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अटलजी की स्मृति बाढ़ में प्रधान सेवकजी की समीक्षा

अटल बिहारी वाजपेयी के सम्मान में कल दिल्ली में सर्वदलीय श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया था जिसमें तमाम दलों के नेता और प्रतिनिधियों ने उन्हें याद किया. वक्ताओं ने उनके उस गुण की तारीफ की कि वे हमेशा कहते थे और बार-बार कहते थे कि मतभेद तो हो सकता है लेकिन राजनीति में मनभेद का कोई मतलब नहीं होता. इसलिए वाजपेयीजी मनभेद नहीं रखते थे, जिसे उन्होंने बार-बार साबित भी किया.

आज रविशंकर प्रसाद ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने बताया है कि वह वाजपेयीजी के कितने नजदीक थे और उनसे सुनकर और साथ रहकर कितना कुछ सीखा है. रविशंकर प्रसाद ने अपने लेख में कई ऐसी चीजों का उल्लेख किया है जो वाजपेयीजी के बारे में सर्वविदित है, और इसके बारे में बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है. रविशंकर प्रसाद ने वाजेपेयीजी के बहाने मोदीजी का कसीदा काढ़ते हुए कहा कि वाजपेयीजी- नेहरुजी, इंदिराजी और वर्तमान प्रधान सेवक मोदीजी के बाद चौथे ऐसे प्रधानमंत्री थे जिनकी इतनी अधिक लोकप्रियता थी और जो सीधे जनता से संवाद करते थे.

लेकिन मेरा सवाल यह नहीं है. मेरा सवाल यह है वाजपेयीजी की इतनी अधिक तारीफ, इतनी भूरी-भूरी प्रशंसा हो रही है कि पता ही नहीं चल रहा है कि वाजपेयीजी अपने जीवन के पिछले 14 वर्षों से अधिक समय से राजनीतिक अज्ञातवास में थे, भले ही खराब सेहत इसकी वजह रही हो. बावजूद इसके लोग उन्हें इतने आदर के साथ याद कर रहे हैं तो इसकी कुछ तो वजह होगी और उनके तमाम गुणों में से ऐसा कौन सा गुण है जो हमारे वर्तमान प्रधान सेवक में भी है?

वाजपेयीजी के बारे में कहा जाता है कि उनमें सहनशीलता बहुत थी, वे सबको साथ लेकर चलना जानते थे और चलते भी थे. क्या यही बात नरेंद्र मोदीजी के बारे में कही जा सकती है, जिनका नारा ही है- सबका साथ, सबका विकास?

वाजपेयीजी के बारे में यह भी कहा गया कि जब गुजरात में दंगे हो रहे थे तो उन्होंने मोदी जी को ‘राजधर्म’ का पालन करने का उपदेश दिया था. हांलाकि प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयीजी इस मोर्चे पर पूरी तरह असफल रहे थे. गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस समय ‘राजधर्म’ का पालन करने में असफल सिद्ध हुए. बतौर प्रधानमंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी को तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री के ऊपर इस असफलता के लिए कार्रवाई करनी चाहिए थी. लेकिन वाजपेयीजी प्रधानमंत्री की वह संवैधानिक भूमिका निभाने में असफल रहे.

फिर भी मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि उनमें वह क्षमता थी कि वह सब को मिलाकर चलें. शायद उनकी करनी और कथनी में इतना फर्क इसलिए भी दिख रहा है क्योंकि वह सबको (खासकर अपने पैतृक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस को मिलाकर चलने की कोशिश कुछ ज्यादा ही कर रहे थे). लेकिन जब राष्ट्रहित में कोई फैसला लेना होता है तो आपको मिले संवैधानिक पद के प्रति जवाबदेही सबसे ज्यादा होती है. दुखद यह है कि वाजपेयीजी संवैधानिक जिम्मेदारी उठाने में असफल रहे थे.

अब बात मोदीजी की जो खुद को प्रधानसेवक कहलाना पसंद करते हैं. क्या उनमें एक भी ऐसा गुण है जो वाजपेयी से मिलता- जुलता हो? देश में एक भी विरोधी दल का ऐसा नेता है जिनके साथ मोदीजी का मतभेद न हो या फिर जिनके साथ मोदीजी की गहरी छनती हो? कुछ के साथ तो उनके मतभेद, मनभेद के स्तर तक गहरे हैं. वह अपने विरोधियों को वैचारिक विरोधी नहीं बल्कि व्यक्तिगत विरोधी समझते हैं. वे यह स्वीकारने की स्थिति में ही नहीं हैं कि उनके अतिरिक्त भी लोगों का राजनीतिक अस्तित्व हो सकता है.

परेशानी इस बात से इतनी नहीं है कि वाजपेयीजी को एक ऐसी शख्सियत के रूप में पेश किया जा रहा है जैसे कि उनसे बड़ा नेता आज तक भारत के इतिहास में कोई नहीं हुआ! परेशानी इस बात को लेकर है कि सत्ता पक्ष के लोग किसी को ऊपर उठाने के लिए दूसरों को नीचा दिखाने की हद तक गिर जाते हैं. यह मौजूदा दौर की दुखद तस्वीर है कि इस निजाम के सारे मनसबदार यही कर रहे हैं.

खुदा न खास्ता, कुछ दिनों के बाद सत्ता परिवर्तन के बाद मोदीजी सत्ताच्युत हो जाते हैं और फिर उन्हें भी 14 वर्षों तक अज्ञातवास में रहना पड़ता है तो क्या आपको लगता है कि उनको वाजपेयीजी की तरह याद करने वाला कोई बचेगा? संभव है कि उनको याद करने वाले कुछ लोग हों. और शायद ऐसा होगा भी, क्योंकि यह राजनीतिक प्रोटोकॉल का मामला है और वह देश के प्रधानमंत्री रहे हैं तो कुछ न कुछ लोग तो उन्हें जरूर याद करेंगे. लेकिन जब लोग उन्हें सामूहिक रूप से याद करेंगे तो किस रूप में याद करेंगे- एक तानाशाह, एक अहमन्य, किसी की एक ना सुननेवाला, अपने दरबारियों से घिरा रहने वाला या कुछ और?

हां, उन्हें याद करने की एक और तरकीब हो सकती है. देश उन्हें एक ऐसे शख्स के रूप में हमेशा याद करेगा जिन्होंने देश की आर्थिक स्थिति को तहस-नहस कर दिया था. उनके कार्यकाल में देश में सड़कों पर हिंसा का नग्न नाच देखने को मिला. सत्ता प्रतिष्ठान ने हिंसा को जाति, धर्म और लिंग के आधार पर मौन बढ़ावा दिया. दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के ऊपर सबसे ज्यादा अत्याचार हुए. युवक और युवतियों को रोजगार के लिए तरसना पड़ा. शिक्षा के नाम पर सभी स्कूलों और विश्वविद्यालयों के आर्थिक स्रोत सुखा दिए गए. पत्रकारों का ‘राइट टू रिपोर्ट’ – लिखने की आजादी पर अड़ंगे लगाए गए. हांलाकि देश में कोई घोषित इमरजेंसी नहीं थी.

कुछ दिनों के बाद जब यह सब लिखा जाएगा तब भी वह अपने कुछ खासमखासों से घिरे होंगे जो उनकी वाह-वाही कर रहे होंगे. लेकिन यकीन मानिए, उस समय रविशंकर प्रसाद उनके आस-पास भी नहीं होंगे! क्योंकि रविशंकर प्रसाद वो नेता हैं जिन्हें आडवाणीजी ने पाला-पोसा था, राजनीति में बड़ा किया था. लेकिन आज आडवाणीजी के ‘सम्मान’ में जितनी बातें होती हैं, रविशंकर प्रसाद का उससे कुछ भी लेना देना नहीं होता है.

वक्त सबसे बेरहम होता है. वह सबका मूल्यांकन करता है और कभी-कभी तो बहुत ही क्रूरता के साथ करता है. आप यह बात आडवाणीजी के लिए कह सकते हैं और मोदीजी के लिए भी. आपको लग रहा होगा कि सब कुछ बाद में भी वैसा ही होगा जैसा मैं चाह रहा हूं. यह जरूरी नहीं है. परिस्थितियां मूल्यांकन के नए रास्ते खोज लेती हैं.

क्या कभी आपने सोचा है कांग्रेस पार्टी भी एक दौर में ऐसा ही सोचती होगी. ब्रिटिश हुकूमत का भी यही सोचना था. एक इतिहासकार ने लिखा था कि ब्रिटिश हुकुमत में सूरज डूबता ही नहीं था. और आज देख लीजिए, इंगलैंड का नाम अभी भी भले ही ‘ग्रेट ब्रिटेन’ हो लेकिन अगर आप अपने हाथ का अंगूठा विश्व मानचित्र के नक्शे पर रख देंगे तो उस देश का अस्तित्व मिट जाता है. इतना छोटा रह गया है अंग्रेजों का कभी अस्त न होनेवाला साम्राज्य!

भक्तों और कीर्तन मंडलियों के सदस्यगण- जब किसी का महिमामंडन किया जा रहा है तो इसका भी ध्यान रखिए कि जिनकी तारीफ हो रही है, जिनके कसीदे काढ़े जा रहे हैं, आप जिनके साथ खड़े हैं और जिनके कारण आप सबसे उलझे पड़े हैं, उस व्यक्ति में सब कुछ अच्छा नहीं है. आप जिनके साथ खड़े हैं और अपने विरोधियों को छोटा कर रहे हैं, वक्त उनका भी आकलन करेगा और निष्पक्षता के साथ करेगा.

(फेसबुक वॉल से साभार)