचार आने लगा कि यह सब प्रौपगैंडा है.” 1994 में टाकले ने नाशिक में अपनी एक कंपनी खोली. “यह एक अच्छा प्रयोग था. अर्थव्यवस्था अच्छी थी.”

“आर्थिक विकास के बावजूद सरकार हार गई थी. बाबरी मस्जिद और हर्षद मेहता स्कैम इसके अहम कारण थे,” टाकले ने कहा. “न्यूज़ चैनलों पर प्रोपगैंडा था. प्रोपगैंडा के जरिए समाज को धार्मिक आधार पर बांटने का काम हो रहा था. तो मुझे लगा जब सबकुछ प्रोपगैंडा से ही होना है और मीडिया को ही इसका नेतृत्व करना है तो क्यों न मीडिया का हिस्सा बनकर कुछ अच्छा काम किया जाए?”

ब्यूरो चीफ से बेरोजगारी तक

मैंने 2000 में वेध नाम का स्थानीय केबल चैनल शुरू किया, टाकले ने बताया. “2005 में मैंने सीएनएन-आईबीएन ज्वाइन किया. मुझे याद है पहले दिन ही मेरी स्टोरी लॉन्चिंग स्टोरी थी. वह सरकारी अस्पतालों से गर्भनाल (प्लेसेंटा) तस्करी से संबंधित थी.”

पहले कुछ महीनों तक टाकले स्ट्रिंगर थे लेकिन बाद में उन्हें संवाददाता की नौकरी दी गई. 2008 में वह नेटवर्क18 के महाराष्ट्र (उत्तरी) ब्यूरो चीफ बने. “लेकिन नाशिक से ज्यादातर खबरें प्याज़, अंगूर, कुंभ मेला और किसानों की आत्महत्या की होती थी,” टाकले ने जोड़ा. “मुझे लगने लगा मैं इन स्टोरी तक ही सीमित होता जा रहा हूं.”

फिर मैं द वीक के साथ काम करने बॉम्बे चला गया. “मैं वहां सात वर्षों तक रहा (2011-17). वहां बहुत सारी स्टोरी की, कृषि से लेकर कल्चर तक. हालांकि एक स्टोरी थी जिसे द वीक ने चलाने से मना कर दिया.” यह वही स्टोरी है जिसने उन्हें आठ महीनों से बेरोजगार बना दिया है.
द वीक से इस्तीफे के बारे में बताते हुए टाकले कहते हैं, “मैंने द वीक इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उन्होंने जज लोया की स्टोरी छापने से मना कर दिया.” बाद में यही स्टोरी द कारवां में छपी. “मेरे पास पोस्टमार्टम रिपोर्ट, फोरेंसिक एनालसिस, हिस्टोपैथोलॉजी रिपोर्ट, विसरा रिपोर्ट, अनुज लोया का पत्र, अनुराधा बियानी की डायरी के पन्ने- यानी सारे दस्तावेज थे जो बाद में कारवां में छपे,” टाकले ने कहा.

“जबतक वे छापने से आनाकानी कर रहे थे, वह उनकी इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी थी. लेकिन एक बार जब उन्होंने मना कर दिया, वह उनकी इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी नहीं रही. अब वह मेरी है.” इसलिए मैंने इस्तीफा दे दिया.

“वह मीडिया पर भरोसा नहीं करते”

टाकले को मालूम था यह बड़ी स्टोरी थी. उन्हें स्टोरी छपने के खतरे और चुनौतियों का अंदाजा था. इसके साथ ही उनको मालूम था कि जज लोया के परिजनों का बोलना जरूरी था.

इसी प्रयास में, वह अनुज लोया से मिलने गए जो उस वक्त अपने दादा के साथ पुणे में रह रहे थे.

बातचीत शुरू करने के लिए. मैंने उससे पूछा, “आजकल क्या कर रहे हो.” लेकिन उसके दादा ने जबाव दिया, “वह पढ़ रहा है.” मैंने फिर पूछा, “तुम क्या पढ़ रहे हो.” उसके दादा ने फिर जबाव दिया, “वह कानून की पढ़ाई कर रहा है.” टाकले को एहसास हुआ, यहां कुछ चल रहा है.

“मैंने उनसे (दादा) पूछा, अनुज जबाव क्यों नहीं दे रहा. जबाव में दादा ने कहा, वह किसी व्यक्ति पर भरोसा नहीं करता, दुनिया के किसी संस्थान पर नहीं- न न्यायिक व्यवस्था, न राजनीतिक व्यवस्था और न ही मीडिया पर,” टाकले ने कहा.

तब टाकले ने दादा ने पूछा कि अनुज के मीडिया के प्रति अविश्वास का कारण क्या है. “बृज की मौत के बाद, उसका भरोसा टूट गया है,” दादा ने कहा. इस बात ने टाकले को परेशान किया. “मैं यह सुनकर हैरत में था कि नौजवान ने अपना विश्वास खो दिया है. मैंने अपनी बेटी जो लगभग अनुज की ही उम्र की है, उसको फोन किया. उससे पूछा कि मैं उस लड़के का विश्वास कैसे वापस ला सकता हूं. और जो मेरी बेटी ने मुझे बताया, मैंने उसके अलावा ज्यादा कुछ नहीं सोचा. मैं मीडिया पर उसका भरोसा कायम करने की कोशिश कर सकता हूं.”

“ईमानदारी से कहूं तो जब द वीक ने स्टोरी छापने से मना कर दिया, यही मेरे इस्तीफे का कारण बना,” टाकले ने कहा. लेकिन स्टोरी छपने के बाद चीज़ें और भी जटिल होती चली गई.

27 नवंबर, 2017, द कारवां में स्टोरी छपने के एक सप्ताह बाद इंडियन एक्सप्रेस ने दो रिपोर्ट प्रकाशित की. इन दोनों रिपोर्टों के माध्यम से एक्सप्रेस ने कारवां की स्टोरी पर प्रश्न खड़े किए. “कारवां की रिपोर्ट के दावे सरकारी दस्तावेजों के सहित जमीन पर मौजूद साक्ष्यों से मेल नहीं खाते हैं.”

कारवां ने कहा कि वे अपनी सभी स्टोरी के साथ खड़े हैं. जज लोया मामले में स्वतंत्र जांच की मांग करने वाले पीटिशन के संबंध में कारवां के कार्यकारी संपादक विनोद जोश ने ट्वीट किया, कारवां पत्रिका अपने सभी 22 स्टोरी के साथ है. हरतोष सिंह बल ने कई अवसरों पर इंडियन एक्सप्रेस की स्टोरी को पत्रकारीय धत्कर्म की संज्ञा दी. 26 जनवरी को कारवां ने भी इंडियन एक्सप्रेस की स्टोरी पर सवाल करते हुए एक स्टोरी की.

बाद में इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी स्टोरी में एक अपडेट डाला-

ऐसी स्टोरी करने के खतरों के बारे में टाकले कहते हैं, “मैं अब एक पॉलिटिकल हॉट पोटैटो हूं. कोई मुझे छूना नहीं चाहता.” 2018 में एक बड़ी स्टोरी करने के बाद आठ महीने बीत चुके हैं और टाकले बेरोजगार हैं. वह बताते हैं कि उन्होंने कई संस्थानों से नौकरी के लिए संपर्क किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

संस्थानों की तरफ से टाकले को फ्रीलांस का न्यौता आया है लेकिन वह फुल टाइम नौकरी चाहते हैं.

इस बीच उनके दोस्तों ने सलाह दी है कि वह अपनी दिनचर्या में लगातार बदलाव करते रहें. घर हमेशा एक ही समय पर न छोड़े, किसी खास रेस्तरां या स्थान पर एक ही समय न जाएं. टाकले फेसबुक पर भी नफरत का शिकार हो चुके हैं. उन्होंने किसी को इसका जिम्मेदार नहीं बताया है लेकिन दक्षिणपंथी संगठनों ने स्वत: ही इसकी जिम्मेदारी ली है.

कारवां के साथ रिश्ता

टाकले की शुरुआती दो स्टोरी के बाद, कारवां ने लोया की मौत से संबंधित तकरीबन 20 स्टोरी की. कुछ में कारवां का बाईलाइन था और बाकी अतुल देव, अनोश मालेकर और निकिता सक्सेना सहित अन्य के हिस्से आया.

न्यूज़लॉन्ड्री ने हरतोष से समझना चाहा कि क्यों कारवां ने उस स्टोरी के लिए हामी भरी जिसे बाकी कइयों ने चलाने से मना कर दिया था.
हरतोष ने कहा, “यह सवाल नहीं है कि स्टोरी से किसे फायदा या नुकसान होगा. ये हमारे लिए गैरजरूरी सवाल है. हम किसी भी स्टोरी के संदर्भ में देखते हैं कि क्या वह अच्छी स्टोरी है या नहीं. अगर ठीक है तो हम छापेंगे.”

हरतोष कहते हैं, “ज्यादातर लोग इस तरह की स्टोरी नहीं करते क्योंकि वे यह देखकर सहम जाते है कि सत्ता में कौन है, कौन नहीं है. हमारे यहां यह कभी मायने नहीं रखता.”

बल ने कहा, “यह निरंजन की खूबी है कि वह स्टोरी के दौरान हमारे साथ मिलकर काम करते रहे. ऐसी स्टोरी करने के लिए बहुत हिम्मत की जरूरत होती है.” वह कहते हैं कि भारतीय पत्रकारिता में हिम्मत अब बहुत दुर्लभ है.

हरतोष ने टाकले के खोजी पत्रकार होने की दाद दी. “यह तथ्य कि वो अपनी स्टोरी के साथ खड़े रहे, फॉलोअप करते रहे और हमारे युवा रिपोर्टरों को सहयोग देते रहे- उन्होंने भी तीन से चार महीने मेहनत की, इसका मतलब है कि जो स्टोरी उन्होंने किया है, उसमें उनका यकीन है.”

इसके बावजूद टाकले के पास काम के अवसर नहीं हैं. “यह तथ्य कि उनके पास नौकरी नहीं है और वह परेशानियों का सामना कर रहे हैं, यही कारण है पत्रकार ऐसी स्टोरी नहीं करना चाहते,” बल कहते हैं. “सबलोग दूर से देखकर वाह-वाही करना चाहते हैं लेकिन कोई खुद से यह जोखिम नहीं लेना चाहता. यह साल की सबसे बड़ी स्टोरी है, यह मोदी कार्यकाल की सबसे बड़ी स्टोरी है,” बल कहते हैं.

क्या कारवां टाकले को नौकरी देगा? “हम सिर्फ निरंजन को नहीं उनकी तरह और भी वरिष्ठ पत्रकारों को नौकरी देना चाहते हैं जो तमाम तरह के विषयों को कवर करते हैं लेकिन अफसोस हमारे पास संसाधन नहीं हैं.” वो आगे कहते हैं, “हमें खुशी होगी अगर लोग हमारी पत्रकारिता को सहयोग दें. अगर हमारी पत्रिका की प्रसार संख्या ज्यादा होती तो सबसे पहले हम नौकरियां देते.”

जोखिम मोल लेते हुए टाकले द्वारा एक बड़ी स्टोरी करने के बावजूद वह अनिश्चितताओं में घिरे हैं. आज भी उनके कई पत्रकार मित्र उनसे बात नहीं करते. और दुर्भाग्यवश, वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के तहत हमारे स्वतंत्र पत्रकार नहीं आते हैं.